बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 12 जैव प्रौद्योगिकी व उसके उपयोग दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 12 जैव प्रौद्योगिकी व उसके उपयोग दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

BSEB > Class 12 > Important Questions > जीव विज्ञान अध्याय 12 जैव प्रौद्योगिकी व उसके उपयोग - दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1. जैव प्रौद्योगिकी की उपयोगिता के क्षेत्र कौन कौन से है?

उत्तर: आधुनिक काल में जैव प्रौद्योगिकी को अनेक नई विधियों जैसे—जीन स्थानान्तरण द्वारा उपयोगी गुणों की वृद्धि करते हुए पारजीनी पादप तथा पारजीनी जन्तुओं के उत्पन्न करने की दिशा में प्रगति, जीवद्रव्य संवर्धन रोगों, पीड़कों इत्यादि के प्रति प्रतिरोधी किस्में तैयार करना आदि सम्मिलित हैं। जन्तु कोशिका संवर्धन के क्षेत्र में प्राप्त उत्पादों प्रतिरोधी टोको विशेषकर विषाणु प्रतिरोधी टीको अनेक औषधियों, पुनर्योगज प्रोटीन निर्माण, संशोधित खाद्य पदार्थ जाँवों में सुधार आदि के क्षेत्र मे जैव प्रौद्योगिकी की बहुत उपयोगिता है। 

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प्रश 2. बायोपिरेसी पर संक्षिप्त निबंध लिखे। 

उत्तर: बायोपाइरेसी मल्टीनेशनल कम्पनियों व दूसरे संगठनों द्वारा किसी राष्ट्र या उससे सम्बन्धित लोगों से बिना व्यवस अनुमोदन व क्षतिपूर्ति भुगतान के जैव संसाधनों का उपयोग करना बायोपाइरेसी कहलाता है। किसी चुराई हुई जानकारों को पेटेण्ट देना नियम विरुद्ध है। यह चोरी मानी जाती है। अमेरिका द्वारा दिया गय पेटेण्ट बायोपाइरेसी के अन्तर्गत आता है। इसी प्रकार भारत की अनेक वस्तुओं, जैसे हल्दी, नीम, हरड़, आंवल अमलतास, बहेड़ा, सरसों, अदरक, अरण्ड आदि का पेटेण्ट विदेशी कम्पनियाँ प्राप्त कर रही है। अमेरिका का पेटेण्ट नियम दूसरे देशों में उपस्थिति जानकारियों, तकनीकों प्रयोगों आदि को 'पूर्व कला' नहीं मानता है। पहले से ज्ञात वस्तुओं को भी जो अमेरिका में नई ज्ञात हुई हैं को भी अमेरिका पेटेण्ट दे देता है। जब तक अमेरिका का यह नियम नहीं बदलेगा इस प्रकार की बायोपाइरेसी होती रहेगी। यद्यपि, भारत सरकार व अन्य संस्थाओं ने इस प्रकार के एकस्व के विरुद्ध आवाज उठाई है। भारत सरकार ने हल्दी के विरुद्ध पेटेण्ट रद्द भी करवा दिया है परन्तु यह एक लम्बी सूची है। भारत में जैव विविधता प्रचुर मात्रा में मिलती है, अतः यहाँ पर बायोपाइरेसी सर्वाधिक होती है। अभी भारत में पेटेण्ट के लिए जागृति की कमी है। भारतीयों को ध्यान देना होगा कि हमारे उत्पादों पर विदेशी अथवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पेटेण्ट न ले लें। इसीलिए भारत सरकार ने ऐसे संगठनों को स्थापित किया ह जैसे—आनुवंशिक अभियान्त्रिकी संस्तुति समिति जो आनुवंशिकतः रूपान्तरित अनुसंधान सम्बन्धी कार्यों की वैधानिकता तथा जन सेवाओं के लिए आनुवंशिकतः रूपान्तरित जीव जीवों के सन्निवेश की सुरक्षा आदि के बारे में निर्णय लेती है।

अनेक औद्योगिक राष्ट्र आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न है लेकिन उनके पास जैव विविधता एवं परम्परागत ज्ञान की कमी है। इसके विपरीत विकसित एवं अविकसित विश्व जैव विविधता व जैव संसाधनों से सम्बन्धित परम्परागत ज्ञान से सम्पन्न है। जैव संसाधनों से सम्बन्धित परम्परागत ज्ञान का उपयोग आधुनिक उपयोगों में किया जा सकता है। विकसित व विकासशील राष्ट्रों के मध्य अन्याय, अपर्याप्त क्षतिपूर्ति एवं लाभों की भागीदारी के प्रति भावना विकसित हो रही है। इसके कारण कुछ राष्ट्र अपने जैव संसाधनों व परम्परागत ज्ञान का बिना पूर्व अनुमति के उपयोग पर प्रतिबन्ध के लिए नियम बना रहे है। 

प्रश्न 3. जैव वेज्ञनिक नीतिक्त को समझाए। 

उत्तर: जैव वैज्ञानिक नैतिकता : 

(i) ऐसे मुद्दों में नैतिकता के साथ जैव वैज्ञानिक महत्त्व भी कम नहीं है। जीवों के आनुवंशिक रूपान्तरण से ऐसे भी अप्रत्याशित परिणाम निकल सकते है जो ऐसे रूपान्तरित जीवों को पारिस्थितिक तन्त्र में सन्निविष्ट कराने पर हो स्पष्ट हो सकें और पारिस्थितिक तन्त्रों को ही अपभ्रष्ट करने लग जायें।
(ii) अनेक व्यक्तियों का विचार है कि जन्तुओं में मानव जीनों तथा मानव में जन्तु जीनों के स्थानान्तरण से मानव की मानवीयता कम तो हो ही जायेगी अथवा समाप्त भी हो सकती है। यहाँ यह तो स्पष्ट होना चाहिए कि मानव जीन्स अन्य जन्तुओं के जीन्स से पूर्णतः भिन्न नहीं होते। इसके साथ ही मानव जीनोम में रिट्रोवाइरस जोनोम सदैव से प्राकृतिक रूप से समाकलित होते रहे हैं।

(iii) लोगों का मानना यह भी है कि जन्तुओं को भी मानव के बराबर दर्जा प्राप्त होना चाहिए फिर भी अधिकतर मानव समाजों में जन्तुओं को मानव की तुलना में बराबर मानना ठीक नहीं समझा जाता है।

अनेक लोगों का मानना है कि प्रत्येक जातिएक अलग इकाई है और इस इकाई की पहचान की अदला-बदली द्वारा नष्ट नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर तर्क दिया जाता है कि जीववैज्ञानिक जातियाँ विकासशील या परिवर्तनशील इकाइयाँ होती है।

जैव वैज्ञानिक प्रकार के ऐसे शोधों के कारण जन्तुओं को अत्यधिक कष्ट पहुंचाया जाता है एवं यातनायें दी है फिर भी कुछ लोगों का मानना है कि मानव कल्याण के लिए जन्तुओं का प्रयोग गलत नहीं है। इस विचार में जन्तुओं को केवल कार्यशाला के रूप में देखा जाता है।

प्रश्न 4. ट्रान्सजेनेसिस के महत्व बताए। 

उत्तर: आण्विक फार्मिं: - विभिन्न प्रकार की दवायें , रासायनिक पदार्थ का उत्पादन करने के लिए ट्रान्सजेनिक जन्तुओं का उपयोग करना आण्विक फार्मिंग कहलाता है। इस प्रकार आण्विक फार्मिंग औषधि उत्पादन में क्रान्तिकारी जैव प्रौद्योगिकी है जिससे अधिक मात्रा में मूल्यवान तथा महत्त्वपूर्ण औषधियाँ प्राप्त की जाती है। पारजीनी जन्तुओं के दूध, मांस, अण्डों, मूत्र आदि से महत्त्वपूर्ण प्रोटीन्स इत्यादि को पृथक कर इन्हें जैविक क्रियाओं में प्रयोग किया जाता है। अनेक ऐसे उदाहरण उपर्युक्त विवरण में प्रस्तुत किये गये हैं। जैसे-विभिन्न प्रकार के रोगों के उपचार हेतु विभिन्न प्रोटीन प्राप्त करने के लिए ट्रान्सजीनी बकरी, गाय, भेड़ों इत्यादि का उत्पादन किया जाता।

2. जैविक पदार्थों का उत्पादन ;
(i) पारजीनी भेड़ से पेड़ की अपेक्षा अधिक ऊन उत्पादित होता है।

(i) वृद्धि हॉर्मोन (rGH or hGH) जीन वाली अनेक पारजीनी मछलियों का उत्पादन किया गया है उसे कॉमन कार्य, कैटफिश, गोल्डफिश, साल्मन, तिलेपिया, रेनबोटूटि तथा जेबाफिशा यह मछलियां दोगुने बाली होती है।

(ii) मानव एल्फा लेक्टाल्ब्यूमिन जीन युक्त प्रथम पारजोनी गाय, (Rosie) का विकास किया गया। पारजीनी गायों का दूध शिशुओं के लिए अत्यधिक पोषक होता है। इसके दूध मानव प्रोटीन 2-4 ग्राम प्रति लीटर पाया गया।

(iv) पारजीनी सुअरों, भेड़ों, बकरियों आदि से अधिक नरम मांस का उत्पादन किया जाता है।

.3. रोगों और जीन उपचार का अध्ययन—अनेक पारजीनी उन्तु विशिष्ट तथ्यों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं; जैसे—अनेक जौन रोग के प्रसार में अपना योगदान करते है। इनका अध्ययन पारजोनी जन्तुओं के अध्ययन से समझने में अत्यधिक सहायता मिलती है। पारजीनी जन्तु मानव प्रतिदर्श का कार्य करते हैं; उदाहरण के लिए कैन्सर, सिस्टिक फाइब्रोसिस, रयूमेटोइड आथाइटिस, दरोगों तथा उनके उपचार की नई विधियों के विकास में सहायक होते हैं। संवर्धित स्तनधारी कोशिकाओं के ट्रान्ससेक्सन्स कैन्सर जीन की पहचान तथा जीन उपचार में अत्यधिक हुए हैं।

4. रासायनिक सुरक्षा परीक्षण—विभिन्न प्रकार की औषधियों का विषालुता परीक्षण पारजीनी जन्तुओं पर करने में सहायता मिलती है। यह परीक्षण अधिक शीघ्रता से हो जाता। है। पारजीनी जन्तुओं में मिलने वाले कुछ जीन इनको आविषालु पदार्थों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं, अपारजीनी जन्तुओं में प्रायः ऐसा नहीं पाया जाता है। 

प्रश्न 5. ट्रान्सजेनिक पादपों के कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण दीजिए। 

उत्तर: शाकनाशी प्रतिरोधी गेहूँ, मक्का, चुकन्दर व तिलहनों का उत्पादन किया जा चुका है।

(ii) नीले गुलाब, के ट्रान्सजीनी पादप उत्पन्न किये जा चुके हैं।
(iii) ट्रान्सजेनिक टमाटर बनाया गया है जहाँ पकने के लिए आवश्यक विकर की मात्रा को कम कर दिया गया। है। यह टमाटर संचयन के समय शीघ्र नहीं पकता है।

(iv) सुनहरा चावल या धान का निर्माण किया गया है जिसमें विटामिन 'ए' प्रचुर मात्रा में होती है।

(v) आलू की किस्म जिसमें 20-40% अधिक स्टार्च होता है जीवाणु जीन स्थानान्तरित करके बनायी गई है।
(vi) ट्रान्सजेनिक Bt कपास का निर्माण किया गया है। Bt, जीव विष बैसीलस यूरिनजिएन्सिस से निष्कर्षित किया गया, जो बॉलवर्मस् के प्रति प्रतिरोधी है।
(vii) तम्बाकू में पीड़कों के प्रति प्रतिरोध उत्पन्न करने के लिए CPTI (cowpea trypsin inhibitor) जीन का समावेश किया गया है।
(viii) फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीन भी समावेशित को गई इसे निफ जीन कहते हैं तथा इसमें कुल 15 जीन होती है।

प्रश्न 6. ट्रान्सजेनिक पादपों के निर्माण में TI प्लाज्मिड का उपयोग करने की तकनीक बताए। 

उत्तर:  ट्रान्सजेनिक पादपों के निर्माण में TI प्लाज्मिड का उपयोग करने की तकनीक : वितीय जीन को चैक्टीरियम ट्यूफेसिक्स को TI प्लाज्मिड में डाला जाता ह)। इसके कारण ट्यूमर लम्य अथवा क्राउन गाल बनता है। संक्रमण के समय TI प्लाज्मिड एक जीवाणु द्वारा पादप कोशिका में प्रवेश करता है। यहाँ यह पोषण करता है। इस भाग के छोटे-छोटे डिस्क काटकर संवर्धन माध्यम पर उगाये जाते है। इन कोशिकाओं के कैलस को पूर्ण पादप के रूप में विकसित करते है। ये पादप ट्रान्सजीनी पादप कहलाते है।

प्लास्मिड द्वारा जीन स्थानान्तरण के अतिरिक्त इसकी अन्य विधियाँ भी हैं; जैसे-

(i) सीधे डी०एन०ए० द्वारा जीन स्थानान्तरण 

(ii) संवर्धित कोशिकाओं व अंगों में डी०एन०ए० का माइक्रोइन्जेक्शन 

(iii) विद्युत समावेश द्वारा डी० एन०ए०

(iv) लघु प्रक्षेप बमबारी और कुछ नई पद्धतियों द्वारा 

प्रश्न 7. भ्रूण सवर्धन का वर्णन करे। 

उत्तर: भ्रूण संवर्धन– इनका वर्णन निम्नानुसार है-
1. पादपों के जीवन चक्र को कम करना - अधिकतर पतझड़ वाले फलदार वृक्षों में बीजों को सुप्तावस्था के कारण उनमें प्रजनन क्रिया करने का समय अत्यधिक लम्बा होता है। पोषक माध्यम में कायिक भ्रूणों  की वृद्धि करने से इस समय को कम किया जा सका है। रेन्डोल्फ व कोक्स (1943) ने आइरिस पौधे मे जीवन चक्र को इसी तकनीक द्वारा इस समय को 2 वर्ष से कम करके 1 वर्ष से भी कम कर दिया था। निकल (1951) ने मैलस जाति के सेव के पादप में पांच महीने से भी कम समय में लगभग मीटर लम्बे नवोद्भिद प्राप्त किए जबकि मृदा में रोपित बीजों को अंकुरण के लिए ही लगभग 9 माह लगते थे। कायिक शीर्षस्थ कलिका के संवर्धन से आलू, केला, गुलदाऊदी, ऑर्किड, कॉर्नेशन आदि का गुणन सफलतापूर्वक किया जा चुका है।
2. बीज जीवन क्षमता की शीघ्र जाँच-भ्रूण संवर्धन द्वारा बीज की जीवन क्षमता की जाँच शीघ्रता से की जा सकी है।

3. विशिष्ट पौधों का प्रवर्धन-कुछ नारियल फलों में असाधारण रूप में तरल भ्रूणपोष के स्थान पर मुलायम, ठोस, चर्बीयुक्त ऊतक विकसित हो जाता है, ऐसे नारियल फलों को मकापुनों कहते हैं। मकापुनो बहुत कम पाये जाने के कारण अत्यन्त महंगे होते हैं। इनको बीज से प्राप्त करना अत्यन्त कठिन होता है परन्तु इन्हें भ्रूण संवर्धन द्वारा सरलता से प्राप्त कर लिया जाता है।
4. विशिष्ट संकर पौधे प्राप्त करना- भ्रूण संवर्धन द्वारा पूर्ण विकसित संकर पौधे प्राप्त किये जा सकते है, जिनको अन्यथा प्राप्त करना कठिन होता है क्योंकि सभी संकरण सफल नहीं होते हैं। अय्यर व गोविल (1964) ने चावल में भ्रूण संवर्धन द्वारा अनेक अन्तर्जातीय संकर पौधे प्राप्त किये जिनको बीज द्वा में भ्रूण संवर्धन द्वारा अनेक अन्तर्जातीय संकर पौधे प्राप्त किये जिनको बीज द्वारा प्राप्त करना असम्भव था। आइनोमेटा (1967) ने द्विगुणित भैसीका वाइनेन्सिस व चतुर्गुणित वैसीका पैकीनेन्सिस को परस्पर क्रॉस किया परन्तु भ्रूणपोष के खराब होने के कारण त्रिगुणित संकर भ्रूण परिपक्व नहीं हो सके। इसके संकर भ्रूणों को लूपाइनस लूटियस के तरुण बीजों के विसारी वाले माध्यम पर वृद्धि करने पर संकर पौधे प्राप्त किये गये।

प्रश्न 8. उत्तक सवर्धन तकनीक को समझाए। 

उत्तर: ऊतक संवर्धन तकनीक इस तकनीक में कोशिकाओं, ऊतकों व अंगों को पादप से पृथक् करके ताप व प्रकाश की नियन्त्रित अवस्थाओं काँच के उपकरणों (पात्रों) आदि में उपयुक्त पोषक माध्यम पर पूतिहीन या अजर्म संवर्धन करते हैं। संबंधित भागों जिनको कि कर्त्ततक कहते हैं को सुक्रोस के रूप में ऊर्जा स्रोत, बृहत् व सूक्ष्म सत्त्व देने वाले लवण, कुछ विटामिन और ग्लाइसीन नामक अमीनो अम्ल की पोषक माध्यम में आवश्यकता होती है। वैज्ञानिकों द्वारा हॉर्मोन, यीस्ट सारसत्व, नारियल पानी और सेम बीज सारसत्व भी माध्यम में डाले जाते हैं। इस तकनीक में पादप अंगों के विभिन्न भाग या ऊतकों की असंगठित कोशिकाओं का समूह प्राप्त होता है। ऊतकों की असंगठित कोशिकाओं के समूह को कैलस कहते हैं।

स्कूग व मिलर (1950) ने यह प्रदर्शित किया कि पोषक माध्यम में उपयुक्त मात्रा में साइटोकाइनिन और ऑक्सिन मिलाने से कैलस में प्ररोह व जड़ों के बनने को अर्थात् अंग विकास को प्रेरित किया जा सकता है। अब यह निश्चित हो गया है कि ऊतक संवर्धन तकनीक में वृद्धि दर कततक के उद्गम, संयोजन और वृद्धि कक्ष की अवस्थाओं पर निर्भर करती है। माध्यम ऊतक संवर्धन को आजकल पात्रे संवर्धन भी कहते है। इसकी तीन मुख्य आवश्यकतायें होती हैं-

1. पोषक माध्यम, 2. अपूतित अवस्थायें, 3. वायु मिश्रण।
निम्नलिखित विभिन्न ऊतकों या अंगों का ऊतक संवर्धन किया गया है- परागकण व परागकोष, भ्रूण, बीजाण्डकाय, भ्रूणपोष, बीजाण्ड एवं बीज, अण्डाशय, पुष्पकलिका, पर्ण, स्तम्भ शीर्ष

प्रश्न 9. पर्यावरण संरक्षण में जैव प्रौद्योगिकी की भूमिका बताए?

उत्तर: पर्यावरण संरक्षण में जैव प्रौद्योगिकी ने प्रमुख भूमिका निभायी है, इनमें प्रमुख
1. अपशिष्ट पदार्थों विशेषकर औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों, पेट्रोलियम अपशिष्टों का उपचार एवं निष्पादना

2. जैवभार (बायोमास), इथेनॉल, बायोगैस, हाइड्रोजन, पेट्रो पादपों (ऐसे पादप जिनके हाइड्रोकार्बन द्वारा तरल ईंधन प्राप्त किया जा सकता है) द्वारा ऊर्जा उत्पादना खनिज तेलो एवं पेट्रोलियम के स्रोतों से तेल की अधिक प्राप्ति में अनेक सूक्ष्म जीवाणु अत्यधिक लाभदायक सिद्ध हुए हैं।

3. जैव रासायनिक खनन एवं खनिजों के उपचार की जैव प्रौद्योगिकीय प्रक्रियायें पर्यावरण संरक्षण में अत्यधिक लाभकारी सिद्ध हुई है। खनिजों के निष्कर्षण मे अयस्कों को उपयुक्त विलेयशील स्वरूप प्रदान करने के लिए अनेक प्रकार के जीवाणुओं का प्रयोग किया गया है साथ ही इनकी आनुवंशिकी संरचना में जीनी अभियान्त्रिकी द्वारा काफी सुधार भी किया जा चुका है। यह प्रक्रिया पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है