बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण तंत्र दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण तंत्र दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. रक्त के संगठित पदार्थों के अवयवों का वर्णन कीजिए तथा प्रत्येक अवयव के एक प्रमुख कार्य के बारे में लिखिए।
उत्तर : इसके अन्तर्गत रुधिर (blood) तथा लसीका (lymph) आते हैं। इसका तरल मैट्रिक्स प्लाज्मा (plasma) कहलाता है। प्लाज्मा में तन्तुओं का अभाव होता है। प्लाज्मा में पाई जाने वाली कोशिकाओं को रुधिराणु (corpuscles) कहते हैं। तरल ऊतक सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर वाहिनियों (vessels) और केशिकाओं (capillaries) में बहता रहता है। कोशिकाएँ या रुधिराणु स्वयं प्लाज्मा का स्राव नहीं करती हैं।

रुधिर (Blood) :
रुधिर जल से थोड़ा अधिक श्यान (viscous), हल्का क्षारीय (pH 7.3 से 74 के बीच) तथा स्वाद में थोड़ा नमकीन होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में रक्त शरीर के कुल भार को 7% से 8% होता है। रुधिर की औसत मात्रा 5 लीटर होती है। रुधिर के दो मुख्य घटक (components) होते हैं 
प्लाज्मा (Plasma)

रुधिर कोशिकाएँ (Blood Corpuscles)

1. प्लाज्मा (Plasma) :
यह हल्के पीले रंग का, हल्का क्षारीय एवं निर्जीव तरल है। यह रुधिर का लगभग 55% भाग बनाता है। प्लाज्मा में 90% जल होता है। 8 से 9% कार्बनिक पदार्थ होते हैं तथा लगभग 1% अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।

(क)
कार्बनिक पदार्थ (Organic Substances) :
रक्त प्लाज्मा में लगभग 7% प्रोटीन होती है। प्रोटीन्स मुख्यतः ऐल्बुमिन (albumin), ग्लोबुलिन (globulin), प्रोथ्रोम्बिन  (prothrombin) तथा फाइब्रिनोजन (fibrinogen) होती हैं। इनके अतिरिक्त हॉर्मोन्स, विटामिन्स, श्वसन गैसें, हिपैरिन(heparin), यूरिया, अमोनिया, ग्लूकोस, ऐमीनो अम्ल, वसा अम्ल, ग्लिसरॉल, प्रतिरक्षी (antibodies) आदि होते हैं। प्लाज्मा प्रोटीन रुधिर का परासरणी दाब (osmotic pressure) बनाए रखने में सहायक है। कुछ प्रोटीन्स प्रतिरक्षी की भाँति कार्य करती हैं। प्रोथ्रोम्बिन तथा फाइब्रिनोजन रुधिर स्कन्दन (blood clotting) में सहायता करते हैं। हिपैरिन प्रतिस्कंदक (anticoagulant) है।

(ख)
अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Substances) :
अकार्बनिक पदार्थों में सोडियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम तथा पोटैशियम के फॉस्फेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट तथा क्लोराइड्स आदपाए जाते हैं।

2. रुधिर कणिकाएँ या रुधिराणु (Blood Cells or Blood Corpuscles) :
ये रुधिर का 45% भाग बनाते हैं। रुधिराणु तीन प्रकार के होते हैं। इनमें लगभग 99% लाल रुधिराणु हैं। शेष श्वेत रुधिराणु तथा रुधिर प्लेटलेट्स होते हैं।

(क)
लाल रुधिराणु (Red Blood Corpuscles or Erythrocytes) :
मेढक के रक्त में इनकी संख्या 4.5 लाख से 5.5 लाख प्रति घन मिमी होती है। मनुष्य में इनकी संख्या 54 लाख प्रति घन मिमी होती है। स्तनियों के रुधिराणु केन्द्रकरहित, गोल तथा उभयावतल (biconcave) होते हैं। इनमें लौहयुक्त यौगिक हीमोग्लोबिन पाया जाता है। ये ऑक्सीजन परिवहन को कार्य करते हैं। अन्य कशेरुकियों में लाल रुधिराणु अण्डाकार तथा केन्द्रकयुक्त होते हैं। लाल रुधिराणु ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) का कार्य करते हैं। इसका हीमोग्लोबिन (haemoglobin) ऑक्सीजन को ऑक्सीहीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) के रूप में ऊतकों तक पहुँचाता है।

(ख)
श्वेत रुधिराणु या ल्यूकोसाइट्स (Leucocytes) :
इनकी संख्या 6000-8000 प्रति घन मिमी होती है। ये केन्द्रकयुक्त, अमीबा के आकार की तथा रंगहीन होती हैं। श्वेत रुधिराणु मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं
(i) कणिकामय (Granulocytes)
(ii) कणिकारहिते (Agranulocytes)

(i) कणिकामय (Granulocytes) :
केन्द्रक की संरचना के आधार पर ये तीन प्रकार की होती हैं

(अ)
बेसोफिल्स (Basophils) :
इनका केन्द्रक बड़ा तथा 2-3 पालियों में बँटा दिखाई देता है।

(ब)
इओसिनोफिल्स (Eosinophils) :
इनका केन्द्रक दो स्पष्ट पिण्डों से बँटा होता है। दोनों भागे परस्पर तन्तु से जुड़े होते हैं। ये एलर्जी (allergy), प्रतिरक्षण (immunity) एवं अति संवेदनशीलता में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।

(स)
न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils) :
इनका केन्द्रक 2 से 5 भागों में बँटा होता है। ये सूत्र द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं। ये भक्षकाणु (phagocytosis) द्वारा रोगाणुओं का भक्षण करते हैं।

(ii) एग्रैन्यूलोसाइट्स (Agranulocytes) :
इनका कोशिकाद्रव्य कणिकारहित होता है। इनका केन्द्रक अपेक्षाकृत बड़ा व घोड़े की नाल के आकार का (horse-shoe shaped) होता है। ये दो प्रकार की होती हैं

(अ)
लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) :
ये छोटे आकार के श्वेत रुधिराणु हैं। इनका कार्य प्रतिरक्षी (antibodies) का निर्माण करके शरीर की सुरक्षा करना है।

(ब)
मोनोसाइट्स (Monocytes) :
ये बड़े आकार की कोशिकाएँ हैं, जो भक्षकाणु क्रिया (phagocytosis) द्वारा शरीर की सुरक्षा करती हैं।

कार्य (Functions) :
श्वेत रुधिराणु रोगाणुओं एवं हानिकारक पदार्थों से शरीर की सुरक्षा करते हैं।

(ग)
रुधिर बिम्बाणु या रुधिर प्लेटलेट्स (Blood Platelets or Thrombocytes) :
इनकी संख्या 2 लाख से 5 लाख प्रति घन मिमी तक होती है। ये उभयोत्तल (biconvex), तश्तरीनुमा होते हैं। ये रुधिर स्कंदन में सहायक होते हैं। स्तनधारियों के अतिरिक्त अन्य कशेरुकियों में रुधिर प्लेटलेट्स के स्थान पर स्पिंडल कोशिकाएँ (spindle cells) पाई जाती हैं। इनमें केन्द्रक पाया जाता है।

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प्रश्न 2 दोहरे परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? इसकी क्या महत्ता है?
उत्तर : दोहरा परिसंचरण (Double Circulation) :

यह पक्षियों तथा स्तनियों में पाया जाता है। इन प्राणियों में शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त पृथक् रहता है। हृदय के दाएँ भाग को सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) तथा बाएँ भाग को पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) कहते हैं। इनमें शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त पृथक् रहने के कारण इसे द्वि चक्रीय परिसंचरण या दोहरा परिसंचरण कहते हैं। दोहरे परिसंचरण का महत्त्व दोहरे परिसंचरण में हृदय में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। इस कारण हृदय में शुद्ध रुधिर तथा अशुद्ध रुधिर अलग-अलग रहते हैं। हृदय के दाएँ भाग में सारे शरीर से अशुद्ध रुधिर आता है तथा यह रुधिर पल्मोनरी चाप द्वारा फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए चला जाता है। हृदय के बाएँ भाग में पल्मोनरी शिराओं द्वारा शुद्ध रुधिर आता है तथा यह कैरोटिको सिस्टेमिक चाप द्वारा सारे  शरीर में प्रवाहित हो जाता है। इस प्रकार दोहरे परिसंचरण में कहीं भी शुद्ध व अशुद्ध रुधिर का मिश्रण न होने के कारण परिसंचरण अधिक प्रभावशाली (efficient) रहता है। इसके अतिरिक्त दो अलग-अलग बन्द कक्ष होने के कारण रुधिर प्रवाह के लिए अधिक दाब उत्पन्न होता है।

प्रश्न 3. कशेरुकी के हृदयों में विकासीय परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर : कशेरुकी प्राणियों में हृदय का निर्माण भ्रूण के मध्य स्तर (mesoderm) से होता है। भ्रूण अवस्था में आद्यान्त्र (archenteron) के नीचे अधारीय आन्त्र योजनी (mesentry) में दो अनुदैर्घ्य अन्तःस्तरी नलिकाएँ (endothelial canals) परस्पर मिलकर हृदये का निर्माण करती हैं। हृदय एक पेशीय थैलीनुमा रचना होती है। यह शरीर से रक्त एकत्र करके धमनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पम्प करता है। कशेरुकी प्राणियों में हृदय निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

(क)
एककोष्ठीय हृदय (Single-chambered Heart) :
सरलतम हृदय सिफैलोकॉर्डेटा (cephalochordates) जन्तुओं में पाया जाता है। ग्रसनी के नीचे स्थित अधरीय एऑर्टा पेशीय होकर रक्त को पम्प करने का कार्य करता है। इसे एककोष्ठीय हृदय मानते हैं।

(ख)
द्विकोई य हृदय (Two-chambered Heart) :
मछलियों में द्विकोष्ठीय हृदय होता है। यह अनॉक्संजनित रक्त को गिल्स (gills) में पम्प कर देता है। गिल्स से यह रक्त ऑक्सीजनित होकर शरीर में वितरित हो जाता है। इसमें धमनीकोटर एवं शिराकोटर सहायक कोष्ठ तथा अलिन्द एवं निलय वास्तविक कोष्ठ होते हैं, इस प्रकारके हृदय को शिरीय हृदय (venous heart) कहते हैं।

(ग)
तीन कोष्ठीय हृदय (Three-chambered Heart) :
उभयचर (amphibians) में तीन कोष्ठीय हृदय पाया जाता है। इसमें दो अलिन्द तथा एक निलय होता है। शिराकोटर (sinus venosus) दाहिने अलिन्द के पृष्ठ तल पर खुलता है। बाएँ अलिन्द में शुद्ध तथा दाहिने अलिन्द में अशुद्ध रक्त रहता है। निलय पेशीय होता है। वान्डरवॉल तथा फॉक्सन के अनुसार उभयचरों में मिश्रित रक्त वितरित होता है। इसमें रुधिर संचरण एक परिपथ (single circuit) वाला होता है।

(घ)
चारकोष्ठीय हृदय (Four-chambered Heart) :
अधिकांश सरीसृपों में दो अलिन्द तथा दो अपूर्ण रूप से विभाजित निलय पाए जाते हैं। मगरमच्छ के हृदय में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। पक्षी तथा स्तनी जन्तुओं में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। बाएँ अलिन्द तथा बाएँ निलय में शुद्ध रक्त भरा होता है। इसे दैहिक चाप द्वारा शरीर में पम्प कर दिया जाता है। दाएँ। अलिन्द में शरीर के विभिन्न भागों से अशुद्ध रक्त एकत्र होता है। यह दाएँ निलय से शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज दिया जाता है। इस प्रकार हृदय का बायाँ भाग पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) तथा दायाँ भाग सिस्टेमिक हृदय (systemicr heart) कहलाता है। इन प्राणियों में दोहरा परिसंचरण होता है। इसमें रक्त के मिश्रित होने की सम्भावना नहीं होती।

प्रश्न 4. हम अपने हृदय को पेशीजनक (मायोजेनिक) क्यों कहते हैं?
उत्तर : हृदय की भित्ति हृदपेशियों (cardiac muscles) से बनी होती है। हृद पेशियाँ रचना में रेखित पेशियों के समान होती हैं, लेकिन कार्य में अरेखित पेशियों के समान अनैच्छिक होती हैं। हृदय पेशियाँ मनुष्य की इच्छा से स्वतन्त्र, स्वयं बिना थके, बिना रुके, एक निश्चित दर (मनुष्य में 72 बार प्रति मिनट) और एक निश्चित लय (rhythm) से जीवनभर संकुचित और शिथिल होती रहती हैं। प्रत्येक हृदय स्पन्दन में संकुचन की प्रेरणा, प्रेरणा-संवहनीय पेशी के तन्तुओं ‘S-A node’ से प्रारम्भ होती है। S-A node से संकुचन प्रेरणा स्व:उत्प्रेरण द्वारा उत्पन्न होकर A-Vnode तथा हिस के समूह (bundle of His) से होकर पुरकिन्जे तन्तुओं द्वारा अलिन्द और निलयों में फैलती है। हृदय पेशियों में संकुचन के लिए तन्त्रिकीय प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। पेशियों में संकुचन पेशियों के कारण होते हैं अर्थात् संकुचन पेशीजनक (myogenic) होते हैं। यदि हृदय में जाने वाली तन्त्रिकाओं को काट दें तो भी हृदये अपनी निश्चित दर से धड़कता रहता है। तन्त्रिकीय प्रेरणाएँ हृदय की गति की दर को प्रभावित करती हैं। हृदय पेशियों के तन्तुओं में ऊर्जा उत्पादन हेतु प्रचुर मात्रा में माइटोकॉण्ड्रिया पाए जाते हैं।

प्रश्न 5 हृद चक्र तथा हृद निकास को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
1. हृद चक्र (Cardiac Cycle) :
एक हृदय स्पन्दन के आरम्भ से दूसरे स्पन्दन के आरम्भ होने के बीच के घटनाक्रम को हृद चक्र (cardiac cycle) कहते हैं। इस क्रिया में दोनों अलिन्दों तथा दोनों निलयों का प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन सम्मिलित होता है। हृदय स्पन्दन एक मिनट में 72 बार होता है। अतः एक हृदय चक्र का, समय 0.8 सेकण्ड होता है।

2. हृद निकास (Cardiac Output) :
हृदय प्रत्येक हृद चक्र में लगभग 70 मिली रक्त पम्प करता है, इसे प्रवाह आयतन (stroke volume) कहते हैं। प्रवाह आयतन को हृदय दर से गुणा करने पर जो मात्रा आती है, उसे हृद निकास (cardiac output) कहते हैं।

हृद निकास = ह्यदय दर x प्रवाह आयतन

अतः हृद निकास प्रत्येक निलय द्वारा रक्त की मात्रा को प्रति मिनट बाहर निकालने की क्षमता है जो स्वस्थ मनुष्य में लगभग 5 लीटर होती है। खिलाड़ियों का हृद निकास सामान्य मनुष्य से अधिक होता है।

प्रश्न 6. हृदय ध्वनियों की व्याख्या कीजिए ?
उत्तर : हृदय की ध्वनियाँ (Heart Sounds)-दाएँ एवं बाएँ निलयों में आकुंचन एकसाथ होता है, इसके फलस्वरूप त्रिवलनी (tricuspid)  तथा द्विवलनी (bicuspid) कपाट एक तीव्र ध्वनि ‘लब’ (lubb) के साथ बन्द होते हैं। निलयों में आकुंचन दबाव के कारण रक्त दोनों धमनी चापों में पम्प हो जाता है। आकुंचन के समाप्त होने पर ज्यों ही रक्त धमनी चापों से निलय की ओर गिरता है तो धमनी चापों के आधार पर स्थित अर्द्धचन्द्राकार कपाट अपेक्षाकृत हल्की ध्वनि ‘डप’ (dup) के साथ बन्द हो जाते हैं। हृदय की इन्हीं ध्वनि ‘लब’ एवं ‘डप’ को स्टेथोस्कोप (stethoscope) से सुनकर हृदय सम्बन्धी रोगों का निदान किया जाता है।

प्रश्न 7 एक मानक ईसीजी को दर्शाइए तथा उसके विभिन्न खण्डों का वर्णन कीजिए।
उत्तर : विद्युत हृद लेखन (Electrocardiography) :
विद्युत हृद लेख (ECG) एक तरंगित आलेख होता है, इसमें एक सीधी रेखा से तीन स्थानों पर तरंगें उठी दिखाई देती हैं-P लहर, QRS सम्मिश्र (QRS Complex) तथा T तरंग (T-wave) P तरंग ऊपर की ओर उठी एक छोटी-सी लहर होती है। जो 0.1 सेकण्ड के अलिन्दीय संकुचन (atrial systole को दर्शाती है। इसके समाप्त होने के लगभग 0.1 सेकण्ड बाद QRS सम्मिश्र की लहप्रारम्भ होती है। ये तीन तरंगें होती हैं-नीचे की ओर Q तरंग, इससे उठी बड़ी R तरंग तथा इससे जुड़ी नीचे की ओर छोटी 5 तरंग। QRS सम्मिश्र निलयी संकुचन के 0.3 सेकण्ड का सूचक होता है। फिर निलयी संकुचन की अन्तिम प्रावस्था और इनके क्रमिक प्रसारण के प्रारम्भ की सूचक T तरंग होती है। ECG में प्रदर्शित तरंगों तथा उनके मध्यावकाशों के तरीके का अध्ययन करके हृदय की दशा का ज्ञान होता है।

इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ECG)
प्राप्त करने के लिए, हृदय के समीपवर्ती क्षेत्र में विशिष्ट स्थानों पर यदि इलेक्ट्रोड्स लगा दिए जाएँ तो हृदय संकुचन के समय जो विद्युत विभव शिरा अलिन्द गाँठ (S-A node) से उत्पन्न होकर विशिष्ट संवाही पेशी तन्तुओं (special conducting muscular fiber) से गुजर कर हृदय के मध्य स्तर की पेशियों के संकुचन को प्रेरित करता है, इसे नापा जा सकता है। इसे नापने के लिए जिस यन्त्र का प्रयोग किया जाता है, उसे विद्युत हृद लेखी (electro cardiograph) कहते हैं।

प्रश्न 8. रक्त का थक्का जमना’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। या रुधिर स्कन्दन की परिभाषा दीजिए। रुधिर के थक्का बनने की क्रिया-विधि एवं इसमें विटामिन K की भूमिका लिखिए। रुधिर स्कन्दन से होने वाले हानि/लाभ की विवेचना कीजिए।
उत्तर : रुधिर का थक्का जमना, आतंचन या स्कन्दन : क्रिया-विधि घाव हो जाने, कट जाने अथवा चोट लग जाने पर शरीर के प्रभावित स्थान अथवा अंग से रुधिर बहना प्रारम्भ हो जाता है। कुछ समय पश्चात् स्वयं ही रुधिर का यह बहाव रुक जाता है तथा घायल स्थान पर हल्के पीले रंग के द्रव की एक बूंद दिखायी पड़ती है। यह द्रव रुधिर प्लाज्मा का अंश होता है तथा इसे सीरम (serum) कहते हैं।

रुधिर का जमा हुआ यह अंश थक्का (clot) कहलाता है तथा रुधिर जमने की यह क्रिया थक्का जमना, आतंचन अथवा स्कन्दन (blood clotting or coagulation) कहलाती है। रुधिर का थक्का जमने की क्रिया-विधि निम्नांकित पदों में सम्पन्न होती है

1. प्रथम पद :
घायल अंग की रुधिर वाहिनियाँ तथा क्षतिग्रस्त ऊतक थ्रोम्बोप्लास्टिन (thromboplastin) नामक एक लिपोप्रोटीन मुक्त करते हैं। इसी प्रकार क्षतिग्रस्त रुधिर केशिकाओं से रुधिर प्लेटलेट्स (blood platelets) मुक्त होती हैं जो विघटित होकर प्लेटलेट कारक-III (platelet factor-III) बनाती हैं। यह कारक रुधिर प्लाज्मा की प्रोटीन्स तथा कैल्सियम आयन्स (Ca++) से संयोग कर प्रोग्रॉम्बिनेज (prothrombinase) नामक एन्जाइम का निर्माण करता है।

2. द्वितीय पद :
कैल्सियम आयन्स (Ca++) की उपस्थिति में प्रोग्रॉम्बिनेज एन्जाइम प्लाज्मा के प्रतिस्कन्दक को निष्क्रिय कर इसकी प्रोथॉम्बिन (prothrombin) नामक प्रोटीन को सक्रिय श्रॉम्बिन (thrombin) तथा छोटी-छोटी पेप्टाइड श्रृंखलाओं में तोड़ देता है।

3. तृतीय पद :
थ्रॉम्बिन एक एन्जाइम के समान कार्य करता है। यह प्लाज्मा की घुलनशील प्रोटीन फाइब्रिनोजन (fibrinogen) को इसके मोनोमर्स में विखण्डित करके इनके बहुलीकरण (polymerization) द्वारा अघुलनशील फाइब्रिन (fibrin) का निर्माण करता है। इस प्रकार फाइब्रिन के पतले, लम्बे व ठोस सूत्र एक सघन जाल के रूप में चोटग्रस्त भाग पर जम जाते हैं। अनेक रुधिराणु धीरे-धीरे इस जाल में फंसते जाते हैं तथा 2-8 मिनट के समय में रुधिर का थक्का जम जाता है। इसमें से हल्के पीले रंग का तरल अर्थात् सीरम (serum) बहर निकल आता है।

रुधिर स्कन्दन का महत्त्व/लाभ-हानि
सभी कशेरुकियों में रुधिर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तरल ऊतक है। मनुष्य में यह शरीर के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में परिसंचरण कर ऑक्सीजन के संवहन व कार्बन डाइऑक्साइड के निष्कासन, ग्लूकोज व अन्य ऊर्जा. पदार्थों के वितरण, हॉर्मोन्स एवं एन्जाइम्स के संवहन, उत्सर्जन, रोगों से प्रतिरक्षण आदि अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करता है। आज के भौतिक समाज में दुर्घटनाएँ मानव जीवन की अति सामान्य घटनाएँ हैं। दुर्घटनाओं में मृत्यु का कारण सामान्य रूप से मानसिक आघात (mental shock) एवं अधिक रुधिर स्राव होना ही माना गया है। रुधिर स्राव होने पर रुधिर का थक्का जमना मनुष्य एवं अन्य प्राणियों के लिए प्रकृति-प्रदत्त एक महत्त्वपूर्ण वरदान है, जिसके परिणामस्वरूप घायल अंग अथवा अंगों से कुछ ही मिनटों में रुधिर स्राव रुक जाता है तथा अधिक रुधिर स्राव नहीं होने पाता और घायल प्राणि के जीवन की रक्षा हो जाती है।

प्रश्न 9 गति-निर्धारक (pacemaker) पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : गति-निर्धारक। शिरा-अलिन्दीय घुण्डी स्व:उत्तेजक तन्तुओं का एक छोटा, अर्धचन्द्राकार-सा सघन पिण्ड होता है। जो दाएँ अलिन्द की दीवार में उच्च महाशिरा (superior vena cava) के छिद्र के निकट स्थित होता है। इसके तन्तुओं को गुण्ठीय तन्तु (nodal fibres) कहते हैं। इन तन्तुओं में किसी बाहरी उद्दीपन के बिना ही एक मिनट में 70 से 80 बार स्व:उत्तेजन से लयबद्ध (rhythmic) हृद्-स्पंदन की प्रेरणाओं काँ जीवनभर, बिना थके, सूत्रपात होता रहता है। इसीलिए, SA घुण्डी को हृदय का स्पंदन केन्द्र या गति-निर्धारक (contraction centre or pacemaker) कहते हैं। इससे अनेक प्रेरणा-संचारी तन्तु निकलकर दाएँ एवं बाएँ अलिन्दों की हृपेशियों में आकुंचन की प्रेरणाओं का प्रसारण करते हैं। यदि किसी कारणवश शिरा अलिन्दीय घुण्डी ठीक से काम नहीं कर पाती है या हृदय के विशिष्ट संचालक ऊतक में तन्त्रिकीय आवेगों का प्रसारण ठीक से नहीं होता है तो एक कृत्रिम गति-निर्धारक को वक्ष भाग में हँसली की हड्डी (collar bone) के पास या उदर भाग में त्वचा के नीचे फिट करके एक विद्युत् तार द्वारा हृदय से जोड़ देते हैं। यह गति-निर्धारक एक छोटा-सा, बैटरी द्वारा संचालित, विद्युत उपकरण होता है जो नियमित या आवश्यक समयान्तरों पर तन्त्रिकीय आवेगों का प्रसारण करता रहता है। इसे कृत्रिम गति-निर्धारक कहते हैं।

प्रश्न 10. रुधिर के कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर : रुधिर के कार्य रुधिर के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं

1. ऑक्सीजन का परिवहन :
रुधिर ऑक्सीजन के परिवहन में सहायक है। इसकी लाल रुधिर कणिकाओं में उपस्थित हीमोग्लोबिन (haemoglobin) ऑक्सीजन ग्रहण करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) में बदल जाता है और इसी रूप में ऑक्सीजन को ऊतकों में पहुँचाता है। ऊतकों में पहुँचने पर ऑक्सीहीमोग्लोबिन ऑक्सीजन तथा हीमोग्लोबिन में टूट जाता है। ऑक्सीजन, श्वसन के लिए ऊतकों द्वारग्रहण कर ली जाती है।

2. पोषक पदार्थों को ले जाना :
आँत से अवशोषित भोज्य पदार्थ अपनी विलेय अवस्था में रुधिर प्लाज्मा द्वारा ऊतकों में पहुँचाये जाते हैं।

3. उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन :
शरीर में यूरिया आदि अनेक नाइट्रोजन युक्त हानिकारक पदार्थ बनते हैं। इन्हें रुधिर वृक्कों में पहुँचा देता है, जहाँ से ये छनकर मूत्र के रूप में बाहर निकल जाते हैं। CO2 भी प्लाज्मा के द्वारा श्वसनांगों तक पहुँचायी जाती है।

4. शरीर के ताप का नियन्त्रण :
शरीर के सभी भागों में समान ताप बनाये रखने का कार्य भी रुधिर ही करता है। अधिक सक्रिय भागों में यह तीव्र उपापचय के कारण बढ़ते हुए ताप को सीमा से अधिक बढ़ने नहीं देता है।

5. अन्य पदार्थों का परिसंचरण :
हॉर्मोन्स, एन्जाइम्स, एण्टीबॉडीज आदि को एक स्थान से अथवा उनके निर्माण के स्थान से अन्य स्थानों तक पहुँचाने का कार्य रुधिर ही करता है।

6. रोगों से बचाव वे घाव का भरना :
श्वेत रुधिर कणिकाएँ बाहर से आने वाले रोगाणुओं से लड़ती हैं तथा उनको नष्ट करती हैं। मवाद (pus) आदि के रूप में वह सब घाव से निकल जाता है। साथ ही आवश्यक पदार्थों आदि को पहुँचाकर रुधिर, घाव के भरने में सहायता करता है। इसी प्रकार अनेक प्रकार के विषों (toxins) के विपरीत प्रतिविष (antitoxins) बनाकर शरीर की रोगों से रक्षा करता है।

प्रश्न 11. मनुष्य के हृदय की खड़ी काट (vertical section) का नामांकित चित्र बनाइए तथा इसकी कार्यविधि समझाइए। या नामांकित चित्रों की सहायता से मनुष्य के हृदय की संरचना का वर्णन कीजिए तथा हृद स्पंदन के उद्भव, चालन एवं नियमन को समझाइए। या मानव हृदय की क्रियाविधि का सचित्र वर्णन कीजिए तथा दोहरे परिसंचरण को समझाइए।
उत्तर : मनुष्य का हृदय

मनुष्य का हृदय गुलाबी रंग की, शंक्वाकार (conical) तथा मांसल (muscular) संरचना है। यह वक्षीय गुहा (thoracic cavity) की दोनों फेफड़ों के मध्य स्थित मध्यावकाश (mediastinal space) नामक गुहा में, अधर तल पर, तन्तुपट (diaphragm) के ऊपर स्थित होता है। यह लगभग 12 सेमी लम्बा, अधिकतम चौड़े अग्र सिरे पर 9 सेमी चौड़ा तथा 6 सेमी मोटा होता है। इसका चौड़ा अग्र सिरा थोड़ा पृष्ठ दायें तल की ओर तथा सँकरा सिरा प्रतिपृष्ठ (सामने) व बायीं ओर झुका रहता है। इस प्रकार यह तिरछा स्थित होता है तथा इसका लगभग 2/3 भाग मध्य रेखा से बायीं ओर स्थित होता है। हृदय हृदयावरणी गुहा (pericardial cavity) के अन्दर स्थित होता है जिसका निर्माण दोहरी सीलोमिक एपिथीलियम (coelomic epithelium) से होता है। इस आवरण की भीतरी झिल्ली जो हृदय से सटी रहती है, एपिकार्डियम (epicardium) तथा बाहरी झिल्ली हृदयावरण (pericardium) कहलाती है। इन दोनों झिल्लियों के मध्य गुहा में एक लसदार, पारदर्शी पेरिकार्डियल तरल (pericardial fluid) होता है।

1. बाह्य संरचना (External Structure) :
एक स्पष्ट हृद खाँच या कॉरोनरी सलर्कस (coronary sulcus) हृदय के ऊपरी चौड़े भाग को पिछले शंक्वाकार भाग से अलग करती है। ऊपरी चौड़ा भाग दो अलिन्दों (auricles) से मिलकर बना है, जो पिछले शंक्वाकार भाग से काफी छोटा होता है। पिछली

भाग दो निलयों (ventricles) से मिलकर बना है। दोनों निलयों के मध्य एक खाँच अग्र भाग से पश्च भाग की ओर होती है, जो अन्तरनिलयी खाँच (interventricular sulcus) कहलाती है और दायें व बायें निलयों को विभेदित करती है। यह खाँच तिरछी तथा इस प्रकार स्थित होती है कि दायाँ निलय चौड़ा, किन्तु लम्बाई में छोटा, जबकि बायाँ निलय सँकरा, किन्तु लम्बाई में अधिक होता है। दोनों अलिन्दों के मध्य भी एक खड़ी अन्तरअलिन्दीय खाँच (interauricular sulcus) होती है और छोटे बायें तथा बड़े दायें अलिन्द को विभेदित करती है। हृदय की सतह पर खाँचों में हृदय की दीवारों को रुधिर पहुँचाने वाली दाहिनी तथा बायीं कॉरोनरी धमनियाँ (coronary arteries) दिखायी देती हैं।

2. आन्तरिक संरचना (Internal Structure) :
क्षैतिज अनुलम्ब काटों (horizontal longitudinal sections) द्वारा हृदय की आन्तरिक रचना का अध्ययन किया जाता है। हृदय की दीवारों में मुख्यत: हृद् पेशियाँ (cardiac muscles) होती हैं जो इसका मध्यस्तर बनाती हैं जिसे मायोकार्डियम (myocardium) कहते हैं। ये पेशियाँ शाखान्वित और रेखित, परन्तु अनैच्छिक होती हैं और बिना थके जीवनभर कार्य करती रहती हैं। इसकी भीतरी सतह पर महीन एण्डोकार्डियम (endocardium) तथा बाहरी सतह पर, एपिकार्डियल कला (epicardial membrane) होती है। अलिन्द की दीवार निलय की दीवार से पतली होती है। हृदय में चार कक्ष (chambers), दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। दोनों अलिन्दों को दाहिने एवं बायें अलिन्दों में बाँटने वाली अन्तरअलिन्दीय पट (interatrial septum) के पश्च भाग पर दाहिनी ओर एक छोटा-सा अण्डाकार गड्डा होता है जिसे फोसा ओवेलिस (fossa ovalis) कहते हैं। भ्रूणावस्था में इसी स्थान पर फोरामेन ओवेलिस (foramen ovalis) नामक छिद्र होता है। अलिन्द की दीवार का भीतरी स्तर अधिकांश भाग में सपाट (smooth) होता है, केवल कुछ भाग में इससे लगी हुई अनेक पेशीय पट्टियाँ गुहा में उभरी रहती हैं जिन्हें कंघाकार पेशियाँ (musculi pectinati) कहते हैं। दाहिने अलिन्द में दो मोटी महाशिराएँ अलग-अलग छिद्रों द्वारा खुलती हैं; ये हैं—निम्न महाशिरा (inferior vena cava) तथा उपरि महाशिरा (superior vena cava)। उपरि महाशिरा का छिद्र इस अलिन्द के ऊपरी भाग में तथा निम्न महाशिरा का निचले भाग में होता है। हृदय की दीवार से अशुद्ध रुधिर अलिन्द में लाने के लिए बायें भाग में अन्तरअलिन्दीय पट के पास कोरोनरी साइनस (coronary sinus) का छिद्र होता है। फेफड़ों से शुद्ध रुधिर लाने वाली फुफ्फुसी शिराएँ (pulmonary veins) भी बायें अलिन्द में खुलती हैं।

निलय (ventricle) की भित्तियाँ अलिन्द की भित्तियों से अधिक मोटी और मांसल होती हैं, जबकि बायें निलय की भित्ति तो दाहिने निलय की भित्ति से भी मोटी होती है। दाहिने अलिन्द की गुहा बायें की अपेक्षा बड़ी होती है। दोनों निलयों को अलग करने वाला तिरछा अनुलम्ब पट होता है जिसे अन्तरनिलय पट (interventricular septum) कहते हैं। एक-एक बड़े अलिन्द-निलय छिद्र (atrio-ventricular apertures) द्वारा प्रत्येक अलिन्द अपनी ओर के निलय में खुलता है। प्रत्येक अलिन्द निलय छिद्र पर नियमन हेतु एक झिल्ली के समान कपाट होता है। दाहिना अलिन्द-निलय कपाट तीन चपटे एवं त्रिकोणाकार पालियों का बना होता है, इसे त्रिवलनी या ट्राइकस्पिड कपाट (tricuspid valve) कहते हैं। बायाँ अलिन्द-निलय कपाट केवल दो, अधिक बड़ी तथा अधिक मोटी पालियों का बना होता है। इसे द्विवलनी या बाइकस्पिड कपाट (bicuspid valve) कहते हैं।

कपाट, कण्डराओं (tendons) या हृद् रज्जुओं (chordae tendinae) द्वारा निलय की दीवार पर स्थित मोटे पेशी स्तम्भों (columnae carnae or papillary muscles) से जुड़े रहते हैं। कपाट रुधिर को अलिन्दों से निलयों में जाने का मार्ग देते हैं, किन्तु विपरीत दिशा में नहीं जाने देते। दाहिने निलय के अग्र भाग के बायें कोने से पल्मोनरी महाधमनी (pulmonary aorta) तथा बायें निलय के अग्र भाग के दाहिने कोने से कैरोटिको सिस्टेमिक महाधमनी (carotico- Systemic aorta) चापों (arches) के रूप में निकलती हैं। दोनों चापों के गोलाकार छिद्रों पर तीन-तीन छोटे जेबनुमा (pocket shaped) अर्द्धचन्द्राकार कपाट (semilunar valves) होते हैं, जो रुधिर को निलयों से चापों में ही जाने का मार्ग देते हैं। चापों से वापस निलयों में आने नहीं देते। हृदय की भित्ति के कुछ भागों में सघन तन्तुमय संयोजी ऊतक के छल्ले होते हैं। ये भित्ति को सहारा देते हैं, कक्षों को आवश्यकता से अधिक फूलने से रोकते हैं और अनेक हृद् पेशियों को जुड़ने का स्थान देते हैं। अतः इन्हें हृदय का कंकाल कहा जाता है।


हृदय स्पन्दन तथा इसकी क्रिया-विधि : कार्डियक चक्र
हृदय की दीवारों में प्रकुंचने (systole) तथा अनुशिथिलन (diastole) के कारण एक लहर-सी बन जाती है। एक बार जब ये क्रियाएँ चालू होती हैं तो बिना रुके हुए मृत्यु के समय तक चलती रहती हैं। अलिन्दों के बाद निलय सिकुड़ते हैं तथा निलय के बाद अलिन्द और इसी तरह दोनों अपनी-अपनी बारी पर फैलते-सिकुड़ते रहते हैं। हृदय के निलय की कार्डियक पेशियों के शक्तिशाली क्रमिक संकुचनों या एक-बार फैलने व सिकुड़ने की क्रिया से एक हृदय स्पन्दन (heart beat) बनता है अर्थात् प्रत्येक हृदय स्पन्दन में कार्डियक पेशियों का एक बार प्रकुंचन या सिस्टोल तथा एक बार अनुशिथिलन या डाएस्टोले होता है। मनुष्य का हृदय एक मिनट में 72-75 बार स्पन्दित होता है। यह हृदय स्पन्दन की दर कहलाती है। एक पूर्ण स्पन्दन में एक कार्डियक चक्र (cardiac cycle) पूरी होती है।

शरीर के सभी अंगों में भ्रमण करने के बाद अशुद्ध रुधिर अग्र तथा पश्च महाशिराओं द्वारा दाहिने अलिन्द में आता है। इसी प्रकार से फेफड़ों द्वारा शुद्ध किया गया रुधिर बायें अलिन्द में आता है। दोनों अलिन्दों में रुधिर भर जाने के बाद इसमें एक साथ संकुचन होता है जिससे इनका रुधिर अलिन्द-निलय छिद्रों द्वारा अपनी ओर के दोनों निलयों में भर जाता है। निलयों में रुधिर भर जाने पर फिर इन दोनों निलयों में संकुचन होता है। फलतः दाहिने निलय का अशुद्ध रुधिर पल्मोनरी महाधमनी द्वारा फेफड़ों में जाता है, जबकि बायें निलय का शुद्ध रुधिर कैरोटिको-सिस्टेमिक महाधमनी द्वारा समस्त शरीर में जाता है। यही महाधमनी कशेरुक दण्ड के नीचे पृष्ठ महाधमनी (dorsal aorta) बनाती है। निलयों का संकुचन जैसे ही समाप्त होता है, वैसे ही अलिन्दों में पुन: संकुचन प्रारम्भ होने लगता है। आधुनिक खोज के अनुसार दाहिने अलिन्द में एक संकुचन केन्द्र (contraction centre) होता है, जिसे शिरा-अलिन्द नोड या साइनो-ऑरिक्यूलर नोड (sino-auricular node) अथवा हृदय का हृदय’ भी कहते हैं। यह नोड हृदय गति पर नियन्त्रण रखता है। अत: इसे पेस मेकर (pace maker) कहते हैं।

इस नोड में विशेष प्रकार की हृद् पेशियाँ, तन्त्रिका तन्तु तथा तन्त्रिकाएँ होती हैं। इसमें वेगस तन्त्रिका (पैरासिम्पैथेटिक) तथा सिम्पैथेटिक तन्त्रिकाओं के तन्तु होते हैं। वेगस तन्त्रिका के तन्तु हृदय गति को कम करने में तथा सिम्पैथेटिक तन्त्रिकाओं के तन्तु गति को बढ़ाने में सहायक होते हैं। इस नोड में निश्चित क्रम से कुछ रासायनिक क्रियाओं के होने के कारण पेशी तन्तुओं के द्वारा आवेग साइनो-ऑरिक्यूलर नोड से दूसरे नोड में पहुँचता है। इसे अलिन्द-निलय नोड (auriculo-ventricular node) कहते हैं। अलिन्द-निलय नोड अन्तर-अलिन्द पट (interauricular septum) के पिछले दायें कोने पर होता है। इससे एक विशेष ऊतक का बण्डल अथवा हिज का बण्डल (bundle of His) निकलता है, जो थोड़ी दूर तक चलकर दो शाखाओं में बँट जाता है। इसकी ये दोनों शाखाएँ, अनेक शाखाओं व प्रशाखाओं में बँटकर अति सूक्ष्म तन्तुओं का जाल बनाती हैं जिसे पुरकिन्जे तन्त्र (Purkinje system) कहते हैं। तन्त्र दोनों निलयों की दीवारों में फैला रहता है और प्रत्येक पेशी तन्तु में आवेग पहुँचाता है।

अलिन्दों में रुधिर भरते ही सर्वप्रथम साइनो-ऑरिक्यूलर नोड से संकुचन तरंगें उठती हैं और दोनों अलिन्दों में फैल जाती हैं, जिससे दोनों एक ही साथ संकुचन करते हैं। अलिन्दों का संकुचन निलयों के शिथिलन के पूर्ण होने से पहले ही आरम्भ हो जाता है। जब दोनों अलिन्दों का संकुचन होता (UPBoardSolutions.com) है तो उनके भीतर का रुधिर वापस नहीं लौट पाता है। इस समय रुधिर के दबाव से ट्राइकस्पिड (tricuspid) तथा बाइकस्पिड (bicuspid) कपाट खुल जाते हैं और रुधिर निलयों में पहुँच जाता है। निलयों का संकुचन केन्द्र, ऑरिक्यूलो-वेण्ट्रीकुलर नोड में होता है। इसे उत्तेजना साइनो-ऑरिक्यूलर नोड के तन्तुओं से मिलती है। इसमें उत्पन्न होने वाली संकुचन तरंगें दोनों निलयों की भित्तियों में फैल जाती हैं।

स्पष्ट है कि जब निलयों की भित्ति को संकुचन होता है तो उनके भीतर भरे रुधिर पर दबाव पड़ता है। जिससे वह बाहर निकलने का प्रयत्न करता है। यह रुधिर अलिन्दों में वापस नहीं लौट पाता, क्योंकि इस समय ट्राइकस्पिड तथा बाइकस्पिड वाल्व के झिल्लीदार फ्लैप्स ऊपर उठ जाते हैं और आपस में मिलकर बायें अलिन्द-निलय द्वार तथा दाहिने अलिन्द-निलय द्वार को पूरी तरह बन्द कर देते हैं। कण्डरीय रज्जु होने के कारण झिल्लीदार कपाट उलटने नहीं पाते। दाहिने निलय से पल्मोनरी महाधमनी निकलती है; अत: दबाव के कारण इस महाधमनी में होकर अशुद्ध रुधिर फेफड़ों में पहुँचता रहता है। इसी प्रकार संकुचन के कारण उत्पन्न दबाव के द्वारा बायें निलय से शुद्ध रुधिर महाधमनी में जाता है और फिर उसकी शाखाओं द्वारा, समस्त शरीर के भागों में बँट जाता है।

प्रश्न 12 निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए। (क) हृद-स्पंदन का नियमन (ख) कुछ सामान्य हृदय रोग (ग) रुधिर दाब
(घ) रुधिर वर्ग। या यूमेटिक हृदय रोग क्या है? इसके कारक का नाम बताइए। या रुधिर दाब क्या है? इसे किस यंत्र से नापा जाता है? इनके प्रसामान्य परोस का उल्लेख कीजिए।
उत्तर : (क)
हृद-स्पंदन का नियमन
हृदय की सामान्य क्रियाओं का नियमन अंतरिम होता है अर्थात् विशेष पेशी ऊतक (नोडल ऊतक) द्वारा स्वः नियमित होता है, इसलिए हृदय को पेशीजनक (मायोजनिक) कहते हैं। मेड्यूला ओब्लांगाटा (medulla oblongata) के विशेष तन्त्रिका केन्द्र स्वायत्त तन्त्रिका (autonomic nervous system) के द्वारा हृदय की क्रियाओं को संयमित कर सकता है। अनुकंपीय तन्त्रिकाओं (sympathetic nerves) से प्राप्त तन्त्रीय संकेत हृदय स्पंदन को बढ़ा देते हैं व निलयी संकुचन को सुदृढ़ बनाते हैं, अत: हृद निकास बढ़ जाता है। दूसरी तरफ परानुकंपी तन्त्रिका संकेत (जो स्वचालित तन्त्रिका केन्द्र का हिस्सा है) हृदय स्पंदन एवं क्रियाविभव की संवहन गति (speed of conduction of action potential) कम करते हैं। अत: यह हद निकास (cardiac output) को कम करते हैं। अधिवृक्क अन्तस्था (एड्रीनल मेड्यूला) को हॉर्मोन भी हृद निकास को बढ़ा सकता है।

(ख) कुछ सामान्य हृदय रोग

1. हृद धमनी रोग :
हृद धमनी बीमारी या रोग को प्रायः एथिरोकाठिंय (एथिरोस्क्लेरोसिस) के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसमें हृदय पेशी को रुधिर की आपूर्ति करने वाली वाहिनियाँ प्रभावित होती हैं। यह बीमारी धमनियों के अन्दर कैल्सियम, वसा तथा अन्य रेखीय ऊतकों के जमा होने से होती है, जिससे धमनी की अवकाशिका सँकरी हो जाती है।

2. हृदशूल (एंजाइना) :
इसको एंजाइना पेक्टोरिस (हृदशूल पेक्टोरिस) भी कहते हैं। हद पेशी में जब पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुँचती है, तब सीने में दर्द (वक्ष पीड़ा) होता है जो एंजाइना (हृदशूल) की पहचान है। हृदशूल स्त्री या पुरुष दोनों में किसी भी उम्र में हो सकता है, लेकिन मध्यावस्था तथा वृद्धावस्था में यह सामान्यत: होता है। यह अवस्था रुधिर बहाव के प्रभावित होने से होती है।

3. हृदपात ( हार्ट फेल्योर) :
हृदपात वह अवस्था है जिसमें हृदय शरीर के विभिन्न भागों को आवश्यकतानुसार पर्याप्त रुधिर आपूर्ति नहीं कर पाता है। इसको कभी-कभी संकुलित हृदपात भी कहते हैं, क्योंकि फुफ्फुस का संकुलन हो जाना भी इस बीमारी का प्रमुख लक्षण है। हृदपात में हृदयपेशी को रुधिर आपूर्ति अचानक अपर्याप्त हो जाने से यकायक क्षति पहुँचती है।

4. मायोकार्डियल इन्फ्राक्शन :
इसे हृदय आघात (heart attack) भी कहते हैं। कोरोनरी धमनी ‘में अवरोध से हृदय पेशियों को पर्याप्त रुधिर नहीं मिलता है और पेशियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। और पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पाती हैं।

5. रयूमेटिक हृदय रोग :
यह रोग जीवाणु स्ट्रेप्टोकोकस विरिडेन्स के संक्रमण से होता है। हृदय के कपाट ठीक से कार्य नहीं करते हैं और हृदय पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं।

(ग)
रुधिर दाब
रुधिर दाब वह दाब है जो बायें वेन्ट्रीकल के संकुचन से मुक्त रुधिर द्वारा वाहिनियों की भित्ति पर लगाया जाता है। धमनियों में यह अधिक होता है तथा धीरे-धीरे कोशिकाओं में रुधिर के पहुँचने पर कम होने लगता है एवं शिराओं में सबसे कम होता है। रुधिर दाब के कारण ही धमनियों से रुधिर कोशिकाओं के द्वारा शिराओं तक पहुँचता है।

सिस्टोलिक तथा डाइस्टोलिक दाब :
हृदय गति अथवा हृदय के क्रमाकुंचन के कारण रुधिर कर्म या अधिक निकलता है। जब हृदय संकुचित होता है तो रुधिर को बाहर की ओर धकेलता है। ये रुधिर धमनियों में आता है, अधिक रुधिर को लेने के लिए धमनियाँ फैलती हैं तथा रुधिर के आगे बढ़ जाने के लिए धमनियाँ सिकुड़ती हैं। इस क्रिया में रुधिर दाब बढ़ता है। हृदय की सामान्य अवस्था में रुधि का दाब घटता है क्योंकि धमनियों में रुधिर का बहाव सामान्य हो जाता है। हृदय के संकुचन से धमनियों में बढ़े रुधिर दाब को प्रकुंचन दाब (सिस्टोलिक दाब) तथा हृदय की सामान्य अवस्था में घटे दाब को अनुशिथिलन दाब (डाइस्टोलिक दाब) कहते हैं। रुधिर दाब को सामान्यत: पारे से नापा जाता है। रुधिर दाबमापी को स्फिग्मोमेनोमीटर कहते हैं। रुधिर दाब को सिस्टोलिक दाब तथा डाइस्टोलिक दाब के अनुपात के रूप में मापते हैं। एक स्वस्थ मनुष्य का रुधिर दाब सिस्टोलिक दाबे/डाइस्टोलिक दाब के रूप में 120/80 मिमी होता है। हृदय से अधिक दूरी पर रुधिर दाब नापने पर यह घट जाता है।

रुधिर दाब को कोहनी से ऊपर बाँह में नापा जाता है। प्रकुंचन तथा अनुशिथिलन दाब के मध्य अन्तर लगभग 40mm होता है इसे नाड़ी दाब (pulse pressure) कहते हैं। रुधिर को पम्प करने के लिए हृदय में दाब उत्पन्न होती है। यदि यह दाब न बने तो रुधिर केशिकाओं में प्रवेश नहीं कर सकता है। रुधिर का दाब शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न होता है। निलय के सिकुड़ने से रुधिर जब महाधमनी में प्रवेश करता है तो उसे प्रकुंचन दाब (systolic pressure) कहते हैं। यह दाब पारे के 120 mm स्तम्भ पर बने दाब के बराबर होता है। इसके विपरीत रुधिर के अलिंद से निलय में आने पर अनुशिथिलन दाब (diastolic pressure) होता है जो पारे के 80 mm के दाब के बराबर होता है।

1. उच्च रुधिर दाब (High Blood Pressure) :
केशिकाओं में अथवा धमनियों की प्रत्यास्थता की कमी के कारण उच्च रुधिर दाब होता है। धमनियों की भित्ति पर वसा के संग्रहण से धमनियों की गुहा कम हो जाती है तथा रुधिर को ले जाने की क्षमता क्षीण हो जाती है जिससे रुधिर दाब बढ़ जाता है।

2. निम्न रुधिर दाब (Low Blood Pressure) :
धमनियों के अधिक फैलने से या हृदय के रुधिर को पम्प करने की गति में बदलाव आने से निम्न रुधिर दाब होता है। रुधिर दाब को प्रभावित करने वाले कारक बहुत से हैं; जैसे—धमनियों का चौड़ा होना, धमनियों की भित्ति में वसा के जमने से गुहा का सिकुड़ना, केशिकाओं की प्रत्यास्थता का कम होना, रुधिर का गाढ़ा होना, हृदय गति का असामान्य होना, हृदय रोग होना आदि। इनके अतिरिक्त, भय, क्रोध, तनाव, उत्तेजना आदि भी रुधिर दाब को प्रभावित करते हैं।

(घ)
रुधिर वर्ग
सन् 1900 में कार्ल लैंडस्टीनर ने सर्वप्रथम बताया कि सभी मनुष्यों में समान रुधिर नहीं होता है। यदि रुधिर आधान की आवश्यकता पड़े तो दाता को रुधिर ग्राही के रुधिर से मेल खाता होना चाहिए अन्यथा दाता के रुधिर के लाल रुधिर कण बड़े-बड़े समूहों में जुड़ने लगते हैं तथा इस अभिश्लेषण (agglutination) की क्रिया से ग्राही (reciever) की मृत्यु भी हो सकती है। लाल रुधिर कणिकाओं में अभिश्लेषणिक पदार्थ होते हैं। ये प्रोटीन के बने होते हैं तथा प्रतिजन (antigen) कहलाते हैं। इन्हें एग्लूटिनोजन भी कहते हैं। प्लाज्मा में प्रतिरक्षी (antibody) मिलती हैं। प्रतिजन दो प्रकार के होते हैं-‘A’ तथा ‘B’। इसी प्रकार प्रतिरक्षी वर्ग भी दो प्रकार के होते हैं-‘A’ रोधी तथा ‘B’ रोधी। रुधिर का कई तरीके से समूहीकरण किया गया है। इनमें से दो मुख्य समूह ABO तथा Rh का उपयोग पूरे विश्व में होता है।

ABO समूह
ABO समूह मुख्यत: लाल रुधिर कणिकाओं की सतह पर दो प्रतिजन (antigens) की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर निर्भर होता है। ये एंटीजन A और B हैं जो प्रतिरक्षा अनुक्रिया को प्रेरित करते हैं। इसी प्रकार विभिन्न व्यक्तियों में दो प्रकार के प्राकृतिक प्रतिरक्षी (antibodies) (रोग प्रतिरोधी) मिलते हैं। प्रतिरक्षी वे प्रोटीन पदार्थ हैं जो प्रतिजन के विरुद्ध पैदा होते हैं। चार रुधिर समूहों, A, B, AB और O में प्रतिजन तथा प्रतिरक्षी की स्थिति को निम्नांकित तालिका में दर्शाया गया है

ग्राही को रुधिर चढ़ाने से पहले सावधानीपूर्वक दाता के रुधिर से मिलान कर लेना चाहिए जिससे रुधिर स्कंदन एवं RBC के नष्ट होने जैसी गंभीर परेशानियाँ न हों। दाता संयोज्यता (डोनर कंपेटिबिलिटी) उपर्युक्त तालिका में दर्शायी गई है। लाल रुधिर कणिकाओं में उपस्थित प्रतिजन के आधार पर लैंडस्टीनर ने मानव में 4 मुख्य रुधिर वर्ग बनाये हैं

रुधिर वर्ग-A (A प्रतिजन, B प्रतिरक्षी)

रुधिर वर्ग-B (B प्रतिजन, A प्रतिरक्षी)

रुधिर वर्ग-AB (A तथा B प्रतिजन, कोई प्रतिरक्षी नहीं)

रुधिर वर्ग-0. (कोई प्रतिजन नहीं, A तथा B दोनों प्रतिरक्षी)

A रुधिर वर्ग के मनुष्य को A रुधिर वर्ग का रुधिर आधान तथा B रुधिर वर्ग के मनुष्य को B रुधिर वर्ग का रुधिर आधान किया जा सकता है। AB रुधिर वर्ग के मनुष्य सर्वग्राही (universal recipient) तथा 0 रुधिर वर्ग के मनुष्य सर्वदाता (universal donor) होते हैं।

Rh समूह
एक अन्य प्रतिजन/(antigen) Rh है जो लगभग 80 प्रतिशत मनुष्यों में पाया जाता है, यह Rh एंटीजन रीसेस बंदर में पाए जाने वाले एंटीजन के समान है। ऐसे व्यक्ति को जिसमें Rh एंटीजन होता है, Rh सहित (Rh+ve) और जिसमें यह नहीं होता उसे Rh हीन (Rh-ve) कहते हैं। यदि Rh हीन (Rh-ve) के व्यक्ति के रुधिर को Rh सहित (Rh+ve) व्यक्ति के रुधिर के साथ मिलाया जाता है तो व्यक्ति में Rh प्रतिजन Rh-ve के विरुद्ध विशेष प्रतिरक्षी बन जाती हैं, अत: रुधिर आदान-प्रदान के पहले Rh समूह को मिलाना भी आवश्यक है। एक विशेष प्रकार की Rh अयोग्यता एक गर्भवती (Rh-ve) माता एवं उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण के (Rh+ve) के बीच पाई जाती है।

अपरा द्वारा पृथक् रहने के कारण भ्रूण का Rh एंटीजन सगर्भता में माता के Rh-ve को प्रभावित नहीं कर पाता, लेकिन फिर भी पहले प्रसव के समय माता के Rh-ve रुधिर से शिशु के Rh+ve रुधिर के सम्पर्क में आने की संभावना रहती है। ऐसी दशा में माता के रुधिर में Rh प्रतिरक्षी बनना प्रारम्भ हो जाते हैं। ये प्रतिरोध में एंटीबॉडीज बनाना शुरू कर देती हैं। यदि परवर्ती गर्भावस्था होती है तो रुधिर से (Rh-ve) भ्रूण के रुधिर (Rh+ve) में Rh प्रतिरक्षी का रिसाव हो सकता है और इससे भ्रूण की लाल रुधिर कणिकाएँ नष्ट हो सकती हैं। यह भ्रूण के लिए जानलेवा हो सकता है, उसे रुधिराल्पता (खून की कमी) और पीलिया हो सकता है। ऐसी दशा को एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटैलिस (गर्भ रुधिराणु कोरकता) कहते हैं। इस स्थिति से बचने के लिए माता को प्रसव के तुरंत बाद Rh प्रतिरक्षी का उपयोग करना चाहिए।