बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 2 जीव जगत का वर्गीकरण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. वर्गीकरण की पद्धतियों में समय के साथ आए परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर : वर्गीकरण पद्धति (classification system) जीवों को उनके लक्षणों की समानता और असमानता के आधार पर समूह तथा उपसमूहों में व्यवस्थित करने की प्रक्रिया है। प्रारम्भिक पद्धतियाँ कृत्रिम थीं। उसके पश्चात् प्राकृतिक तथा जातिवृतीय वर्गीकरण पद्धतियों का विकास हुआ।
1. कृत्रिम वर्गीकरण पद्धति (Artificial Classification System) :
इस प्रकार के वर्गीकरण में वर्षी लक्षणों (vegetative characters) या पुमंग (androecium) के आधार पर पुष्पी पौधों का वर्गीकरण किया गया है। कैरोलस लीनियस (Carolus Linnaeus) ने पुमंग के आधार पर वर्गीकरण प्रस्तुत किया था। परन्तु, कृत्रिम (UPBoardSolutions.com) लक्षणों के आधार पर किए गए वर्गीकरण में जिन पौधों के समान लक्षण थे उन्हें अलग-अलग तथा जिनके लक्षण असमान थे उन्हें एक ही समूह में रखा गया था। यह वर्गीकरण की दृष्टि से सही नहीं था।ये वर्गीकरण आजकल प्रयोग नहीं होते।
2. प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धति (Natural Classification System) :
प्राकृतिक वर्गीकरण पद्धति में पौधों के सम्पूर्ण प्राकृतिक लक्षणों को ध्यान में रखकर उनका वर्गीकरण किया जाता है। पौधों की समानता निश्चित करने के लिए उनके सभी लक्षणों—विशेषतया पुष्प के लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त पौधों की आंतरिक संरचना, जैसे शारीरिकी. भ्रौणिकी एवं फाइटोकेमेस्ट्री (phyt ochemistry) आदि को भी वर्गीकरण करने में सहायक माना जाता है। आवृतबीजियों का प्राकृतिक लक्षणों पर आधारित वर्गीकरण जॉर्ज बेन्थम (George Bentham) तथा जोसेफ डाल्टन हूकर (Joseph Dalton Hooker) द्वारा सम्मिलित रूप में प्रस्तुत किया गया जिसे उन्होंने जेनेरा प्लेंटेरम (Generg Plantarum) नामक पुस्तक में प्रकाशित किया। यह वर्गीकरण प्रायोगिक (practical) कार्यों के लिए अत्यन्त सुगम तथा प्रचलित वर्गीकरण है।
3. जातिवृत्तीय वर्गीकरण पद्धति (Phylogenetic Classification System) :
इस प्रकार के वर्गीकरण में पौधों को उनके विकास और आनुवंशिक लक्षणों को ध्यान में रखकर वर्गीकृत किया गया है। विभिन्न कुलों एवं वर्गों को इस प्रकार व्यवस्थित किया गया है जिससे उनके वंशानुक्रम का ज्ञान हो। इस प्रकार के वर्गीकरण में यह माना जाता है कि एक प्रकार (UPBoardSolutions.com) के टैक्सा (taxa) का विकास एक ही पूर्वजों (ancestors) से हुआ है। वर्तमान में हम अन्य स्रोतों से प्राप्त सूचना को वर्गीकरण की समस्याओं को सुलझाने में प्रयुक्त करते हैं। जैसे कम्प्यूटर द्वारा अंक और कोड का प्रयोग, क्रोमोसोम्स का आधारे, रासायनिक अवयवों का भी उपयोग पादप वर्गीकरण के लिए किया गया है।
प्रश्न 2. निम्नलिखित के बारे में आर्थिक दृष्टि से दो महत्वपूर्ण उपयोगों को लिखिए
(a) परपोषी बैक्टीरिया
(b) आद्य बैक्टीरिया
(c ) डीएटम की कोशिका भित्ति के बारे में बताये ?
उत्तर :
(a) परपोषी बैक्टीरिया (Heterotrophic Bacteria) :
परपोषी बैक्टीरिया का उपयोग दूध से दही बनाने, प्रतिजीवी (antibiotic) उत्पादन में तथा लेग्युमीनेसी कुल के पौधों की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण (nitrogen fixation) में किया जाता है।
(b) आद्य बैक्टीरिया (Archaebacteria) :
आद्य बैक्टीरिया का उपयोग गोबर गैस (biogas) निर्माण तथा खानों (mines) में किया जाता है
डाइएटम की कोशिका भित्ति में सिलिका (silica) पाई जाती है। कोशिका भित्ति दो भागों में विभाजित होती है। ऊपर की एपिथीका (epitheca) तथा नीचे की हाइपोथीका (hypotheca)। दोनों साबुनदानी की तरह लगे होते हैं। डाइएटम की कोशिका भित्तियाँ (UPBoardSolutions.com) एकत्र होकर डाइएटोमेसियस अर्थ (diatomaceous earth) बनाती हैं।
प्रश्न ३ . प्रोटोजोआ के चार प्रमुख समूहों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर : प्रोटोजोआ जन्तु
ये जगत प्रोटिस्टा (protista) के अन्तर्गत आने वाले यूकैरियोटिक, सूक्ष्मदर्शीय, परपोषी सरलतम जन्तु हैं। ये एककोशिकीय होते हैं। कोशिका में समस्त जैविक क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। ये परपोषी होते हैं। कुछ प्रोटोजोआ परजीवी होते हैं। इन्हें चार प्रमुख समूहों में बाँटा जाता है
(क) अमीबीय प्रोटोजोआ (Amoebic Protozoa) :
ये स्वच्छ जलीय या समुद्री होते हैं। कुछ नम मृदा में भी पाए जाते हैं। समुद्री प्रकार के अमीबीय प्रोटोजोआ की सतह पर सिलिका का कवच होता है। ये कूटपाद (pseudopodia) की सहायता से प्रचलन तथा पोषण करते हैं। एण्टअमीबा जैसे कुछ अमीबीय प्रोटोजोआ (UPBoardSolutions.com) परजीवी होते हैं। मनुष्य में एण्टअमीबा हिस्टोलाइटिका के कारण अमीबीय पेचिश रोग होता है।
(ख) कशाभी प्रोटोजोआ (Flagellate Protozoa) :
इस समूह के सदस्य स्वतन्त्र अथवा परजीवी होते हैं। इनके शरीर पर रक्षात्मक आवरण पेलिकल होता है। प्रचलन तथा पोषण में कशाभ (flagella) सहायक होता है। ट्रिपैनोसोमा (Trypanosoma) परजीवी से निद्रा रोग, लीशमानिया से कालाअजार रोग होता है।
(ग) पक्ष्माभी प्रोटोजोआ (Ciliate Protozoa) :
इस समूह के सदस्य जलीय होते हैं एवं इनमें अत्यधिक पक्ष्माभ पाए जाते हैं। शरीर दृढ़ पेलिकल (UPBoardSolutions.com) से घिरा होता है। इनमें स्थायी कोशिकामुख (cytostome) व कोशिकागुद (cytopyge) पाई जाती हैं। पक्ष्माभों में लयबद्ध गति के कारण भोजन कोशिकामुख में पहुँचता है।
उदाहरण :
पैरामीशियम (Paramecium)
(घ) स्पोरोजोआ प्रोटोजोआ (Sporozoans) :
ये अन्त: परजीवी होते हैं। इनमें प्रचलनांग का अभाव होता है। कोशिका पर पेलिकल का आवरण होता है। इनके जीवन चक्र में संक्रमण करने योग्य बीजाणुओं का निर्माण होता है। मलेरिया परजीवी-प्लाज्मोडियम (Plasmodium) के कारण कुछ दशक पूर्व होने वाले मलेरिया रोग से मानव आबादी पर कुप्रभाव पड़ता था
प्रश्न 4 यूग्लीनॉइड के विशिष्ट चारित्रिक लक्षण कौन-कौन से हैं?
उत्तर : यूग्लीनॉइड के चारित्रिक लक्षण अधिकांश स्वच्छ, स्थिर जल (stagnant fresh water) में पाए जाते हैं। इनमें कोशिका भित्ति का अभाव होता है। कोशिका भित्ति के स्थान पर रक्षात्मक प्रोटीनयुक्त लचीला आवरण पेलिकल (pellicle) पाया जाता है। इनमें 2 कशाभ (flagella) होते हैं, एक छोटा तथा दूसरा बड़ा कशाभ। इनमें क्लोरोप्लास्ट पाया जाता है। सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में ये प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा भोजन निर्माण कर लेते हैं (UPBoardSolutions.com) और प्रकाश के अभाव में जन्तुओं की भॉति सूक्ष्मजीवों का भक्षण करते हैं अर्थात् परपोषी की तरह व्यवहार करते हैं। उदाहरण : युग्लीना (Euglena)
प्रश्न 5 . संरचना तथा आनुवंशिक पदार्थ की प्रकृति के सन्दर्भ में वाइरस का संक्षिप्त विवरण दीजिए। वाइरस से होने वाले चार रोगों के नाम भी लिखिएउत्तर : वाइरस दो प्रकार के पदार्थों के बने होते हैं :प्रोटीन (protein) और न्यूक्लिक एसिड (nucleic acid)। प्रोटीन का खोल (shel), जो न्यूक्लिक एसिड के चारों ओर रहता है, उसे कैप्सिड (capsid) कहते हैं। प्रत्येक कैप्सिड छोटी-छोटी इकाइयों का बना होता है, जिन्हें कैप्सोमियर्स (capsomeres) कहा जाता है। ये कैप्सोमियर्स न्यूक्लिक एसिड कोर के चारों ओर एक जिओमेट्रिकल फैशन (geometrical fashion) में होते हैं। न्यूक्लिक एसिड या तो RNA या DNA के रूप में होता है। पौधों तथा कुछ जन्तुओं के वाइरस का न्यूक्लिक एसिड RNA (ribonucleic acid) होता है, जबकि अन्य जन्तु वाइरसों में यह DNA (deoxyribonucleic acid) के रूप में होता है। वाइरस का संक्रमण करने वाला भाग आनुवंशिक पदार्थ (genetic material) है। वाइरस आनुवंशिक पदार्थ निम्न प्रकार का हो सकता है
द्विरज्जुकीय DNA (double stranded DNA); जैसे – T,, T,, बैक्टीरियोफेज, हरपिस वाइरस, हिपेटाइटिस -B
एक रज्जुकीय DNA (single stranded DNA) जैसे – कोलीफेज ф x 174
द्विरज्जुकीय RNA (double stranded RNA) जैसे -रियोवाइरस, ट्यूमर वाइरस
एक रज्जुकीय RNA (single stranded RNA) जैसे – TMV, खुरपका-मुँहपका वाइरस पोलियो वाइरस, रिट्रोवाइरस। वाइरस से होने वाले रोग एड्स (AIDS), सार्स, (SARS), बर्ड फ्लू, डेंगू, पोटेटो मोजेक।
प्रश्न7 अपनी कक्षा में इस शीर्षक “क्या वाइरस सजीव हैं अथवा निर्जीव’, पर चर्चा करें।
उत्तर : वाइरस (Virus) :
इनकी खोज सर्वप्रथम इवानोवस्की (Iwanovsky, 1892), ने की थी। ये प्रूफ फिल्टर से भी छन जाते हैं। एमडब्ल्यू० बीजेरिन्क (M.W. Beijerinck, 1898) ने पाया कि संक्रमित (रोगग्रस्त) पौधे के रस को स्वस्थ पौधो की पत्तियों पर रगड़ने से स्वस्थ पौधे भी रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसी आधार पर इन्हें तरल विष या संक्रामक जीवित तरल कहा गया। डब्ल्यू०एम० स्टैनले (W.M. Stanley, 1935) ने वाइरस को क्रिस्टलीय अवस्था में अलग किया। डालिंगटन (Darlington, 1944) ने खोज की कि वाइरस न्यूक्लियोप्रोटीन्स से बने होते हैं। वाइरस को सजीव तथा निर्जीव के मध्य की कड़ी (connecting link) मानते हैं।
वाइरस के सजीव लक्षण वाइरस प्रोटीन तथा न्यूक्लिक अम्ल (DNA या RNA) से बने होते हैं।
जीवित कोशिका के सम्पर्क में आने पर ये सक्रिय हो जाते हैं। वाइरस का न्यूक्लिक अम्ल पोषक कोशिका में पहुँचकर कोशिका की उपापचयी क्रियाओं पर नियन्त्रण स्थापित करके स्वद्विगुणन करने लगता है और अपने लिए आवश्यक प्रोटीन का संश्लेषण भी कर लेता है। इसके (UPBoardSolutions.com) फलस्वरूप विषाणु की संख्या की वृद्धि अर्थात् जनन होता है। वाइरस में प्रवर्धन केवल जीवित कोशिकाओं में ही होता है। इनमें उत्परिवर्तन (mutation) के कारण आनुवंशिक विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं।वाइरस ताप, रासायनिक पदार्थ, विकिरण तथा अन्य उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया दर्शाते हैं। वाइरस के निर्जीव लक्षण इनमें एन्जाइम्स के अभाव में कोई उपापचयी क्रिया स्वतन्त्र रूप से नहीं होती। वाइरस केवल जीवित कोशिकाओं में पहुँचकर ही सक्रिय होते हैं। जीवित कोशिका के बाहर ये निर्जीव रहते हैं। वाइरस में कोशा अंगक तथा दोनों प्रकार के न्यूक्लिक अम्ल (DNA और RNA) नहीं पाए जाते। वाइरस को रवों (crystals) के रूप में निर्जीवों की भाँति सुरक्षित रखा जा सकता है। रवे (crystal) की अवस्था में भी इनकी संक्रमण शक्ति कम नह
प्रश्न 8 द्विपद नाम पद्धति क्या है? आधुनिक वर्गीकरण के जनक का नाम बताइए।
उत्तर : नामकरण की वह पद्धति जिसमें नाम का प्रथम पद वंश (genus) तथा द्वितीय पद जाति (species) को निर्दिष्ट करता है, द्विपद नाम पद्धति कहलाती है। आधुनिक वर्गीकरण अर्थात् द्विपद नाम पद्धति के जनक का नाम कैरोलस लीनियस है।उदाहरणार्थ :जीवाणु, सायनोबैक्टीरिया, आर्किबैक्टीरिया इत्यादि। प्रोटिस्टा के जीवधारियों में कोशिका का वास्तविक केन्द्रक पूर्ण विकसित होता है। उदाहरणार्थअमीबा, पैरामीशियम, यूग्लीना :
प्रश्न- पाँच जगत वर्गीकरण की विशेषताएं बताइये ?
उतर --पाँच जगत वर्गीकरण की विशेषताएँ निम्नवत् हैं इस वर्गीकरण में प्रोकैरियोट को पृथक् कर मोनेरा जगत बनाया गया। प्रोकैरियोट संरचना, कायिकी तथा प्रजनन आदि में यूकैरियोट से भिन्न होते हैं। एककोशिक यूकैरियोट को बहुकोशिक यूकैरियोट से पृथक् कर प्रोटिस्टा जगत में स्थान दिया गया। कवक को पादपों से अलग करके एक कवक जगत बनाया गया। (ये विषमपोषी होते हैं तथा भोजन अवशोषण से ग्रहण करते हैं। प्रकाश संश्लेषी बहुकोशिक जीवों (पौधों) को अप्रकाश संश्लेषी, बहुकोशिक जीवों (जन्तु) से पृथक् कर दिया गया। जैव संगठन की जटिलता, पोषण विधियों तथा जीवन शैली के आधार पर बनाया गया यह वर्गीकरण विकास के क्रम को प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत करता है
प्रश्न -9 -एस्ट कोशिका के क्रियाओं को बताइये ? यीस्ट कोशिकाओं की कुछ महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ निम्न प्रकार हैं।
लाभदायक क्रियाएँ
1. बेकरी उद्योग में (In Baking Industry) :यीस्ट का उपयोग डलबरोटी बनाने में किया जाता है। गीले मैदे में यीस्ट कोशिकाएँ मिलाकर किण्वीकरण (fermentation) की क्रिया कराई जाती है। यीस्ट मण्ड (starch) को शर्करा में तथा शर्करा को जाइमेस विकर (2ymase enzyme) की सहायता से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) व एथिल ऐल्कोहॉल (C2HSOH) में परिवर्तित कर देती है। कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) छोटे-छोटे उभारों के रूप में बाहर निकलती है। इस मैदे को डबलरोटी के साँचों में भरकर गर्म भट्टी में रख देते हैं जिससे डबलरोटी फूल जाती है तथा सरन्ध्र (porous) हो जाती है।
2. औषधियों में (In Medicines) :यीस्ट को विटामिन (B1, B12 व C) के साथ मिलाकर गोलियाँ (tablets) बनाई जाती हैं। ये गोलियाँ पेट के रोगों में काम आती हैं।
3. खाद्य रूप में (As Food) :
क्योंकि यीस्ट में बहुत से प्रोटीन, विटामिन व विकर (enzymes) होते हैं) इनकी गोलियाँ बनाकर भोजन के रूप में प्रयोग में लाई जाती हैं।
4. शराब उद्योग में (In Alcohol Industry) :
यीस्ट कोशिकाएँ किण्वीकरण (fermentation) द्वारा शर्करा के घोल को शराब में परिवर्तित करती हैं। इस क्रिया में यीस्ट द्वारा उत्पन्न इन्वटेंस व जाइमेस एन्जाइम्स भाग लेते हैं। कुछ यीस्ट शर्करा घोल के ऊपर तैरती रहती हैं इन्हें टॉप यीस्ट (top yeast) कहते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ दूसरी यीस्ट जो शराब बनाने में प्रयोग की जाती हैं घोल के नीचे की ओर रहती हैं। इन्हें बॉटम यीस्ट (bottom yeast) कहते हैं।
हानिकारक क्रियाएँ
यीस्ट के द्वारा बहुत से भोज्य-पदार्थ, उदाहरण-फल व पनीर, आदि नष्ट हो जाते हैं।
यीस्ट की कुछ जातियाँ मनुष्य में कुछ बीमारियाँ उत्पन्न कर देती हैं तथा इनका प्रभाव त्वचा, फेफड़ों, इत्यादि पर भी पड़ता है। क्रिप्टोकोकस नियाफोरमेन्स (Cryptococcus neoformans) मस्तिष्क के रोग उत्पन्न करता है जिसे क्रिप्टोकोकस मेनिनजाइटिस (UPBoardSolutions.com) (Cryptococcus meningitis) कहते हैं। ये त्वचा, फेफड़ों, नाखूनों का रोग भी फैलाते हैं जिसे मोनिलिएसिस (moniliasis) कहते हैं। यीस्ट की कुछ जातियाँ पौधों में रोग फैलाती हैं (टमाटर, कपास, इत्यादि में)।यीस्ट सिल्क उद्योग में काम आने वाले कीड़ों को हानि पहुँचाता है।
प्रश्न 10 लाइकेन्स क्या हैं? इनके आर्थिक महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर : लाइकेन्स लाइकेन एक जटिल व द्विप्रकृति (dual nature) वाले पौधों का विशेष वर्ग है जिनकी शरीर रचना में दो भिन्न पौधे एक शैवाल (alga) तथा एक कवक (fungus) भाग लेते हैं। इसमें शैवाल को शैवालांश (phycobiont) तथा कवक को कवकांश (mycobiont) कहते हैं। लाइकेन में पोषण, शैवाल के समान तथा जनन, कवक के समान होता है। लाइकेन में शैवाल सहभागी या शैवालांश अपनी प्रकाश-संश्लेषण योग्यता द्वारा अपने साथी कवक सहभागी (कवकांश) के लिए भोजन निर्माण करता है। कवक के तन्तुओं का जाल वर्षा के जल को स्पंज की भाँति अवशोषित करके शैवालांश (phycobiont) को जल की पूर्ति कर सहायता करता है। (UPBoardSolutions.com) यही नहीं कवक सहभागी अपने नाइट्रोजनयुक्त (nitrogenous) अवशेष एवं श्वसन द्वारा मुक्त कार्बन डाइऑक्साइड (CO, ) को अपने शैवालीय सहभागी या शैवालांश (phycobiont) को प्रकाश-संश्लेषण एवं भोजन निर्माण हेतु प्रदान करता है। इस प्रकर लाइकेन (शैवाक), शैवाल व कवक सहजीवन (Symbiosis) का अति उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसमें दोनों ही सहजीवी एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं।
लाइकेनों का आर्थिक महत्त्व
1. भोजन व चारे के रूप में (As food and fodder) :
लाइकेन्स में पॉलिसैकेराइड्स, कुछ एन्जाइम्स तथा विटामिन्स पाये जाते हैं। अतः इनकी अनेक जातियों को भोजन व पशुओं के चारे के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। भारत में पार्मेलिया (Parmelia) को करी पाउडर (curry powder) के रूप में प्रयोग किया जाता है। इजराइल में लेकानोरा (Lecanora) खाया जाता है। एवर्निआ (Evernig) को मिस्रवासी, डबलरोटी बनाने में प्रयुक्त करते हैं। आर्कटिक भागों में रेइन्डियर मॉस (Reindeer moss = Cladonia rangifering) को रेइन्डियर व अन्य चौपाए खाते हैं। इनके अतिरिक्त विभिन्न लाइकेन्स का कीट व लार्वी भी भक्षण करते हैं।
2. स्त्र व सौन्दर्य प्रसाधनों में (In perfumes and cosmetics) :
लाइकेन के थैलाई में तीव्र गन्ध वाले पदार्थ होते हैं, अतः इनका उपयोग इत्र व अन्य सुगन्धित द्रव्य बनाने में किया जाता है। एवर्निआ
(Evermia) तथा रामालिना (Ramalina) से प्राप्त सुगन्धित तेल का उपयोग साबुन बनाने में किया जाता है।
3. टेनिंग व रंग बनाने में (In tanning and dyeing) :
रोक्सेला (Roccella) तथा लेकानोरा (Lecanora) लाइकेन्स से ऑर्चिल (orchill) नामक नीला रंग (blue dye) प्राप्त होता है। रोक्सेला से लिटमस (litmus) निकाला जाता है जिसका प्रयोग अम्लीयता के परीक्षण में किया जाता है।
4. ऐल्कोहॉल बनाने में (In alcohol industry) :
कुछ लाइकेन्स जैसे, सिट्रेरिया इस्लेण्डिका (Cetrgrig islandica) से कुछ ऐल्कोहॉल बनाए जाते हैं।
5. दवाइयों के रूप में (As medicines) :
अस्निक अम्ल (Usnic acid) एक विस्तृत क्षेत्र (broad spectrum) वाला महत्त्वपूर्ण एण्टीबायोटिक है जिसे अस्निया (Usneq = old man’s beard) तथा क्लेडोनिया (Cladonia) से तैयार किया जाता है। यह अनेक प्रकार के संक्रमण में तथा घावों के लिए मरहम बनाने (UPBoardSolutions.com) में काम आता है। पीलिया (jaundice) रोग में जैन्थोरिआ (Xanthorig porienting) तथा मिर्गी रोग (epilepsy) में पार्मेलिया (Parmelia sexatilis) लाइकेन प्रयोग किए जाते हैं। इसी प्रकार से अस्निया (Usnia burbate) लाइकेन बालों को सुदृढ़ करने तथा गर्भाशय सम्बन्धी रोगों में पेल्टिजेरा (Peltizera camorna) लाइकेन, हाइड्रोफोबिया (hydrophobia) में तथा लोबारिआ (Lobaria pulmonaria) का उपयोग फेफड़ों सम्बन्धी रोगों के उपचार में किया जाता है
प्रश्न 12 . संघ प्रोटोजोआ के प्रमुख लक्षणों का उल्लेख कीजिए तथा विशिष्ट लक्षणों एवं उदाहरणों सहित वर्ग तक वर्गीकरण कीजिए। या संघ प्रोटोजोआ के सामान्य लक्षणों का वर्णन कीजिए तथा स्टोरर एवं यूसिंजर के अनुसार उदाहरणों सहित वर्ग तक वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर : संघ प्रोटोजोआ के प्रमुख लक्षण
इस संघ के जन्तु सूक्ष्मदर्शीय (microscopic) एवं एककोशिकीय (unicellular) होते हैं। ये | आद्य (primitive) तथा जीवद्रव्य श्रेणी (protoplasmic type) के जन्तु हैं।
ये जल, कीचड़, सड़ी-गली कार्बनिक वस्तुओं में स्वाश्रयी (free living) अथवा अन्य जन्तुओं यो पेड़-पौधों के शरीर में परजीवियों (parasites) के रूप में पाये जाते हैं।
ये एकाकी (single) अथवा संघीय (colonial) जीवन व्यतीत करते हैं।
इनमें शरीर की आकृति भिन्न, परन्तु प्राय: वातावरणीय दशाओं एवं गमन की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तनशील होती है।
इनमें गमन के लिए रोमाभ (cilia), कशाभिकाएँ (flagella) तथा कूटपाद अथवा पादाभ (pseudopodia) पाये जाते हैं।
ये एकलकेन्द्रकीय (uninucleate), द्विकेन्द्रकीय (binucleate) अथवा बहुकेन्द्रकीय (multinucleate) होते हैं।
श्वसन विसरण द्वारा शरीर सतह से होता है।
उत्सर्जन संकुचनशील धानियों (contractile vacuoles) द्वारा शरीर सतह (body surface) से होता है।
जनन लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों प्रकार से होता है।
इनमें कायिक द्रव्य तथा जनन द्रव्य में विभेदन नहीं होता है, इस कारण इनकी प्राकृतिक मृत्यु नहीं होती है।
उदाहरण :
अमीबा प्रोटियस तथा
प्लाज्मोडियम वाइवैक्स
संघ प्रोटोजोआ का वर्गीकरण
गमनांगों (organs of locomotion) एवं केन्द्रकों (nuclei) के आधार पर प्रोटोजोआ संघ को अग्रलिखित चार उपसंघों में विभाजित किया गया है
(क)
उपसंघ-सार्कोमैस्टिगोफोरा
इस उपसंघ के प्राणियों में केन्द्रक एक अथवा अधिक, परन्तु एक जैसे तथा गमनांग कूटपाद अथवा कशाभिकाएँ होते हैं। इन्हें निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा गया है।
1. वर्ग-मैस्टिगोफोरा अथवा फ्लेजिलैटा :
(class-mastigophora or flagellata) इस वर्ग के प्राणियों में
(i) एक या कई कशाभिकाएँ (flagella) होती हैं
(ii) कुछ सदस्यों में पर्णहरित (chlorophyll) पाया जाता है
उदाहरण :
युग्लीना (Euglena)
ट्रिपैनोसोमा (Trypanosoma) आदि
2. वर्ग-सार्कोडिना अथवा राइजोपोडा :
(class-sarcodina or rhizopoda) इस वर्ग के प्राणियों में
(i) शारीरिक आकृति प्रायः परिवर्तनशील होती है।
(ii) गमनांग कूटपाद होते हैं।
उदाहरण :
अमीबा (Amoeba)
एण्टअमीबा (Entamoeba) आदि
3. वर्ग-ओपैलाइनैटा (class-opalinata) :
(i) ये प्रायः चपटे व संघ एम्फीबिया के प्राणियों की आँत के परजीवी होते हैं।
(ii) इनमें सिस्टम नहीं पाया जाता।
(iii) इनमें केन्द्रक दो-या-दो से अधिक होते हैं।
(iv) इनके गमनांग अनेक रोमाभ (cilia) होते हैं।
उदाहरण :
ओपैलाइना (Opalina)
(ख) उपसंघ :
स्पोरोजोआ
इस उपसंघ के प्राणियों में विशिष्ट गमनांग एवं संकुचनशील रिक्तिकाएँ नहीं पायी (UPBoardSolutions.com) जाती हैं। ये प्रायः अन्तः परजीवी (endoparasites) होते हैं। इनमें सामान्य रूप से बीजाणुजनन (sporulation) पाया जाता है। इन्हें निम्नलिखित दो वर्गों में बाँटा जाता है।
1. वर्ग टीलोस्पोरिया :
(i) (class-telosporia) इसमें बीजाणुज
(ii) (sporozoites) लम्बवत् होते हैं
उदाहरण :
प्लाज्मोडियम (Plasmodium)
मोनोसिस्टिस (Monocystis) आदि
2. वर्ग पाइरोप्लाज्निया :
(class-piroplasmea)
(i) ये पशुओं के लाल रुधिराणुओं के परजीवी होते हैं।
(ii) इनमें बीजाणु नहीं बनते।
उदाहरण :
बेबेसिया (Babesia)
(ग)
उपसंघ :
निडोस्पोरा
इस उपसंघ के प्राणि भी अन्य जन्तुओं पर परजीवी होते हैं। इनमें गमनांग नहीं पाये जाते। इनमें बीजाणुजनन होता है तथा बीजाणुओं में ध्रुवीय तन्तु (polar filaments) उपस्थित होते हैं। इन्हें भी निम्नलिखित दो वर्गों में बाँटा गया है
1. वर्ग-मिक्सोस्पोरिया (class-mixosporia) :
इन प्राणियों में
(i) बीजाणुओं का विकास कई केन्द्रकों से होता है।
(ii) बीजाणु दो या तीन कपाटों का बना होता है।
उदाहरण :
सिरेटोमिक्सा (Ceratomyxa)
2. वर्ग-माइक्रोस्पोरिया (Class-microsporia) :
इनमें
(i) बीजाणु एक ही केन्द्रक से बनते हैं।
(ii) बीजाणु-खोल भी एक ही कपाट का बना होता है।
उदाहरण :
नोसिमा (Nosema)
(घ) उपसंघ :
सीलियोफोरा
इस उपसंघ के प्राणियों में गमनांग रोमाभ होते हैं। इनमें केन्द्रक छोटे व बड़े (micro and macro) दी। प्रकार के होते हैं। इस उपसंघ के सभी सदस्यों को एक ही वर्ग में सम्मिलित किया जाता है। वर्ग-सीलिएटा (class-ciliata)-ये स्वाश्रयी व परजीवी दोनों प्रकार के होते हैं।
उदाहरण : पैरामीशियम (Paramecium)
बैलेण्टीडियम (Balantidium) आदि
प्रश्न 13 . अमीबा प्रोटिअस में द्विखण्डन तथा बीजाणुजनन का सचित्र वर्णन कीजिए।
उत्तर : अमीबा प्रोटिअस में द्विखण्डन यह अलैंगिक जनन की सबसे सरल एवं सामान्य विधि है, जो वातावरणीय अनुकूल परिस्थितियों में अर्थात् पर्याप्त भोजन, ताप, जल आदि उपस्थित होने पर सम्पन्न होती है। इस विधि में केन्द्रक समसूत्री विभाजन (mitosis) द्वारा विभाजन करता है। विभाजन की प्रोफेज अवस्था में अमीबा कूटपादों को समेट कर गोलाकार हो जाता है। संकुचनशील रिक्तिका लुप्त हो जाती है तथा केन्द्रकद्रव्य में गुणसूत्र प्रकट हो जाते हैं। मेटाफेज अवस्था में गुणसूत्र स्पिण्डल की मध्य रेखा पर व्यवस्थित हो जाते हैं। ऐनाफेज अवस्था में कई परिवर्तन होते हैं। क्रोमैटिड्स पृथक् होकर स्पिण्डल के विपरीत ध्रुवों पर चले जाते हैं। इससे पूर्व ही सम्पूर्ण कोशिकाद्रव्य भी मध्य में दबकर संकरा होता जाता है तथा एक डम्बल का आकार (dumbel shaped) बना लेता है। कूटपाद कुछ बड़े हो जाते हैं तथा केन्द्रक ) दो सन्तति केन्द्रकों में विभक्त हो जाता है। टीलोफेज अवस्था में अमीबा का लम्बा हुआ शरीर मध्य भाग में सिकुड़कर टूट जाता है तथा दो सन्तति अमीबी (daughter Amoebae) में विभक्त हो जाता है, जिनमें से प्रत्येक में एक सन्तति केन्द्रक होता है। अमीबा प्रोटिअस में बीजाणुजनन अमीबा में इस प्रकार का प्रजनन प्रतिकूल वातावरणीय परिस्थितियों में होता है। प्रजनन की इस विधि में केन्द्रक कला (nuclear membrane) के टूट जाने के कारण क्रोमैटिन कण छोटे-छोटे समूहों में कोशिकाद्रव्य में फैल जाते हैं। अब प्रत्येक समूह के चारों ओर फिर से केन्द्रककला के बन जाने से अनेक (लगभग 200) छोटे-छोटे केन्द्रक बन जाते हैं। अमीबा का कोशिकाद्रव्य छोटे-छोटे पिण्डों में टूट जाता है। प्रत्येक पिण्ड एक केन्द्रक को चारों ओर से घेरकर एक सन्तति अमीबी (daughter Amoebae) बनाता है। इस प्रकार अनेक सन्तति अमीबी (Amoebae) बन जाते हैं। अब प्रत्येक सन्तति अमीबी के कोशिकाद्रव्य का बाहरी स्तर कड़ा होकर एक बीजाणु आवरण (spore wall) बना लेता है। यह सम्पूर्ण रचना बीजाणु (spore) कहलाती है। जनक कोशिका के नष्ट हो जाने पर बीजाणु मुक्त होकर जलाशय के तल में डूब जाते हैं। वातावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल होने पर बीजाणु आवरणों को तोड़कर नन्हें अमीबी (Amoebae) मुक्त हो जाते हैं तथा वृद्धि कर वयस्क बन जाते हैं।
प्रश्न14 . परासरण नियन्त्रण की परिभाषा दीजिए। अमीबा के सन्दर्भ में इसके महत्त्व की विवेचना कीजिए। या अमीबा में परासरण नियन्त्रण की क्रिया का वर्णन ?
उत्तर : परासरण नियन्त्रण ताजे अथवा अलवणीय जल (fresh water) में पाये जाने वाले अमीबा तथा प्रोटोजोआ संघ के अनेक सदस्यों में यह क्रिया पायी जाती है। अमीबा का कोशिकाद्रव्य बाहरी अलवणीय जल से सदैव अतिपरासरी (hypertonic) रहता है, जिसके फलस्वरूप बाहरी जल निरन्तर परासरण द्वारा अमीबा के शरीर में प्रवेश करता रहता है। कुछ उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप विशेष रूप से खाद्य धानियों (food vacuoles) में भी जल की उत्पत्ति होती है। अमीबा में एक विशेष प्रकार की संकुचनशील रसधानी (contractilevacuole) पायी जाती है। यह अतिरिक्त जल को एकत्रित कर समय-समय पर कोशिका से बाहर की ओर फटकर जल को फेंकती रहती है। इस प्रकार यह अतिरिक्त जल को कोशिका से बाहर निकालने का कार्य करती रहती है। इसके फटकर समाप्त होने की अवस्था को सिस्टोल (systole) तथा पुनः उत्पन्न होकर बड़ा आकार प्राप्त कर लेने की अवस्था को डायस्टोल (diastole) कहते हैं। अतः शरीर में जल की निश्चित मात्रा को बनाये रखने एवं अनावश्यक मात्रा को निष्कासित करने की प्रक्रिया परासरण नियन्त्रण कहलाती है।
प्रश्न 15 -संकुचनशील रसधानी के मुख्य कार्य बताइये ?
उतर -इसके मुख्य कार्य इस प्रकार हैं
संकुचनशील रसधानी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य परासरण नियन्त्रण अथवा जल नियमन (osmoregulation) है।
यह अनावश्यक जल के साथ उसमें घुले उत्सर्जी पदार्थों को भी निष्कासित करती है। इस प्रकार यह उत्सर्जन (excretion) में भी योगदान देती है।
यह कार्बन डाइऑक्साइड की कुछ मात्रा का निष्कासन कर श्वसन में भी योगदान देती है। यदि अलवणीय अथवा सामान्य जल के अमीबा को समुद्र के खारे जल अथवा नमक के विलयन में रखा जाता है तो इसका कोशिकाद्रव्य समुद्री जल के समपरासरी अथवा निम्नपरासरी (isotonic or hypotonic) हो जाता है, अत: बाहरी जल के अमीबा के शरीर में पहुंचने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। ऐसी अवस्था में अमीबा को परासरण नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं रहती है अथवा इसको अधिकतम जल कोशिका से बाहर परासरित हो जाता है; अत: इसकी संकुचनशील रसधानी धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है।
प्रश्न 16 . राइजोपस में लैंगिक जनन का वर्णन कीजिए। या विषमजालिकता (विषम लैगिकता) से आप क्या समझते हैं? उदाहरण देकर समझाइए। या विषमजालिकता पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : राइजोपस में लैगिक जनन राइजोपस में लैंगिक जनन प्रायः प्रतिकूल वातावरण में विशेषकर भोज्य पदार्थों की कमी के समय होता है। यह क्रिया दो एक-जैसी रचनाओं, समयुग्मकधानियों (isogametangia) के बीच होने वाले संयुग्मन (conjugation) के द्वारा सम्पन्न होती है। समयुग्मकधानियाँ यद्यपि समान आकार-प्रकार की दिखाई देती हैं, किन्तु विषम लैंगिकता (heterothallism) प्रदर्शित करती हैं तथा कार्यिकी दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार के कवक जालों से आनी चाहिए। इनमें से एक को + तथा दूसरे को – विभेद (strain) का मानते हैं अर्थात् यहाँ विषमजालिकता (heterothallism) पायी जाती है। सर्वप्रथम ए० एफ० ब्लेकेसली (A.E Blakeslee) ने 1904 में म्यूकर म्यूसिडो (Mucor mucedo) नामक कवक में इसका अध्ययन किया। प्रारम्भिक अवस्था में, जब दो विषमजालिक (+ तथा – विभेद) कवक तन्तु एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो सम्पर्क के स्थान पर दोनों पाश्र्वीय शाखाएँ उभरने लगती हैं। ये पाश्र्वीय शाखाएँ छोटी तथा मुग्दराकार (club-shaped) होती हैं और प्राक्युग्मकधानियाँ या प्रोगैमेटेन्जिया (progametangia) कहलाती हैं। ये लम्बाई में बढ़ने के साथ सिरे पर फूलती हैं जो जीवद्रव्य, भोज्य पदार्थ आदि के संग्रह से सम्भव होता है। शीघ्र ही यह फूला हुआ भाग एक पट (septum) द्वारा अ लग कर दिया जाता है। इस प्रकार, दो भाग बनते हैं—सिरे पर समयुग्मकधानी या संकोशी युग्मकधानी जिसमें बहुत सारे केन्द्रक पाये जाते हैं और पिछला शेष भाग निलम्बक (suspensor) कहलाता है।परिपक्व होने पर दोनों युग्मकधानियों के बीच की भित्ति गल जाती है। इसमें होकर दोनों युग्मकधानियों के संकोशी युग्मक (coenogametes) आपस में मिल जाते हैं। इससे बना हुआ संयुक्त आकार युग्माणु (zygospore) कहा जाता है। युग्माणु में शीघ्र ही कुछ और भित्ति की परतें बनती हैं जिससे वह मोटी, कड़ी तथा काली हो जाती है। इसमें से सबसे बाहरी परत, सबसे अधिक मोटी, कंटकयुक्त (spinous) होती है और काइटिन की बनी होती है। इसे बाह्य कवच (exosporium) कहा जाता है। युग्माणु पर यह कड़ा कवच होने के कारण यह प्रतिकूल वातावरण को आसानी से सहन करता है। विश्राम का यह समय एक युग्माणु के लिए पाँच से नौ माह तक हो सकता है। संयुग्मन (conjugation) से लेकर विश्राम की किसी अवस्था में + तथा – विभेद के केन्द्रक आपस में जोड़ा बनाते हैं। सामान्यतः यह क्रिया देर की अवस्थाओं में ही होती हुई समझी जाती है। ये जोड़े संयुक्त (fuse)”होकर द्विगुणित (diploid) केन्द्रक भी बनाते हैं, किन्तु इनमें से एक द्विगुणित केन्द्रक को छोड़कर शेष सभी नष्ट हो जाते हैं। क्रियाशील द्विगुणित केन्द्रक अर्द्धसूत्री विभाजन से विभाजित होकर चार अगुणित haploid = n) केन्द्रक बनाता है। इनमें से दो + तथा अन्य दो – विभेद के होते हैं। इनमें से भी अन्त में एक ही क्रियाशील रहता है, तीन नष्ट हो जाते हैं। सामान्यतः अनुकूल वातावरण आने पर जल अवशोषित करके (नमी सोखकर) युग्माणु (zygospore) अंकुरित होता है। इस समय बाह्य कवच को तोड़कर अन्तःकवच (intine) जो मुलायम होता है, नलिका के रूप में बाहर आता है। एकमात्र केन्द्रक बार-बार विभाजित होकर अब तक जीवद्रव्य को संकोशीय या बहुकेन्द्रकी (coenocytic) बना देता है जो नलिका (germ tube) या प्राक्कवक तन्तु (promycelium) के सिरे में एकत्रित होने लगता है। बाद में, इस शाखा से अन्य शाखाएँ भी निकल सकती हैं, किन्तु सामान्यतः एक शाखा के सिरे पर कॉल्यूमैला रहित
प्रश्न 17 मोनरा जगतः के बारे में बताइये ?
उत्तर -- मोनेरा जगत क्या है, लक्षण, उदाहरण, विशेष मोनेरा जगत के अन्तर्गत एक-कोशिकीय – प्रोकैरियॉटिक जीव (Unicellular Prokaryotic) शामिल किए जाते हैं, जिनकी कोशिकाओं में केन्द्रक नहीं पाया जाता है। अर्थात् इनमें डी.एन.ए. (आनुवंशिक पदार्थ) कोशिका द्रव्य से केन्द्रक कला (Nucleus Membrane ) द्वारा पृथक न होकर एक अनिश्चित आकार के केन्द्रकाभ (Nucleoid) के रूप में पाया जाता है। इसके विपरीत अन्य जगत के जीवों में डी.एन.ए केन्द्रक के भीतर पाया जाता है।
मोनेरा जगत का वर्गीकरण
मोनेरा जगत को दो वर्गों में विभाजित किया गया है
आर्कीबैक्टीरिया अथवा आर्किया
यूबैक्टीरिया अथवा बैक्टीरिया।
यूबैक्टीरिया को वास्तविक जीवाणु (True Bacteria) कहा जाता है। अधिकतर जीवाणु मोनेरा जगत के अंतर्गत वर्गीकृत किए गए हैं जबकि सायनोबैक्टीरिया (नील-हरित शैवाल) को पादप जगत के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है, क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण करते हैं।
मोनेरा जगत के लक्षण
ये जीव विभाजन अथवा विखण्डन तथा बीजाणु द्वारा जनन करते हैं।
इसके अन्तर्गत स्वपोषी (Autotrophs) तथा परपोषी (Heterotrophs) दोनों प्रकार के जीव पाए जाते हैं।
नील-हरित शैवाल स्वपोषी हैं जबकि अधिकांश जीवाणु परपोषी जीव हैं।
मोनेरा जगत के उदाहरण
मोनेरा जगत के उदाहरण निम्न है जैसे – जीवाणु , नीली-हरी शैवाल , माइकोप्लाज़्मा आदि
प्रश्न 18 - माइकोप्लाज़्मा होते है बताइये ?
उतर - माइकोप्लाज्मा सूक्ष्मतम, एक कोशिकीय, बहुरूपी, प्रोकैरियोटिक जीव हैं। इन्हें “पादप जगत का जोकर’ कहा जाता है। माइकोप्लाज्मा को विभिन्न तापमान, दाब पर उत्पन्न किया जा सकता है और यह ‘तापीय‘ या ‘अतापीय‘ प्लाज्मा हो सकता है।
माइकोप्लाज्मा की खोज नोकॉर्ड एवं रॉक्स 1898 ने की थी और इन्हें PPLO (Pleuro-Pneumonia Like Organism) कहा। माइकोप्लाज्मा अभी तक खोजी गई सबसे छोटी जीवाणु कोशिकाएं हैं ऑक्सीजन के बिना माइकोप्लाज्मा जीवित रह सकते हैं, और कई आकारों में पाए जाते है । उदाहरण के लिए, एम. जेनिटेलियम (M. Genitalium) फ्लास्क के आकार का (लगभग 300 x 600 nm) है, जबकि एम. न्यूमोनिया (M. Pneumoniae) अधिक लम्बा (लगभग 100 x 1000 nm) है। सैकड़ों माइकोप्लाज्मा की प्रजातियां जानवरों को संक्रमित करती हैं।
इनमें कोशिका भित्ति का अभाव होता है। इसलिए कोशिका भित्ति पर क्रिया करने वाली प्रतिजैविकों, जैसे पेनिसिलिन का कोई प्रभाव नहीं होता। और प्लाज्मा झिल्ली कोशिका की बाहरी सीमा बनाती है। कोशिका भित्ति की अनुपस्थिति के कारण ये जीव अपना आकार बदल सकते हैं
माइकोप्लाज्मा कोशिका की संरचना। जीवाणु यौन संचारित रोगों (sexually transmitted diseases), निमोनिया, एटिपिकल निमोनिया और अन्य श्वसन विकारों (respiratory disorders) का प्रेरक एजेंट (causative agent)है। कई एंटीबायोटिक दवाओं से यह अप्रभावित होते है
माइकोप्लाज्मा का वर्गीकरण
सन् 1966 में अंतरराष्ट्रीय जीवाणु नामकरण समिति ने माइकोप्लाज्मा को जीवाणुओं से अलग करके वर्ग- मॉलीक्यूट्स में रखा है।
वर्ग- मॉलीक्यूट्स
गण- माइकोप्लाज्माटेल्स
वंश- माइकोप्लाज्मा
माइकोप्लाज्मा के लक्षण
आनुवंशिक सामग्री एक एकल डीएनए डुप्लेक्स है और नग्न है। (Genetic material is a single DNA duplex and is naked)
यह राइबोसोम 70S प्रकार के होते हैं।
इनमें DNA तथा RNA दोनों उपस्थित होते हैं।
एक कठोर कोशिका भित्ति (Rigid Cell Wall) की कमी के कारण, Mycoplasmataceae गोल से लेकर आयताकार आकार की एक विस्तृत श्रृंखला में विपरीत हो सकता है। इसलिए उन्हें छड़, कोक्सी (spherical) या स्पाइरोकेट्स (long) के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।
इन जीवों पर उपापचयी क्रियाओं को प्रभावित करने वाले प्रतिजैविकों (जैसे – टेट्रासाइक्लिन, क्लोरेमफेनिकोल) आदि का प्रभाव पड़ता है।
इनमें जनन द्विखण्डन, मुकुलन तथा एलिमेन्टरी बॉडीज द्वारा होता है।
ये किसी जीवित जंतु या पेड़ पौधों पर आश्रित रहते हैं। तथा उनमे कई तरह की बीमारियां उत्पन्न करते हैं। कई बार ऐसे जीव मृत कार्बनिक पदार्थों पर मृतोपजीवी के रूप में भी पाए जाते हैं। यह परजीवी अथवा मृतोपजीवी दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
इनका आकार 100 से 500 nm तक होता है। इसलिए इन्हें जीवाणु फिल्टर से नहीं छाना जा सकता है।
इन्हें वृद्धि के लिए स्टेरॉल की आवश्यकता होती है।
माइकोप्लाज्मा प्रजातियां अक्सर research laboratories में कोशिका संवर्धन (cell culture) में contaminants के रूप में पाई जाती हैं। [Mycoplasmal cell culture contamination occurs due to contamination from individuals or contaminated cell culture medium ingredients]
कुछ माइकोप्लाज्मा का प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है l जन्म के समय कम वजन होना या समय से पहले जन्मे शिशु, माइकोप्लाज्मा संक्रमण के लिए, अतिसंवेदनशील होते हैं l
माइकोप्लाज्मा की उपस्थिति पहली बार 1960 के दशक में कैंसर के ऊतकों के नमूनों में दर्ज की गई थी। तब से, कई अध्ययनों ने माइकोप्लाज्मा और कैंसर के बीच संबंध को खोजने और साथ ही कैंसर के गठन में जीवाणु कैसे शामिल हो सकता है, को साबित करने की कोशिश की l
(A) माइकोप्लाज्मा न्यूमोनिया कोशिकाएं (Mycoplasma pneumoniae cells) (Gram Stain)
माइकोप्लाज्मा की सिग्नेट-रिंग के आकार (signet-ring-shaped) की कोशिका ग्राम – (negative), होती है, और कोशिका का आकार 0.2–0.3 माइक्रोन होता है और सामान्य रूप से 1.0 माइक्रोन से छोटा होता है। कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं होती है। प्रोटीन और लिपिड बाहरी कोशिका झिल्ली का निर्माण करते हैं और कोशिकाएं स्पष्ट रूप से फुफ्फुसावरणीय (pleomorphic) होती हैं, जिसमें गोलाकार, रॉड जैसी, बार जैसी, और सूक्ष्मदर्शी के नीचे दिखाई देने वाले फिलामेंटस आकारिकी होती है। typical cell एक सिग्नेट रिंग के आकार का होता है। कोशिकाएं ग्राम – (negative), हल्के बैंगनी रंग की होती हैं जिसमें गिमेसा दाग (Giemsa stain) होता है
(B) M. Pneumoniae (एम. न्यूमोनिया) signet ring cell (Giemsa stain) – एम. न्यूमोनिया कोशिका हल्के बैंगनी रंग की होती है जिसमें गिमेसा दाग (Giemsa stain) होता है।
(C) एम। निमोनिया आमलेट जैसी कॉलोनियां (M. pneumoniae omelet-like colonies)
(D) एम. निमोनिया की शहतूत के आकार की कॉलोनियां (Mulberry-shaped colonies of M. Pneumonia)
माइकोप्लाज्मा जनित पादप रोग और उनकी पहचान
माइकोप्लाज्मा पौधों में लगभग 40 रोग उत्पन्न करते हैं। जो निम्न लक्षणों द्वारा पहचाने जा सकते हैं।
पत्तियां पीली पड़ जाती हैं अथवा एंथोसाइएनिन वर्णक के कारण लाल रंग की हो जाती हैं।
पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है।
पुष्प पत्तियाँ आकार में बदल जाते हैं।
पर्व छोटी पड़ जाती है।
पत्तियाँ भुरभुरी हो जाती है।
माइकोप्लाज्मा जनित पादप रोग से प्रभावित पौधे
चंदन का स्पाइक रोग
आलू का कुर्चीसम रोग
कपास का हरीतिमागम
बैंगन का लघु पर्ण रोग
गन्ने का धारिया रोग
ऐस्टर येलो आदि
माइकोप्लाजमा जनित मानव रोग
अप्रारूपिक निमोनिया – माइकोप्लाज्मा न्यूमोनी के कारण होता है।
माइकोप्लाज्मा जनित जंतु रोग
भेड़ और बकरियों का एगैलेक्टिया – माइकोप्लाज्मा एगैलेक्टी के कारण होता है।
माइकोप्लाज्मा द्वारा उत्पन्न रोग का उपचार
माइकोप्लाज्मा द्वारा उत्पन्न रोग का उपचार टेट्रोसाइक्लिन औषधि द्वारा किया जाता है
प्रश्न 19 बैक्टीरिया क्या होते हैं? उनके बारे में बताइये तथा उनके लक्षण बताइये ?
उतर - ये किसी जीवित जंतु या पेड़ पौधों पर आश्रित रहते हैं। तथा उनमे कई तरह की बीमारियां उत्पन्न करते हैं। कई बार ऐसे जीव मृत कार्बनिक पदार्थों पर मृतोपजीवी के रूप में भी पाए जाते हैं। यह परजीवी अथवा मृतोपजीवी दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
इनका आकार 100 से 500 nm तक होता है। इसलिए इन्हें जीवाणु फिल्टर से नहीं छाना जा सकता है। इन्हें वृद्धि के लिए स्टेरॉल की आवश्यकता होती है।
माइकोप्लाज्मा प्रजातियां अक्सर research laboratories में कोशिका संवर्धन (cell culture) में contaminants के रूप में पाई जाती हैं। [Mycoplasmal cell culture contamination occurs due to contamination from individuals or contaminated cell culture medium ingredients]
कुछ माइकोप्लाज्मा का प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है l जन्म के समय कम वजन होना या समय से पहले जन्मे शिशु, माइकोप्लाज्मा संक्रमण के लिए, अतिसंवेदनशील होते हैं l
माइकोप्लाज्मा की उपस्थिति पहली बार 1960 के दशक में कैंसर के ऊतकों के नमूनों में दर्ज की गई थी। तब से, कई अध्ययनों ने माइकोप्लाज्मा और कैंसर के बीच संबंध को खोजने और साथ ही कैंसर के गठन में जीवाणु कैसे शामिल हो सकता है, को साबित करने की कोशिश की l
(A) माइकोप्लाज्मा न्यूमोनिया कोशिकाएं (Mycoplasma pneumoniae cells) (Gram Stain)
माइकोप्लाज्मा की सिग्नेट-रिंग के आकार (signet-ring-shaped) की कोशिका ग्राम – (negative), होती है, और कोशिका का आकार 0.2–0.3 माइक्रोन होता है और सामान्य रूप से 1.0 माइक्रोन से छोटा होता है। कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं होती है। प्रोटीन और लिपिड बाहरी कोशिका झिल्ली का निर्माण करते हैं और कोशिकाएं स्पष्ट रूप से फुफ्फुसावरणीय (pleomorphic) होती हैं, जिसमें गोलाकार, रॉड जैसी, बार जैसी, और सूक्ष्मदर्शी के नीचे दिखाई देने वाले फिलामेंटस आकारिकी होती है। typical cell एक सिग्नेट रिंग के आकार का होता है। कोशिकाएं ग्राम – (negative), हल्के बैंगनी रंग की होती हैं जिसमें गिमेसा दाग (Giemsa stain) होता है
प्रश्न 20 - कवक जगत के बारे में बताइये ?
उत्तर भारत में माइकोलॉजी के पितामाह E.J. बटलर है ।
कवकों का आवास –
1. ये जीव उस मिट्टी में अधिक पाए जाते है जिसमें ह्यूमस की मात्रा अधिक होती है । नमी की स्थिति में कवक चमड़े के सामान , लकड़ी के टुकड़ों , आचार , ब्रेड इत्यादि पर उग जाते है । कुछ कवक पादप , जंतुओं तथा मनुष्यों में परजीवी के रूप में पाई जाती है ।
2. सरसों की पत्तियों पर सफेद धब्बे परजीवी कवक (एल्बूगोकेन्डीडा) के कारण पाए जाते है ।
3. कुछ एककोशिक कवकों का उपयोग डबलरोटी एवं बीयर बनाने में किया जाता है । उदाहरण – सेक्रोमाइसिस सेरीविसी
4. रोटी या संतरे के सड़ने की प्रक्रिया फंजाई के कारण होती है ।
5. कवक विश्वव्यापी है और ये वायु ,जल , मिट्टी में तथा जन्तु एवं पादपों पर पाए जाते है । ये जीव नम तथा गरम स्थानों पर सरलता से उग जाते है ।
6. कुछ कवक , शैवाल के साथ सहजीवी के रूप में पाए जाते है ऐसे दोहरे जीव को लाइकेन कहते है ।
7. कुछ कवक उच्च पादप (पाइनस) की जड़ों के साथ सहजीवी संबंध दर्शाते है , इसे माइकोराइजिया (कवकमूल) कहते है ।
NOTE- भोजन को जीवाणु तथा कवकों से खराब होने से बचाने के लिए रेफ्रिजरेटर में रखा जाता है । रेफ्रिजरेटर में निम्न ताप पर जीवाणु तथा कवक में उपस्थित एंजाइम निष्क्रीय हो जाते है और भोजन खराब नहीं होता है ।
कवकों में पोषण- कवकों में हरितलवक अनुपस्थित होते है अर्थात् ये विषमपोषी होते है । कवकों में संचित भोजन जंतुओं की भांति ग्लाइकोजन होता है । भोजन के स्रोत के आधार पर कवक दो प्रकार के होते है –
1. मृतोपजीवी कवक – ये कवक अपना भोजन मृत कार्बनिक पदार्थों जैसे ब्रेड, सड़े हुए फल एवं सब्जियों , गोबर इत्यादि से प्राप्त करते है । इनमें पोषण अवशोषणी या परासरणीय विधि से होता है ।
2. परजीवी कवक – ये अपना भोजन जीवित जीवों जैसे पादप ,जंतु एवं मनुष्यों से प्राप्त करते है । ये कवक रोग उत्पन्न करते है । परजीवी कवक अपना पोषण चूसकांगों के द्वारा प्राप्त करते है ।
कवकों की आकारिकी (Morphology) – कवक के शरीर को माइसिलियम (कवक जाल) कहते है । माइसिलियम एक जालनुमा संरचना है जो कई सारे कवक तंतुओं के मिलने से बनती है । कवक तंतु को कवक की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई कहते है ।
कवक तंतु के चारों ओर कोशिका भित्ति पाई जाती है जो काइटिन की बनी होती है । काइटिन के साथ कुछ मात्रा में सेल्युलोज, प्रोटीन एवं लिपिड पाए जाते है
अधिकांश कवक विषम जालिक होते है । कवक तंतु सतत् नलिकाकार होते है जिनमें बहुकेन्द्रकीय कोशिकाद्रव्य भरा होता है जिन्हें सिनोसाइटिक कवक तंतु कहते है ।
कवक जाल के आधार पर कवक दो प्रकार के होते है –
1. विषमजालिक (हिटरोथैलिक) कवक – वे जातियाँ जिनमें निषेचन आनुवांशिक रूप से भिन्न युग्मकों के मध्य होता है अर्थात् निषेचित होने वाले युग्मक अलग-अलग कवक जाल पर बनते है, विषमजालिक कवक कहलाते है ।
उदाहरण – म्यूकर, राइजोपस, पक्सिनिया
2. समजालिक (होमोथैलिक) कवक – वे जातियाँ जिनमें निषेचन आनुवांशिक रूप से समान जातियों के मध्य होता है अर्थात् निषेचित होने वाले युग्मक एक ही कवकजाल पर बनते है उन्हें समजालिक कहते है । उदाहरण – कीटोमियम
कवकों में जनन – कवकों में कायिक जनन , अलैंगिक जनन व लैंगिक जनन पाया जाता है ।
1. कायिक जनन – यह निम्न प्रकार का होता है –
i) खण्डन (फ्रेग्मेंटेशन) – जब माइसिलियम किसी भी कारण से छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाता है तो प्रत्येक टुकड़ा एक नये कवक तंतु या पूर्ण कवक का निर्माण कर लेता है , इसे ही खण्डन कहते है ।
ii) मुकुलन विधि – जब कवक में कलिका के समान उभार बनता है तो यह कलिका मातृ कवक से अलग होकर एक नये कवक के रूप में कार्य करने लगती है । इस प्रक्रिया में मातृकोशिका का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है । उदाहरण – सेक्रोमाइसीज (यीस्ट)
iii) विखण्डन (fistion) – जब कवक कोशिका बीच में से दो भागों में विभक्त हो जाती है , साथ ही इनका केन्द्रक दो भागों में बंट जाता है । तो इसे विखण्डन कहते है । उदाहरण – साइजोसेक्रोमाइसीज
2. अलैंगिक जनन – यह प्रक्रिया विभिन्न प्रकार के बीजाणुओं जैसे स्पोरेंजियोस्पोर , चल बीजाणु (जूस्पोर) , अचल बीजाणु (Aplanospore) तथा कोनेडिया द्वारा होता है । कोनेडिया का निर्माण सीधे कवक तंतु पर बहिर्जात रूप से होता है । प्रत्येक कोनेडिया अंकुरित होकर एक नये कवक तंतु का निर्माण करता है ।
3. लैंगिक जनन – यह जनन निषिक्तांड(ऊस्पोर) , ऐस्कस बीजाणु तथा बेसिडियम बीजाणु द्वारा होता है । विभिन्न बीजाणु सुस्पष्ट संरचनाओं में उत्पन्न होते है , जिन्हें फलनकाय कहते है । लैंगिक चक्र में निम्नलिखित तीन सोपान होते है –
i) प्लाज्मोगेमी – दो चल अथवा अचल युग्मकों के प्रोटोप्लाज्म का संलयन होना प्लाज्मोगेमी कहलाता है ।
ii) केरियोगेमी – दो केन्द्रकों का आपस में संलयित हो जाना , केरियोगेमी कहलाता है ।
iii) अर्द्धसूत्री (मिऑसिस) विभाजन – युग्मनज में अर्द्धसूत्री विभाजन के कारण अगुणित बीजाणु बनते है जो अंकुरण के पश्चात् नए माइसिलियम का निर्माण करते है ।
लैंगिक जनन में संयोज्य संगम के दौरान दो अगुणित कवक तंतु पास-पास आते है और संलयित हो जाते है । इस संलयन के तुरंत बाद एक द्विगुणित (2n) कोशिका बन जाती है । जबकि अन्य फंजाई जैसे ऐस्कोमाइसीटीज तथा बेसिडियोमाइसीटीज में एक मध्यवर्ती द्विकेंद्रकी अवस्था (n+n) अर्थात् एक कोशिका में दो केंद्रक बनते है । ऐसी परिस्थिति को केन्द्रक युग्म (Dikaryon) कहते है तथा इस अवस्था को फंगस की द्विकेन्द्रकी प्रावस्था (Dikaryophase) कहते है । बाद में पैतृक केन्द्रक संलयित हो जाते है और कोशिका द्विगुणित बन जाती है । फंजाई फलनकाय बनाती है जिसमें न्यूनीकरण (अर्द्धसूत्री) विभाजन होता है जिसके का