बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 13 उच्च पौधों में प्रकाशसंश्लेषण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 13 उच्च पौधों में प्रकाशसंश्लेषण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. ब्लैकमैन का सीमाकारी कारकों का नियम बताइये। इसकी व्याख्या उपयुक्त उदाहरण की सहायता से कीजिए।
उत्तर: पादपों द्वारा होने वाली प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया वातावरणीय व आनुवंशिक कारकों द्वारा प्रभावित होती है। वातावरणीय कारकों का अध्ययन बाहा कारकों व आनुवंशिक कारकों का अध्ययन आन्तरिक कारकों के रूप में करेंगे:

(अ) बाह्य कारक (External Factors):
प्रकाश, कार्बन डाइऑक्साइड की उपलब्धता, तापमान, मृदा - जल आदि महत्वपूर्ण बाहा कारक हैं जो प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इन कारकों का अध्ययन करने से पूर्व ब्लैकमेन (Blackman) के सीमाकारी कारकों के नियम (law of limiting factor) का अध्ययन करना आवश्यक है। ब्लैकमेन सीमाकारी कारकों के नियम से पहले प्रकाश - संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारकों के विषय में यह अवधारणा थी, कि किसी कारक की वह मात्रा जिस पर प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया आरम्भ होती है उसे न्यूनतम बिन्दु (minimum point), जिस मात्रा पर अधिकतम होती है उसे अनुकूलतम बिन्दु (optimum point) व वह अधिकतम मात्रा जिस पर प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया रुक जाती है उसे अधिकतम या उच्चतम बिन्दु (Maximum Point) कहते हैं। इन तीनों अवस्थाओं को प्रधान बिन्दु (Cardinal Point) कहा जाता है। किसी भी कारकों
का न्यूनतम मान वह बिन्दु है, जिसके नीचे क्रिया प्रारम्भ नहीं हो सकती है। इस प्रकार उच्चतम मान वह बिन्दु है जिसके और ऊपर क्रिया प्रभावहीन हो जाती है। अधिकतम मान वह बिन्दु है जिस पर सम्बन्धित प्रक्रिया लम्बे समय तक उच्चतम दर पर जारी रहती है। ब्लैकमेन के सीमाकारी कारकों के नियम के अनुसार यदि कोई प्रक्रिया अनेक कारकों द्वारा प्रभावित होती है, तो उस प्रक्रिया की दर सबसे कम मात्रा में उपस्थित कारक पर निर्भर करती है। इस सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि एक हरी पत्ती को एक इकाई प्रकाश की मात्रा दी जाती है तथा प्रकाश की यह मात्रा CO2 की 5mg मात्रा का अपचयन करने में सक्षम है परन्तु इस पत्ती को CO2 उपलब्ध नहीं की जाती है। ऐसी स्थिति में प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया नहीं हो सकती। अतः यहाँ CO2 यह कारक है जो प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करता है। अब इस पत्ती को CO2 दी जाती है, तब प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया शीघ्र ही प्रारम्भ हो जाती है। CO2 की मात्रा बढ़ाने पर प्रकाश - संश्लेषण की दर में भी वृद्धि होती जाती है। अतः जब तक पत्ती को CO2 की 5mg, मात्रा प्रदान न कर दी जाए, तब तक प्रत्येक बार CO2 की

मात्रा बढ़ाने पर प्रकाश - संश्लेषण की दर में वृद्धि जारी रहती है। अतः इन सभी अवस्थाओं में CO2 की मात्रा को सीमाकारी कारक माना जाता है। परन्तु जैसे ही CO2 की मात्रा 5mg. से बढ़ाकर 6 mg. अथवा इससे अधिक करते हैं तो अब प्रकाश - संश्लेषण की दर में वृद्धि नहीं होती है क्योंकि अब CO2 की माशा सीमाकारी कारक नहीं रहा बल्कि प्रकाश की मात्रा सीमाकारी कारक बन गया। क्योंकि CO2 की अधिक मात्रा उपलब्ध होने पर भी अब प्रकाश - संश्लेषण की दर में वृद्धि केवल प्रकाश को मात्रा बढ़ाने पर ही संभव है। इस प्रकार समय - समय पर सीमाकारी कारक परिवर्तित होता रहता है।

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प्रश्न 2. क्लोरोप्लास्ट की आंतरिक संरचना को सचित्र समझाइये।
उत्तर: क्लोरोप्लास्ट गोल या अण्डाकार आकृति के होते हैं तथा लाइपोप्रोटीन से बनी दो झिल्लियों से ढके होते हैं। इसकी संरचना में अन्दर ग्रेना (Grana) व स्ट्रोमा (Stroma) का क्षेत्र होता है। स्ट्रोमा प्रोटीनयुक्त तरल द्रव से भरा होता है तथा इसमें लिपिड की बूंदें होती हैं। ग्रेना रंगीन वर्णकयुक्त तथा स्ट्रोमा रंगहीन व वर्णकहीन होता है। वर्णकों में मुख्यत: Chl. a. Chl. b, जैन्थोफिल व कैरोटिन आदि होते हैं। इनमें से मुख्य वर्णक Chl. a होता है बाकी सहायक वर्णक की श्रेणी के होते हैं। स्ट्रोमा में लाइपोप्रोटीन से बनी दो पररा की लैमीला (Lamellae) होती हैं। प्रत्येक लैमीला एक-दूसरे के ऊपर सिक्कों की गड्डी जैसी आकृति बनाते हैं, इसे ग्रेनम (granum) कहते हैं। ग्रेनम में पाई जाने वाली पटलिकाओं (Lamellae) को ग्रेनम पटलिका या थाइलेकॉइडस (thelakoids) कहते हैं। पास के दो ग्रेनम एक-दूसरे से अन्तराग्रेनम पटलिका या स्ट्रोमा पटलिका से जुड़े होते हैं। ग्रेनम की पटलिकाएँ वर्णक भरे होने से हरे रंग की होती हैं जबकि अन्तराग्रेनम वर्णकों की अनुपस्थिति से रंगहीन होती हैं। स्ट्रोमा में राइबोसोम्स व स्टार्च की कणिकाएँ भी बिखरी होती हैं।

प्रश्न 3. प्रकाश अभिक्रिया क्या होती है? समझाइये।
उत्तर: फोटोसिस्टम (प्रकाश तंत्र) में अभिक्रिया केन्द्र में उपस्थित क्लोरोफिल. a 680nm वाले लाल प्रकाश को अवशोषित करता है, जिससे इलेक्ट्रॉन उत्तेजित होकर परमाणु नाभिक से दूर चला जाता है। इस इलेक्ट्रॉन को एक इलेक्ट्रॉनग्राही लेकर इलेक्ट्रॉन ट्रांसपोर्ट सिस्टम जिसमें साइटोक्रोम (Cytochrome) होते हैं, पहुँचा दिया जाता है। यह इलेक्ट्रॉन की अधोगामी गति है। जब इलेक्ट्रॉन्स परिवहन श्रृंखला से गुजरते हैं तब उनका उपयोग नहीं होता बल्कि उन्हें फोटोसिस्टम - I (PS - I) के वर्णकों को दे दिया जाता है। इसके साथ ही साथ, PS - I का अभिक्रिया केन्द्र के इलेक्ट्रॉन भी लाल प्रकाश की 700nm तरंगदैय को अवशोषित कर उत्तेजित हो जाता है और यह अन्य ग्राही अणु में स्थानान्तरित हो जाता है जिसका अपचयोपचय विभव (Redox potential) अधिक होता है। ये इलेक्ट्रॉन्स पुन: अधोगामी करते हैं, परन्तु इस बार वे ऊर्जा से प्रचुर NADP+ अणु को ओर जाते हैं। ये इलेक्ट्रॉन NADP+ को अपचयित करके NADPH2 बनाते हैं। इलेक्ट्रॉन के स्थानान्तरण की यह प्रक्रिया फोटोसिस्टम - II से प्रारम्भ होकर शिखरोपरिणाही की ओर इलेक्ट्रॉन ट्रांसपोर्ट सिस्टम से होते हुए फोटोसिस्टम - I तक, इलेक्ट्रॉन उत्तेजना, अन्य ग्राही में स्थानान्तरण और अन्त में अधोगामी होकर NADP को अपचयित कर NADPH2 के बनने तक होती है। यह सम्पूर्ण योजना Z के आकार की होती है, इसलिए इसे Z - स्कीम कहते हैं। यह आकृति तब बनती है जब सभी वाहक क्रमानुसार एक अपचयोपचय विभव माप पर हों।

प्रश्न 4. प्रकाश - संश्लेषण क्रिया में O2 का निष्कासन कहाँ से होता है? इसे किस प्रकार ज्ञात किया गया?
उत्तर: प्रकाश - संश्लेषण क्रिया में दो मुख्य कच्चे पदार्थ होते हैं:
CO2 तथा H2O। पौधों में पर्णहरित तथा अन्य वर्णक प्रकाश ऊर्जा का अवशोषण कर इसका रासायनिक ऊर्जा के रूप में रूपान्तरण कर देते हैं। इस ऊर्जा से CO2 का अपचयन होकर प्रारंभिक प्रकाश संश्लेषी उत्पादों का उत्पादन होता है। जल का अणु अपचयन क्रिया में आवश्यक हाइड्रोजन परमाणु प्रदान करता है।

उपरोक्त समीकरण के अनुसार यहां पर निष्कासित O2 का स्रोत CO2 है या H2O। इसे सुलझाने के लिये रुबेन और कामन ने प्रयोग किया। इन वैज्ञानिकों ने जब पौधे को सामान्य CO2 (जिसके O2 परमाणु 16 परमाणु भार वाले थे) और जल जिसके O2 परमाणु (18 परमाणु भार) समस्थानिक (Radioisotop) थे, दिये, तब निष्कासित O2 के सभी परमाणु 18 परमाणु भार वाले थे। इसके विपरीत जब उन्होंने सामान्य जल तथा ऐसी CO2 दी, जिसके O2 परमाणु समस्थानिक (18 परमाणु भार) थे तब देखा गया कि निष्कासित O2 के परमाणु सामान्य भार वाले थे। अत: सिद्ध होता है कि प्रकाश - संश्लेषण से मुक्त होने वाली O2 की समस्त मात्रा जल से प्राप्त होती है न कि CO2 से। अतः प्रकाशसंश्लेषण के समीकरण को निम्न प्रकार लिखा जा सकता है

प्रश्न 5. लाल पतन तथा एमरसन प्रभाव ( Red drop and Emerson effect) से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: इमरसन व उनके साथियों ने विभिन्न प्रकाश तरंगों से प्रकाश - संश्लेषण की उत्पादकता का अध्ययन करते हुये पाया कि स्पेक्ट्रम के दूरस्थ लाल छोर के 680 mm (far - red light) पर प्रकाश - संश्लेषण की दर में अचानक गिरावट आती है। इसे लाल पतन कहा गया। एमरसन ने प्रयोग में यह भी देखा कि स्पेक्ट्रम के लाल छोर के 680 mm पर प्रकाश - संश्लेषण में गिरावट के उपरान्त यदि उसी समय 650 nm (red light) तरंगें भी प्रदान की जायें तब प्रकाश - संश्लेषण पुनः पूर्ण क्षमता से हो सकता है अर्थात् दो भिन्न - भिन्न तरंगदैयों वाले प्रकाश को एक साथ देने पर प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया दर में न केवल सुधार होता है बल्कि इसकी कुल मात्रा, दोनों तरंगों के द्वारा प्राप्त पृथक्पृथक् मात्राओं के योग से भी अधिक होती है। अत: भिन्न - भिन्न तरंगदैयों वाली प्रकाश पुंजों के समकालिक प्रयोग से प्रकाश - संश्लेषण की वृद्धिमय सक्रियता को एमरसन प्रभाव कहते हैं।

 

प्रश्न 6. एमरसन प्रभाव की खोज से किस ज्ञान की अभिवृद्धि हुई? बताइये।
उत्तर: एमरसन प्रभाव की खोज से यह ज्ञात हुआ कि प्रकाशसंश्लेषण में दो प्रकाश तंत्र या वर्णक तंत्र प्रयुक्त होते हैं। इन दो वर्णक तन्त्रों को PS I तथा PS II कहते हैं।
वर्णक तंत्र (Pigment System = PS I) में 300 पर्णहरित अणु, 50 केरोटीनॉइड्स, एक P700 का अणु, Cyt. f, एक प्लास्टोसायनिन, दो Cyt. b6, FRS तथा एक या दो झिल्ली से परिबद्ध फेरोडोक्सीन अणु पाये जाते हैं। इसमें Chl. a, आयरन व कॉपर भी होते हैं। PS I का उपयोग चक्रीय तथा अचक्रीय प्रकाश - फास्फेटीकरण में होता है।

वर्णक तन्त्र (PS II) में 200 पर्णहरित, 50 केरोटिनोइड्स, P680 का एक अणु, एक प्राथमिक नाही, प्लास्टोक्विनोन, Mn अणु, दो Cyt. b, एक Cyt. b6 और फ्लोराइड्स पाये जाते हैं। वर्णक तन्त्र द्वारा शक्तिशाली ऑक्सीकारक और कमजोर अपचायक के साथ O2 की उत्पत्ति होती है। वर्णक तन्त्र - I (PS - I) थाइलेकोइड की बाहरी सतह पर तथा PS II थाइलेकोइड की भीतरी सतह पर मिलते हैं।

प्रश्न 7. C4 चक्र का महत्त्व बताइये।
उत्तर: C4 चक्र का पौधों में निम्न महत्व है

यह चक्र C4 पादपों में C3 पादपों की अपेक्षा उत्पादन दो - तीन गुणा बढ़ा देता है।

एक अणु CO2 का अपचयन करने के लिये 5 ATP तथा 2 अणु NADP की आवश्यकता होती है।

ये कम सान्द्रता की CO2 को भी प्रयोग में ला सकते हैं।

30 - 40°C ताप पर भी CO2 का अपचयन तीव्र गति से होता है।

रन्धों के कम खुला रहने पर भी प्रकाश - संश्लेषण की दर को बढ़ाता है।

यह C4 पौधों की अनुकूलन क्षमता को अधिक तापक्रम व प्रकाश में भी बढ़ाता है।

 

प्रश्न 8. प्रकाश - संश्लेषण का महत्त्व बताइये।
उत्तर: जीवन के निरन्तर अस्तित्व हेतु प्रकाश-संश्लेषण परम आवश्यक है। सजीवों को कार्यनिक भोजन तथा O2 की प्राप्ति इस क्रिया के फलस्वरूप प्राप्त होती है।

1. हरे पौधे स्वयं ही स्वपोषी नहीं हैं, बल्कि ये विशाल विषमपोषी पौधों एवं समस्त जन्तु समुदाय को भोजन प्रदान करते हैं। जन्तु तथा मानव प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भोजन के लिए इस क्रिया पर आश्रित हैं।

2. प्रकाश - संश्लेषी उत्पादन केवल भोजन ही प्रदान नहीं करते अपितु इनमें विभिन्न उपापचयी क्रियाओं तथा गतियों के लिए भी ऊर्जा प्रदान करते हैं।

3. खनिज कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस अतीत के भूगर्भीय युगों की प्रकाश - संश्लेषी पूँजी का प्रतिनिधित्व करते हैं।

4. कार्बनिक जगत के अनेक पदार्थ हमारे दैनिक जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे: प्राकृतिक रेशे, औषधियाँ, विटामिन, वर्णक, तेल आदि।

5. जन्तुओं तथा पेड़ - पौधों की श्वसन क्रिया के अन्तर्गत O2 का निरन्तर उपभोग तथा CO2 का विकास होता है। इसके अतिरिक्त कार्बनिक पदार्थों के जलने से भारी मात्रा में CO2 की उत्पत्ति होती है। वायुमण्डल में CO2 की अधिकता विषाक्त होती है। इसी प्रकार CO2 की कमी भी घातक है। हरे पौधे इन क्रियाओं में उत्पन्न CO2 का प्रकाश - संश्लेषण में निरन्तर उपयोग कर इसके स्थान पर O2 निष्कासित करते हैं, जिससे वायुमण्डल जीवधारियों के लिए जीवित रहने के अनुकूल बना रहता है। 

प्रश्न 9. कैल्विन चक्र को समझाइये।
उत्तर: कैल्विन - बैन्सन चक्र (Calvin - Bernson Cycle):
प्रकाश - संश्लेषण की प्रक्रिया में CO2 का कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तन का पथ रेडियोएक्टिव ट्रेसर तकनीक (radioactive tracer technique) द्वारा कैल्विन, बैन्सन व साथियों ने बताया था। इस कार्य के लिए उन्होंने शैवालों (क्लोरेला व सिनडेसमस) का संवर्धन किया व इन संवर्धित शैवालों को प्रकाश - संश्लेषण के लिए रेडियोधर्मिता युक्त (radioactive labelled) कार्बन डाइऑक्साइड (14CO2) प्रदान की गई। इस प्रकार प्रदान की गई CO2 से बनने वाले यौगिकों को थोड़े - थोड़े अन्तराल पर रेडियोधर्मिता के आधार पर पहचान की गई। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम बनने वाला स्थिर यौगिक तीन कार्बन परमाणु युक्त 3 - फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (PGA) था, इस कारण इस चक्र को C3 चक्र भी कहा जाता है। उन्होंने रेडियोएक्टिव कार्बन (14C) युक्त यौगिकों की रेखीय श्रृंखला बनाकर यह बताया कि किस तरह से 14CO2 के प्रवेश से लेकर कार्बोहाइड्रेट्स का निर्माण होता है। केल्विन चक्र उन सभी पौधों में होता है जो प्रकाश - संश्लेषण करते हैं। इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता कि उनमें चाहे पथ C3 अथवा C4

हो। केल्विन चक्र को सरलता से समझने के लिए इसको तीन चरणों - कार्बोक्सिलीकरण (कार्बोक्सीलेशन), अपचयन या रिडक्शन तथा पुनर्योजी या पुनरुद्भवन या रिजनरेशन में वर्णन करते हैं।

(अ) काबॉक्सिलीकरण अवस्था (Carboxylative Phase): मुख्य रूप से इस अवस्था या चरण में राइबुलोज डाइफॉस्फेट या राइबुलोज 1, 5 विसफॉस्फेट (Ribulose diphosphate = RuDP) कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कर फॉस्फोग्लिसरिक आम्ल (PGA) बनाता है। यह प्रतिक्रिया एंजाइम RuDP काबोक्सिलेज के द्वारा उत्प्रेरित होती है, जिसके कारण 3 - PGA के अणु बनते हैं। कि इस एंजाइम में ऑक्सीजिनेशन (ऑक्सीकरण) क्षमता भी होती है। अतः इस एंजाइम को RuDP कार्बोक्सीलेज - ऑक्सीजिनेज या रुबिस्को (Rubisco) कहना ज्यादा उचित है।


(ब) अपचयन अबस्था (Reductive Phase): इस चरण में दो प्रतिक्रियाएँ होती हैं:

फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल का फॉस्फोरिलीकरण: फॉस्फोग्लिसरिक काइनेज एंजाइम की उपस्थिति में 3 - फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल के 6 अणु ATP के 6 अणुओं का उपयोग कर 6 अणु 1,3 डाइफॉस्फोग्लिसरिक अम्ल व 6 अणु ADP का निर्माण करते हैं।

1, 3 - डाइफॉस्फोग्लिसरिक अम्ल का अपचयन: कार्बोक्सिलीकरण व फॉस्फोरिलीकरण के पश्चात् 1,3 - डाइफॉस्फोग्लिसरिक अम्ल का अपचयन प्रकाशिक अभिक्रिया में बनने वाली अपचयन शक्ति NADH + H+ के द्वारा होता है। इस अभिक्रिया में ट्रायोज फॉस्फेट डोहाइड्रोजीनेज एंजाइम की उपस्थिति में 6 अणु 1,3 - डाइफॉस्फोग्लिसरिक अम्ल से 6 अणु 3 - फॉस्फोग्लिसरलडिहाइड (3 - PGAL), NADP व फॉस्फोरिक अम्ल (H3PO4) के बनते हैं।


इस प्रकार बनने वाले 3 - फॉस्फोग्लिसरलडिहाइड के 6 अणुओं में से एक अणु मिलकर हेक्सोज (ग्लुकोज) शर्करा का निर्माण करते हैं। जो बाद में सुक्रोज अथवा स्टार्च में रूपान्तरित हो जाते हैं तथा शेष बचे 5 अणु पुनः कई क्रमबद्ध जैवरासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा 3 अणु राइबुलोज मोनो फॉस्फेट का निर्माण करते हैं, इस प्रकार इस चक्र को निरन्तरता प्रदान करते हैं।

(स) पुनर्योजी अवस्था (Regenerative Phase): अपचयन अवस्था में 6 अणु 3 - PGAL के बनते हैं, जिनमें से एक अणु 3 PGAL के प्रकाश - संश्लेषण के नेट लाभ (Net gain) के रूप में रहते हैं व शेष 5 अणु जटिल क्रमिक क्रियाओं से गुजरते हैं जिनमें अनेक बार अणुओं का स्थानान्तरण होता है। इस तरह के पुनः अभिविन्यास में ऊर्जा की खपत होती है जो प्रकाश अभिक्रिया में निर्मित ATP से मिलती है। अन्त में राइबुलोज डाइफॉस्फेट के तीन अणुओं का निर्माण होता है, जो पुनः केल्विन चक्र की प्रथम अवस्था को आरम्भ करते हैं।


प्रकाश - संश्लेषण के अन्त में निर्मित फॉस्फोग्लिसरिलडिहाइड (PGAL) एक खाद्य पदार्थ है। यदि पादपों को PGAL मिलता रहे तो ये बिना प्रकाश - संश्लेषण के जीवित रह सकते हैं। PGAL के अत्यधिक क्रियाशील होने के कारण इसका दूसरी कोशिका अंगों में निर्यात ग्लूकोज, फ्रक्टोज तथा सुकरोज के रूप में होता है। ग्लूकोज में परिवर्तन हेतु PGAL के दो अणु आपस में मिलकर एक अणु ग्लूकोज बनाते हैं। अप्रकाशिक अभिक्रिया (dark reaction) में CO2 के 6 अणुओं के स्वांगीकरण (assimilation) के फलस्वरूप हैक्सोस का एक अणु बनता है तथा इसमें 18 अणु ATP ऊर्जा तथा 12 अणु अपचायक NADP की आवश्यकता होती है।

प्रकाश - संश्लेषण को निम्न समीकरणों में संक्षेप में दर्शाया गया है:
प्रकाश अभिक्रिया (Light Reaction)

अप्रकाशिक अभिक्रिया (Dark Reaction)
12 NADP (H2) + 18 ATP + 6CO2 → (CH2O)6 + 18 ADP + 18 Pi + 12 NADP + 6H2O
इसी प्रकार केल्विन चक्र में 6CO2, 18ATP, 12 NADPH2 अन्दर जाते हैं तो एक अणु ग्लुकोज, 18 ADP व 12 NADP बाहर आते हैं।

 

प्रश्न 10 प्रकाश - संश्लेषण के हैच - स्लेक चक्र को विस्तार से समझाइये।
उत्तर: इस चक्र का प्रथम स्थायी उत्पाद एक चार कार्बन परमाणु ऑकोलोएसिटिक अम्ल (डाइकाबोक्सिलिक अम्ल) बनता है। इस कारण इस चक्र को C4 चक्र या पथ भी कहा जाता है। शुष्क उष्ण कटिबंधी क्षेत्र में उगने वाले पौधों में C4 पथ होता है। हैच - स्लैक ने इसे खोजा था, इसी कारण इसे हैच - स्लैक चक्र (Hatch Slack Cycle) भी कहते हैं। यह चक्र एकबीजपत्री पादपों (मक्का , गन्ना , बाजरा) के अतिरिक्त कुछ द्विबीजपत्री पादपों जैसे- अमरेंथस (Amaranthus), यूफोर्षिया (Euphorbia) व अनेक खरपतवारों (Weeds) में पाया जाता है। C4 पथ पाये जाने वाले पादपों को C4 पौधे कहते हैं।

C4 पौधों की पत्तियों में दो प्रकार की प्रकाश - संश्लेषी कोशिकाएँ पायी जाती हैं जिन्हें क्रमश: मध्योतक कोशिकाएँ (Mesophyll Cells) व पूल आच्छद (Bundle Sheath) कोशिकाएँ कहते हैं। पूल आच्छद कोशिकाएँ, संवहन बंडल पर छल्ला या घेरा या माला (Wreath) रूपी रचना में आच्छद रहती हैं। जर्मन भाषा में रीथ (Wreath - Kranz) को ऊज कहा जाता है। अतः पत्तियों की इस प्रकार की शारीरिकी केंज शारीरिकी (Kranz anatomy) कहलाती हैं। C4 पौधों की पत्तियों में पाये जाने वाले हरितलवक दो प्रकार के होते हैं। पर्णमध्योतक कोशिकाओं में पाये जाने वाले हरितलवक छोटे व सुविकसित ग्रेना युक्त होते हैं, जबकि पूल - आच्छद कोशिकाओं में पाये जाने वाले हरितलवक आकार में बड़े व इनमें ग्रेना सामान्यतः अनुपस्थित होते हैं तथा थाइलेकॉइड केवल स्ट्रोमा पट्टलिकाओं के रूप में पाये जाते हैं। पूल आच्छाद कोशिकाओं में प्रकाश तन्त्र - II (PS - II) अनुपस्थित होता

है। C4 पौधों में प्रकाशिक अभिक्रियाएँ पर्णमध्योतक कोशिकाओं में सम्पन्न होती हैं जबकि CO2 स्वांगीकरण (assimilation) पूल - आच्छद कोशिकाओं में सम्पन्न होता है।

C4 चक्र की क्रियाविधि (Mechanism of C4 Cycle): C4 चक्र में वायुमण्डल से CO2 रंधों के द्वारा पर्णमध्योतक कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में प्रवेश करती है, जहाँ यह तीन कार्बन युक्त फास्फोइनोल पाइरुविक अम्ल (Phosphoenol Pyruvic Acid = PEP) द्वारा ग्रहण कर ली जाती है। परिणामस्वरूप 4 कार्बन यौगिक ऑक्जेलोएसिटिक अम्ल का निर्माण होता है। यह इस प्रक्रिया का प्रथम स्थायी उत्पाद है। यह अभिक्रिया फॉस्फोइनोल पाइल्वेट कार्योक्सीलेज एंजाइम (PEP Carboxylase = PEPCO) द्वारा उत्प्रेरित होती है। यह प्रक्रिया CO2 स्थिरीकरण अथवा काबोंक्सिलीकरण कहलाती है। ऑक्जेलोएसिटिक अम्ल के अपचयन के पश्चात् मैलिक अम्ल प्राप्त होता है। इस चरण में NADPH + H+ का ऑक्सीकरण होता है। यह मैलिक अम्ल पर्णमध्योतक कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य से पूल - आच्छद कोशिका में प्रवेश करता है जहाँ डीकार्बोक्सिलीकरण (decarboxylation) के पश्चात् CO2 मुक्त होती है। अत: पूल - आच्छद कोशिकाओं में CO2 की सांद्रता बढ़ जाती है तथा बनने वाला 3 कार्बन परमाणु युक्त यौगिक (पाइरुविक एसिड) पुन: पर्णमध्योतक कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है। पर्णमध्योतक कोशिकाओं में पाइरुविक अम्ल, फॉस्फोइनोल पाइरविक अम्ल का निर्माण करता है जो इस चक्र को सततता प्रदान करता है।

C4 पथ का महत्त्व (Importance of C4 Path):
C4 चक्र C3 चक्र से अधिक दक्ष है क्योंकि
• C4 पौधों की उत्पादकता C3 पौधों की तुलना में 3 से 4 गुना तक बढ़ जाती है क्योंकि C4 पौधों में प्रकाश श्वसन अनुपस्थित होता है।
इस चक्र का मुख्य एंजाइम (PEPCO) CO2 की कम सांद्रता पर भी क्रियाशील रहता है।
यह चक्र उच्च तापक्रम (30 - 45°C) पर भी क्रियाशील रहता है।

प्रश्न 11. प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया पर प्रभाव डालने वाले कारकों का उल्लेख करें। ब्लैकमेन का सीमाकारक सिद्धान्त स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: पादपों द्वारा होने वाली प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया वातावरणीय व आनुवंशिक कारकों द्वारा प्रभावित होती है। वातावरणीय कारकों का अध्ययन बाहा कारकों व आनुवंशिक कारकों का अध्ययन आन्तरिक कारकों के रूप में करेंगे:

(अ) बाह्य कारक (External Factors): प्रकाश, कार्बन डाइऑक्साइड की उपलब्धता, तापमान, मृदा - जल आदि महत्वपूर्ण बाहा कारक हैं जो प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इन कारकों का अध्ययन करने से पूर्व ब्लैकमेन (Blackman) के सीमाकारी कारकों के नियम (law of limiting factor) का अध्ययन करना आवश्यक है। ब्लैकमेन सीमाकारी कारकों के नियम से पहले प्रकाश - संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारकों के विषय में यह अवधारणा थी, कि किसी कारक की वह मात्रा जिस पर प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया आरम्भ होती है उसे न्यूनतम बिन्दु (minimum point), जिस मात्रा पर अधिकतम होती है उसे अनुकूलतम बिन्दु (optimum point) व वह अधिकतम मात्रा जिस पर प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया रुक जाती है उसे अधिकतम या उच्चतम बिन्दु (Maximum Point) कहते हैं। इन तीनों अवस्थाओं को प्रधान बिन्दु (Cardinal Point) कहा जाता है। किसी भी कारकों

का न्यूनतम मान वह बिन्दु है, जिसके नीचे क्रिया प्रारम्भ नहीं हो सकती है। इस प्रकार उच्चतम मान वह बिन्दु है जिसके और ऊपर क्रिया प्रभावहीन हो जाती है। अधिकतम मान वह बिन्दु है जिस पर सम्बन्धित प्रक्रिया लम्बे समय तक उच्चतम दर पर जारी रहती है। ब्लैकमेन के सीमाकारी कारकों के नियम के अनुसार यदि कोई प्रक्रिया अनेक कारकों द्वारा प्रभावित होती है, तो उस प्रक्रिया की दर सबसे कम मात्रा में उपस्थित कारक पर निर्भर करती है। इस सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि एक हरी पत्ती को एक इकाई प्रकाश की मात्रा दी जाती है तथा प्रकाश की यह मात्रा CO2 की 5mg मात्रा का अपचयन करने में सक्षम है परन्तु इस पत्ती को CO2 उपलब्ध नहीं की जाती है। ऐसी स्थिति में प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया नहीं हो सकती। अतः यहाँ CO2 यह कारक है जो प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करता है। अब इस पत्ती को CO2 दी जाती है, तब प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया शीघ्र ही प्रारम्भ हो जाती है। CO2 की मात्रा बढ़ाने पर प्रकाश - संश्लेषण की दर में भी वृद्धि होती जाती है। अतः जब तक पत्ती को CO2 की 5mg, मात्रा प्रदान न कर दी जाए, तब तक प्रत्येक बार CO2 की

मात्रा बढ़ाने पर प्रकाश - संश्लेषण की दर में वृद्धि जारी रहती है। अतः इन सभी अवस्थाओं में CO2 की मात्रा को सीमाकारी कारक माना जाता है। परन्तु जैसे ही CO2 की मात्रा 5mg. से बढ़ाकर 6 mg. अथवा इससे अधिक करते हैं तो अब प्रकाश - संश्लेषण की दर में वृद्धि नहीं होती है क्योंकि अब CO2 की माशा सीमाकारी कारक नहीं रहा बल्कि प्रकाश की मात्रा सीमाकारी कारक बन गया। क्योंकि CO2 की अधिक मात्रा उपलब्ध होने पर भी अब प्रकाश - संश्लेषण की दर में वृद्धि केवल प्रकाश को मात्रा बढ़ाने पर ही संभव है। इस प्रकार समय - समय पर सीमाकारी कारक परिवर्तित होता रहता है।

प्रकाश (Light):
प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया प्रकाश स्पेक्ट्रम के दृश्य भाग (400nm से 700mm) में ही सम्पन्न होती है जिसे PAR कहते हैं। यह क्रिया प्रकाश के प्रकार व उसकी तीव्रता द्वारा प्रभावित होती है। प्रकाश - संश्लेषण की अधिकतम दर दृश्य स्पेक्ट्रम के लाल भाग में व उससे कम नीले रंग में होती है। हरे रंग में प्रकाश - संश्लेषण नहीं होता है। ज्यों - ज्यों प्रकाश की तीव्रता बढ़ती है प्रकाश - संश्लेषण की दर प्रारम्भ में बढ़ती है परन्तु उच्च प्रकाश तीव्रता पर इस क्रिया की दर घट जाती है क्योंकि या तो प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया में भाग लेने वाले अन्य कारक सीमाकारी हो जाते हैं या क्लोरोफिल वर्णकों का विनाश हो जाता है।

क्लोरोफिल का विनाश ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है, अत: इसे क्लोरोफिल का प्रकाशिक ऑक्सीकरण (Photo - oxidation) कहते हैं। प्रकाश तीव्रता के प्रति विभिन्न जातियों के पौधों की सहिष्णुता भी अलग-अलग होती है। उसके आधार पर कुछ पौधे तीव्र सूर्य के प्रकाश के आदी होते हैं जिन्हें प्रकाशानुरागी व कुछ पौधे छाया में वृद्धि करते हैं जिन्हें छायानुरागी पौधे कहते हैं। 

कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता (Concentration of CO2):
वायुमण्डल में CO2 की मात्रा 0.03 प्रतिशत तक होती है जो अन्य गैसों की तुलना में बहुत कम है। C3 व C4 पादपों की उपलब्ध CO2 की मात्रा के प्रति अनुक्रिया भिन्न - भिन्न होती है। पादपों में जब दूसरे कारक सीमाकारी नहीं हों तब CO2 की सांद्रता 0.05 प्रतिशत तक बढ़ने के साथ - साथ प्रकाश - संश्लेषण की दर बढ़ती है जबकि C4 पादपों में प्रकाश - संश्लेषण की दर 0.03 प्रतिशत तक CO2 की सांद्रता तक ही बढ़ती है।
सत्य यह है कि C3 पौधे उच्चतर CO2 सांद्रता में अनुक्रिया करते हैं और इससे प्रकाश - संश्लेषण की दर में वृद्धि होती है, जिसके फलस्वरूप उत्पादन अधिक होता है। इस सिद्धान्त का उपयोग ग्रीन हाउस फसलों, जैसे टमाटर एवं बेल मिर्च में किया गया है। इन्हें CO2 से भरपूर वातावरण में बढ़ने का अवसर दिया जाता है ताकि उच्च पैदावार प्राप्त हो।

तापक्रम (Temperature):
प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया तापक्रम की विविध सीमाओं में सम्पन्न होती है। कोनीफेरस में 35°C, मरुद्भिद् पादपों में 55°C पर भी प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है। अत्यधिक तापक्रम पर प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया की दर में कमी आती है, क्योंकि
(i) उच्च ताप पर प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया में भाग लेने वाले एंजाइम निष्क्रिय हो जाते हैं तथा
(ii)C3 - चक्र में भाग लेने वाले एन्जाइम RUBISCO की CO2 से बंधुता घट जाती है। C4 पौधे कम तापक्रम के प्रति संवेदी होते हैं, क्योंकि इस क्रिया में भाग लेने वाला एन्जाइम पाइस्वेट फॉस्फेट काइनेज निम्न तापक्रम के लिए संवेदी होता है। अलग - अलग वातावरण में पाये जाने वाले पौधे तापक्रम के प्रति भिन्नात्मक संवेदी होते हैं। उष्ण कटिबंधी पौधों के लिए इष्टतम ताप उच्च होता है। समशीतोष्ण जलवायु - में उगने वाले पौधों के लिए एक अपेक्षाकृत कम तापमान की आवश्यकता होती है।

जल (Water):
पौधों द्वारा मृदा से अवशोषित जल के केवल एक प्रतिशत भाग का ही प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया में उपयोग होता है। अत: यह प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया में सीधे प्रयोग में आने वाले पदार्थ के रूप में सीमाकारी कारक नहीं होता है। यह अप्रत्यक्ष रूप से ही प्रभावशाली होता है। मृदा - जल की अधिक कमी होने के कारण जल सीमाकारी कारक बन जाता है तथा प्रकाश - संश्लेषण की दर को अप्रत्यक्ष रूप से दो प्रकार से प्रभावित करता है:
1. जल की कमी के कारण पौधों की पत्तियों में पाये जाने वाले रंध्र बन्द हो जाते हैं, जिससे CO2 की सांद्रता कम हो जाती है।
2. पत्ती का जल विभव कम हो जाता है।

(ब) आन्तरिक कारक (Internal Factors): प्रकाश - संश्लेषण की दर को प्रभावित करने वाले प्रमुख आन्तरिक कारक निम्न हैं:

क्लोरोफिल (Chlorophyll): क्लोरोफिल प्रकाश - संश्लेषण की क्रिया के लिए अति आवश्यक कारक है। इसकी अनुपस्थिति में प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया सम्भव नहीं है। पादपों में होने वाली प्रकाश - संश्लेषण की दर पत्नी में क्लोरोफिल की मात्रा बढ़ने के साथ बढ़ती है।

संचित भोजन की मात्रा (Amount of Stored Food): पादपों की कोशिकाओं में संचित भोजन की मात्रा बढ़ने के साथ प्रकाश संश्लेषण की दर घटती है। प्रकाश - संश्लेषण (Photosynthesis) का पौधे न के दूसरे भागों में स्थानान्तरण हो जाने पर यह दर पुन: बढ़ जाती है।

पत्ती की आन्तरिक संरचना (Internal Structure of 5 Leaf): प्रकाश - संश्लेषण की दर पत्ती की आन्तरिक संरचना व रंधों की संख्या पर निर्भर करती है।

 

प्रश्न 12. प्रकाश - संश्लेषण क्रिया में रसोपरासरणी परिकल्पना को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: रसोपरासरणी परिकल्पना (Chemiosmotic Hypothesis):
क्लोरोप्लास्ट में ATP के संश्लेषण को रसोपरासरणी परिकल्पना के द्वारा समझा जा सकता है। इस परिकल्पना को पीटर मिटचेल (Peter Mitchell) ने बताया था। श्वसन क्रिया की जैसे ही प्रकाश - संश्लेषण में भी ATP का संश्लेषण एक झिल्लिका के आर - पार प्रोटीन प्रवणता के कारण होता है। यहां पर ये झिल्लिकार्ये थाइलेकोइड की होती हैं। इसमें प्रोटोन झिरिननका के अन्दर की ओर अर्थात् अवकोशिका (lumen) में साँचत होता है। श्वसन क्रिया में जब इलेक्ट्रॉन ETS (Electron Transport System) से गुजरते हैं तो ये प्रोटोन माइटोकॉण्डिया की अंतरा झिल्ली अवकोशिका में सचित होते हैं। इलेक्ट्रॉन के सक्रियता और उनके परिवहन के समय प्रोटोन प्रवणता झिल्लिका के आर - पार होती है। प्रोटोन प्रवणता के विकास को निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है:

क्योंकि जल के अणु का विघटन झिल्लिका के अन्दर की ओर होता है। जल के विघटन से उत्पन्न हाइड्रोजन आयन अथवा प्रोटोन थाइलेकोइड अवकाशिका (lumen) में संचित होता है।

जब प्रकाश तंत्र (Photosystem) के माध्यम से इलेक्ट्रॉन गति करते हैं तो प्रोटोन झिल्लिका के पार चला जाता है, क्योंकि झिल्लिका के बाहर स्थित इलेक्ट्रॉन ग्राही इलेक्ट्रॉन का स्थानान्तरण हाइड्रोजन वाहक को करता है न कि इलेक्ट्रॉन वाहक को। अतः इलेक्ट्रॉन प्रवाह के समय यह अणु स्ट्रोमा (stroma) से एक प्रोटोन को ले लेता है, जब यह अणु अपने इलेक्ट्रॉन के झिल्ली के भीतरी ओर स्थित इलेक्ट्रॉन वाहक को देता है, तब प्रोटोन झिल्लिका के अन्दर की ओर मुक्त होता है।

NADP रिडक्टेज एंजाइम झिल्ली के स्ट्रोमा की ओर होता है। फोटोसिस्टम I के इलेक्ट्रॉन ग्राही से आने वाले इलेक्ट्रॉन के साथ - साथ प्रोटोन भी NADP को NADPH + H+ में अपचयित करने के लिए आवश्यक होते हैं। ये प्रोटोन स्ट्रोमा पीठिका से आते हैं।

अतः क्लोरोप्लास्ट के स्ट्रोमा में प्रोटोन की संख्या घटती है, जबकि अवकाशिका (lumen) में प्रोटोन का संचयन होता है। इस प्रकार थाइलेकोइड झिल्ली के आर - पार एक प्रोटोन प्रवणता उत्पन्न होती है और इसी के साथ ल्यूमेन में pH कम हो जाता है।
प्रोटोन प्रवणता महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि प्रवणता टूटने पर ऊर्जा मुक्त होती है। यह प्रवणता इस कारण टूटती है क्योंकि प्रोटोन झिल्लिका में उपस्थित

एटीपीएज (ATPase) के पारगमन वाहिका (F0) के माध्यम से स्ट्रोमा में गतिशील होता है। एटीपीएज एंजाइम के दो भाग होते हैं:

एक तो एफ शून्य (F0) भाग होता है, जो झिल्लिका में अंत:स्थापित होता है व पारगमन झिल्लिका चैनल की रचना करता है जो झिल्लिका के आर - पार प्रोटोन विसरण को आगे बढ़ाता है।

दूसरा भाग एफ बन (F0) होता है, यह थाइलेकोइड की बाहरी सतह जो स्ट्रोमा की ओर होती है, उस पर कर्ता के रूप में होता है।