बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 11 पादपों में परिवहन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. परासरण किसे कहते हैं? परासरण क्रिया की चित्र द्वारा व्याख्या कीजिए। या चित्र की सहायता से अण्डे की झिल्ली द्वारा परासरण की परिघटना का प्रदर्शन कीजिए और परासरण की परिभाषा भी लिखिए।
उत्तर :
परासरण पौधे जन्तुओं से कोशिका भित्ति (cell wall) के आधार पर भिन्न होते हैं। कोशिका भित्ति पौधों में सबसे बाहरी तरफ पायी जाती है। यह एक पारगम्य परत होती है। अत: यह विभिन्न पदार्थों के परिवहन या गति के लिए बाधक नहीं होती है। एक पौधे की कोशिकाओं में प्राय: एक केन्द्रीय रसधानी (central vacuole) होती है, जिसका रसधानीयुक्त रस कोशिका के विलेय विभव में भागीदारी करता है। पादप कोशिका में कोशिका झिल्ली तथा रसधानी की झिल्ली, टोनोप्लास्ट, दोनों एक साथ कोशिका के भीतर एवं बाहर अणुओं की गति निर्धारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं। परासरण को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता हैवह क्रिया जिसमें विलायक के अणु अपनी अधिक सान्द्रता से कम सान्द्रता की ओर एक अर्द्धपारगम्य झिल्ली द्वारा तब तक गति करते रहते हैं जब तक कि सान्द्रता एकसमान न हो जाये, परासरण (osmosis) कहलाती है।
इसे हम निम्न प्रयोग द्वारा समझ सकते हैंशर्करा के विलयन को एक कीप में लिया गया है, जो एक बीकर में रखे गए जल से अर्द्धपारगम्य झिल्ली द्वारा अलग है। आप इस प्रकार की झिल्ली एक अंडे से प्राप्त कर सकते हैं। आप अंडे के एक सिरे पर छोटा सा छेद करके सारा पीला एवं श्वेत पदार्थ (योल्क एवं एल्यूमिन) निकाल लें और फिर अंडे के कवच को कुछ घण्टों के लिए तनु नमक के अम्ल (HCI) में छोड़ दें। अंडे का कवच घुल जायेगा और उसकी झिल्ली साबुत) प्राप्त हो जाएगी। जल कीप की ओर गति करेगा और कीप में घोल का स्तर बढ़ जाएगा। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहेगी जब तक कि साम्यावस्था की स्थिति नहीं आ जाती । कीप के ऊपरी भाग पर बाहरी दाब डाला जा सकता है ताकि झिल्ली के माध्यम से कीप में जल विसरित न हो। यह दाब जल को विसरित होने से रोकता है। विलेय सान्द्रता अधिक होने पर जल को विसरित होने से रोकने के लिए अधिक दाब की भी आवश्यकता होगी। संख्यात्मक आधार पर परासरण दाब परासरण विभव के बराबर होता है लेकिन इसका संकेत विपरीत होता है। परासरण दाब में प्रयुक्त दाब सकारात्मक होता है जबकि परासरण विभव नकारात्मक होता है।
प्रश्न 2. जड़ों द्वारा जल-अवशोषण क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए। या जल-अवशोषण क्रिया में ऑक्सीजन का क्या प्रभाव होता है?
उत्तर : जल-अवशोषण को प्रभावित करने वाले कारक जल-अवशोषण को निम्न कारक प्रभावित करते हैं
1. प्राप्य भूमि-जल (Available Soil Water) :
यद्यपि मृदा में विभिन्न प्रकार के जल की मात्रा पायी जाती है परन्तु केवल केशिका जल (capillary water) ही पौधों के लिए उपयोगी होता है। यह जल उस भूमि की क्षेत्रीय जल-धारिता (water at field capacity) तथा स्थाई म्लानि-प्रतिशत (permanent wilting percentage) के बीच की मात्रा होती है। यदि मृदा में जल की मात्रा स्थाई म्लानि-प्रतिर्शत या उससे कम हो जाती है तो पौधा मुरझा जाता है। यदि स्थाई म्लानि-प्रतिशत से क्षेत्रीय जल-धारिता तक जल की मात्रा (UPBoardSolutions.com) बढ़ाई जाए तो जल-अवशोषण बढ़ता जाएगा, परन्तु इससे अधिक जल की मात्रा होने से मृदा के अन्तराकोशिकीय स्थानों (intercellular spaces) से वायु निकल जाने से जल-अवशोषण कम हो जाता है। इस अवस्था को जलाक्रान्ति (water-logging) कहते हैं।
2. मृदा का तापमान (Temperature of Soil) :
जब मृदा का तापमान कम होता है तो जड़ों द्वारा जल-अवशोषण की क्रिया की दर कम हो जाती है। अधिकतर पौधों को पर्याप्त जल-अवशोषण के लिए 20° से 35°C तापमान की आवश्यकता होती है। कम तापमान के कारण जल-अवशोषण में निम्न कारणों से कमी हो जाती है
मूल-वृद्धि कम हो जाती है।
मृदा से मूल की ओर जल की गति धीमी (slow) हो जाती है।
कोशिका कला की पारगम्यता (permeability of cell membrane) कम हो जाती है।
कोशिकाद्रव्य का आलगत्व (viscosity) बढ़ जाता है।
3. मृदा विलयन की सान्द्रता (Concentration of Soil Solution) :
यदि मृदा विलयन की सान्द्रता (परासरण दाब भी) मूलरोम के रिक्तिका-रस की सान्द्रता (परासरण दाब भी) की तुलना में कम होगी तो उन जड़ों द्वारा जल का अवशोषण सुगम होगा, यदि मृदा विलयन की सान्द्रता अधिक होगी तो जड़ों द्वारा जल-अवशोषण कठिन होगा। दूसरी अवस्था में मृदा दैहिक रूप से शुष्क (physiologically dry) हो जाती है। कभी-कभी खेती में उर्वरकों (fertilizers) का प्रयोग करने पर यदि शीघ्र ही काफी जल से खेतों की सिंचाई नहीं होती तो मृदा में लवणों की सान्द्रता अधिक हो जाने के कारण पौधे मुरझा जाते हैं। यह म्लानि के कारण होता है।
4. मृदा की वायु (Soil Air) :
अच्छे वातन वाली (well aerated) मृदा से जल का अवशोषण अधिक होता है तथा जलाक्रान्ति मृदा (water logged soil) से जल का अवशोषण कम होता है। इसका कारण यह है कि जल-अवशोषण क्रिया एक भौतिक प्रक्रम (physical process) नहीं है
वरन यह एक जैविक क्रिया (vital activity) है जिसके लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। जड़ों की कोशिकाओं को जीवित रखने के लिए श्वसन की आवश्यकता होती है जो ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में नहीं होगा। साथ ही ऑक्सीजन की कमी में अनॉक्सीय जीवाणु (anaerobic bacteria) उत्पन्न हो जाते हैं। ये जीवाणु कार्बन डाइऑक्साइड एवं कार्बनिक अम्ल अधिक मात्रा में उत्पन्न करते हैं जो जड़ों के लिए घातक होते हैं।
प्रश्न 3. मूल-दाब से आप क्या समझेंते है? एक प्रयोग की सहायता से मूल दाब को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : मूल-दाब
मूल-दाब मूल वल्कुट (root cortex) कोशिकाओं की स्फीति दशा में अपने कोशिकाद्रव्य पर पड़ने वाली वह दाब है जिसके फलस्वरूप उसमें उपस्थित द्रव, जाइलम वाहिकाओं में प्रवेश करके तने में कुछ ऊँचाई तक ऊपर चढ़ता है। मूल-दाब शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम स्टीफन हैल्स (Stephan Hales) ने सन् 1727 में किया। स्टॉकिंग (Stocking 1956) के अनुसार, “मूल की वाहिकाओं में उत्पन्न दाब जो जड़ की उपापचयी क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होता है, मूल-दाब (UPBoardSolutions.com) कहलाता है।” मूलरोमों द्वारा मृदा से अवशोषित जल वल्कुट (cortex) की ऊतियों में इकट्ठा होता रहता है जिसके फलस्वरूप वल्कुट (cortex) की कोशिकाएँ पूर्ण स्फीति दशा (turgidity condition) में हो जाती हैं। इन कोशिकाओं की भित्ति लचीली होने के कारण यह कोशिकाओं में भरे द्रव पर दबाव डालती हैं। जिसके फलस्वरूप द्रव का कुछ भाग जाइलम वाहिकाओं में चला जाता है तथा यह तने में कुछ ऊँचाई तक ऊपर चला जाता है। इस प्रकार मूल-दाब रसारोहण में सहायता करता है।
प्रयोग
किसी पर्याप्त जलवातीय भूमि में उगे पौधे के तने को भूमि से कुछ इंच ऊपर से काट दिया जाता है। तने के कटे सिरे पर रबर की नली की सहायता से काँच की एक नली बाँधकर उसमें थोड़ा जल भर दिया जाता है। अब काँच की नली के दूसरे सिरे पर रबर की सहायता से एक U के आकार की (U-shaped) ट्यूब में कुछ पारा भरकर मेनोमीटर लगाकर बाँध दिया जाता है। कुछ समय पश्चात् देखने से ज्ञात होता है कि मेनोमीटर की नली में पारा ऊपर चढ़ गया है और काँच की नली में भी जल पहले से अधिक है। इससे स्पष्ट होता है कि काँच की नली में तने के कटे सिरे से जल निकाय इकट्ठा हो गया है जिससे पारे पर दबाव पड़ने के कारण यह मेनोमीटर में ऊपर चढ़ जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि मूल-दाब के कारण जल तने में ऊपर चढ़ता है। चित्र-मूल-दाब को प्रदर्शित करने का उपकरण
प्रश्न 4 बिन्दुस्रवण पर टिप्पणी लिखिए। या बिन्दुस्रवण क्या है? टमाटर अथवा प्रीमूला पत्ती के सिरे पर स्थित जल स्रावण ग्रन्थि की अनुदैर्घ्य काट का चित्र बनाकर इसे समझाइए।
उत्तर : जब मृदा में अवशोषण योग्य जल की पर्याप्त मात्रा हो, परन्तु वाष्पोत्सर्जन न हो सकता हो तब धनात्मक मूलदाब के कारण जल (वास्तव में घोल) का बिन्दुओं के रूप में पत्तियों के किनारों
जलरन्ध्र के मार्ग में स्रावण, बिन्दुस्रवण कहलौता है। यह क्रिया साधारणतया रात्रि में होती है। यदि पौधे नम व गर्म वातावरण, अर्थात् आर्द्र दशाओं में उगे हों तो यह क्रिया दिन के समय में भी होती है।
प्रश्न 5. वाष्पोत्सर्जन की परिभाषा लिखिए। यह पौधों के लिए क्यों आवश्यक है? समझाइए।
उत्तर : वाष्पोत्सर्जन
वाष्पोत्सर्जन (transpiration) वह क्रिया है जिसमें जीवित पौधे, अपने वायवीय भागों; जैसे-पत्तियों, हरे प्ररोह आदि के द्वारा आन्तरिक ऊतकों से, अतिरिक्त पानी को वाष्प के रूप में बाहर निकालते हैं। पौधे अपनी जड़ों द्वारा जितना पानी पृथ्वी से अवशोषित करते हैं, उसकी सम्पूर्ण मात्रा उपापचयी। क्रियाओं (metabolic activities) में काम नहीं आती। इसका अत्यधिक अंश पौधे के लिए बेकार होता है। कभी-कभी तो अवशोषित जल का 5% से भी कम भाग (UPBoardSolutions.com) ही पौधे के लिए उपयोगी होता है। और शेष जल (95% से भी अधिक भाग) पौधे से विभिन्न रूपों में वातावरण में उत्सर्जित किया जाता है। अन्य क्रियाओं की अपेक्षा यह पानी सदैव ही (रात-दिन) किसी-न-किसी दर से वाष्पोत्सर्जन की क्रिया द्वारा पौधों की वायवीय सतहों से वाष्प बनकर उड़ता रहता है। वाष्पोत्सर्जन (transpiration) की यह क्रिया एक भौतिक क्रिया (physical process) होने के साथ-साथ किसी सीमा तक एक जैविक क्रिया (vital activity) है तथा जीवद्रव्य के द्वारा नियन्त्रित रहती है।
वाष्पोत्सर्जन पौधों के लिए आवश्यक है।
वाष्पोत्सर्जन को आवश्यक बुराई (necessary evil) कहा गया है, क्योंकि यह एक ओर पौधे के जल को कम करने की बुराई है तो दूसरी ओर इसके द्वारा उत्पन्न अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं के चलते ही पौधे में अधिक जल, खनिज लवण इत्यादि ग्रहण करने की क्षमता आती है। विशेष शुष्क स्थानों (xeric conditions) में तो इसे रोकने के लिए अनेक प्रकार के उपाय पौधे द्वारा किये जाते हैं फिर भी वाष्पोत्सर्जन पौधे के लिए अत्यन्त उपयोगी है। निम्नलिखित प्रक्रियायें महत्त्वपूर्ण हैं
1. अतिरिक्त जल का निस्तारण :
पौधे भूमि से लगातार अपने मूलरोमों द्वारा परासरण व अन्त:शोषण (osmosis and imbibition) के द्वारा पानी का अवशोषण करते हैं। शरीर में आवश्यकता की अपेक्षा यह पानी कई गुना अधिक होता है अतः वाष्पोत्सर्जन द्वारा अनावश्यक तथा अतिरिक्त जल (excess water) पौधों के शरीर से बाहर निकलता रहता है।
2. खनिज लवणों की प्राप्ति :
वाष्पोत्सर्जन तथा जल के अवशोषण (absorption) में एक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। पौधे द्वारा जितना अधिक वाष्पोत्सर्जन होता है उतना ही अधिक भूमि से जल का अवशोषण होता है। मृदा जल में खनिज लवणों की मात्रा बहुत ही कम होती है अतः पौधों के द्वारा जितना अधिक जल का अवशोषण होता है उतने ही अधिक खनिज लवण (mineral salts) इसमें घुलकर पौधे के शरीर में पहुँचते रहते हैं। अधिक वाष्पोत्सर्जन से रिक्तिका रस में परासरण दाब बढ़ जाता है, इस प्रकार और अधिक लवण पादप शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।
3. वाष्पोत्सर्जन, कर्षण तथा रसारोहण :
वाष्पोत्सर्जन के द्वारा चूषण बल (suction pressure) उत्पन्न होता है जो रसारोहण (ascent of sap) के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इससे जल बड़े-बड़े वृक्षों में भी उनकी अत्यधिक ऊँचाई तक पहुँच जाता है।
4. ताप का नियमन :
वाष्पोत्सर्जन के कारण ही पौधे झुलसने से बच जाते हैं, क्योंकि जल की वाष्प बनने के कारण ठण्डक पैदा होती है, इस प्रकार गुप्त ऊष्मा के वाष्प में चले जाने के कारण उसका उपयोग पौधा ताप से बचने में करता है।
5. जल का समान वितरण :
वाष्पोत्सर्जन द्वारा पौधों के सभी भागों में पानी का वितरण (distribution) समान रूप से हो जाता है।
6. फलों में शर्करा की सान्द्रता :
अर्धिक वाष्पोत्सर्जन के कारण फलों में शर्करा की सान्द्रता बढ़ जाती है जिससे फल अधिक मीठे हो जाते हैं।
7. यान्त्रिक ऊतकों व आवरण का निर्माण :
अधिक वाष्पोत्सर्जन से पौधों में अधिक यान्त्रिक ऊतकों की वृद्धि होती है जिसके कारण पौधे मजबूत होते हैं। ये ऊतक पौधे की जीवाप्नुओं, कवकों आदि से रक्षा भी करते हैं, विशेषकर बाहरी भागों पर बने उपचर्म (cuticle) आदि के आवरण से।
प्रश्न 6 रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन किसे कहते हैं? इसका क्या महत्व है।
उत्तर : रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Stomatal Transpiration) :
पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे छिद्र होते हैं, जिनको रन्ध्र (स्टोमेटा) कहते हैं। इन्हीं रन्ध्रों से वाष्प विसरित (diffuse) होकर वातावरण में चली जाती है। इस प्रकार के वाष्पोत्सर्जन को रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन (stomatal transpiration) कहते हैं। कभी-कभी रन्ध्र (stomata) पत्ती की (UPBoardSolutions.com) ऊपरी सतह पर भी पाए जाते हैं। लगभग 80-90% वाष्पोत्सर्जन रन्ध्रों (stomata) के द्वारा होता है। रन्ध्रीय वाष्पोत्सर्जन के फलस्वरूप पौधों में निम्न कार्य सम्पन्न होते हैं, जिसके कारण इसका बहुत महत्त्व है
1. जल का परिसंचरण (Circulation of Water) :
पौधे के मूल से चोटी तक लगातार जल की धारा वाष्पोत्सर्जन के द्वारा ही प्रवाहित होती है, परन्तु यह धारणा ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि यदि वाष्पोत्सर्जन द्वारा जल की हानि नहीं होती तो जल के अधिक मात्रा में ऊपर चढ़ने की भी आवश्यकता नहीं होती।
2. खनिज तत्वों का अवशोषण तथा परिवहन (Absorption and Transportation of Mineral Elements) :
कुछ लोगों का मत है कि वाष्पोत्सर्जन खनिज अवशोषण एवं परिवहन में सहायता करता है, परन्तु यह सिद्ध किया जा चुका है कि जल अवशोषण एवं खनिज अवशोषण एक-दूसरे से भिन्न क्रियाएँ हैं। खनिज परिवहन में वाष्पोत्सर्जन अवश्य सहायता करता है।
3. तापक्रम-सन्तुलन (Regulation to Temperature) :
पत्तियों पर पड़ने वाले प्रकाश का केवल 12% भाग परावर्तित होकर वातावरण में जाता है। 83% प्रकाश पत्ती द्वारा शोषित किया जाता है तथा 5% प्रकाश पत्ती में से होता हुआ पार निकल जाता है। वाष्पोत्सर्जन में यह ऊर्जा काम में आ जाती है। इस प्रकार वाष्पोत्सर्जन तापक्रम-सन्तुलन बनाए रखने में पौधों की सहायता करता है, परन्तु वाष्पोत्सर्जन का पत्तियों का तापक्रम कम करने में अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि पत्ती का वाष्पोत्सर्जन रोकने पर अधिक-से-अधिक 5°C तक तापमान बढ़ता है जो विशेष हानिकारक नहीं है।
प्रश्न 7. टिप्पणी लिखिए-जलरंध्र
उत्तर : ये विशेष संरचनाएँ प्रमुख रूप से जल में उगने वाले पौधों या नमीदार स्थानों में उगने वाले शाकों (herbs) में होती हैं। ये पत्तियों के सिरों पर होती हैं। इनमें अनेक जीवित कोशिकाएँ समूह के रूप में होती हैं जिनमें बीच-बीच में जल से भरे बहुत से अन्तराकोशिकीय स्थान (intercellular spaces) होते हैं। इन जीवित कोशिकाओं को एपीथेम कोशिकाएँ (epithem cells) कहते हैं। ये कोशिकाएँ एक या दो गुहिकाओं (chambers) में खुलती हैं और ये गुहिकाएँ बाहर की ओर छोटे छिद्रों द्वारा खुलती हैं। इन छिद्रों को जलरन्ध्र (hydathode or water pores) कहते हैं। जलरन्ध्र (hydathode) द्वारा जल बूंद के रूप में बाहर निकलता है। जल के साथ कुछ उत्सर्जी पदार्थ भी निकलते है।
प्रश्न 8. पौधों की जड़ों द्वारा जल अवशोषण की क्रिया-विधि का सचित्र वर्णन कीजिए। या पौधों में परासरण द्वारा जल अवशोषण की क्रिया-विधि का सचित्र वर्णन कीजिए। या जड़ों द्वारा जल के अवशोषण की क्रिया-विधि का सचित्र वर्णन कीजिए। या सक्रिय अवशोषण का वर्णन कीजिए। या मूलरोमों द्वारा जल अवशोषण की क्रिया-विधि का चित्र की सहायता से वर्णन कीजिए।
उत्तर :
जडों द्वारा भूमि से जल का अवशोषण जल तथा खनिज लवणों को भूमि से अवशोषित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य जड़े करती हैं। मूलरोम तथा बाह्यत्वचा की अन्य कोशिकायें जल का अवशोषण करके वल्कुट (cortex) की कोशिकाओं को दे देती हैं। जल के अवशोषण का प्रमुख कार्य सर्वाधिक तथा काफी बड़े पैमाने पर जड़ के मूलरोम प्रदेश (root hair region) में होता है, क्योंकि मूलरोम बाह्य त्वचा का सम्पर्क तल भूमि के जल के साथ हजारों गुना बढ़ा देते हैं। यह जल अन्तिम रूप से जड़ में स्थित जाइलम वाहिनियों में पहुँचता है।
अवशोषण की क्रिया विधि
मूलरोम बाह्यत्वचा की किसी भी कोशिका की कोशिका भित्ति जोकि सेलुलोस की बनी होती है, जल के लिए पूर्णतः पारगम्य होती है। कोशिका का जीवद्रव्य (protoplasm) तथा कोशिका कला (plasmalemma) मिलकर एक वरणात्मक पारगम्य कला (selectively permeable membrane) की तरह कार्य करते हैं। मूलरोम तथा बाह्यत्वचा की अन्य कोशिकाएँ भी भूमि में मृदा कणों के मध्य उपस्थित जल विशेषकर केशिकीय जल (capillary water) के साथ सम्पर्क बनाती हैं। मूलरोम के अन्दर उपस्थित केन्द्रीय रिक्तिका (central vacuole) में अनेक पदार्थों का विलयन अर्थात् कोशिका का रिक्तिका रस या कोशिका रस (cell sap) होता है। जल अवशोषण की निम्नलिखित दो प्रकार की विधियाँ होती हैं
1. जल अवशोषण की परासरणी विधि
कोशिका रस का परासरण दाब (osrmotic pressure) मृदा जल से अधिक लगभग 2 atm रहता है। इस प्रकार, केशिका जल अपने अन्दर अल्प मात्रा में घुले खनिज लवणों के साथ रिक्तिका रस और केशिका जल के मध्य उपस्थित जीवद्रव्यरूपी वरणात्मक पारगम्य कला में होकर रिक्तिका रस में परासरित हो जाता है। यद्यपि, प्रारम्भिक अवस्थाओं में तो पेक्टिन तथा सेलुलोस जैसे पदार्थों से बनी कोशिका भित्ति में यह जल अन्तःचूषित (imbibe) ही होता है। अतः स्पष्ट है कि जब तक बाह्य त्वचा की कोशिका अथवा मूलरोमों में विसरण दाब की कमी (DPD) बनी रहेगी, मृदा जल परासरण के द्वारा कोशिकाओं में प्रवेश करता रहेगा।
2. जल अवशोषण की परासरण विहीन विधि
परासरण की सामान्य क्रिया द्वारा जल के अवशोषण के अतिरिक्त जल के अवशोषण की अन्य अवस्थाओं में अन्य क्रिया-विधियाँ भी होती हैं; जैसे
(i) ऊर्जा की उपस्थिति में सक्रिय अवशोषण (active absorption) की क्रिया तथा
(ii) लगभग यान्त्रिक विधि द्वारा निष्क्रिय अवशोषण (passive absorption)।
(i) जल का सक्रिय अवशोषण (Active Absorption of Water)
एक जीवित कोशिका में ऊर्जा की उपस्थिति में जल के सक्रिय अवशोषण की क्रिया अनेक प्रमाण देकर स्पष्ट रूप से समझायी गयी है। जड़ों में इस प्रकार का अवशोषण परासरण दाब के विपरीत भी होता है। इस कार्य के लिए ऊर्जा जड़ की जीवित कोशिकाओं में हो रही श्वसन क्रिया से प्राप्त होती है। इसी कारण श्वसन को कम करने वाले सभी कारक, ऑक्सीजन की कमी, कम ताप आदि अवशोषण को भी कम कर देते हैं। इसी प्रकार, विभिन्न पदार्थ, ऊर्जाएँ अथवा परिस्थितियाँ आदि जो उपापचयी क्रियाओं को बढ़ाते हैं, अवशोषण को भी बढ़ाने का कार्य करते हैं जबकि इन क्रियाओं को कम करने वाली परिस्थितियाँ, पदार्थ, ऊर्जा आदि; जैसे विष, कम ताप आदि अवशोषण को कम कर देती हैं।
(ii) जल का निष्क्रिय अवशोषण (Passive Absorption of Water)
जब मृदा में प्राप्य जल की मात्रा की कोई कमी न हो तथा अधिक वाष्पोत्सर्जन हो रहा हो तो एक प्रकार का यान्त्रिक अवशोषण होता है, इसे निष्क्रिय अवशोषण (passive absorption) कहते हैं। अधिक वाष्पोत्सर्जन होने पर तथा जाइलम वाहिकाओं में, जल की कमी होने पर उनके आस-पास उपस्थित मृदूतकीय कोशिकाओं से जल की आपूर्ति हो जाती है। इस प्रकार, यह जल क्रमशः परिरम्भ, अन्तस्त्वचा तथा कॉर्टेक्स की कोशिकाओं से अवशोषित किया जाता है और अन्त में इस जल की कमी को मूलरोम या बाह्यत्वचा की कोशिकायें पूरा कर देती हैं। स्पष्ट है, जल के इस प्रकार के अवशोषण के लिए ऊर्जा अथवा परासरण दाब की भी आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में, यह पौधे में उत्पन्न वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (transpiration pull) के द्वारा ही होता रहता है। अतः यह अवशोषण कोशिकाओं के द्वारा किसी क्रिया विशेष के द्वारा नहीं बल्कि कोशिकाओं में होकर होता है।
जड़ में जल को पाश्र्व चालन
भूमि से मूलरोम को सतत् जल मिलता रहता है क्योंकि केशिका जल (capillary water) दूर-दूर से भी यहाँ पहुँचता रहता है।
मूलरोम या बाह्य त्वचा के तुरन्त सम्पर्क में अन्दर कॉर्टेक्स (cortex) की मृदूतकीय कोशिकायें (parenchymatous cells) होती हैं। चित्र में A तथा B कोशिकाओं के कोशिका रस की जल की माँग में अन्तर है। B कोशिका की जल की माँग (DPD) निश्चित रूप से अधिक होगी। अतः जल का परासरण A से B में हो जाता है। अब अगली कोशिका C में पहले अगर B तथा C की DPD एक जैसी थी तो भी अब C की अपेक्षाकृत अधिक होगी। अतः जल B से C में, इसी प्रकार (UPBoardSolutions.com) C से D में इत्यादि जाता रहेगा। परासरण के द्वारा जल, इस प्रकार, मृदा विलयन से मूलरोम में तथा यहाँ से कॉर्टेक्स की कोशिकाओं में, क्रमशः होता हुआ अन्तस्त्वचा (endodermis), परिरम्भ (pericycle) की कोशिका के द्वारा जाइलम वाहिकाओं (xylem vessels) में पहुँचता है। स्पष्ट है जल के
अनुप्रस्थ चालन की इस विधि में जल रिक्तिकाओं से होकर जाता है। विसरण दाब की कमी इस प्रकार बाहरी कोशिकाओं से भीतरी कोशिकाओं में अधिक होना और क्रमानुसार बदलते रहना विसरण दाब की प्रवणता (gradient of diffusion pressure deficit) कहलाता है।
इस आधार पर जल का मूल में पार्श्व चालन (lateral movement) रिक्तिकीय पथ द्वारा चालन (movement through vacuolar pathway) कहलाता है तथा सर्वमान्य है फिर भी वर्तमान में यह भी माना जाने लगा है क्रि
जल का विसरण मूलरोम से कॉर्टेक्स की कोशिकाओं में होकर जाइलम वाहिकाओं तक आपस में सम्बन्धित जीवद्रव्यी तन्तुओं (plasmodesmata) के द्वारा ही हो जाता है। इस प्रकार जल का निरन्तर पार्श्व प्रवाह जीवद्रव्यी पथ (symplast pathway) से होकर होता रहता है और रिक्तिकाओं या उनके सेल सैप की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
जल के पार्श्व चालन के लिए विभिन्न कोशिकाओं की कोशिका भित्ति (cell wall) को एक स्वतन्त्र तन्त्र के रूप में माना जाने लगा है अर्थात् कोशिका भित्तीय पथ (apoplast pathway) से होकर जल के इस प्रकार निरन्तर प्रवाह में कोशिका के जीवद्रव्य अथवा उसमें उपस्थित रिक्तिकी की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है।
प्रश्न 9. स्टोमेटा के खुलने तथा बन्द होने की कार्य-विधि का संक्षेप में सचित्र वर्णन कीजिए। या रन्ध्रों के खुलने एवं बन्द होने में पौटेशियम आयन का कार्य लिखिए।
उत्तर :
पर्णरन्ध्र के खुलने तथा बन्द होने की क्रिया-विधि
पर्णरन्ध्र का निर्माण दो विशेष आकार-प्रकार की द्वार कोशिकाओं (guard cells) के द्वारा होता है। इन्हीं कोशिकाओं की स्फीति के कारण आकार में परिवर्तन पर रन्ध्र का छोटा या बड़ा होना निर्भर करता है। जब ये कोशिकायें स्फीत (turgid) होती हैं तो रन्ध्र खुला रहता है और जब श्लथ (flaccid) होती हैं तो रन्ध्र बन्द हो जाता है। द्वार कोशिकाओं की स्फीति (turgidity) में परिवर्तन उनके परासरण दाब (osmotic pressure) में परिवर्तन पर निर्भर करता है। परासरण दाब बढ़ने पर आस-पास की सहायक कोशिकाओं (subsidiary cells) से परासरण की क्रिया के द्वारा पानी आ जाता है और द्वार कोशिकायें स्फीत हो जाती हैं। अत: भीतरी मोटी (UPBoardSolutions.com) भित्ति, बाहरी भित्ति के बाहर की ओर फूलने के कारण, द्वार कोशिका के अन्दर ही घुस जाती है, फलतः रन्ध्र खुल जाता है। परासरण दाब घटने पर द्वार कोशिकाओं से जल पड़ोसी कोशिकाओं में चले जाने के कारण ये श्लथ हो जाती हैं और रन्ध्र बन्द हो जाते हैं। परासरण दाब में परिवर्तन का प्रश्न कार्यिकीविदों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाया है
1. मण्ड-शर्करा परिवर्तन मत
दिन के समय जब सम्पूर्ण CO2 कोशिका में प्रकाश संश्लेषण में समाप्त हो जाती है तो माध्यम क्षारीय हो जाता है अर्थात् pH बढ़ जाता है और संचित मण्ड (starch) ग्लूकोज (glucose) में बदल जाता है। इस प्रकार, इन कोशिकाओं का रिक्तिका रस (cell sap) अधिक गाढ़ा हो जाता है अर्थात् कोशिकाओं का परासरण दाब बढ़ जाता है। अब पास की सहायक कोशिकाओं (subsidiary cells) द्वारा जल कोशिकाओं में आता है जिससे द्वार कोशिकाएँ स्फीत (turgid) हो जाती हैं और रन्ध्र खुले (open) जाते हैं। रात्रि के समय जब कोशिकाओं में प्रकाश संश्लेषण बन्द हो जाता है और CO2 की मात्रा बढ़ने के कारण माध्यम अम्लीय (कम pH) हो जाता है तब कोशिकाओं में उपस्थित शर्कराएँ मण्ड में बदल जाती हैं। इन कोशिकाओं से पानी वापस पास वाली कोशिकाओं में चले जाने के कारण ये कोशिकायें शिथिल हो जाती हैं। उपर्युक्त विवरण सैयरे (Sayre J. D., 1926) के मतानुसार है, जबकि यिन तथा तुंग (Yin and Tung, 1948) ने द्वार कोशिकाओं के क्लोरोप्लास्ट्स में फॉस्फोराइलेज (phosphorylase) एन्जाइम की उपस्थिति को स्पष्ट किया जो कि अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करता है।
उपर्युक्त समीकरण में एन्जाइम की उपस्थिति में मण्ड का अकार्बनिक फॉस्फेट (iP) के साथ ग्लूकोज फॉस्फेट बनना प्रदर्शित किया गया है। इसमें pH की दशा विशेष परिस्थिति है, जिसके कम होने से मण्ड का निर्माण हो जाता है।
यद्यपि कुछ वैज्ञानिक स्टार्च ⇌ शर्करा परिवर्तन की विचारधारा को सही नहीं मानते, फिर भी यह मत तो लगभग सर्वमान्य है कि pH के परिवर्तन के अनुसार तथा परासरण दाब के आधार पर ही पर्णरन्ध्र (stomata) खुलते या बन्द होते हैं। स्टेवार्ड (Steward, 1964) के मतानुसार जब तक ग्लूकोज 6-फॉस्फेट, ग्लूकोज तथा अकार्बनिक फॉस्फेट में परिवर्तित नहीं हो जाता तब तक द्वार कोशिकाओं के परासरण दाब पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। रन्ध्र के बन्द होने (UPBoardSolutions.com) के लिए ऊर्जा ATP से ली जाती है। अतः इस क्रिया के लिए श्वसन भी आवश्यक है, जिसमें कि ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।
2. लेविट का सक्रिय K’ स्थानान्तरण मत
लेविट के अनुसार प्रकाश में द्वार कोशिकाओं में मैलिक अम्ल (malic acid) बनता है जो मैलेट व H+ में वियोजित हो जाता है। H+ बाहर जाते हैं और K+ अन्दर आकर पोटैशियम मैलेट का निर्माण करता है। इसकी उपस्थिति में द्वार कोशिकाओं के परासरण दाब में वृद्धि होने से रन्ध्र (stomata) खुल जाता है।
प्रश्न 10. डिक्सन तथा जौली वाद के अनुसार पौधों में रसारोहण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। या रसारोहण क्या है ? इसकी क्रिया-विधि को वर्णन कीजिए।
उत्तर :
रसारोहण पौधों में गुरुत्वाकर्षण के विपरीत जल (तथा उसमें घुले खनिज लवणों) के ऊपर की ओर चढ़ने की। क्रिया को रसारोहण (ascent of sap) कहते हैं। जल तथा उसमें घुले खनिज लवण जड़ों द्वारा अवशोषित होकर पौधों के विभिन्न भागों (विशेषकर) पत्तियों तक पहुँचते हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि जल तथा उसमें घुले हुए खनिज पदार्थ जाइलम वाहिकाओं या वाहिनिकाओं (xylem vessels or tracheids) की गुहा (lumen) में होकर ऊपर चढ़ते हैं। ( छोटे-छोटे पौधों में तो इन पदार्थों को 0.5-1.0 मीटर ऊँचा ही चढ़ना पड़ता है, बड़े-बड़े वृक्षों में जो 80-85 मीटर से भी ऊँचे हो सकते हैं, इनको गुरुत्वाकर्षण के विपरीत चढ़ना पड़ता है।
इस क्रिया के लिए विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा अलग-अलग तरह के मत व्यक्त किये गये हैं। इन मतों में, अनेक प्रकार के बलों, दाबों आदि का विचार रखा गया और अलग-अलग मतों में केशिकाव (capillarity), अन्तःशोषण (imbibition), मूलदाब (root pressure), वायुमण्डलीय दाबे (atmospheric pressure) आदि को अलग-अलग करके रसारोहण का कारण समझाया गया अथवा कुछ जीवित कोशिकाओं की स्पन्दन गति (pulpitation movement) को इसके लिए उपयुक्त मान लिया गया। सामान्यत: बड़े-बड़े तथा ऊँचे पौधों के लिए अनेक प्रयोगों आदि के आधार पर इन धारणाओं को अमान्य कर दिया गया।
जल के ऊपर चढ़ने की क्रिया को पूर्ण रूप से समझाने के लिए कई बलों को एक साथ क्रियात्मक रूप में संयोजित करके डिक्सन तथा जौली (Dixon and Jolly) ने वर्ष 1894 में वाष्पोत्सर्जन-संसंजन-तनाव वादे (transpiration-cohesion- tension theory) प्रस्तुत किया। वाष्पोत्सर्जन-संसंजन-तनाव वाद यह वाद निम्नलिखित तीन प्रमुख सिद्धान्तों पर आधारित है
जाइलम वाहिकाओं में जल एक लगातार स्तम्भ के रूप में रहता है।
जल के अणुओं के मध्य शक्तिशाली संसंजन (cohesion), अर्थात् आकर्षण रहता है।
वाष्पोत्सर्जन-कर्षण (transpiration pull) का जल स्तम्भ पर तनाव।
जाइलम वाहिकाएँ एक-दूसरे से सिरे से सिरे पर सम्बन्धित होती हैं, साथ ही इनके अन्दर उपस्थित जल एक अविरत जल स्तंम्भ के रूप में होता है। यह जल स्तम्भ विभिन्न शाखाओं, पत्तियों तथा पर्णकों में उपस्थित शिराओं (veins) और उनकी शाखाओं इत्यादि में होकर जल के एक द्रवस्थैतिक तन्त्र (hydrostatic system) का निर्माण करता है, जिसके एक सिरे पर लगा हुआ तनाव पूरे तन्त्र को प्रभावित करता है। दूसरी ओर जल अणुओं में अत्यधिक संसंजन (cohesion) होने के कारण इतना अधिक आकर्षण बल होता है कि यह जल स्तम्भ अत्यधिक तनाव इत्यादि को भी सहन कर लेता है। समझा जाता है कि संसंजन बल (cohesive force) के कारण 400 वायुमण्डलीय दाब (atmospheric pressure) पर भी जल स्तम्भ खण्डित नहीं होता है। दूसरी ओर जाइलम वाहिकाएँ जो केवल मृत आशय की तरह काम करती हैं, जल स्तम्भ इनकी भीतरी भित्तियों के साथ आसंजित रहता है। यह आसंजन बल (adhesive force) भी जल स्तम्भ को खण्डित नहीं होने देता। वाष्पोत्सर्जन इस अविरत जल स्तम्भ के ऊपरी सिरों पर खिंचाव उत्पन्न किये रखता है। अतः सम्पूर्ण जल स्तम्भ ऊपर की ओर खिंचा चला जाता है। यहाँ अविरत जल स्तम्भ उस रस्से की तरह है जिसे कोई व्यक्ति कई मंजिल ऊपर खड़े होकर तथा बहुत कम बल लगाकर ही ऊपर खींच सकता है; क्योंकि रस्सी के सारे रेशे आपस में चिपक कर एक सामान्य स्तम्भ का निर्माण कर रहे होते हैं जैसा कि यहाँ जेल के अणु एक-दूसरे से संसंजित हैं।
किसी पौधे के सम्पूर्ण वायवीय मुलायम भागों से जल का अत्यधिक वाष्पोत्सर्जन होता है। पर्णरन्ध्र इस कार्य को मुख्य रूप से करते हैं। पर्णरन्ध्र पत्तियों की पर्णमध्योतकीय कोशिकाओं के बीच-बीच में पाये जाने वाले अन्तराकोशिकीय स्थानों (intercellular spaces) में भरी हुई जल वाष्प (water vapours) को वायुमण्डल में विसरित करते रहते हैं। इस प्रकार इन अन्तराकोशिकीय स्थानों में जल वाष्प की माँग निरन्तर पर्णमध्योतकीय कोशिकाओं (mesophyll cells) के द्वारा (UPBoardSolutions.com) पूरी की जाती है।और पर्णमध्योतकीय कोशिकाओं से उत्पन्न हुई जल की माँग (DPD) को जाइलम वाहिकाओं में उपस्थित जल भण्डार (जल स्तम्भ) से पूरा किया जाता है। इन अवस्थाओं में एक प्रकार का खिंचाव, वाष्पोत्सर्जन-कर्षण (transpiration pull) उत्पन्न हो जाता है, जो जाइलम वाहिकाओं में उपस्थित जल स्तम्भ को ऊपर खींचता रहता है। यह वाष्पोत्सर्जन-कर्षण अधिक वाष्पोत्सर्जन काल में अधिक होता है जिससे जड़ों में निष्क्रिय अवशोषण (passive absorption) भी उत्पन्न होता है।
अधिक वाष्पोत्सर्जन की दशा में यह सिद्धान्त पूर्णत: उपयुक्त लगता है और डिक्सन तथा जौली के इसी मत को मान्यता मिली हुई है, किन्तु अब सामान्यतः यह माना जाता है कि रसारोहण संसंजन-वाष्पोत्सर्जन यदि जल स्तम्भ को ऊपर खींचता है तो धनात्मक मूलदाब भी काफी दूरी तक जाइलम वाहिनियों में जल को ऊपर धकेलने में सहायक होता है। इस प्रकार, अन्य अवस्थाओं में अथवा उपर्युक्त दशाओं में भी अन्य प्रकार के दाब इस कार्य में अपनी-अपनी सीमा में सहायता अवश्य करते हैं।
प्रश्न 11 वर्तमान संकल्पनाओं के आधार पर पौधों में खाद्य पदार्थों के स्थानान्तरण की प्रक्रिया समझाइए। या भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण से सम्बन्धित मुंच की परिकल्पना की व्याख्या कीजिए। या खाद्य पदार्थों का स्थानान्तरण किसे कहते हैं? इसके पथ तथा स्थानान्तरण की दिशा का चित्र की सहायता से वर्णन कीजिए। या पौधों में कार्बनिक पदार्थों के स्थानान्तरण से आप क्या समझते हैं? इसकी क्रियाविधि एवं महत्त्व को लिखिए।
उत्तर : पादपों में खाद्य पदार्थों का स्थानान्तरण
फ्लोएम के द्वारा भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण की क्रिय-विधि को समझाने का समय-समय पर प्रयास किया गया है; जैसे—विसरण परिकल्पना तथा जीवद्रव्य धारा प्रवाह परिकल्पना। किन्तु ये सिद्धान्त मान्यता प्राप्त नहीं कर सके क्योंकि ये तथ्यों पर खरे नहीं उतरते। सामान्यतः मान्य तथा अधिक स्पष्ट मत निम्नलिखित है
मात्रा प्रवाह या दाब प्रवाह परिकल्पना
मुंच (Munch, 1927-30) के अनुसार, इस परिकल्पना में बताया गया है कि फ्लोएम में भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण की यह क्रिया विलेय स्वरूप में इन खाद्य पदार्थों के अधिक सान्द्रण वाले स्थानों से कम सान्द्रण वाले स्थानों में परासरण (osmosis) द्वारा होती है। पर्णमध्योतक कोशिकाओं (mesophyll cells) में इन पदार्थों के निरन्तर बनते रहने के कारण परासरण दाब (osmotic pressure) अधिक ही रहती है। दूसरी ओर जड़ों या अन्य स्थानों में इन (UPBoardSolutions.com) पदार्थों के उपयोग में आते रहने अथवा अविलेय (insoluble) रूप में संचित हो जाने से सान्द्रण कम हो जाता है। अतः पर्णमध्योतक कोशिकाओं से फ्लोएम में होकर सामूहिक रूप में (in mass form) अथवा परासरण दाब के कारण आवश्यकता के स्थानों पर स्थानान्तरण होता रहता है। इस सिद्धान्त को समझाने के लिए निम्नलिखित प्रयोग किया जाता है
सत्यापन प्रयोग के लिए दो परासरणदर्शी (osmometers) लिए जाते हैं। परासरणदर्शी में एक नली के सिरे पर अण्डे की झिल्ली या अन्य कोई अर्द्धपारगम्य झिल्ली बॉधी जाती है (चित्र A)। दोनों परासरणदर्शियों को एक नली ‘T’ द्वारा सम्बन्धित किया जाता है। परासरणदर्शी A में शक्कर का सान्द्र विलयन भरा जाता है तथा ‘B’ में शक्कर का तनु विलयन अथवा सादा जल। दोनों परासरणदर्शियों को जल से भरे पात्रों में रखा जाता है तथा दोनों पात्रों को भी एक नली ‘t’ के द्वारा सम्बन्धित किया जाती है। स्पष्ट है परासरणदर्शी ‘A’ में पात्र से काफी मात्रा में जल परासरित होगा और यहाँ अत्यधिक परासरण दाब के कारण अत्यधिक स्फीति दाब (turgor pressure) पैदा होगा। अतः ‘A’ का विलयन अविरल धार के रूप में (mass flow) ‘B’ की ओर प्रवाहित होगा, क्योंकि दोनों ओर झिल्लियों के फैलने के लिए बराबर बल चाहिए। यह प्रवाह क्रम तब तक चलता रह सकता है जब तक कि दोनों ओर शक्कर का सान्द्रण बराबर नहीं हो जाता है। उधर ‘B’ में आकर विलयन से जल पात्र में और पात्र से ‘A’ में जल आता रहता है।
यहाँ यह स्पष्ट है कि यदि परासरणदर्शी ‘A’ में शक्कर की मात्रा को अर्थात् विलयन के सान्द्रण को कम न होने दिया जाये, साथ ही परासरणदर्शी ‘B’ में आयी हुई शक्कर को निरन्तर हटाया जाता रहे तो निश्चय ही यह धारा प्रवाह लगातार तथा तीव्र गति से होता रह सकता है। उपर्युक्त पत्तियों की पर्णमध्योतक कोशिकाओं की तरह है, जहाँ प्रकाश संश्लेषण के द्वारा शर्करा का निर्माण होता रहता है। अतः परासरण दाब कम नहीं होने पाता जबकि ‘B’ जड़ों या अन्य स्थानों की तरह है जहाँ शर्कराओं को या तो उपयोग में ले लिया जाता है अथवा अविलेय अवस्था में परिवर्तित करके संचित किया जाता रहता है। इसके अतिरिक्त चित्रे (A) के उपकरण की नली T’ चालनी नलिकाओं के समान तथा पात्र जाइलम के समान है।
उपर्युक्त प्रयोग मुंच के सिद्धान्त को सत्यापित करता है कि जल में घुले भोज्य पदार्थों की एक अविरल धार मात्रा प्रवाह या दाब प्रवाह (mass flow or pressure flow) के रूप में सतत् फ्लोएम में प्रवाहित होती रहती है। मुंच की इस परिकल्पना की आपत्ति यह है कि इस परिकल्पना में खाद्य पदार्थों के विभिन्न दिशाओं में एक साथ स्थानान्तरण के सम्बन्ध में कुछ नहीं बताया गया है।
प्रश्न 12 पादपों में जल परिवहन हेतु वाष्पोत्सर्जन खिंचाव मॉडल की व्याख्या कीजिए। वाष्पोत्सर्जन क्रिया को कौन-सा कारक प्रभावित करता है? पादपों के लिए कौन उपयोगी है?
उत्तर : रेसारोहण या जल परिवहन
पौधे जड़ों द्वारा जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं। अवशोषित जल गुरुत्वाकर्षण के विपरीत पर्याप्त ऊँचाई तक (पत्तियों तक) पहुँचता है। यह ऊँचाई सिकोया (Sequoid) में 370 फुट तक होती है। गुरुत्वाकर्षण के विपरीत जल के ऊपर चढ़ने की क्रिया को रसारोहण कहते हैं। सर्वमान्य वाष्पोत्सर्जनाकर्षण जलीय संसंजक मत (Transpiration Pull Cohesive Force of Water Theory) के अनुसार रसारोहण निम्नलिखित कारणों से होता है
1. वाष्पोत्सर्जनाकर्षण (वाष्पोत्सर्जन खिंचाव मॉडल) :
पत्तियों की कोशिकाओं से जल के वाष्पन के फलस्वरूप कोशिकाओं की परासरण सान्द्रता तथा विसरण दाबे न्यूनता (Diffusion pressure deficit) अधिक हो जाती है। इसके फलस्वरूप जल जाइलम से परासरण द्वारा पर्ण कोशिकाओं में पहुँचता रहता है। जलवाष्प रन्ध्रों से वातावरण में विसरित होती रहती है। इसके फलस्वरूप जाइलम में उपस्थित जल स्तम्भ पर एक तनाव उत्पन्न हो
जाता है। वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्पन्न होने वाले इस तनाव को वाष्पोत्सर्जनाकर्षण (transpiration pull) कहते हैं।
2. जल अणुओं का संसंजन बल (Cohesive Force of water Molecules) :
जल अणुओं के मध्य संसंजन बल (cohesive force) होता है। इसी संसंजन बल के कारण जल (UPBoardSolutions.com) स्तम्भ 400 वायुमण्डलीय दाब पर भी खण्डित नहीं होता और इसकी निरन्तरता बनी रहती है। संसंजन बल के कारण जल 1500 मीटर ऊँचाई तक चढ़ सकता है।
3. जल तथा जाइलम भित्ति के मध्य आसंजन (Adhesion between Water and Cell wall of Xylem Tissue) :
जाइलम ऊतक की कोशिकाओं और जल अणुओं के मध्य आसंजन (adhesion) का आकर्षण होता है। यह आसंजन जल स्तम्भ को सहारा प्रदान करता है। वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्पन्न तनाव जल स्तम्भ को ऊपर खींचता है।
वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक
पौधों में वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारकों को दो समूहों में बाँट सकते हैं
(अ) बाह्य कारक (External Factors)
(ब) आन्तरिक कारक (Internal Factors)
(अ) बाह्य कारक
1. वायुमण्डल की अपेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity of Atmosphere) :
वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता कम होने पर वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है। आपेक्षिक आर्द्रता अधिक होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।
2. प्रकाश (Light) :
प्रकाश के कारणरन्ध्र खुलते हैं, तापमान में वृद्धि होती है; अत: वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। रात्रि में रन्ध्र बन्द हो जाने से वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।
3. वायु (Wind) :
वायु की गति अधिक होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर अधिक हो जाती है।
4. तापक्रम (Temperature) :
ताप के बढ़ने से आपेक्षिक आर्द्रता कम हो जाती है और वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। ताप कम होने पर आपेक्षिक आर्द्रता अधिक हो जाती हैं और वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।
5. उपलब्ध जल (Available Water) :
वाष्पोत्सर्जन की दर जल की उपलब्धता पर निर्भर करती है। मृदा में जल की कमी होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।
(ब) आन्तरिक कारक
पत्तियों की संरचना, रन्ध्रों की संख्या एवं संरचना आदि वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करती है।
वाष्पोत्सर्जन की उपयोगिता
पौधों में अवशोषण एवं परिवहन के लिए वाष्पोत्सर्जन खिंचाव उत्पन्न करता है।
मृदा से प्राप्त खनिजों के पौधों के सभी अंगों (भागों) तक परिवहन में सहायता करता है।
पत्ती की सतह को वाष्पीकरण द्वारा 10-15°C तक ठण्डा रखता है।
कोशिकाओं को स्फीति रखते हुए पादपों के आकार एवं बनावट को नियन्त्रित रखने में सहायता करता है।