बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 6 पुष्पीय पौधो शारीरिक आकारिकी दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 11 जीव विज्ञान अध्याय 6 पुष्पीय पौधो शारीरिक आकारिकी दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. ट्यूनिका कॉर्पस थ्योरी पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर : सन् 1924 में शिमिट (Schmidt) ने अग्रस्थ वर्षी प्रदेशों (apical growing regions) के लिए ट्यूनिका कॉर्पस (tunica corpus) की विचारधारा प्रस्तुत की। इस विचारधारा के अनुसार, अग्रस्थ भाग में ऊतियों के दो क्षेत्र ट्यूनिका (tunica) तथा कॉर्पस (corpus) पाए जाते हैं। ट्यूनिका कोशिकाओं का एक या अधिक स्तरों का बाह्य क्षेत्र तथा कॉर्पस मध्य वाला क्षेत्र है जो कोशिकाओं का एक समूह है तथा ट्यूनिकों द्वारा घिरा रहता है। इस विचारधारा के अनुसार, बाह्यत्वचा, ट्यूनिका की बाहरी स्तर से विकसित होती है तथा शेष ऊतक पूर्ण कॉर्पस एवं ट्यूनिका के कुछ भागों से विकसित होते हैं। जब ट्यूनिका केवल एकस्तरीय होती है। तो यह हेन्सटीन द्वारा वर्णित त्वचाजन (dermatogen) की भाँति कार्य करती है, लेकिन जब यह बहुस्तरीय होती है तो यह वल्कुट के ऊतक (cortical tissue) के कुछ भाग के विकास में सहायक हो सकती है। ट्यूनिका की कोशिकाएँ केवल अपनतिक (anticlinal) विभाजन द्वारा विभाजित होती है। जबकि कॉर्पस भाग की कोशिकाएँ अपनतिक तथा परिनतिक (periclinal) विभाजनों से विभाजित होती हैं।

प्रश्न 2. बाह्य त्वचा ऊतक तन्त्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर : बाह्यत्वचा पौधों के अधिकांश भागों की बाहरी त्वचा है। इसकी कोशिकाएँ लम्बी तथा एक-दूसरे से सटी हुई होती हैं और एक अखण्ड सतह बनाती हैं। बाह्यत्वचा प्राय: एकल परत वाली होती है। बाह्यत्वचीय कोशिकाएँ मृदूतकी प्रकार की होती हैं जिनमें बहुत कम मात्रा में साइटोप्लाज्म होता है। इसमें एक बड़ी (UPBoardSolutions.com) रसधानी होती है। बाह्यत्वचा की बाहरी सतह पर क्यूटिकल (cuticle) नामक रक्षात्मक परत का आवरण पाया जाता है। क्यूटिकल जल की हानि को रोकती है। जड़ों में क्यूटिकल अनुपस्थित होती है।

प्रश्न 3.

वार्षिक वलय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। या कश्मीर में पाये जाने वाले वृक्षों में वार्षिक वलय प्रायः स्पष्ट होते हैं परन्तु उन पौधों में नहीं जो चेन्नई के समीप पाये जाते हैं। क्यों ?

उत्तर :

वार्षिक वलय

संवहन एधा की क्रियाशीलता मौसम में परिवर्तन के साथ अलग-अलग होने के कारण अधिक ठण्डे शरद ऋतु और बसन्त ऋतु में बनने वाले द्वितीयक जाइलम (secondary xylem) में काफी (कभी-कभी अत्यधिक भी) अन्तर उत्पन्न कर देती है। बसन्त ऋतु (spring season) में तापमान उचित होने आदि के कारण बनने वाले द्वितीयक जाइलम अर्थात् बसन्त काष्ठ (spring wood) में

वाहिकाएँ इत्यादि अधिक स्पष्ट तथा चौड़ी गुहा वाली होती हैं। शरद ऋतु में पौधे के सभी भागों के साथ पूलीय एधा (fascicular cambium) भी कम क्रियाशील हो जाती है। इस प्रकार, इस काष्ठ में वाहिकाएँ बहुत कम तथा बहुत छोटी गुहा वाली होती हैं, साथ ही इस काष्ठ में वाहिनिकाओं और काष्ठ रेशों (tracheids and wood fibres) की अधिकता होती है। इसका रंग भी गहरा होता है। इस प्रकार बने काष्ठ को शरद काष्ठ (autumn wood) कहते हैं दोनों प्रकार के काष्ठ अर्थात् बसन्त काष्ठ तथा शरद काष्ठ तने की अनुप्रस्थ काट (transverse section) संकेन्द्री वलयों (concentric rings) के रूप में दिखायी देते हैं।इस प्रकार एक शरद काष्ठ और एक बसन्त काष्ठ के वलय को मिलाकर वार्षिक वलय (annual ring) अथवा वृद्धि वलय (growth ring) कहते हैं। इस प्रकार एक वलय के बनने में एक वर्ष का समय लगता है अत: वार्षिक वलयों की संख्या देखकर किसी वृक्ष की आयु का पता लगाया जा सकता है।

यह भी स्पष्ट है कि केवल मुख्य स्तम्भ के आधारीय भाग में ही वार्षिक वलयों की संख्या गिनकर वृक्ष की आयु बतायी जा सकती है, क्योकि आधार से सिरे की ओर वलयों की संख्या कम होती जाती है। वर्षभर के मौसम में अधिक परिवर्तन नहीं होने से वार्षिक वलय नहीं बनते हैं अथवा स्पष्ट नहीं होते हैं; इसलिए ‘वार्षिक वलय’ में बसन्त वे शरद् ऋतुओं में अत्यधिक अन्तर होने से कश्मीर में बसन्त काष्ठ व शरद काष्ठ स्पष्ट रूप से घेरों या वलयों (rings) में बनते हैं। चेन्नई मेंदोनों ऋतुओं के तापमान में न तो इतना अन्तर होता है और न ही काष्ठ में बसन्त व शरद काष्ठ के वलय बन पाते हैं।

प्रश्न 4.

निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए

(i) अन्तःकाष्ठ तथा रस काष्ठ

(ii) वातरन्ध्र

उत्तर :

(i) अन्त:काष्ठ तथा रस काष्ठ (Heart wood and Sap wood) :

तने के पुराने भाग अथवा केन्द्रीय भाग में टैनिन (tannin), रेजिन (resin), गोंद (gum) आदि पदार्थों के जमाव के कारण यह भाग कठोर हो जाता है। इस भाग को अन्त:काष्ठ (heart wood) अथवा ड्यूरामेन (duramen) कहते हैं। द्वितीयक वृद्धि के साथ-साथ प्रतिवर्ष अन्त:काष्ठ की मात्रा बढ़ती जाती है।अनुप्रस्थ कोट में यह भाग गहरे बादामी रंग को दिखलाई देता है। इसका मुख्य कार्य दृढ़ता प्रदान करना है। द्वितीयक काष्ठ की परिधि वाला भाग हल्के रंग का होता है। इस भाग। को रस काष्ठ (sap wood) अथवा एलबर्नम (alburnum) कहते हैं। यह काष्ठ का सक्रिय भाग है। यह जल तथा खनिज लवणों को पत्तियों तक पहुँचाने का कार्य करता है।

(ii) वातरन्ध्र (Lenticel) :

ये पुराने वृक्ष के तनों पर पाये जाने वाले लेंस की तरह के छिद्र होते हैं जिनके द्वारा तना वातावरण से गैसों का आदान-प्रदान करता है। वातरन्ध्र (lenticel), रन्ध्र (stomata) के नीचे स्थित होते हैं। प्रत्येक वातरन्ध्र में अनियमित आकार की छोटी, पतली भित्ति वाली कोशिकाओं का समूह पाया जाता है जिन्हें पूरक या कम्पलीमेण्टरी (complementary) कोशिकाएँ कहते हैं। इस प्रकार ये कोशिकाएँ कॉर्क कैम्बियम द्वारा बाहर की ओर कॉर्क कोशिकाओं के स्थान पर बनती हैं। इन कोशिकाओं की कोशिका-भित्ति में सुबेरिन नहीं होती। इन कोशिकाओं की संख्या बढ़ते रहने से बाह्यत्वचा फट जाती है और पूरक कोशिकाएँ ऊपर की ओर उठकर छोटे-छोटे उभार बना लेती हैं। इस प्रकार वातरन्ध्र (lenticel) बन जाते हैं। शीत ऋतु में कॉर्क कोशिकाओं के बनने के कारण वातरन्ध्र बन्द हो जाते हैं, परन्तु नववर्ष के आगमन पर ये पुनः खुल जाते है।

प्रश्न 5.

विभज्योतक क्या है ? स्थिति के आधार पर ये कितने प्रकार के होते हैं ? या शीर्षस्थ विभज्योतक तथा अन्तर्वेशी (अन्तर्विष्ट) विभज्योतक में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर :

विभज्योतक ऊतक

विभज्योतक या मेरिस्टेमी ऊतक (meristems) वे हैं जिनकी कोशिकाओं में विभाजन की क्षमता होती है अथवा इनमें विभाजन हो रहा होता है। इनका भिन्नन (differentiation) भी नहीं हुआ होता है। इनकी कोशिकाएँ सेलुलोस की पतली भित्ति वाली, कोशिकाद्रव्य से भरी हुई अर्थात् रिक्तिकाएँ बहुत कम और छोटी, किन्तु बड़े व स्पष्ट केन्द्रक वाली होती हैं। इनमें कोशिकाएँ अत्यन्त पास-पास लगी होती हैं जिनके मध्य अन्तराकोशिकीय स्थान (intercellular spaces) प्रायः नहीं होते। ये आकार में समव्यासी (isodiametric) होती हैं तथा उपापचयी (metabolic) रूप से अधिक सक्रिय होती हैं।

विभज्योतक पौधों के वृद्धि भागों में मिलते हैं। निम्न श्रेणी के बहुकोशिकीय पौधों में ये पूरे पौधे के शरीर में रहते हैं, किन्तु उच्च श्रेणी के पौधों में तो ये निश्चित और विशेष स्थितियों में ही पाये जाते हैं। इन कोशिकाओं के विभाजन, परिवर्द्धन, वृद्धि और भिन्नन के बाद ही स्थायी ऊतक (permanent tissues) बनते हैं।

स्थिति के आधार पर विभज्योतक

स्थिति के अनुसार विभज्योतक निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं

1. शीर्षस्थ विभज्योतक (Apical meristem) :

यह ऊतक किसी अंग (मूल या तने) के शीर्ष में होता है और नई-नई कोशिकाएँ बनाते रहने के कारण, वहाँ पर वर्धन प्रदेश (growing zone) बनाता है। इसी के कारण उस भाग में पौधों की लम्बाई में वृद्धि होती है। तने तथा जड़ कें शीर्षों के अनुदैर्ध्य काटों में इनको तथा इनसे बनने वाले स्थायी ऊतकों (permanent tissues) को देखा जा सकता है। शीर्षस्थ विभज्योतक प्रायः सदैव ही प्राथमिक (primary) प्रकार का विभज्योतक होता है। शीर्षस्थ विभज्योतक से तनों तथा जड़ों के शीर्षों में जिस प्रकार से क्रमशः नये तथा स्थायी ऊतकों का निर्माण होता है, इसको समय-समय पर कई प्रकार के सिद्धान्तों के द्वारा समझाया जाता रहा है। इनमें सबसे पुराना तथा मान्यवाद हिस्टोजन वाद (histogen theory) है। इस वाद के अनुसार, किसी शीर्षस्थ विभज्योतक से बनने वाले स्तर तीन प्रकार के ऊतकजन क्षेत्रों (histogen zones) में बँटे होते हैं (चित्र देखिए)। ये क्षेत्र प्राविभज्योतक (promeristem) के रूप में अपना परिवर्द्धन प्रारम्भ करते हैं तथा अग्रलिखित प्रकार से स्थायी ऊतकों का निर्माण करते हैं जड़ के (UPBoardSolutions.com) शीर्ष पर चूँकि मूलगोप (root cap) होता है अतः इसको निर्मित करने वाला एक अलग विभज्योतक होता है, इसे कैलिप्ट्रोजन (calyptrogen) कहते हैं। यह मूलगोप की होते रहने वाली क्षति की पूर्ति करता है।

2. पाश्र्व विभज्योतक (Lateral meristem) :

यह ऊतक तने या मूल के पाश्र्यों में अक्ष के समान्तर अर्थात् स्पर्श रेखीय तल (tangential plane) में स्थित होता है। इसकी कोशिकाएँ केवल इसी तल में विभाजित होती हैं। अत: इससे द्वितीयक ऊतकों (secondary tissues) का निर्माण होता है, जिससे जड़ या तने (प्ररोह) की मोटाई बढ़ती है। द्विबीजपत्री पौधों के तने में उपस्थित संवहन एधा (fascicular cambium)इस प्रकार का ऊतक होता है। अन्य उदाहरण में तने या जड़ में स्थायी ऊतकों से उत्पन्न होने वाला द्वितीयक विभज्योतक (secondary meristem) काग एधा (cork cambium) अथवा द्विबीजपत्री जड़ों में उत्पन्न होने वाली द्वितीयक संवहन एधा (secondary fascicular cambium) होती है। उपर्युक्त सभी उदाहरणों में तने अथवा जड़ की मोटाई में द्वितीयक वृद्धि (secondary growth in thickness) ही होती है।

3. अन्तर्वेशी विभज्योतक (Intercalary meristem) :

यह ऊतक शीर्षस्थ विभज्योतक का अलग होकर छूटा हुआ भाग होता है, जो स्थायी ऊतकों में परिवर्तित न होकर, उनके मध्य में रह जाता है। इस ऊतक के कारण भी पौधे के भागों की लम्बाई में वृद्धि होती है। घासों के पर्वो (internodes) के आधारों में तथा पोदीना (mint) के तने की पर्वसन्धियों (UPBoardSolutions.com) (nodes) के नीचे यह ऊतक पाया जाता है। यह पर्णाधार (leaf base) पर भी पाया जाता है; जैसे-चीड़ (Pinus) में। अन्तर्वेशी विभज्योतक प्राथमिक स्थायी ऊतकों को जन्म देते हैं तथा पौधों की लम्बाई बढ़ाते हैं। इस प्रकार की वृद्धि अल्पकालिक होती है।

प्रश्न 6

ऊतक से आप क्या समझते हैं? पौधों के स्थायी ऊतकों की संरचना और उनके कार्यों का वर्णन कीजिए। या स्थूलकोण ऊतक तथा दृढ़ोतक में अन्तर बताइए।

उत्तर :

ऊतक कोशिकाओं का वह समूह जिसकी उत्पत्ति, संरचना तथा कार्य समान होते हैं, ऊतक कहलाता है। पादप ऊतक मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं

 स्थायी ऊतक तथा

विभज्योतकी ऊतक।

स्थायी ऊतक

इसकी कोशिकाओं में कोशा विभाजन की क्षमता नहीं होती है।

1. सरल ऊतक  :

ये जीवित या मृत पतली या मोटी भित्ति वाली एक जैसी कोशिकाओं का समूह होता है। सरल ऊतक निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं

(i) मृदूतक (Parenchyma) :

यह समव्यासी, गोलाकार, अण्डाकार या बहुभुजी, पतली भित्ति वाली जीवित कोशाओं से बना होता है। कोशिकाओं के मध्य प्रायः अन्तराकोशीय स्थान (inercellular space) पाया जाता है। यह ऊतक प्रायः पौधों के कोमल भागों में पाया जाता है।

कार्य :

(अ) जल एवं खाद्य पदार्थों (स्टार्च, प्रोटीन, वसा) को संचय करता है।

(ब) हरितलवक (chloroplast) की उपस्थिति के कारण प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण करता है।

(स) वायु गुहिकाओं युक्त मृदूतक को वायुतक (aerenchyma) कहते हैं। यह जलीय पौधों के प्लवने (floating) में सहायक होता है।

(द) इसे स्पंजी मृदूतक भी कहते है। यह गैस विनिमय में सहायता करता है।

(य) कोशिकाओं में विभाजन की क्षमता स्थापित हो जाने के कारण द्वितीयक वृद्धि एवं घाव भरने में सहायता करता है।

(ii) स्थू लकोण ऊतक Collenchyma) :

ये कोणीय कोशिकायें मृदूतक की अपेक्षा लम्बी होती हैं। इनमें अन्तराकोशीय अवकाश (intercellular space) का अभाव होता है। कोशिकाओं के कोनों पर । पेक्टिन तथा सेलुलोस एकत्र हो जाता है। जिससे ये कोशिकायें अनुप्रस्थ काट में गोलाकार या अण्डाकार दिखाई देती हैं। कभी-कभी कोशिकाओं में हरितलवक भी उत्पन्न हो जाता है।

कार्य :

(अ) पौधों के कोमल अंगों को तनन दृढ़ता (tensile strength) प्रदान करता है।

(ब) भोजन का संचय करता है।

(स) हरितलवक की उपस्थिति के कारण भोजन का निर्माण करता है।

(iii) दृढ़ ऊतक (Sclerenchyma) :

कोशिका भित्ति के लिग्निनकरण के कारण परिपक्व कोशिकाएँ मृत (dead) हो जाती हैं। दृढ़ ऊतक दो प्रकार की कोशिकाओं से बना होता है।

(a)

दृढ़ोतक रेशे (Sclerenchymatous fibres) :

ये लम्बी, सँकरी तथा दोनों सिरों पर नुकीली, मृत कोशिकाएँ होती हैं कोशिकायें लिग्निनकरण के कारण मृत (dead) हो जाती हैं। तन्तुओं की लम्बाई प्राय: 1 से 3 मिमी होती है। जूट (jute) के रेशे 20 मिमी तथा बोहमेरिया (Boehmeria) के रेशे 550 मिमी तक लम्बे होते हैं।

(b)

दृढ़ कोशाएँ (Stone cells or sclereids) :

ये कोशिकाएँ लगभग समेव्यासी, गोलाकार, अण्डाकार या अनियमित होती हैं। कोशिका भित्ति लिग्निनयुक्त हो जाने से कोशिकाएँ मृत हो जाती हैं। दृढ़ कोशाएँ फलभित्ति, बीजकवच आदि में पायी जाती हैं।

कार्य :

(अ) दृढ़ ऊतके पौधे के विभिन्न अंगों को यान्त्रिक शक्ति (mechanical strength) प्रदान करता है।

(ब) यह बीज तथा फलों का रक्षात्मक आवरण बनाता है।

2. जटिल ऊतक (Complex tissue) :

दो या अधिक प्रकार की कोशिकाएँ परस्पर मिलकर एक ही कार्य सम्पन्न करती हैं। जटिल ऊतक दो प्रकार के होते हैं

प्रश्न 7

 फ्लोएम :उनके कार्यों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर :

इस ऊतक का प्रमुख कार्य पौधे के प्रकाश संश्लेषी भागों (जैसे–पत्तियों) में निर्मित भोज्य-पदार्थों को पौधे के अन्य भागों में स्थानान्तरित करना होता है। इस ऊतक को बास्ट (bast) भी कहते हैं।

चालनी नलिकाएँ (sieve tubes)

सहचर कोशिका (companion cell)

 फ्लोएम पेरेनकाइमा (phloem parenchyma)

फ्लोएम तन्तु (phloem fibres)।

चालनी नलिकाएँ

एन्जियोस्पर्म में चालनी नलिका (sieve tube) :

मिलती है तथा टेरिडोफाइटा में चालनी कोशिका (sieve cell) मिलती है। ये पतली नली के समान होती हैं जिसमें कोशिकाएँ एक के ऊपर एक कतार में

लगी रहती हैं। इनकी अन्त:भित्ति (end wall) पर चालनी प्लेट (sieve plate) पाई जाती है। कोशिका भित्ति सेलुलोस की बनी होती है। इसमें अनेकों छिद्र मिलते हैं जिससे आस-पास की कोशिकाओं में सम्पर्क बना रहता है। कभी-कभी चालनी प्लेट अनुदैर्ध्य भित्ति (longitudinal wall) में भी पाई जाती है। वर्षी ऋतु (growing season) के अन्त में चालनी पट्टिका एक प्रकार के रंगहीन चमकदार कैलोस (callose) नामक कार्बोहाइड्रेट की तह से ढक जाती है, जिसे कैन्नस (callus) कहते हैं। बहुत पुरानी चालनी-पट्टिका में कैलस स्थाई रूप से जम जाता है जिससे भोजन का संवहन रूक जाता है। परिपक्व चालनी नलिका में केन्द्रक नहीं मिलता है। प्रत्येक चालनी नलिका के साथ छिद्रों द्वारा जुड़ी हुई एक लम्बी सहचर कोशिका (companion cell) पाई जाती है।

(b)

सहचर कोशिका 

जिम्नोस्पर्म व टेरिडोफाइटा में सहचर-कोशिका नहीं पाई जाती है। जिम्नोस्पर्म व टेरीडोफाइटा में चालनी कोशिका (sieve cell) मिलती है जिस पर चालनी प्लेट (sieve plate) स्पष्ट नहीं होती है। आमतौर पर चालनी क्षेत्र (sieve areas) पाश्र्व दीवार (lateral wall) पर पाए जाते हैं। एन्जियोस्पर्म में चालनी नलिका से पाश्र्व दिशा से लगी एक लम्बी-पतली कोशिका होती है जिसे सहचर कोशिका कहते हैं। यह पतली कोशिका भित्ति वाली कोशिका होती है जो भोजन के संवहन में) सहायता करती है। सामान्यत: एक चालनी नलिका से एक सहचर कोशिका लगी रहती है। सहचर कोशिका में एक बड़ा केन्द्रक व प्रचुर मात्रा में जीवद्रव्य मिलता है। इनमें स्टार्च कण (starch grain) नहीं मिलते हैं, परन्तु माइटोकॉन्ड्रिया (mitochondria), एन्डोप्लाज्मिक रेटीकुलम (endoplasmic reticulum), राइबोसोम (ribosome) आदि कोशिकांग मिलते हैं।

(c)

फ्लोएम पेरेनकाइमा

आकृति में ये कोशिकाएँ लम्बी, चौड़ी, पतली व गोल हो सकती हैं। ये कोशिकाएँ चालनी नलिका के बीच-बीच में मिलती हैं व जीवित होती हैं। इनको मुख्य कार्य भोजन का संचय करना व संवहन में सहायता करना है। इन कोशिकाओं के अन्य गुण पेरेनकाइमा की कोशिकाओं की तरह होते हैं। एकबीजपत्री पौधों के तनों में फ्लोएम पेरेनकाइमा का प्रायः अभाव होता है।

(d)

फ्लोएम तन्तु

ये दृढ़ऊतक के बने होते हैं। इनकी कोशिकाभित्ति मोटी, कोशिका-गुहा सँकरी व इनमें गर्त मिलते हैं। इन तन्तुओं का बहुत आर्थिक महत्त्व है। इनसे रस्सी, सुतली, गद्दे, बैग आदि बनाए जाते हैं। तन्तुओं की लम्बाई निश्चित नहीं होती है। ये द्वितीयक फ्लोएम में अधिक मिलते हैं। प्राथमिक फ्लोएम में तन्तुओं की कोशिकाभित्ति अधिकतर सेलुलोस की बनी होती है।

प्रश्न 8

दारु के विभिन्न घटकों का विवरण दीजिए एवं उनके कार्यों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए। या जाइलम पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। या दारु (जाइलम) ऊतक के विभिन्न अवयवों के नामांकित चित्र बनाइए। या टिप्पणी लिखिए-जाइलम द्वारा खनिज लवणों का परिवहन।

उत्तर :

दारु या जाइलम

दारु या जाइलम (xylem) ऐसा संवहन ऊतक (vascular tissue) है जिसके द्वारा भूमि से अवशोषित जल तथा उसमें घुले हुए खनिज पदार्थों का संवहन होता है। इन कार्यों को करने के लिए जाइलम में निम्नलिखित चार प्रकार की विशेष संरचनाएँ या दारु अवयव (xylem elements) पाए। जाते हैं।

1. दारु वाहिनिकाएँ (Xylem tracheids) :

ये लम्बी व नलिकाकार कोशिकाएँ होती हैं जिनके भीतर जीवद्रव्य नहीं होता तथा ये मृत हो जाती हैं। इनकी भित्तियाँ, जो प्राथमिक रूप में सेलुलोस की बनी होती हैं, किन्तु बाद में लिग्निन (lignin) से स्थूलितं होने से, अधिक मोटी हो जाती हैं। लिग्निनयुक्त (lignified) होने के कारण ये कठोर तथा काष्ठीय हो जाती हैं। कोशिका भित्तियों को लिग्निन द्वारा स्थूलन (thickening) होने से भित्तियों पर कई प्रकार की संरचनाएँ बन जाती हैं। इन्हीं के आधार पर ये कई प्रकार की मानी जाती हैं; जैसे-वलयाकार (annular), सर्पिल (spiral) प्रकार के स्थूलन प्रोटोजाइलम (protoxylem) में होते हैं। सीढ़ीनुमा (scalariform) प्रकार का स्थूलन प्रोटोजाइलम तथा मेटाजाइलम (metaxylem) दोनों में होता है। जालिकारूपी (reticulate) प्रकार का स्थूलन मेटाजाइलम में मिलता है।

जब कोशिका भित्ति पर जालिकावत् स्थूलन और भी अधिक घना हो जाता है तो कुछ स्थानों पर ही लिग्निन न जमा होने के कारण छोटे-छोटे स्थान शेष रह जाते हैं।इन स्थानों पर केवल सेलुलोस की भित्ति ही होती है, इन स्थानों को गर्त (pits) कहते हैं। गर्त पड़ोसी कोशिका की भित्ति पर भी इसी स्थान पर बनता है, अतः इन्हें गर्त युग्म (pit pair) कहना अधिक उचित है। गर्त साधारण (simple) अर्थात् पूरी गहराई तक बराबर स्थूलन वाले अथवा परिवेशित  (bordered) हो सकते हैं। परिवेशित गर्त में स्थूलन बाहर से अन्दर की ओर क्रमशः कम होता जाता है। गर्तमय (pitted) स्थूलन मेटाजाइलम में पाया जाता है।

2. दारु वाहिकाएँ या टैकी (Xylem vessels or tracheae) :

ये बहुत लम्बी और चौड़ी नलिकाओं के समान संरचनाएँ होती हैं जो एक पंक्ति में, एक के सिरे से दूसरी (end to end) लगी रहती हैं। वाहिकाओं (vessels) में वाहिनिकाओं की अपेक्षा अनुप्रस्थ भित्तियों का पूर्ण या अपूर्ण रूप से अभाव होता है। यदि अनुप्रस्थ भित्तियाँ होती हैं तो अत्यधिक छिद्रिल होती हैं। (UPBoardSolutions.com) वाहिकाओं (vessels) में भी मृत, मोटी कोशिका भित्ति होती है तथा वाहिनिकाओं की तरह कोशिका भित्तियाँ समान मोटाई की होती हैं। वाहिकाओं की भित्ति पर लिग्नीभवन (lignification) भी वाहिनिकाओं के समान कई प्रकार का होता है।

अनुप्रस्थ काट में जाइलम वाहिकाएँ वाहिनिकाओं के समान ही बहुभुजी दिखायी देती हैं। अनावृतबीजी पौधों (gymnosperms) में जाइलम केवल वाहिनिकाओं (tracheids) का बना रहता है, इनमें वाहिकाओं (vessels) का प्रायः अभाव होता है जबकि आवृतबीजी पौधों (angiosperms) में वाहिकाएँ ही प्रमुख जाइलम अवयव (xylem elements) हैं।

3. दारु मृदूतक (Xylem parenchyma) :

ये मृदूतकीय कोशिकाएँ (parenchymatous cells) जाइलम के अन्दर पायी जाती हैं। इनकी भित्तियाँ बाद में कुछ मोटी हो जाती हैं, किन्तु ये सजीव होती हैं। स्थूलित होने पर इन कोशिकाओं की भित्तियों में सरल गर्त (pits) होते हैं। इनका मुख्य कार्य जल व खाद्य पदार्थ संचित रखना है, किन्तु ये जल संवहन में भी दारु | वाहिकाओं आदि को सहयोग देती हैं।

4. दारु रेशे (Xylem fibres) :

ये रेशे दृढ़ोतकी (sclerenchymatous) होते हैं अर्थात् इनकी भित्तियाँ लिग्निनयुक्त (lignified) होती हैं और इन भित्तियों में विभिन्न प्रकार के गर्त पाये जाते हैं। इन रेशों का मुख्य कार्य मजबूती तथा सहारा देना होता है।

(i) आदिदारु (Protoxylem) :

वाहिनिकाएँ और वाहिकाएँ पहले संकरी बनती हैं तथा उनकी भित्तियों पर वलयाकार अथवा सर्पिल स्थूलन (annular or spiral thickening) होती है। इनको आदिदारु (protoxylem) कहते हैं।

(ii) अनुदारु (Metaxylem) :

बाद में वाहिकाएँ (vessels) तथा वाहिनिकाएँ (tracheids) चौड़ी तथा अधिक लम्बी हो जाती हैं। इनकी भित्तियों पर जालिकारूपी या सीढ़ीनुमा स्थूलन (thickenings) अथवा गर्त पाये जाते हैं, इसको अनुदारु (metaxylem) कहते हैं।

(iii) जाइलम के कार्य (Functions of xylem) :

 जाइलम द्वारा, मूलों द्वारा अवशोषित जल तथा लवणों के घोल को पौधों के वायव भागों तक (पत्तियों तक) पहुँचाया जाता है। इस कारण इस जटिल ऊतक को जल संवाहक ऊतक (water conducting tissue) कहते हैं।

 इसमें उपस्थित कोशिकाओं की भित्तियाँ मोटी व दृढ़ होने के कारण यह ऊतक पौधे के भागों को यान्त्रिक शक्ति (mechanical strength) प्रदान करता है।

प्रश्न 9.

भरण ऊतक तन्त्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर :

बाह्यत्वचा तथा संवहन बण्डल के अतिरिक्त सभी ऊतक भरण ऊतक की श्रेणी में आते हैं। ये पेरेनकाइमा, कोलेनकाइमा तथा स्क्लेरेनकाइमा कोशिकाओं से बने होते हैं। पत्तियों में भरण ऊतक पतली भित्ति वाले तथा क्लोरोप्लास्ट युक्त होते हैं और इसे पर्णमध्योतक (leaf mesophyll) कहते हैं। भरण ऊतक में निम्नलिखित भाग आते हैं

(i) वल्कुट (Cortex) :

यह बाह्यत्वचा के नीचे पाया जाने वाला भरण ऊतक (ground tissue) है जो प्रायः अन्तस्त्वचा (endodermis) तक फैला रहता है। इसमें निम्नलिखित भाग होते हैं

(a)

अधस्त्वचा (Hypodermis) :

द्विबीजपत्री पौधों में बाह्यत्वचा के नीचे स्थूलकोण ऊतक (collenchyma tissue) तथा एकबीजपत्री पौधों में बाह्यत्वचा के नीचे दृढ़ोतके (sclerenchyma tissue) की एक या कुछ परतें पूरी पट्टी के रूप में अथवा छोटे-छोटे टुकड़ों में पाई जाती हैं। इन्हें अधस्त्वचा (hypodermis) कहते हैं। यह ऊतक पतली कोशिकाभित्ति वाली मृदूतक कोशिकाओं से बना होता है तथा अधस्त्वचा के ठीक नीचे पाया जाता है। ये परतें रक्षा का कार्य करती हैं।

(b)

सामान्य वल्कुट (General Cortex) :

इनमें सुविकसित अन्तराकोशिकीय स्थान (intercellular spaces) पाए जाते हैं। प्रायः तरुण तने की वल्कुट की कोशिकाओं में हरितलवक पाए जाते हैं। इस प्रकार के मृदूतक को क्लोरेनकाइमा (chlorenchyma) कहते हैं। वल्कुट की कोशिकाओं में मण्ड, टेनिन तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थ भी पाए जाते हैं। जलीय पौधों में वल्कुट में एक विशेष प्रकार का मृदूतक पाया जाता है जिसे वायूतक (aerenchyma) कहते हैं। इसमें बीच-बीच में काफी बड़े वायु-स्थान (air-spaces) मिलते हैं। वल्कुट (cortex) पौधों को यान्त्रिक शक्ति प्रदान करता है; ‘भोज्य-पदार्थ का संग्रह करता है तथा पौधों के आन्तरिक ऊतकों की रक्षा करता है।

(c)

अन्तस्त्वचा (Endodermis) :

इसे मण्डआच्छद (starch sheath) भी कहते हैं। यह कोशिकाओं की एक अकेली परत के रूप में पायी जाती है। यह वल्कुट को रम्भ (stele) से पृथक् करती है। यह परत ढोल-सदृश (barrel-shaped) कोशिकाओं की बनी होती है और इनके बीच अन्तराकोशिकीय स्थान नहीं होते। यह (UPBoardSolutions.com) कोशिकाएँ जीवित होती हैं और इनमें मण्ड, टेनिन, म्यूसिलेज की अधिकता होती है। मण्डे की उपस्थिति के कारण ही इसे मण्ड आच्छद (starch sheath) भी कहते हैं। अन्तस्त्वचा की कुछ कोशिकाओं की अरीय (radial) और आन्तरिक (inner) भित्तियाँ, सुबेरिन (suberin), क्यूटिन (cutin) या कभी-कभी लिग्निन (lignin) पदार्थों के संग्रह के कारण स्थूलित (thickened) हो जाती हैं। इस स्थूलित पट्टी को केस्पेरियन पट्टी (casparian strip) कहते हैं। इन मोटी भित्ति वाली अन्तस्त्वचा कोशिकाओं के बीच अनेक जड़ों में कुछ पतली भित्ति वाली कोशिकाएँ आदिदारु (protoxylem) के अभिमुख (opposite) होती हैं। इन कोशिकाओं को मार्ग कोशिकाएँ (passage cells) अथवा संचरण कोशिकाएँ (transfusion cells) कहते हैं। इन्हीं कोशिकाओं द्वारा मूलरोमों द्वारा अवशोषित जल व खनिज पदार्थ जाइलम में जाते हैं।

प्रश्न 10

संवहन बण्डल क्या हैं ? आवृतबीजी पौधों में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के संवहन बण्डलों की संरचना का वर्णन कीजिए। या उपयुक्त चित्रों की सहायता से आवृतबीजियों में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के संवहन बण्डलों का वर्णन कीजिए।

उत्तर :

संवहन पूल

जाइलम व फ्लोएम (Xylem and phloem) पौधों में पाये जाने वाले संवहन ऊतक हैं। ये पौधों में अलग-अलग प्रकार से विन्यसित होते हैं। प्रायः यह भी देखा गया है कि दोनों प्रकार के संवहन ऊतक सदैव ही एक-दूसरे के आस-पास रहते हैं। इस प्रकार जाइलम और फ्लोएम के पास-पास होने तथा इनसे बनने वाले विशेष तन्तुओं (strands) को संवहन पूल (vascular bundle) कहते हैं। द्विबीजपत्री पौधों (dicot plants) में जाइलम तथा फ्लोएम के अतिरिक्त एधा (cambiun) भी संवहन पूल बनाने में मदद करती है। समस्त पौधों में संवहन पूल अपनी संवहन ऊतकों की व्यवस्था के अनुसार प्रमुखत: निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं

1. संयुक्त संवहन पूल

इस प्रकार के संवहन पूल में जाइलम और फ्लोएम एक ही त्रिज्या (radius) पर होते हैं। इस प्रकार के संवहन पूल सामान्यत: आवृतबीजी (angiospermic) पौधों के स्तम्भों (stems) में पाये जाते हैं। ये संवहन पूल भी निम्नलिखित दो प्रकार के मिलते हैं

(i) कोलेटरल संवहन (Collateral vascular bundles) :

ये प्रायः अधिकतर तनों में मिलते हैं। इन संवहन पूलों में जाइलम केन्द्र की ओर तथा फ्लोएम परिरम्भ (pericycle) की ओर होता है। द्विबीजपत्री तनों में जाइलम और फ्लोएम के मध्य प्राथमिक एधा (primary cambium) होती है जिससे ये पूल वर्धा (open) कहलाते हैं। एकबीजपत्री तनों के संवहन पूलों में एधा नहीं होती और वे अवर्थी (closed) कहलाते हैं। इन संवहन पूलों में जाइलम सदैव ही अन्तःआदिदारुक (endarch) होता है अर्थात् आदिदारु केन्द्र की ओर तथा अनुदारु परिधि की ओर होता है।

(ii) बाइकोलेटरल संवहन पूल (Bicollateral vascular bundles) :

इस प्रकार के संवहन पूलों में जाइलम के दोनों ओर अर्थात् केन्द्र की ओर भी और परिधि की ओर भी फ्लोएम होता है। इस प्रकार के संवहन पूलों में भी जाइलम अन्त:आदिदारुक ही होता है और ये मदेव बर्थी होते हैं। इनमें जाइलम तथा फ्लोएम के मध्य दोनों ओर एधा होती है।

उदाहरण :

कद्दू के पौधों के तनों में संवहन पूल प्राय: बाइकोलेटरल ही होते हैं।

2. अरीय संवहन पूल

इस प्रकार के पूलों में जाइलम और फ्लोरम अलग-अलग त्रिज्याओं पर होते हैं। इस प्रकार के संवहन पूल जड़ों में पाये जाते हैं। इनमें जाइलम सदैव बाह्यआदिदारुक (exarch) मिलता है अर्थात् आदिदारु परिधि की ओर तथा अनुदारु केन्द्र की ओर होता है। इन संवहन पूलों में प्राथमिक एधा (primary cambium) नहीं पायी जाती है। द्विबीजपत्री जड़ों में जाइलम तथा फ्लोएम के मध्य, बाद में द्वितीयक एधा (secondary cambitum) बन जाती है। 3. संकेन्द्री संवहन पूल इन पूलों (UPBoardSolutions.com) में एक संवहन ऊतक (vascular tissue) केन्द्र में तथा दूसरा इसे चारों ओर से घेरता है। सभी सुकेन्द्री संवहन पूल अवर्थी closed) होते हैं अर्थात् इनमें एधा कभी नहीं होती है। जाइलम तथा फ्लोएम की स्थिति के अनुसार ये संवहन पूल प्रायः निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं।

(i) दारु केन्द्री (Amphicribral) :

इस प्रकार के संवहन पूलों में जाइलम केन्द्र में तथा फ्लोएम इसे चारों ओर से घेरता है। दारु केन्द्री संवहन पूल फर्क्स (ferns) के राइजोम में मिलते हैं।

(ii) फ्लोएम केन्द्री (Amphivasal) :

इस प्रकार के संवहन पूलों में फ्लोएम मध्य में तथा दारु इसे चारों ओर से घेरता है। फ्लोएम केन्द्री संवहन पूल कुछ एकबीजपत्री पौधों; जैसे—यक्का (Yucca), डैसीना (Dracaena) आदि के तने में मिलते हैं।

प्रश्न 11.

त्वक् कोशिकाओं की रचना तथा स्थिति उन्हें किस प्रकार विशिष्ट कार्य करने में सहायता करती है?

उत्तर :

त्वक कोशिकाएँ

ये पादप शरीर के सभी भागों पर सबसे बाहरी रक्षात्मक आवरण बनाती हैं। यह प्रायः एक कोशिका मोटा स्तर होता है। कोशिकाएँ अनुप्रस्थ काट में ढोलकनुमा (barrel shaped) दिखाई देती हैं। बाहर से देखने पर ये अनियमित आकार की फर्श के टाइल्स की तरह अथवा बहुभुजीय दिखाई देती हैं। ये परस्पर एक-दूसरे से मिलकर अखण्ड सतह बनाती हैं। ये कोशिकाएँ मृदूतकीय कोशिकाओं का रूपान्तरण होती हैं। इन कोशिकाओं में कोशिकाद्रव्य की मात्रा बहुत कम होती है तथा प्रत्येककोशिका में एक बड़ी रिक्तिका होती है। पौधे के वायवीय भागों की त्वक् कोशिकाएँ उपचर्म (cuticle) से ढकी होती हैं, परन्तु मूलीय त्वचा की कोशिकाओं पर उपचर्म की रक्षात्मक आवरण नहीं होता। तने, पत्ती आदि की त्वक् कोशिकाओं के मध्य रन्ध्र (stomata) पाए जाते हैं। रन्ध्र द्वार कोशिकाओं (guard cells) से घिरे होते हैं। द्वार कोशिकाएँ वृक्काकार होती हैं। द्वार कोशिकाओं के चारों ओर पाई जाने वाली कोशिकाओं को सहायक कोशिकाएँ कहते हैं। रन्ध्रों का खुलना तथा बन्द होना रक्षक कोशिकाओं की आशूनता पर निर्भर करता है। रन्ध्र वाष्पोत्सर्जन तथा गैसों के आदान प्रदान का कार्य करते हैं। रन्ध्रों की स्थिति, संख्या, संरचना, उपचर्म की मोटाई आदि वाष्पोत्सर्जन की दर को प्रभावित करती है।

जड़ों की त्वक कोशिकाओं से एककोशिकीय मूलरोम बनते हैं। ये मृदा से जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं। तने और पत्तियों की त्वक्को शिकाओं से बहुकोशिकीय रोम बनते हैं। पत्ती एवं तने की रोमयुक्त सतह वाष्पोत्सर्जन की दर को नियन्त्रित करने में सहायक होती है। रन्ध्रों के रोमों से ढके रहने के कारण मरुभिद् पौधों में वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है। त्वक् कोशिकाएँ वातावरणीय दुष्प्रभावों से पौधों की सुरक्षा करती हैं।

 प्रश्न 12- कॉर्क एधा की क्रियाशीलता बताइये/

उतर -

कॉर्क एधा की क्रियाशीलता

संवहन एधा की क्रियाशीलता से बने द्वितीयक ऊतक पुराने ऊतकों पर दबाव डालते हैं जिसके कारण भीतरी (केन्द्र की ओर उपस्थित) प्राथमिक जाइलम अन्दर की ओर दब जाता है। इसके साथ ही परिधि की ओर स्थित प्राथमिक फ्लोएम नष्ट हो जाता है। इससे पहले कि बाह्य त्वचा (epidermis) की कोशिकाएँ एक निश्चित सीमा तक खिंचने के बाद टूट-फूट जाएँ, अधस्त्वचा (hypodermis) के अन्दर की कुछ मृदूतकीय कोशिकाएँ विभज्योतक (meristem) होकर कॉर्क एधा (cork cambium) बनाती हैं। कॉर्क एधा कभी-कभी वल्कुट, अन्तस्त्वचा, परिरम्भ (pericycle) आदि से बनती है। कॉर्क एधा तने की परिधि के समानान्तर विभाजित होकर बाहर की ओर सुबेरिनयुक्त (suberized) कॉर्क या फेलम (cork or phellem) का निर्माण करती है। यह तने के अन्दर के भीतरी ऊतकों की सुरक्षा करती है। कॉर्क एधा से केन्द्र की ओर बनने वाली मृदूतकीय (parenchymatous), स्थूलकोणीय अथवा दृढ़ोतकी कोशिकाएँ द्वितीयक वल्कुट (phelloderm) का निर्माण करती हैं। कॉर्क एधा से बने फेलम तथा फेलोडर्म को पेरीडर्म (periderm) कहते हैं। पेरीडर्म में स्थान-स्थान पर गैस विनिमय के लिए वातरन्ध्र (lenticels) बन जाते हैं। द्वितीयक जाइलम वसन्त काष्ठ तथा शरद् काष्ठ में भिन्नत होता है। इसके फलस्वरूप कुछ पौधों में स्पष्ट वार्षिक वलय बनते हैं।

प्रश्न 13

जड़ों में पाये जाने वाले संवहन बण्डलों के लक्षण लिखिए।

उत्तर :

जड़ों में अरीय संवहन बण्डल पाये जाते हैं। इस प्रकार के संवहन बण्डलों में जाइलम और फ्लोएम अलग-अलग त्रिज्याओं पर होते हैं। इनमें जाइलम सदैव बाह्यआदिदारुक मिलता है अर्थात् आदिदारु परिधि की ओर तथा अनुदारु केन्द्र की ओर होता है। इन संवहन बण्डलों में प्राथमिक एधा नहीं पायी जाती। द्विबीजपत्री जड़ों में माइलम तथा फ्लोएम के मध्य बाद में, द्वितीयक एधा बन जाती है।

प्रश्न 14.

उस पौधे का नाम लिखिए जिसमें उभय फ्लोएमी संवहन बण्डल (पूल) पाये जाते हैं।

उत्तर :

आवृतबीजी पौधों के कुल कुकुरबिटेसी के पौधों जैसे काशीफल (Cucurbita maxima) आदि में उभय फ्लोएमी (bicollateral) संवहन पूल पाये जाते हैं।

प्रश्न 15

विरल दारुक तथा सघन दारुक काष्ठ में अन्तर बताइए।

उत्तर :

विरल दारुक (manoxylic) काष्ठ :

साइकस में द्वितीयक जाइलम वलयों के मध्य मृदुतक कोशिकाओं के समूह पाये जाते हैं क्योंकि इसमें द्वितीयक वृद्धि के लिए हर वर्ष नयी एधा वलय बनती है। सघन दारुक (pycnoxylic) काष्ठ-आवृतबीजी तथा अधिकांश