बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 15 पादप वृद्धि एवं परिवर्धन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. प्रकाशानुवर्तन (phototropism) प्रक्रिया को समझाइए। या प्रकाशानुवर्तन पर टिप्पणी लिखिए। या प्रकाशानुवर्तन क्या है? इस क्रिया का नियमन करने वाले हॉर्मोन्स का नाम लिखिए।
उत्तर : प्रकाशानुवर्तन इस क्रिया में पौधों के विभिन्न भाग प्रकाश उद्दीपन द्वारा विभिन्न प्रकार की वक्रण गतियाँ प्रदर्शित करते हैं।
प्रकाश के एकदिशीय उद्दीपन (unilateral stimulus) के कारण तने प्रकाश की ओर मुड़ जाते हैं। इसे धनात्मक प्रकाशानुवर्तन (positive phototropism) कहते हैं। जड़े प्रकाश के इस प्रकार के उद्दीपन के विपरीत वक्रण प्रदर्शित करती हैं। इसे ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन (negative phototropism) कहते हैं। पत्तियाँ उभय प्रकाशानुवर्तन (diaphototropism) तथा शाखाएँ प्रकाश के अन्य किसी कोण पर तिर्यक प्रकाशानुवर्तन (plagiophototropism) प्रदर्शित करती हैं। प्रकाशानुवर्तन का कारण कोलोडनी तथा वेण्ट (Cholodny and went) ने ऑक्सिन के असमान वितरण को पाया। अंधेरे के क्षेत्र की ओर अधिक ऑक्सिन एकत्रित हो जाने से तनों में उस ओर अधिक वृद्धि तथा जड़ों में वृद्धि का संदमन होने से तने प्रकाश की ओर, किन्तु जड़े प्रकाश के विपरीत वक्रण प्रदर्शित करती हैं। कुछ पौधे अथवा उनके अंग परिवर्द्धन के विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। मूंगफली (groundnut = Arachis hypoged) में अण्डाशय (ovary) के नीचे लगा वृन्त पहले धनात्मक किन्तु निषेचन (fertilization) के बाद ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन प्रदर्शित करता है।
एक सामान्य प्रयोग द्वारा प्रकाशानुवर्तन को निम्नवत् प्रदर्शित किया जा सकता है। लकड़ी का बना एक ऐसा बॉक्स लेते हैं जिसमें एक ओर प्रकाश के आने के लिए खिड़की बनी होती है। एक गमले में । लगा पौधा इस बॉक्स के अन्दर रख दिया जाता है। कुछ दिन बाद देखने पर पता चलता है कि पौधे की शाखायें खिड़की की ओर अर्थात् प्रकाश के स्रोत की ओर मुड़ जाती हैं। इससे सिद्ध होता है कि पौधे के वायवीय भाग विशेषकर तना धनात्मक प्रकाशानुवर्ती होते हैं।
प्रश्न 2. गुरुत्वानुवर्तन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : गुरुत्वानुवर्तन गुरुत्वाकर्षण के उद्दीपन (stimulus) के प्रभाव से होने वाली वक्रण (curvature) गति गुरुत्वानुवर्ती गति(geotropic movement) कहलाती है। पौधों के वायवीय भाग विशेषकर तयों के शीर्ष ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्ती (negatively geotropic), किन्तु जड़े धनात्मक गुरुत्वानुवर्ती (positively geotropic) होती हैं।
गुरुत्वाकर्षण शक्ति (gravitational force)
के कारण क्षैतिज स्थिति में रखे हुए पौधे के तने व जड़ के शीर्षों (apices) में नीचे की ओर ऑक्सिन हॉर्मोन एकत्रित हो जाते हैं। तने के शीर्ष में नीचे की ओर एकत्रित ऑक्सिन की अधिक मात्रा के कारण तने के अग्रभाग के निचले क्षेत्र में अधिक वृद्धि होती है और यह ऊपर की ओर मुड़ जाता है। इसके विपरीत मूलाग्र के निचले भाग में एकत्रित ऑक्सिन की अधिक मात्रा वृद्धि को संदमित (supress) करती है, जबकि इस क्षेत्र के ऊपरी तल में ऑक्सिन की कम मात्रा वृद्धि को प्रोत्साहित करती है। अतः मूलाग्र नीचे की ओर वक्रता प्रदर्शित करता है।
गुरुत्वानुवर्तन का प्रदर्शन उपर्युक्ते प्रकार के वक्रण को एक सामान्य प्रयोग द्वारा समझाया जा सकता है। जब किसी गमले में लगे पौधे को भूमि के समान्तर रख देते हैं तो ऑक्सिन (auxin) हॉर्मोन के प्रभाव से तने में ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्तन (negative geotropism) तथा जड़ के निचले सिरे पर धनात्मक गुरुत्वानुवर्तन (positive geotropism) होने लगता है। इसके कारण तना’ऊपर की ओर तथा जड़ नीचे की ओर वक्रण प्रदर्शित करती है।
प्रश्न 3. फाइटोक्रोम पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : फाइटोक्रोम फाइटोक्रोम एक प्रकाशग्राही वर्णक है। जैव रासायनिक दृष्टि से फाइट्रोक्रोम प्रोटीन है। फाइटोक्रोम अधिकतर पादपों में पाया जाता है। यह एक ऐसा वर्णक है, जिसका उपयोग पौधे प्रकाश को पहचानने के लिए करते हैं। यह प्रकाश के दृश्य स्पेक्ट्रम के लाल और अवरक्त प्रकाश के प्रति संवेदनशील है। कई पुष्पीय पौधे इसका उपयोग प्रकाशीय अवधि के आधार पर पुष्पन के समय का नियंत्रण हेतु करते हैं। यह अन्य प्रतिक्रियाओं; जैसे—बीज-अंकुरण, नवोभिद् की वृद्धि, आकार, आकृति, पत्तियों की संख्या, हरित लवकों का संश्लेषण आदि को भी नियंत्रित करते हैं। यह अधिकतर पौधों में पत्तियों पर पाया जाता है। फाइटोक्रोम में एक क्रोमोफोर, एक एकल बाइलिन अणु जिसमें, चार पाइरॉल रिंग की खुली श्रृंखला जो प्रोटीन से जुड़ी होती है, पाया जाता है। फाइटोक्रोम क्रोमोफोर साधारणत: फाइटोक्रोमोबिलिन होती है और फायकोसायनोबिलिन एवं बिलिरुबिन से सम्बन्धित होती है। फाइटोक्रोम वर्णक की खोज Sterling Hendricks एवं Harry Borthwick द्वारा की गयी थी। फाइटोक्रोम की पहचान Warren Butler एवं Harold Siegelman द्वारा 1959 में स्पेक्ट्रोफोटोमीटर की सहायता से की गयी थी। फाइटोक्रोम नाम Butler द्वारा दिया गया।
प्रश्न 4. बीज प्रसुप्तावस्था के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर : प्रसुप्ति के कारणों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा गया है
A.
प्रसुप्ति के बाह्य कारण (External Causes of Dormancy) :
कुछ पौधों के बीज शरद् ऋतु के अन्तिम भाग में परिपक्व होते हैं, उस समय उनके अंकुरण के लिए तापमान उच्च रहता है। अत: ये ताप कम होने तक प्रसुप्त (dormant) रहते हैं। ऑक्सीजन की अपर्याप्त उपलब्धि के कारण भी बीजों का अंकुरण रुक जाता है। कुछ बीज पकने पर तालाब में गिरते हैं और पेंदी में मृदा से आच्छादित हो जाते हैं जिससे उन्हें ऑक्सीजन नहीं मिल पाती। यहाँ पर बीज बहुत अधिक अवधि तक प्रसुप्त (dormant) रह सकते हैं और केवल सतह पर लाए जाने पर ही अंकुरित (germinate) होते हैं।
कुछ जातियों के बीज; जैसे—सलाद (Lettuce), तम्बाकू की कुछ किस्में, मिसिल्टो (Viscum), आदि प्रकाश की अनुपस्थिति में अंकुरित नहीं होते और बहुत कम प्रकाश में रखने पर भी अंकुरित हो जाते हैं। ऐसे बीजों में दृश्य स्पेक्ट्रम (visible spectrum) का लाल (R 660 nm) क्षेत्र अंकुरण के लिए बहुत प्रभावी होता है तथा सुदूर लाल (Far red 730 nm) क्षेत्र, लाल प्रकाश के प्रभाव को समाप्त कर देता है। बीजों के अंकुरण पर लाल (red) तथा सुदूर लाल (far red) प्रकाश का प्रभाव, फाइटोक्रोम (phytochrome) नामक प्रोटीन वर्णक (pigment) के कारण होता है।
B. :- प्रसुप्ति के आन्तरिक कारण (Internal Causes of Dormancy) :
ये मुख्यत: निम्न हैं
1. बीजावरण की जल के लिए अपारगम्यता (Impermeability of Seed Coat to Water) :
अनेक पौधों के बीजों में बीजावरण कठोर व जल के लिए अपारगम्य होता है, अतः बीजं जल के सम्पर्क में रहने पर भी जल अवशोषित नहीं कर पाते और उनमें अंकुरण नहीं हो पाता। ऐसे बीज लम्बी अवधि तक भूमि में पड़े रहते हैं। प्राकृतिक अवस्था में मिट्टी के कणों के अपघर्षण (scarification) तथा जीवाणुओं व कवकों की क्रियाओं के फलस्वरूप बीजावरण धीरे-धीरे कमजोर होकर पारगम्य हो जाता है, इसके बाद ही बीज जल का अवशोषण करके अंकुरित होते हैं।
2. बीजावरण की ऑक्सीजन के लिए अपारगम्यता (Impermeability of Seed Coat to Oxygen) :
कभी-कभी बीजों में प्रसुप्ति, बीजावरण के ऑक्सीजन के लिए अपारगम्य होने के कारण होती है जो कारक या पदार्थ बीजावरण को जल के लिए अपारगम्य बनाते हैं, वे ही धीरे-धीरे इसे ऑक्सीजन के लिए भी अपारगम्य बनाते हैं। जैन्थियम (Xanthium), अनेक घासों तथा कम्पोजिटी (Compositae) कुल के कुछ पौधों के बीजों में इसी प्रकार की प्रसुप्ति (dormancy) पाई जाती है।
3. यान्त्रिक रूप से प्रतिरोधी बीजावरण (Mechanically Resistant Seed Coat) :
कुछ पौधों के बीजों में बीजावरण द्वारा जल व ऑक्सीजन तो ग्रहण कर ली जाती है, परन्तु बीजावरण इतना कठोर होता है कि भ्रूण (embryo) की पूरी वृद्धि नहीं हो पाती और उसका विकास केवल बीजावरण तक ही सीमित हो पाता है। बीजावरण न टूट पाने के कारण अंकुर रुक जाता है, जैसे-ऐलिस्मा प्लैंटेगो (Alisma plantqgo) के बीज में भ्रूण पानी के कारण फूल जाता है और अन्त: शोषण दाब (imbibition pressure) से बीजावरण को दबाता है; परन्तु उसे तोड़ नहीं पाता और अंकुरण रुक जाता है। इस प्रकार की प्रसुप्ति (dormancy) के कुछ अन्य उदाहरण-काली सरसों (Brassica nigra), लेपिडियम (Lepidium), ऐमारेन्थस, रेट्रोफ्लेक्सस (Amaranthus retroflexus), आदि है।
4. अपूर्ण परिवर्धित भ्रूण (Imperfectly Developed Embryo) :
इस प्रकार की प्रसुप्ति (dormancy) में बीज के अन्दर भ्रूणीय विकास (embryonic development) क्रिया पूर्ण भी नहीं हो पाती कि वे मातृ पौधे से पृथक् हो जाते हैं। ऐसे बीजों में भ्रूणीय विकास की निषेचित अण्ड से लेकर, पूर्ण परिवर्धित भ्रूण के सभी श्रेणीकरण (gradation) पाए जाते हैं। कुछ बीजों में भ्रूणीय परिवर्धन शरद् अथवा शीत ऋतु में धीरे-धीरे होता है और बसंत ऋतु में अंकुरण केठीक पूर्व तक पूर्ण हो जाता है, जैसे-ऐरीथ्रोनियम (Erythronium), रेननकुलस (Ranunculus) तथा इलेक्स (Ilex), आदि।
5. भ्रूण की परिपक्वन के बाद शुष्क भण्डारण आवश्यकता (Embryo Requiring after Ripening in Dry Storage) :
कुछ परिपक्व बीजों में भ्रूण (embryo) पूर्ण विकसित होते हैं परन्तु उन्हें अंकुरण से पूर्व कुछ समय तक शुष्क वातावरण में रखना आवश्यक हो जाता है, ऐसा न करने पर उनमें अंकुरण नहीं होता। इस प्रक्रिया में बीजों में अनेक ऐसे उपापचयी (metabolic) परिवर्तन होते हैं जो अंकुरण के लिए आवश्यक हैं। क्रेटीगस (Crategus) के बीजों में यह बाद का परिपक्वन प्रक्रम (after ripening process) एक से तीन महीनों में पूरा हो जाता है। इस प्रक्रिया में जैसे-जैसे बाद का पक्वन बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे भ्रूण (embryo) की अम्लीयता में वृद्धि होती जाती है। इससे जल का अवशोषण बढ़ता है और अंकुरण शीघ्र होता है।
6. अंकुरणरोधक पदार्थों की उपस्थिति (Presence of Germinating Inhibitors) :
अनेक पौधों के भ्रूण, भ्रूणपोष, बीज, फल, आदि के ऊतकों में कुछ निरोधक या संदमक (inhibitors) पदार्थ, जैसे-ऐब्सिसिक अम्ल (abscisic acid), कौमेरिन (coumarin), फेरुलिक अम्ल (ferulic acid) तथा छोटी श्रृंखला वाले वसा अम्ल (fatty acid), आदि होते हैं। ये पदार्थ बीजों के अंकुरण को रोकते हैं।
प्रश्न 5 अल्प प्रदीप्तकाली पौधे और दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधे किसी एक स्थान पर साथ-साथ फूलते हैं। विस्तृत व्याख्या कीजिए।
उत्तर : अल्प प्रदीप्तकाली पौधों (short day plants) में निर्णायक दीप्तिकाल प्रकाश की वह अवधि है जिस पर या इससे कम प्रकाश अवधि पर पौधे पुष्प उत्पन्न करते हैं, परन्तु उससे अधिक प्रकाश अवधि में पौधा पुष्प उत्पन्न नहीं कर सकता। दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधों (long day plants) में निर्णायक (UPBoardSolutions.com) दीप्तिकाल प्रकाश की वह अवधि है। जिससे अधिक प्रकाश अवधि पर पौधे पुष्प उत्पन्न करते हैं, परन्तु उससे कम प्रकाश अवधि में पुष्प उत्पन्न नहीं होते। अत: अल्प प्रदीप्तकाली पौधों और दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधों में विभेदन उनमें निर्णायक दीप्तिकाल से कम अवधि पर पुष्पन होना अथवा अधिक अवधि पर पुष्प उत्पन्न होने के आधार पर किया
जाता है। दो जातियों के पौधे समान अवधि के प्रकाश में पुष्प उत्पन्न करते हैं, परन्तु उनमें से एक अल्प प्रदीप्तकाली पौधा तथा दूसरा दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधा हो सकता है; जैसे-जैन्थियम (Xanthiur) का निर्णायक दीप्तिकाल 15 1/2 घण्टे है और हाईओसायमस नाइजर (Hyoscyamus niger) को निर्णायक दीप्तिकाल 11 घण्टे है। दोनों पौधे 14 घण्टे की प्रकाशीय अवधि में पुष्प उत्पन्न कर सकते हैं। इस आधार पर जैन्थियम अल्प प्रदीप्तकाली पौधा है क्योंकि यह निर्णायक दीप्तिकाल से कम प्रकाशीय अवधि में पुष्पन करता है तथा हाइओसायमस नाइजर दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधा है; क्योंकि यह निर्णायक दीप्तिकाल से अधिक प्रकाश अवधि में पुष्पन करता है।
प्रश्न 6. दीप्तिकालिता तथा वसन्तीकरण क्या है? इनके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर : दीप्तिकालिता पौधों के फलने-फूलने, वृद्धि, पुष्पन आदि पर प्रकाश की अवधि (photoperiod) का प्रभाव (UPBoardSolutions.com) पड़ता है। पौधों द्वारा प्रकाश की अवधि तथा समय के प्रति अनुक्रिया को दीप्तिकालिता (photoperiodism) कहते हैं। (अथवा) दिन व रात के परिवर्तनों के प्रति कार्यात्मक अनुक्रियाएँ दीप्तिकालिता कहलाती है। दीप्तिकालिता. ‘ शब्द का प्रयोग गार्नर तथा एलार्ड (Garmer and Allard, 1920) ने किया।
(क) दीप्तिकालिता के आधार पर पौधों को मुख्य रूप से तीन समूहों में बाँट लेते हैं
अल्प प्रदीप्तकाली पौधा (Short day plant)
दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधा (Long day plant)
तटस्थ प्रदीप्तकाली पौधा (Photo neutral plant)
अल्प प्रदीप्तकाली पौधों को मिलने वाली प्रकाश अवधि को कम करके और दीर्घ प्रदीप्तकाली पौधों को अतिरिक्त प्रकाश अवधि प्रदान करके पुष्पन शीघ्र कराया जा सकता है।
(ख) कायिक शीर्षस्थ या कक्षस्थ कलिका उपयुक्त प्रकाश अवधि प्राप्त होने पर ही पुष्प कलिका में रूपान्तरित होती है। यह परिवर्तन फ्लोरिजन (florigen) हॉर्मोन के कारण होता है जो दिन और रात्रि के अन्तराल के कारण संश्लेषित होता है। वसन्तीकरण कम ताप काल में पुष्पन को प्रोत्साहन वसन्तीकरणं कहलाता है। कुछ पौधों में पुष्पन गुणात्मक या मात्रात्मक तौर पर कम तापक्रम में अनावृत होने पर निर्भर करता है। इस गुण को वसन्तीकरण कहते हैं। वसन्तीकरण शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टी०डी० लाइसेन्को (T.D. Lysenko, 1928) ने किया था। गेहूँ की शीत प्रजाति को वसन्त ऋतु में बोने योग्य बनाने के लिए इसके भीगे बीजों को 10-12 दिन तक 3°C ताप पर रखते हैं और फिर वसन्ती गेहूँ के साथ बोने से यह वसन्ती गेहूं के साथ ही पककर तैयार हो जाता है। पौधों में कायिक वृद्धि कम होती है। कम ताप उपचार से पौधे की कायिक अवधि कम हो जाती है। अनेक द्विवर्षी पौधों को कम तापक्रम में अनावृत कर दिए जाने से पौधों में दीप्तिकालिता के कारण पुष्पन की अनुक्रिया बढ़ जाती है। वसन्तीकरण के फलस्वरूप द्विवर्षी पौधों में प्रथम वृद्धिकाल में ही पुष्पन किया जा सकता है। पौधों में शीत के प्रति प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। वसन्तीकरण द्वारा पौधों को प्राकृतिक कुप्रभावों; जैसे-पाला, कुहरा आदि से बचाया जा सकता है।
प्रश्न 7. प्राकृतिक पादप वृद्धि नियामकों के पाँच मुख्य समूहों के बारे में लिखिए। इनके आविष्कार, कार्यिकी प्रभाव तथा कृषि/बागवानी में इनके प्रयोग के बारे में लिखिए।
उत्तर : प्राकृतिक पादप वृद्धि नियामक
पौधों की विभज्योतकी कोशिकाओं (meristematic cells) और विकास करती पत्तियों एवं फलों में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होने वाले विशेष कार्बनिक यौगिकों को पादप हॉर्मोन्स (phytohormones) कहते हैं। ये अति सूक्ष्म मात्रा में परिवहन के पश्चात् पौधों के अन्य अंगों (भागों) में पहुँचकर वृद्धि एवं अनेक उपापचयी क्रियाओं को प्रभावित एवं नियन्त्रित करते हैं। वेण्ट (Went, 1928) के अनुसार वृद्धि नियामक पदार्थों के अभाव में वृद्धि नहीं होती। पादप हॉर्मोन्स को हम निम्नलिखित पाँच प्रमुख समूहों में बाँट लेते हैं
(1) ऑक्सिन (Auxins)
(2) जिबरेलिन (Gibberellins)
(3) सायटोकाइनिन (Cytokinins)
(4) ऐब्सीसिक अम्ल (Abscisic acid)
(5) एथिलीन (Ethylene)
1. ऑक्सिन: - सर्वप्रथम डार्विन (Darwin, 1880) ने देखा कि कैनरी घास (Phalaris conariensis) के नवोभिद् के प्रांकुर चोल (coleoptile) एकतरफा प्रकाश की ओर मुड़ जाते हैं, परन्तु प्रांकुर चोल के शीर्ष को काट देने पर यह एकतरफा प्रकाश की ओर नहीं मुड़ता।
बायसेन ::- जेन्सन (Boysen-Jensen 1910-1913) ने कटे हुए प्रांकुर चोल को अगार (agar) के घनाकार टुकड़े पर रखा, कुछ समय पश्चात् अगार के घनाकार टुकड़े को कटे हुए प्रांकुर चोल के स्थान पर रखने के पश्चात् एकतरफा प्रकाश से प्रकाशित करने पर प्रांकुर चोल प्रकाश की ( ओर मुड़ जाता है। वेण्ट (Went, 1928) ने इसी प्रकार के प्रयोग जई (Avena sativa) के नवोभिद् पर किए। उन्होंने प्रयोग से यह निष्कर्ष निकाला कि प्रांकुर चोल के शीर्ष पर बना रासायनिक पदार्थ अगार के टुकड़ों (block) में आ गया था। वेण्ट ने प्रांकुर चोल के कटे हुए शीर्ष को दो अगार के टुकड़ों पर रखा जिनके मध्य अभ्रक (माइका) की पतली प्लेट लगी थी, एकतरफा प्रकाश डालने पर रासायनिक पदार्थ का 65% भाग अप्रकाशित दिशा के टुकड़े में एकत्र हो जाता है और केवल 35% रासायनिक पदार्थ प्रकाशित दिशा के टुकड़े में एकत्र होता है।
वेण्ट ने इस रासायनिक पदार्थ को ऑक्सिन (auxin) नाम दिया। ऑक्सिन की सान्द्रती तने में वृद्धि को प्रेरित करती है और जड़ में वृद्धि का संदमन करती है। ऑक्सिन के असमान वितरण के फलस्वरूप ही प्रकाशानुवर्तन (phototropism) और गुरुत्वानुवर्तन (geotropism) गति होती है। केनेथ थीमान (Kenneth Thimann) ने ऑक्सिन को शुद्ध रूप में प्राप्त करके इसकी आण्विक संरचना ज्ञात की। ऑक्सिन के कार्यिकी प्रभाव एवं उपयोग
(i) प्रकाशानुवर्तन एवं गुरुत्वानुवर्तन (Phototropism and Geotropism) :
ऑक्सिन की अधिक मात्रा तने के लिए वृद्धिवर्धक (promotional) तथा जड़ के लिए वृद्धिरोधक (inhibition) प्रभाव रखती है।
(ii) शीर्ष प्रभाविता (Apical dominance) :
सामान्यतया पौधों के तने या शाखाओं के शीर्ष पर स्थित कलिका से स्रावित ऑक्सिन पाश्र्वीय कक्षस्थ कलिकाओं की वृद्धि का संदमन (inhibition) करते हैं। शीर्ष कलिका को काट देने से पाश्र्वीय कलिकाएँ शीघ्रता से वृद्धि करती हैं। चाय बागान में तथा चहारदीवारी के लिए प्रयोग की जाने वाली हैज को निरन्तर काटते रहने से झाड़ियाँ घनी होती हैं।
(iii) विलगन (Abscission) :
परिपक्व पत्तियाँ, पुष्प और फल विलगन पर्त के बनने के कारण पौधे से पृथक् हो जाते हैं। (UPBoardSolutions.com) ऑक्सिन; जैसे-IAA, IBA की विशेष सान्द्रता का छिड़काव करके अपरिपक्व फलों के विलगन को रोका जा सकता है। इससे फलों का उचित मूल्य प्राप्त होता है।
(iv) अनिषेकफलन (Parthenocarpy) :
अनेक फलों में बिना परागण और निषेचन के भी फल को विकास हो जाता है; जैसे–अंगूर, केला, सन्तरा आदि में। ये फल बीजरहित होते हैं। ऑक्सिन का वर्तिकाग्र पर लेपन करने से बिना निषेचन के फल विकसित हो जाते हैं, इस प्रक्रिया को अनिषेकफलन कहते हैं। बीजरहित फलों में खाने योग्य पदार्थ की मात्रा अधिक होती है।
(v) खरपतवार निवारण (Weed destruction) :
खेतों में प्रायः अनेक जंगली पौधे उग आते हैं, इन्हें खरपतवार कहते हैं। ये फसल के साथ प्रतिस्पर्धा करके पैदावार को प्रभावित करते हैं। परम्परागत तरीके से निराई-गुड़ाई, फसल चक्र अपनाकर खरपतवार नियन्त्रण किया जाता है। 2, 4-D नामक संश्लेषी ऑक्सिन का उपयोग करके एकबीजपत्री फसलों में उगने वाले द्विबीजपत्री खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है।
(vi) कटे तनों पर जड़ विभेदन (Root differentiation on Stem cutting) :
अनेक पौधों में कलम लगाकर नए पौधे तैयार किए जाते हैं। ऑक्सिन: जैसे–IBA का उपयोग कलम के निचले सिरे पर करने से जड़े शीघ्र निकल आती हैं। अतः ऑक्सिन का उपयोग मुख्यतया सजावटी पौधों को तैयार करने में किया जाता है।
(vii) प्रसुप्तती नियन्त्रण (Control of Dormancy) :
आलू के कन्द तथा अन्य भूमिगत भोजन संचय करने वाले भागों की प्रसुप्त कलिकाओं के प्रस्फुटन को रोकने के लिए इन्हें कम ताप पर संगृहीत किया जाता है। ऑक्सिने का छिड़काव करके इन्हें सामान्य ताप पर संगृहीत किया जा सकता है। ऑक्सिन कलिकाओं के लिए वृद्धिरोधक का कार्य करते हैं।
2. जिबरेलिन
धान की फसल में बैकेन (फूलिश सीडलिंग-foolish seedling) नामक रोग एक कवक जिबरेली फ्यूजीकुरोई (Gibberella fujitkuroi) से होता है। इसमें पौधे अधिक लम्बे, पत्तियाँ पीली लम्बी और दाने छोटे होते हैं। कुरोसावा (Kurosawa, 1926) ने प्रमाणित किया कि यदि कवक द्वारा स्रावित रस को स्वस्थ पौधे पर छिड़का जाए तो स्वस्थ चौधा भी रोगी हो जाता है। याबुता और हयाशी (Yabuta and Hayashi, 1939) ने कवक के रस से वृद्धि नियामक पदार्थ को पृथक् किया, इसे जिबरेलिन–A (GA) नाम दिया गया। सबसे पहले खोजा गया जिबरेलिन-As है। अब तक लगभग 110 प्रकार के GA खोजे जा चुके हैं।
जिबरेलिन का पादप कार्यिकी पर प्रभाव एवं कृषि या बागवानी में महत्त्व
(i) लम्बाई बढ़ाने की क्षमता (Efficiency of increase the length) :
जिबरेलिन के प्रयोग से आनुवंशिक रूप से बौने पौधे लम्बे हो जाते हैं, लेकिन यह लक्षण उन्हीं पौधों तक सीमित रहता है। जिन पर GA का छिड़काव किया जाता है। GA के उपयोग से सेब जैसे फल लम्बे हो जाते हैं। अंगुर के डंठल की लम्बाई बढ़ जाती है। गन्ने की खेती पर GA छिड़कने से तनों की लम्बाई बढ़ जाती है। इससे फसल का उत्पादन 20 टन प्रति एकड़ बढ़ जाता है।
(ii) पुष्पन पर प्रभाव (Effect of Flowering) :
कुछ पौधों को पुष्पन हेतु कम ताप तथा दीर्घ प्रकाश अवधि (long photoperiod) की आवश्यकता होती है। यदि इन पौधों पर GA का छिड़काव किया जाए तो पुष्पन सुगमता से हो जाता है। द्विवर्षी पौधे एकवर्षी पौधों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। GA के इस प्रभाव को बोल्टिग प्रभाव (Bolting effect) कहते हैं। इसका उपयोग चुकन्दर, गाजर, मूली, पत्तागोभी आदि के पुष्पन के लिए किया जाता है।
(iii) अनिषेकफलन (Parthenocarphy) :
GA के छिड़काव से पुष्प से बिना निषेचन के फल बन जाता है। फल बीजरहित होते हैं।
(iv) जीर्णता या जरावस्था (Senescence) :
GA फलों को जल्दी गिरने से रोकने में सहायक होते हैं।
(v) बीजों का अंकुरण (Seed Germination) :
GA बीजों के अंकुरण को प्रेरित करते हैं।
(vi) पौधों की परिपक्वता (Maturity of Plants) :
GA का छिड़काव करने से अनावृतबीजी पौधे शीघ्र परिपक्व होते हैं और बीज जल्दी तैयार हो जाता है।
3. सायटोकाइनिन
सायटोकाइनिन ऑक्सिने की सहायता से कोशिका विभाजन को उद्दीपित करते हैं। एफ० स्कूग (E Skoog) तथा उसके सहयोगियों ने देखा कि तम्बाकू के तने के अन्तस्पर्व खण्ड से अविभेदित कोशिकाओं को समूह तभी बनता है, जब माध्यम में ऑक्सिन के अतिरिक्त सायटोकाइनिन नामक बढ़ावा देने वाला तत्त्व मिलाया गया। इसका नाम काइनेटिने रखा। लेथम तथा सहयोगियों ने मक्का के बीज से ऐसा ही पदार्थ प्राप्त करके इसका नाम जिएटिन (zeatin) रखा। काइनेटिन और जिएटिन सायटोकाइनिन ही हैं। सायटोकाइनिन का कार्यिकी प्रभाव एवं महत्त्व ये पदार्थ कोशिका विभाजन को प्रेरित करते हैं। ये जीर्णता (senescence) को रोकते हैं। कोशिका विभाजन के अतिरिक्त सायटोकाइनिन पौधों के अंगों के निर्माण को नियन्त्रित करते हैं। यदि तम्बाकू की कोशिकाओं का संवर्धन शर्करा तथा खनिज लवणयुक्त माध्यम में किया जाए तो केवल कैलस (callus) ही विकसित होता है। यदि माध्यम में सायटोकाइनिन और ऑक्सिन का अनुपात बदलता रहे तो जड़ अथवा प्ररोह का विकास होता है। संवर्धन के प्रयोग आनुवंशिक इन्जीनियरी के लिए लाभदायक हैं; क्योंकि नई किस्म के पौधे उत्पन्न करने में कोशिका संवर्धन लाभदायक है।
4. ऐब्सीसिक अम्ल
कार्ल्स एवं एडिकोट ने कपास के पौधे की पुष्पकलिकाओं से एक पदार्थ ऐब्सीसिन (abscisin) प्राप्त किया। इस पदार्थ को किसी पौधे पर छिड़कने से पत्तियों का विलगन हो जाता है। वेयरिंग (Wareing, 1963) ने एसर की पत्तियों से डॉरमिन (dormin) प्राप्त किया, यह बीजों के अंकुरण और कलिकाओं की वृद्धि का अवरोधन करता है। इन दोनों पदार्थों को ऐब्सीसिक अम्ल कहा गया। ऐब्सीसिक अम्ल का कार्यिकी प्रभाव एवं महत्त्व
(i) विलगने (Abscission) :
यह पत्तियों के विलगन को प्रेरित करता है।
(ii) कलिकाओं की वृद्धि एवं बीजों का अंकुरण (Growth of buds and germination of seeds) :
यह कलिकाओं की वृद्धि और बीजों के अंकुरण को रोकता है।
(iii) जीर्णता (Senescence) :
यह जीर्णता को प्रेरित करता है।
(iv) वाष्पोत्सर्जन नियन्त्रण (Control of Transpiration) :
यह रन्ध्रों को बन्द करके वाष्पोत्सर्जन की दर को कम करता है। इसका उपयोग कम जल वाली (UPBoardSolutions.com) भूमि में खेती करने के लिए उपयुक्त है।
(v) कन्द निर्माण (TuberFormation) :
आलू में कन्द निर्माण में सहायता करता है।
(vi) कोशिकाविभाजन एवं कोशिका दीर्धीकरण (Cell division and Cell Elongation) :
ऐब्सीसिक अम्ल कोशिका विभाजन तथा कोशिका दीर्धीकरण को अवरुद्ध करता है। ऐब्सीसिक अम्ल बीजों को प्रसुप्ति के लिए प्रेरित करने और शुष्क परिस्थितियों में पौधे का बचाव करता है।
5. एथिलीन
बर्ग (Burge, 1962) ने एथिलीन को पादप हॉर्मोन सिद्ध किया। यह मुख्यत: पकने वाले फलों से निकलने वाला गैसीय हॉर्मोन होता है। एथिलीन का कार्यिकी प्रभाव एवं महत्त्व
(i) पुष्पन (Flowering) :
यह सामान्यतया पुष्पन को कम करता है, लेकिन अनन्नास में पुष्पन को प्रेरित करता है।
(ii) विलगने (Abscission) :
यह पत्ती, पुष्प तथा फलों के विलगन को तीव्र करता है।
(iii) पुष्प परिवर्तन (Flower Modification) :
कुकरबिटेसी कुल के पौधों में एथिलीन नर पुष्पों की संख्या को कम करके मादा पुष्पों की संख्या को बढ़ाता है।
(iv) फलों को पकना (Fruit Ripening) :
यह फलों को पकाने में सहायक होता है। (आम,केला, अंगूर आदि फलों को पकाने के लिए इथेफोन (ethephon) का प्रयोग औद्योगिक स्तर पर किया जा रहा है। इससे पके फल
प्राकृतिक रूप से पके फलों के समान होते हैं। इथेफोन से एथिलीन गैस निकलती है
प्रश्न 8.: - संक्षिप्त वर्णित कीजिए
(अ) अंकगणितीय वृद्धि
(स) सिग्मॉइड वृद्धि वक्र
(ब) ज्यामितीय वृद्धि
(द) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर
उत्तर : (अ)
अंकगणितीय वृद्धि
समसूत्री विभाजन के पश्चात् बनने वाली दो संतति कोशिकाओं में से एक कोशिका निरन्तर विभाजित होती रहती है और दूसरी कोशिका विभेदित एवं परिपक्व होती रहती है। अंकगणितीय वृद्धि को हम हैं निश्चित दर पर वृद्धि करती जड़ में देख सकते हैं। यह है एक सरलतम (UPBoardSolutions.com) अभिव्यक्ति होती है। संलग्न चित्र में वृद्धि (लम्बाई) समय के विरुद्ध आलेखित की गई है।इसके फलस्वरूप रेखीय वक्र (linear curve) प्राप्त होता है। इस वृद्धि को हम गणितीय रूप से व्यक्त कर सकते हैं
L1 =L0 +rt
(L1 = समय ‘r’ पर लम्बाई,
L0= समय ‘0’ पर लम्बाई
r = वृद्धि दर दीर्घाकरण प्रति इकाई समय में)
(ब) ज्यामितीय वृद्धि
एक कोशिका की वृद्धि अथवा पौधे के एक अंग की वृद्धि अथवा पूर्ण पौधे की वृद्धि सदैव एकसमान नहीं हैं होती।
प्रारम्भिक धीमा वृद्धि काल (initial lag phase)
में वृद्धि की दर पर्याप्त धीमी होती है। तत्पश्चात् यह दर तीव्र हो जाती है और उच्चतम बिन्दु (maximum point) तक पहुँच जाती है। इसे मध्य तीव्र वृद्धि काल छ (middle logarithmic phase) कहते हैं। इसके पश्चात् यह दर धीरे-धीरे कम होती जाती है और अन्त में में स्थिर (UPBoardSolutions.com) हो जाती है। इसे अन्तिम धीमा वृद्धि काल (last stationary phase) कहते हैं। इसे ज्यामितीय वृद्धि कहते हैं। इसमें सूत्री विभाजन से बनी दोनों संतति कोशिकाएँ एक समसूत्री कोशिका विभाजन को अनुकरण करती हैं और इसी प्रकार विभाजित होने की क्षमता बनाए रखती हैं। यद्यपि सीमित पोषण, आपूर्ति के साथ वृद्धि दर धीमी होकर स्थिर हो जाती है। समय के प्रति वृद्धि दर को ग्राफ पर अंकित करने पर एक सिग्मॉइड वक्र (sigmoid curve) प्राप्त होता है। यह ‘S’ की आकृति का होता है। ज्यामितीय वृद्धि (geometrical growth) को गणितीय रूप से निम्नलिखित प्रकार व्यक्त कर सकते हैं
W1 = [latex]{ W }_{ 0}^{ ert }[/latex]
जहाँ W1 = अन्तिम आकार–भार, ऊँचाई, संख्या आदि
W0 = प्रारम्भिक आकार, वृद्धि के प्रारम्भ में
r = वृद्धि दर (सापेक्ष वृद्धि दर)
t = समय में वृद्धि
e = स्वाभाविक लघुगणक का आधार (base of natural logarithms)
r = एक सापेक्ष वृद्धि दर है। यह पौधे द्वारा नई पादप सामग्री का निर्माण क्षमता को मापने के लिए है,जिसे एक दक्षता सूचकांक (efficiency index) के रूप में संदर्भित किया जाता है;अतः W1 का अन्तिम आकार W0 के प्रारम्भिक आकार पर निर्भर करता
(स) सिग्मॉइड वृद्धि वक्र
ज्यामितिक वृद्धि को तीन प्रावस्थाओं में विभक्त कर सकते हैं
प्रारम्भिक धीमा वृद्धि काल (Initial lag phase)
मध्य तीव्र वृद्धि काल (Middle lag phase)
अन्तिम धीमा वृद्धि काल (Last stationary phase)
यदि वृद्धि दर का समय के प्रति ग्राफ बनाएँ तो ‘S’ की आकृति का वक्र प्राप्त होता है। इसे सिग्मॉइड वृद्धि वक्र कहते हैं।
(द) सम्पूर्ण एवं सापेक्ष वृद्धि दर
मापन और प्रति यूनिट समय में कुल वृद्धि को सम्पूर्ण या परम वृद्धि दर (absolute growth rate) कहते हैं।
किसी दी गई प्रणाली की प्रति यूनिट समय में वृद्धि को सामान्य आधार पर प्रदर्शित करना सापेक्ष वृद्धि दर (relative growth rate) कहलाता है।
दोनों पत्तियों ने एक निश्चित समय में अपने सम्पूर्ण क्षेत्रफल में समान वृद्धि की है, फिर भी A की सापेक्ष वृद्धि दर अधिक है।
प्रश्न 9. पुष्पित पौधों के जीवन में किसी एक प्राचालिक (parameter) से वृद्धि को वर्णित नहीं किया जा सकता है, क्यों?
उत्तर : वृद्धि के प्राचालिक
वृद्धि सभी जीवधारियों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। पौधों में वृद्धि कोशिका विभाजन, कोशिका विवर्धन या दीर्धीकरण तथा कोशिका विभेदन के फलस्वरूप होती है। पौधे की मेरिस्टेम कोशिकाओं (meristematic cells) में कोशा विभाजन की क्षमता पाई जाती है। सामान्यतया कोशिका विभाजन जड़ तथा तने के शीर्ष (apex) पर होता है। इसके फलस्वरूप जड़ तथा तने की लम्बाई में वृद्धि होती है। एधा (cambium) तथा कॉर्क एधा (8rk cambium) के कारण तने और जड़ की मोटाई में वृद्धि होती है। इसे द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) कहते हैं। कोशिकीय स्तर पर वृद्धि मुख्यतः जीवद्रव्य मात्रा में वर्धन का परिणाम है। जीवद्रव्य की बढ़ोतरी या वर्धन का मापन कठिन है। वृद्धि दर मापन के कुछ मापदण्ड हैं–ताजे भोर में वृद्धि, शुष्क भार में वृद्धि, लम्बाई, क्षेत्रफल, आयतन तथा कोशिका संख्या में वृद्धि आदि। मक्का की जड़ को अग्रस्थ मेरिस्टेम प्रति घण्टे लगभग 17,500 कोशिकाओं का निर्माण करता है। तरबूज की कोशिका के आकार में लगभग 3,50,000 गुना वृद्धि हो सकती है। पराग नलिका की लम्बाई में वृद्धि होने से यह वर्तिकाग्र, वर्तिका से होती हुई अण्डाशय में स्थित बीजाण्ड में प्रवेश करती है।