बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 17 श्वसन और गैसों का विनिमय दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 17 श्वसन और गैसों का विनिमय दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जैव क्षमता की परिभाषा दीजिए और इसका महत्त्व बताइए।
उत्तर : जैव क्षमता। अन्त:श्वास आरक्षित वायु (Inspiratory Reserve Air Volume, IRV), प्रवाही वायु (Tidal Air Volume, TV) तथा उच्छ्वास आरक्षित वायु (Expiratory Reserve Air Volume, ERV) का योग (IRV + TV + ERV- 3000 + 500 + 1100 = 4600 मिली) फेफड़ों की जैव क्षमता होती है। यह वायु की वह कुल मात्रा होती है जिसे हम पहले पूरी चेष्टा द्वारा फेफड़ों में भरकर पूरी चेष्टा द्वारा शरीर से बाहर निकाल सकते हैं। जिस व्यक्ति की जैव क्षमता जितनी अधिक होती है, उसे शरीर की जैविक क्रियाओं के लिए उतनी ही अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है। खिलाड़ियों, पर्वतारोही, तैराक आदि की जैव क्षमता अधिक होती है। युवक की जैव क्षमता प्रौढ़ की अपेक्षा अधिक होती है। पुरुषों की जैव क्षमता स्त्रियों की अपेक्षा अधिक होती है। यह उनकी कार्य क्षमता को प्रभावित करती है।

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प्रश्न 2 गैसों का विसरण केवल कूपकीय क्षेत्र में होता है, श्वसन तन्त्र के किसी अन्य भाग में नहीं, क्यों?
उत्तर : गैसीय विनिमय मनुष्य के फेफड़ों में लगभग 30 करोड़ वायु कोष्ठक या कूपिकाएँ (alveoli) होते हैं। इनकी पतली भित्ति में रक्त केशिकाओं को घना जाल फैला होता है। श्वासनाल (trachea), श्वसनी (bronchus), श्वसनिका (bronchiole), कूपिका नलिकाओं (alveolar duct) आदि में रक्त केशिकाओं का जाल फैला हुआ नहीं होता। इनकी भित्ति मोटी होती है। अत: कूपिकाओं (alveoli) को छोड़कर अन्य श्वसन भागों में गैसीय विनिमय नहीं होता। सामान्यतया ग्रहण की गई 500 मिली प्रवाही वायु में से लगभग 350 मिली कूपिकाओं में पहुँचती है, शेष श्वास मार्ग में ही रह जाती है। वायु कोष्ठकों की भित्ति तथा रक्त केशिकाओं की भित्ति) मिलकर श्वसन कला (respiratory membrane) बनाती हैं। इससे O2 तथा C का विनिमय सुगमता से हो जाता है। गैसीय विनिमय सामान्य विसरण द्वारा होता है। इसमें गैसें उच्च आंशिक दबाव से कम आंशिक दबाव की ओर विसरित होती हैं। वायुकोष्ठकों में O2 का आंशिक दबाव 100 -104 mm Hg और CO2) को आंशिक दबाव 40 mm Hg होता है। फेफड़ों में रक्त केशिकाओं में आए अशुद्ध रुधिर में 0 का आंशिक दबाव 40 mm Hg और CO2) का आंशिक दबाव 45-46 mm Hg होता है।

ऑक्सीजन वायुकोष्ठकों की वायु से विसरित होकर रक्त में जाती है और रक्त से CO2 विसरित होकर वायुकोष्ठकों की वायु में जाती है। इस प्रकार वायुकोष्ठकों से रक्त ले जाने वाली रक्त केशिकाओं में रक्त ऑक्सीजनयुक्त (Oxygenated) होता है। फेफड़ों से निष्कासित वायु में O2 लगभग 15.7% और CO2 लगभग 3.6% होती है।

प्रश्न 3. CO2 के परिवहन (ट्रांसपोर्ट) की मुख्य क्रियाविधि क्या है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर : कार्बन डाइऑक्साइड का रुधिर द्वारा परिवहन ऊतकों में संचित खाद्य पदार्थों के ऑक्सीकरण से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड विसरण द्वारा रुधिर केशिकाओं में चली जाती है। रुधिर केशिकाओं द्वारा इसकापरिवहन श्वसनांगों तक निम्नलिखित तीन प्रकार से होता है
(1) प्लाज्मा में घुलकर (Dissolved in Plasma) :
लगभग 7% कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन प्लाज्मा में घुलकर कार्बोनिक अम्ल के रूप में होता है।

(2) बाइकार्बोनेट्स के रूप में (In the form of Bicarbonates) :
लगभग 70% कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन बाइकार्बोनेट्स के रूप में होता है। प्लाज्मा के अन्दर कार्बोनिक अम्ल का निर्माण धीमी गति से होता है। अत: कार्बन डाइऑक्साइड का अधिकांश भाग (93%) लाल रुधिराणुओं में विसरित हो जाता है। इसमें से 70% कार्बन डाइऑक्साइड से कार्बोनिक अम्ल व अन्त में बाइकार्बोनेट्स का निर्माण हो जाता है। लाल रुधिराणुओं में कार्बोनिक एनहाइड्रेज एन्जाइम की उपस्थिति में कार्बोनिक अम्ल का निर्माण होता है।
UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 17 Breathing and Exchange of Gases image 2
प्लाज्मा में, कार्बोनिक एनहाइड्रेज एन्जाइम अनुपस्थित होता है; अत: प्लाज्मा में बाइकार्बोनेट कम मात्रा में बनता है। बाइकार्बोनेट आयन UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 17 Breathing and Exchange of Gases image 3लाल रुधिराणुओं के पोटैशियम आयन (K+) तथा प्लाज्मा के सोडियम आयन (Na+) से क्रिया करके क्रमशः पोटैशियम तथा सोडियम बाइकार्बोनेट बनाता है।

क्लोराइड शिफ्ट या हैम्बर्गर परिघटना (Chloride Shift or Hambergur Phenomenon) सामान्य pH तथा विद्युत तटस्थता (electric neutrality) बनाए रखने के लिए जितने बाइकार्बोनेट आयन रुधिर कणिकाओं से प्लाज्मा में आते हैं, उतने ही क्लोराइड आयन (Cl–) रुधिर कणिकाओं में जाकर उसकी पूर्ति करते हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप प्लाज्मा में बाइकार्बोनेट तथा लाल रुधिरे कणिकाओं में क्लोराइड आयनों का जमाव हो जाता है। इस क्रिया को क्लोराइड शिफ्ट (chloride shift) कहते हैं। श्वसन तल पर प्रक्रियाएँ विपरीत दिशा में होती हैं जिससे CO2 मुक्त होकर वायुमण्डल में चली जाती है।

(3) कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन के रूप में (In the form of Carboxyhaemoglobin) :
कार्बन डाइऑक्साइड का लगभग 23% भाग लाल रुधिर कणिकाओं के हीमोग्लोबिन से मिलकर अस्थायी यौगिक बनाता है
UP Board Solutions for Class 11 Biology Chapter 17 Breathing and Exchange of Gases image 4
सोडियम तथा पोटैशियम के बाइकार्बोनेट्स तथा कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन आदि पदार्थों से युक्त रुधिर अशुद्ध होता है। यह रुधिर ऊतकों और अंगों से शिराओं द्वारा हृदय में पहुँचता है। हृदय से यह रुधिर फुफ्फुस धमनियों द्वारा फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए जाता है। फेफड़ों में ऑक्सीजन की अधिक मात्रा होने के कारण रुधिर की हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन से मिलकर ऑक्सीहीमोग्लोबिन बनाती है। ऑक्सीहीमोग्लोबिन, हीमोग्लोबिन की अपेक्षा अधिक अम्लीय होता है। ऑक्सीहीमोग्लोबिन के अम्लीय होने के कारण श्वसन सतह पर कार्बोनेट्स तथा कार्बोनिक अम्ल का विखण्डन (decomposition) होता है

कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन तथा प्लाज्मा प्रोटीन के रूप में बने अस्थायी यौगिक भी ऑक्सीजन से संयोजित होकर कार्बन डाइऑक्साइड को मुक्त कर देते है
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उपर्युक्त प्रकार से मुक्त हुई कार्बन डाइऑक्साइड रुधिर केशिकाओं तथा फेफड़ों की पतली दीवारों से विसरित होकर फेफड़ों में पहुँचती है जहाँ से यह उच्छ्वास द्वारा बाहर निकाल दी जाती है।

प्रश्न 4. सामान्य स्थिति में अन्तःश्वसन प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : सामान्य श्वासोच्छ्वास (breathing) या श्वासन अनैच्छिक होता है। इसमें पसलियों की गति की भूमिका 25% और डायफ्राम की भूमिका 75% होती है।

अन्तःश्वास या प्रश्वसन (Inspiration) :
सामान्य स्थिति में अन्त:श्वास में गुम्बदनुमा डायफ्राम पेशियों में संकुचन के कारण चपटा सा हो जाता है। डायफ्राम की गति के साथ बाह्य अन्तरापर्शक पेशियों (external intercostal muscles) में संकुचने से पसलियाँ सीधी होकर ग्रीवा की तथा बाहर की तरफ खिंचती है। इससे उरोस्थि (sternum) ऊपर और आगे की ओर उठ जाती है। इन गतियों के कारण वक्षगुहा का आयतन बढ़ जाता है और फेफड़े फूल जाते हैं। वक्ष गुहा और फेफड़ों में वृद्धि के कारण वायुकोष्ठकों या कूपिकाओं (alveoli) में वायुदाब लगभग 1 से 3mm Hg कम हो जाता है। इसकी पूर्ति के लिए वायुमण्डलीय वायु श्वास मार्ग से कूपिकाओं में पहुँच जाती है। इस क्रिया को अन्तःश्वास कहते हैं। इसके द्वारा मनुष्य (अन्य स्तनी) वायु ग्रहण करते हैं।

प्रश्न 5. श्वसन का नियमन कैसे होता है?
उत्तर : श्वसन का नियमन मस्तिष्क के मेड्यूला (medulla) एवं पोन्स वैरोलाइ (Pons varolii) में स्थित श्वास केन्द्र (respiratory centre) पसलियों तथा डायफ्राम से सम्बन्धित पेशियों की क्रिया का नियमन करके श्वासोच्छ्वास (breathing) या श्वसन (respiration) का नियमन करता है। श्वास क्रिया तन्त्रिकीय नियन्त्रण में होती है। यही कारण है कि हम अधिक देर तक श्वास नहीं रोक पाते हैं। फेफड़ों की भित्ति में ‘स्ट्रेच संवेदांग’ (stretch receptors) होते हैं। फेफड़ों के आवश्यकता से अधिक फूल जाने पर ये संवेदांग पुनर्निवेशन नियन्त्रण (feedback control) के अन्तर्गत नि:श्वसन को तुरन्त रोकने के लिए हेरिंग बुएर रिफ्लेक्स चाप (Hering-Bruer Reflex Arch) की स्थापना करके श्वास केन्द्र को उद्दीपित करते हैं, जिससे श्वास दर बढ़ जाती है। यह नियन्त्रण प्रतिवर्ती क्रिया के अन्तर्गत होता है।

शरीर के अन्त:वातावरण में CO2 की सान्द्रता के कम या अधिक हो जाने से श्वास केन्द्र स्वतः उद्दीपित होकर श्वास दर को बढ़ाता या घटाता है। O2 की अधिकता कैरोटिको सिस्टैमिक चाप (Carotico systemic arch) में उपस्थित सूक्ष्म रासायनिक संवेदांगों को प्रभावित करती है। ये संवेदांग श्वास केन्द्र को प्रेरित करके श्वास दर को घटा या बढ़ा देते हैं।

प्रश्न 6. पहाड़ पर चढ़ने वाले व्यक्ति की श्वसन प्रक्रिया में क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर : पहाड़ पर ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ वायु में O2 का आंशिक दाब कम हो जाता है; अत: मैदान की अपेक्षा ऊँचाई पर श्वासोच्छ्वास क्रिया अधिक तीव्र गति से होगी। इसके निम्नलिखित कारण होते हैं रुधिर में घुली हुई ऑक्सीजन का आंशिक दाब कम हो जाता है। O2 रक्त में सुगमता से विसरित होती है। अतः शरीर में ऑक्सीजन परिसंचरण कम हो जाता है। इसके फलस्वरूप सिरदर्द तथा उल्टी (वमन) का आभास होता है। अधिक ऊँचाई पर वायु में ऑक्सीजन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है; अत: वायु से अधिक O2 प्राप्त करने के लिए श्वासोच्छ्वास क्रिया तीव्र हो जाती है। कुछ दिनों तक ऊँचाई पर रहने से रुधिर में लाल रुधिराणुओं की संख्या बढ़ जाती है और श्वास क्रिया सामान्य हो जाती है।

प्रश्न 7. कीटों में श्वास क्रियाविधि कैसे होती है?
उत्तर : कीटों में श्वास क्रियाविधि

कीटों में श्वसन हेतु ट्रैकिंया (trachea) पाए जाते हैं। कीटों के शरीर में ट्रैकिया का जाल फैला होता है। ट्रैकियो पारदर्शी, शाखामय, चमकीली नलिकाएँ होती हैं। ये श्वास रन्ध्रों (spiracles) द्वारा वायुमण्डल से सम्बन्धित रहती हैं। श्वास रन्ध्र छोटे वेश्म (atrium) में खुलते हैं। श्वास रन्ध्रों पर रोमाभ सदृश शूक तथा कपाट पाए जाते हैं। कुछ श्वास रन्ध्र सदैव खुले रहते हैं। शेष अन्तःश्वसन (inspiration) के समय खुलते हैं और उच्छ्व सन (expiration) के समय बन्द रहते हैं।

ट्रैकियल वेश्म (atrium) से शाखाएँ निकलकर एक पृष्ठ तथा अधर तल पर ‘ट्रैकिया का जाल बना लेती हैं। ट्रैकिया से निकलने वाली ट्रैकिओल्स (tracheoles) ऊतक या कोशिकाओं तक पहुँचती हैं। कीटों में गैसों का विनिमय बहुत ही प्रभावशाली होता है और O2 सीधे कोशिकाओं तक पहुँचती है। इसी कारण कीट सर्वाधिक क्रियाशील होते हैं।

प्रश्न 8. ऑक्सीजन वियोजन वक्र की परिभाषा दीजिए। क्या आप इसकी सिग्माभ आकृति का कोई कारण बता सकते हैं?
उत्तर : ऑक्सीजन वियोजन वक्र हीमोग्लोबिन द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमला ऑक्सीजन के आंशिक दबाव (partial pressure) अर्थात् pO2 पर निर्भर करती है। हीमोग्लोबिन-क़ी वह प्रतिशत मात्रा जो ऑक्सीजन ग्रहण करती है, इसकी प्रतिशत संतृप्ति (percentage saturation of haemoglobin) कहलाती है; जैसेफेफड़ों में रक्त के ऑक्सीजनीकृत होने पर O2 का आंशिक दबाव pO2) लगभग 97 mm Hg होता है। इस pO2 पर हीमोग्लोबिन की प्रतिशत संतृप्ति लगभग 98% होती है।

ऊतकों से वापस आने वाले रक्त में O2 का आंशिक दबाव pO2 लगभग 40 mm Hg होता है, इस pO2 पर हीमोग्लोबिन की प्रतिशत संतृप्ति लगभग 75% होती है। pO2 तथा हीमोग्लोबिन की प्रतिशत संतृप्ति के सम्बन्ध को ग्राफ पर अंकित करने पर एक सिग्माभ वक्र (sigmoid curve) प्राप्त होता है।  इसे ऑक्सीजन वियोजन वक्र कहते हैं। ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन वियोजन वक्र पर शरीर ताप एवं रक्त के pH का प्रभाव पड़ता है। ताप के बढ़ने या pH के कम होने पर यह वक्र दाहिनी ओर खिसकता है। इसके विपरीत ताप के कम होने या pH के अधिक होने से ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन वक्र बाईं ओर खिसकता है। रक्त में CO2 की मात्रा बढ़ने या इसका pH घटने (H’ आयन की संख्या बढ़ने से) पर O2 के प्रति हीमोग्लोबिन की आकर्षण शक्ति कम हो जाती है। इसी को बोहर प्रभाव (Bohr effect) कहते हैं। यह क्रिया ऊतकों में होती है। इस प्रकार बोहर प्रभाव का योगदान हीमोग्लोबिन को फेफड़ों से ऊतकों तक ऑक्सीजन के परिवहन को प्रोत्साहित करता है।

फेफड़ों में हीमोग्लोबिन को O2 मिलते ही CO2 के प्रति इसका आकर्षण कम हो जाता है और कार्बोमिनोहीमोग्लोबिन CO2 त्यागकर सामान्य हीमोग्लोबिन बन जाता है। अम्लीय हीमोग्लोबिन H+ आयन मुक्त करता है जो बाइकार्बोनेट (HCO3) से मिलकर कार्बोनिक अम्ल बनाते हैं। यह शीघ्र ही CO2) तथा H2Oमें टूटकर CO2 को मुक्त कर देता है। इसे हैल्डेन प्रभाव (Haldane effect) कहते हैं। हैल्डेन प्रभाव फेफड़ों में CO2 के बहिष्कार को और ऊतकों में O2 के बहिष्कार को प्रेरित करता है।

प्रश्न 9. क्या आपने अव-ऑक्सीयता (हाइपोक्सिया) (न्यून ऑक्सीजन) के बारे में सुना है। इस सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश कीजिए व साथियों के बीच चर्चा कीजिए।
उत्तर : अव-ऑक्सीयता (Hypoxia) :
इस स्थिति का सम्बन्ध शरीर की कोशिकाओं/ऊतकों में ऑक्सीजन के आंशिक दबाव में कमी से होता है। यह ऑक्सीजन की कम आपूर्ति के कारण होता है। वायुमण्डल में पहाड़ों पर 8000 फुट से अधिक ऊँचाई पर वायु में O2 का दबाव कम हो जाता है। इससे सिरदर्द, वमन, चक्कर आना, मानसिक थकान, श्वास लेने में कठिनाई आदि लक्षण प्रदर्शित होते हैं। इसे कृत्रिम हाइपोक्सिया (artificial hypoxia) कहते हैं। यह रोग प्रायः पर्वतारोहियों को हो। जाता है। शरीर मेंहीमोग्लोबिन की कमी के कारण रक्त की ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता प्रभावित होती है। इसे एनीमिया हाइपोक्सिया (anaemia hypoxia) कहते हैं।

प्रश्न 10. निम्न के बीच अन्तर करें
(क) IRV, ERV
(ख) अन्तः श्वसन क्षमता और निःश्वसन क्षमता
(ग) जैव क्षमता तथा फेफड़ों की कुल धारिता
उत्तर : (क)
IRV व ERV में अन्तर

1. IRV :
अन्त:श्वसन सुरक्षित आयतन (inspiratory reserve volume) वायु आयतन की वह अतिरिक्त मात्रा है जो एक व्यक्ति बलपूर्वक अन्त:श्वासित कर सकता है। यह औसतन 2500 मिली से 3000 मिली होती है।

2. ERV :
नि:श्वसन सुरक्षित आयतन (expiratory reserve volume) वायु आयतन की वह अतिरिक्त मात्रा है जो एक व्यक्ति बलपूर्वक नि:श्वासित कर सकता है। यह औसतन 1000 मिली से 1100 मिली होता है।

(ख)
अन्तःश्वसन क्षमता व निःश्वसन क्षमता में अन्तर

1. अन्तःश्वसन क्षमता (Inspiratory Capacity, IC) :
सामान्यतः नि:श्वसन उपरान्त वायु की कुल मात्रा (आयतन) जिसे एक व्यक्ति अन्त:श्वासित कर सकता है। इसमें ज्वारीय आयतन तथा अन्तः श्वसन सुरक्षित आयतन सम्मिलत होते हैं (TV + IRV)।

2. निःश्वसन क्षमता (Expiratory Capacity, EC) :
सामान्यतः अन्तः श्वसन उपरान्त वायु की कुल मात्रा (आयतन) जिसे एक व्यक्ति नि:श्वासित कर सकता है। इसमें ज्वारीय आयतन और नि:श्वसन सुरक्षित आयतन सम्मिलित होते हैं (TV + ERV)।

(ग)
जैव क्षमता तथा फेफड़ों की कुल धारिता में अन्तर

1. जैव क्षमता (Vital Capacity) :
बलपूर्वक नि:श्वसन के बाद वायु की वह अधिकतम मात्रा जो एक व्यक्ति अन्त:श्वासित कर सकता है अथवा वायु की वह अधिकतम मात्रा जो एक व्यक्ति बलपूर्वक अन्त:श्वसन के पश्चात् नि:श्वासित कर सकता है।

2. फेफड़ों की कुल धारिता (Total Lung Capacity) :
बलपूर्वक नि:श्वसन के पश्चात् । फेफड़ों में समायोजित (उपस्थित) वायु की कुल मात्रा। इसमें RV, ERV, TV  तथा IRV सम्मिलित हैं। यानि जैव क्षमता + अवशिष्ट आयतन (VC + RV)।

प्रश्न 11. ज्वारीय आयतन क्या है? उत्तर 1. ज्वारीय आयतन (Tidal Volume, TV) :
सामान्य श्वसन क्रिया के समय प्रति अन्त:श्वासित या नि:श्वासित वायु का आयतन ज्वारीय आयतन कहलाता है। यह लगभग 500 मिली होता है अर्थात् स्वस्थ मनुष्य लगभग 6000 से 8000 मिली वायु प्रति मिनट की दर से अन्त:श्वासित/ नि:श्वासित कर सकता है।

प्रश्न 12. ATP का पूरा नाम लिखिए तथा इसके कार्य बताइए। या कोशिकीय श्वसन में माइटोकॉण्डूिया की क्या भूमिका है?
उत्तर : कोशिकीय श्वसन के अन्तर्गत क्रेब्स चक्र माइटोकॉण्ड्रिया में सम्पन्न होता है। इसके फलस्वरूप हाइड्रोजन परमाणु (2H) मुक्त होते हैं। इन्हें हाइड्रोजनग्राही NAD, NADP या FAD ग्रहण करके अपचयित हो जाते हैं। इन्हें पुनः ऑक्सीकृत स्थिति में लाने का कार्य इलेक्ट्रॉन परिवहन तन्त्र करता है। इसमें उच्च ऊर्जा इलेक्ट्रॉन मुक्त होता है। मुक्त इलेक्ट्रॉन जब एक इलेक्ट्रॉनग्राही से दूसरे इलेक्ट्रॉनग्राही पर ट्रान्सफर होता है तो ऊर्जा मुक्त होती है। मुक्त ऊर्जा की कुछ मात्रा ATP के रुप में संचित हो जाती है। यह क्रिया माइटोकॉण्ड्रिया के क्रिस्टी पर स्थित ऑक्सीसोम्स या F, कण पर होती है।

ATP (एडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट) में संचित ऊर्जा पेशीय गति, अपेशीय क्रियाओं, सक्रिय गमन, ऊष्मा। उत्पादन, जैव-संश्लेषण, जैव-विद्युत, जैव-प्रकाश उत्पादन आदि क्रियाओं में प्रयुक्त होती है। माइटोकॉण्ड्रिया को कोशिका का विद्युत गृह तथा ATP को उपापचय जगत का सिक्का कहते हैं।

प्रश्न 13. रुधिर में ऑक्सीजन गैस के संवहन का वर्णन कीजिए।
उत्तर : ऑक्सीजन का परिवहन
हीमोग्लोबिन लाल रक्त कणिकाओं में स्थित एक लाल रंग को लौहयुक्त वर्णक है। हीमोग्लोबिन के साथ उत्क्रमणीय (reversible) ढंग से बँधकर ऑक्सीजन ऑक्सीहीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) का गठन कर सकता है। प्रत्येक हीमोग्लोबिन अणु अधिकतम चार O2 अणुओं को वहन कर सकते हैं। हीमोग्लोबिन के साथ ऑक्सीजन का बँधना प्राथमिक तौर पर O2 के आंशिक दाब से सम्बन्धित है। CO2 का आंशिक दाब, हाइड्रोजन आयन सांद्रता और तापक्रम कुछ अन्य कारक हैं जो इस बन्धन को बाधित कर सकते हैं। हीमोग्लोबिन की ऑक्सीजन से प्रतिशत संतृप्ति को pO2 के सापेक्ष आलेखित ।

करने पर सिग्माभ वक्र (sigmoid curve) प्राप्त होता है। इस वक्र को वियोजन वक्र (dissociation curve) कहते हैं जो हीमोग्लोबिन से 0, बंधन को प्रभावित करने वाले pCO2; H+ आयन सांद्रता आदि घटकों के अध्ययन में अत्यधिक सहायक होता है। कूपिकाओं में जहाँ उच्च pO2, निम्न pCO2; कम H+सांद्रता और निम्न तापक्रम होता है, वहाँ ऑक्सीहीमोग्लोबिन बनाने के लिए ये सभी घटक अनुकूल साबित होते हैं जबकि ऊतकों में निम्न pO2 उच्च pCO2 उच्च H+ सांद्रता और उच्च तापक्रम की स्थितियाँ ऑक्सीहीमोग्लोबिन से ऑक्सीजन के वियोजन के लिए अनुकूल होती हैं। इससे स्पष्ट है कि O2 हीमोग्लोबिन से फेफड़ों की सतह पर बँधती है और ऊतकों में वियोजित हो जाती है। प्रत्येक 100 मिली ऑक्सीजनित रक्त सामान्य शरीर की क्रियात्मक स्थितियों में ऊतकों को लगभग 5 मिली O2 प्रदान करता है।

प्रश्न 14 ऑर्निथीन चक्र को रेखाचित्र की सहायता से समझाइए। या ऑर्निथीन-आर्जिनीन चक्र को रेखीय चित्र द्वारा प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर : यूरिया का निर्माण या ऑर्निथीन चक्र

विभिन्न जैव-रासायनिक (bio-chemical) क्रियाओं के अन्तर्गत यकृत कोशिकाओं में अमोनिया को कार्बन डाइऑक्साइड के साथ मिलाकर यूरिया (urea) का निर्माण किया जाता है। ये क्रियाएँ एक चक्र के रूप में होती हैं जिसे ऑर्निथीन चक्र (ormithine cycle) अथवा क्रेब-हेन्सलीट चक्र (Kreb-Henseleit cycle) कहते हैं। इस चक्र में डीएमीनेशन से प्राप्त अमोनिया का एक अणु कार्बन डाइऑक्साइड के एक अणु से मिलकर कार्बमोइल फॉस्फेट (carbamoyl phosphate) बनाता है। इसमें दो ATP अणुओं का भी उपयोग होता है। काबेंमोइल फॉस्फेट उपलब्ध ऑर्निथीन के साथ ट्रान्सकाबेंमिलेज एन्जाइम की उपस्थिति में संयोग कर लेता है, इससे साइट्रलिन (citrulline) बनता है। साइट्रलिन ए०टी०पी० (ATP) की उपस्थिति में एस्पार्टिक अम्ल (aspartic acid) के साथ संयोग कर आर्जिनोसक्सीनिक अम्ल (arginosuccinic acid) बनाता है। आर्जिनोसक्सीनिक अम्ल का एन्जाइम की उपस्थिति में आर्जिनीन (arginine) तथा फ्यूमैरिक अम्ल (fumaric acid) में विघटन हो जाता है। अब एन्जाइम आर्जिनेज (arginase) की उपस्थिति में आर्जिनीन का विघटन होता है और यूरिया (urea) तथा ऑर्निथीन (ornithine) का निर्माण होता है। इस प्रकार ऑर्निथीन अगले चक्र के लिए वापस मिल जाती है। ऑर्निथीन की इस प्रकार की उपस्थिति के कारण ही इसको ऑर्निथीन चक्र (ornithine cycle) कहते हैं।

प्रश्न 15 कोशिकीय श्वसन से आप क्या समझते हैं? इससे सम्बन्धित विभिन्न पदों (steps) का उल्लेख कीजिए। या निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
(क) ग्लाइकोलिसिस (glycolysis)
(ख) कोशिकीय श्वसन (cellular respiration) या कोशिकीय श्वसन क्या है? ग्लाइकोलिसिस को अनॉक्सी श्वसन क्यों कहा जाता है? ग्लाइकोलिसिस प्रक्रम का वर्णन कीजिए।
उत्तर : कोशिकीय श्वसन भोज्य पदार्थों को विखण्डित कर उनसे रासायनिक ऊर्जा को, उपयोग के लिए, विमुक्त करने वाली अपंचयिक (catabolic) व पूर्णतः नियन्त्रित (controlled) क्रिया श्वसन (respiration) कहलाती है।”

सामान्यत: सभी जन्तुओं में भोज्य पदार्थों में उपस्थित, रासायनिक ऊर्जा धीरे-धीरे एक श्रृंखला में होने वाली अभिक्रियाओं (reactions) के द्वारा स्वतन्त्र की जाती है। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पदार्थ, ऐडीनोसीन डाइफॉस्फेट या ए०डी०पी० (adenosine diphosphate or ADP) स्वतन्त्र की गयी इस ऊर्जा को अपने साथ जोड़कर एक अस्थायी यौगिक ऐडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट या ए०टी०पी० (adenosine triphosphate or ATP) का निर्माण कर लेता है। ए०टी०पी० को किसी भी स्थान या उसी या अन्य किसी कोशिका में ऊर्जा के लिए उपयोग में लाया जा सकता है और फिर से ए०डी०पी० प्राप्त हो जाता है। जीवित कोशिका (living cell) में इस प्रकार की क्रिया अत्यन्त नियन्त्रित विधियों से विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत, अनेक एन्जाइम, सहएन्जाइम एवं अन्य पदार्थों एवं तन्त्रों (systems) के अन्तर्गत की जाती है। यही नहीं, क्रियाओं के फलस्वरूप जो गतिज ऊर्जा (kinetic energy) निष्कासित होती है उसके अधिकांश भाग को विशेष पदार्थ ए०टी०पी० (ATP) में इस प्रकार संचित किया जाता है

कि उपयोग की आवश्यकता के समय यह तुरन्त अपघटित होकर ऊर्जा को उपलब्ध करा देता है और स्वयं ऊर्जा उत्पादन के स्थान पर ए०डी०पी० (ADP) के रूप में पहुँचकर नयी ऊर्जा ग्रहण करता है अर्थात् उसका कुछ बिगड़ता भी नहीं। बस, यही समस्त क्रियाएँ अर्थात् खाद्य पदार्थ के ऑक्सीकरण से लेकर उपभोग के लिए ऊर्जा उपलब्ध कराने की नियन्त्रित क्रियाओं को हम श्वसन (respiration) कहते हैं।

कोशिकीय श्वसन से सम्बन्धित दो प्रमुख पद

(i) ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) :
श्वसन की यह सामान्य क्रिया प्रारम्भ में कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में होती है और इसमें ऑक्सीजन के बिना ही, केवल आन्तरिक परिवर्तनों के द्वारा, कार्बोहाइड्रेट को अपूर्ण रूप से ऑक्सीकृत करके थोड़ी-सी ऊर्जा निकाल ली जाती है। इस प्रकार के श्वसन को
जिसमें ऑक्सीजन अनुपस्थित होती है, अनॉक्सी या अवायवीय (anaerobic) श्वसन कहते हैं।

(ii) क्रेब्स चक्र (Kreb’s Cycle) :
अधिक दक्षश्वसन की यह क्रिया ऑक्सीजन की उपस्थिति में सामान्य कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) पर होती है और ऑक्सीश्वसन या वायवीय श्वसन (aerobic respiration) कहलाती है।

ग्लाइकोलिसिस या ई०एम०पी० पथ

ग्लाइकोलिसिस की अभिक्रियाएँ कोशिका के कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में होती हैं जिसमें 6 C वाला ग्लूकोज का एक अणु विघटित होकर 3 C वाले दो पाइरुविक अम्ल (pyruvic acid) अणु बनाता है। क्रम से एन्जाइम (enzymes) तथा सह-एन्जाइम्स (co-enzymes) की सहायता से शृंखलाबद्ध रूप में, ये क्रियाएँ इस प्रकार घटित होती हैं

पद I :
ग्लूकोज के अणु का फॉस्फोराइलेशन
इस क्रिया के अन्त में फ्रक्टोज 1, 6-डाइफॉस्फेट (fructose 1, 6-diphosphate) का निर्माण होता है। इस क्रिया में पहले ग्लूकोज अणु एक ATP अणु से ऊर्जा तथा एक फॉस्फेट गुट्ट (PO4 ) प्राप्त करता है तथा ग्लूकोज 6-फॉस्फेट (glucose 6-phosphate) बनाता है। ग्लूकोज 6-फॉस्फेट समावयवीकरण (isomerization) के द्वारा फ्रक्टोज 6-फॉस्फेट (fructose 6-phosphate) में बदल जाता है। फ्रक्टोज 6-फॉस्फेट का अणु अब एक ATP अणु से एक फॉस्फेट गुट्ट ऊर्जा की उपस्थिति में प्राप्त करता है और इससे फ्रक्टोज 1, 6-डाइफॉस्फेट बनता है।

पद II :
फॉस्फोराइलेटेड शर्करा का विदलन
इस पद में फ्रक्टोज 1, 6-डाइफॉस्फेट का विदलन (splitting) होता है जिससे दो ट्रायोज (trioses) बनते हैं-एक, 3-फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड (3-phosphoglyceraldehyde) तथा दूसरा डाइहाइड्रॉक्सी-एसीटोन फॉस्फेट (dihydroxyacetone phosphate)। बाद में, दूसरा ट्रायोज भी एक आइसोमेरेज (isomerase) एन्जाइम की उपस्थिति में 3-फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड में ही बदल जाता है। इस प्रकार, इस परिवर्तन के बाद, दो अणु 3-फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड के उपलब्ध होते हैं। 3- फॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड, अकार्बनिक फॉस्फेट (H3PO4 से) प्राप्त करके 1, 3-डाइफॉस्फोग्लिसरैल्डिहाइड का निर्माण करता है जो दो H+ आयन तथा इलेक्ट्रॉन देकर ऑक्सीकृत हो जाता है। यह क्रिया डिहाइड्रोजिनेज (dehydrogenase) एन्जाइम तथा NAD सह-एन्जाइम की उपस्थिति में होती है तथा 1, 3-डाइफॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (1, 3-diphosphoglyceric acid) का निर्माण होता है।

1, 3-डाइफॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (1, 3-diphosphoglyceric acid) का डीफॉस्फोराइलेशन (dephosphorylation) होता है तथा एक फॉस्फेट गुंट्ट अलग होकर उपस्थित ADP के साथ संयुक्त होकर ATP का निर्माण करता है। इस प्रकार दो अणुओं से दो ATP अणु और दो अणु 3-फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (3-phosphoglyceric acid) बनते हैं। जिसमें एन्जाइम, फॉस्फोग्लिसरोम्यूटेज की सहायता से फॉस्फेट गुट्ट का फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल में स्थान परिवर्तन हो जाने से फॉस्फेट अब 2 स्थिति में आ जाता है। अब,प्रत्येक अणु से एक अणु जल निकल जाने से 2-फॉस्फोइनॉल पाइरुविक अम्ल (2-phosphoenol pyruvic acid) का निर्माण होता है। 2-फॉस्फोइनॉल पाइरुविक अम्ल के डीफॉस्फोराइलेशन (dephosphorylation) के द्वारा पाइरुविक अम्ल (pyruvic acid) को निर्माण होता है। इस प्रकार प्राप्त फॉस्फेट गुट्ट 2ADP अणुओं के साथ मिलकर 2ATP अणुओं का निर्माण करते हैं।

ग्लाइकोलिसिस की सम्पूर्ण क्रियाओं में जहाँ अम्ल बनते हैं; जैसे- फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल, पाइरुविक अम्ल इत्यादि, ये सब लवणों के रूप में हो सकते हैं। अतः इन्हें फॉस्फोग्लिसरेट, पाइरुवेट (phosphoglycerate, pyruvate) इत्यादि भी लिखा जाता है। ग्लाइकोलिसिस (glycolysis) में ATP के कुल चार अणुओं का निर्माण होता है, किन्तु प्रारम्भिक अभिक्रियाओं में दो ATP अणु काम में आ जाते हैं। अतः शुद्ध लाभ केवल दो अणुओं का ही होता है

(net gain) = 4 ATP – 2 ATP = 2 ATP
दो स्वतन्त्र H+ आयन (ions) भी प्राप्त होते हैं जो प्राय: NAD या NADP पर चले जाते हैं।

क्रेब्स चक्र या ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र

पाइरुविक अम्ल का ऑक्सीकरण ऑक्सीजन की उपस्थिति में क्रमबद्ध तथा चक्र में होने वाली अभिक्रियाओं द्वारा होता है। यह चक्र ही क्रेब्स चक्र (Krebs cycle) कहलाता है। इसकी सम्पूर्ण अभिक्रियाएँ माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) में होती हैं जहाँ सभी प्रकार के आवश्यक एन्जाइम्स (enzymes) व सह-एन्जाइम्स (co-enzymes) मिलते हैं। पाइरुविक अम्ल, एसीटिल को एन्जाइम-‘ए’ (acetyl co-enzyme-A) बनाने के बाद क्रेब्स चक्र में साइट्रिक अम्ल (UPBoardSolutions.com) (citric acid) के रूप में दिखायी पड़ता है; अत: इस चक्र को ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र या साइट्रिक अम्ल चक्र (tricarboxylic acid cycle or citric acid cycle) कहते हैं। क्रेब्स चक्र में प्रवेश से पूर्व पाइरुविक अम्ल एक जटिल प्रक्रिया से निकलता है। इस क्रिया में कम-से-कम पाँच को-फैक्टर (co-factor) तथा एक एन्जाइम-समूह (enzyme-complex) की आवश्यकता होती है। क्रेब्स चक्र में तो एसीटिल को-एन्जाइम-‘ए’ (acetyl co-enzyme-A) ही प्रवेश करता है। ये क्रियाएँ निम्नलिखित पदों में सम्पन्न होती हैं

ऑक्सीजन के सन्तोषप्रद मात्रा में उपलब्ध होने पर ही उपर्युक्त प्रक्रिया होती है और एसीटिल को-एन्जाइम-‘ए’ (acetyl co-enzyme-A) को निर्माण होता है। इस जटिल प्रक्रिया में पाइरुविक अम्ल के तीन कार्बन में से दो कार्बन परमाणु रह जाते हैं जो एसीटिल (acetyl) समूह के रूप में co-A (co-enzyme-A) के साथ जुड़े हुए हैं।

pyruvic acid + co – A + NAD → CH3CO.co – A + CO2) + NAD. H2
उपर्युक्त प्रक्रिया में H+ आयन प्राप्त होते हैं (NAD.H2 के रूप में)। NAD.H2 इलेक्ट्रॉन स्थानान्तरण तन्त्र (electron transport system = ETS) में पहुंचकर मुक्त ऊर्जा से तीन ATP अणुओं का निर्माण करते हैं। इस प्रकार, दो अणु पाइरुविक अम्ल से 6ATP अणु प्राप्त होते हैं।

एसीटिल को-एन्जाइम-‘ए’ (acetyl co-A) क्रेब्स चक्र के अन्तिम उत्पाद, चार कार्बन यौगिक (C4), ऑक्सैलोएसीटिक अम्ल (oxaloacetic acid) के साथ मिलकर (condensation) साइट्रिक अम्ल (citric acid) बनाता है। साथ ही को-एन्जाइम-‘ए’ (co-A) स्वतन्त्र हो जाता है। यह क्रिया जल तथा एक कण्डेन्सिंग ऐन्जाइम की उपस्थिति में होती है
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इसके बाद की क्रियाएँ चार ऑक्सीकरण (Oxidation) पदों (steps) में सम्पन्न होती हैं जिनमें होकर साइट्रिक अम्ल (citric acid) से ऑक्सैलोएसीटिक अम्ल (Oxaloacetic acid) फिर से प्राप्त किया जाता है। इन क्रियाओं में चार जोड़ा H-आयन और चार जोड़ा इलेक्ट्रॉन्स (electrons) निकाले जाते हैं। इन पदों की अभिक्रियाएँ जटिल, श्रृंखलाबद्ध व चक्रिक (cyclic) होती हैं तथा विभिन्न एन्जाइम्स, सहएन्जाइम्स, को-फैक्टर्स (co-factors) के (UPBoardSolutions.com) सहयोग से सम्पन्न होती हैं इस प्रकार पाइरुविक अम्ल के दो अणुओं (ग्लूकोज के एक अणु से प्राप्त) से कार्बन डाइऑक्साइड के छह अणु (तीन + तीन) निकलते हैं। इस क्रिया में कुल 30 (तीस) ATP अणु भी बनते हैं। 6 (छह) ATP अणु ग्लाइकोलिसिस तथा क्रेब्स चक्र के मध्य बनते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण अणु से सम्पूर्ण वायवीय श्वसन के बाद एक ग्लूकोज अणु से 38 ATP अणु प्राप्त होते हैं।