बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 6 वंशागति का आणविक आधार दीर्घ उतरीय प्रश्न
दीर्घ उतरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ग्रिफिथ के प्रयोग द्वारा स्पष्ट कीजिए कि डी० एन० ए० ही आनुवंशिक पदार्थ है।
उत्तर: ग्रिफिथ का ट्रान्सफॉर्मेशन प्रयोग :
ग्रिफिथ (1928) ने डिप्लोकोकस न्यूमोनों जीवाणु पर प्रयोग किये। इस जीवाणु को एक प्रकार में कोशिका भित्ति के बाहर एक चिपचिपे पदार्थ का चिकना सम्पुट होता है। हवाओं का यह प्रकार 'S' जीवाणु कहा जाता है और वह रोगजनक होते हैं। इन जीवाणुओं को अधिक समय तक संबंधित करते रहने से कुछ सम्पुट रहित जीवाणु उत्पन्न हो जाते है जिनको सतह दार होती है। इन्हें 'R' प्रकार के जीवाणु कहा गया है इस प्रकार के जीवाणु रोग उत्पन्न नहीं करते हैं। यदि S-II प्रकार के जीवाणुओं को एक चूहे में प्रविष्ट करा दिया जाये तो संक्रमित चूहे के शरीर में असंख्य S-II प्रकार के जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं और चूहे की रोग से मृत्यु हो जाती है। देखा गया है कि 'R' प्रकार के जीवाणु रोग जनक नहीं होते हैं। इसी प्रकार 'S' प्रकार के जीवाणुओं को अधिक ताप देकर मृत कर लिया जाये और चूहों में इन्जेक्ट किया जाये तो भी चूहे नहीं मरते। यदि जीवित 'R' जीवाणुओं व मृत 'S' जीवाणुओं को मिलाकर चूहे में प्रविष्ट कराते हैं तो चूहे की मृत्यु हो जाती है। ग्रिफिथ ने जब इन मृत चूहों का प्रेक्षण किया तो पता लगा कि इनमें जीवित 'S' प्रकार के जीवाणु उपस्थित होते हैं और ये जीवाणु उसी 'S' प्रकार के होते हैं जिस प्रकार के मृत 'S' जीवाणु 'R' जीवाणुओं के साथ मिलाकर चूहे में इन्जेक्ट किये जाते है। दूसरे शब्दों में यदि 'R' जीवाणु 1 प्रकार के थे और 'S' जीवाणु II प्रकार के थे तो नये जीवाणु 'S-II' प्रकार के ही होंगे। इन 'S-II' जीवाणुओं का संवर्धन किया जा सकता है और वे सदैव 'S-I'जीवाणु ही उत्पन्न करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि S-II जीवाणुओं ने R-I जीवाणुओं को S-II जीवाणुओं में परिवर्तित कर दिया।
प्रश्न 2. डी० एन०ए० बहुरूपता को समझाए।
उत्तर: डी०एन०ए० अंगुलिछापौ में डी० एन०ए० अनुक्रम में उपस्थित कुछ विशिष्ट स्थानों के मध्य विभिन्नता का पता लगाया जाता है, इसको पुनरावृत्ति डी०एन०ए० कहते हैं अनुक्रमों में डॉ० एन०ए० का छोटा भाग कई बार पुनरावृत्त होता है। इस पुनरावृत्ति डी०एन०ए० को जीनोमिक डी०एम० ए० से अलग करने के लिए विभिन्न शिखर बनते हैं। इनमें एक बड़ा शिखर तथा उनके साथ अन्य छोटे शिखर बनते हैं इन्हें अनुषंगी डी०एन०ए० कहा जाता है। क्षार घटकों, खण्डों की लम्बाई, व पुनरावृत्ति इकाइयों के आधार पर अनुषंगी, लघुअनुषंगी आदि में वर्गीकृत किया गया है। अनुक्रम सामान्यतया किसी भी प्रोटीन का कूटलेखन नहीं करते हैं, लेकिन ये मानव जीनोम के अधिकांश भाग में मिलते है। ये अनुक्रम उच्च्चश्रेणी को बहुरूपता प्रदर्शित करते हैं जो डी० एन०ए० अंगुलिछापी का आधार है।इस प्रकार बहुरूपता आनुवंशिक आधार पर विभिन्नता है जो उत्परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती है। सामान्यतया एक वंशागत उत्परिवर्तन जनसंख्या में उच्च आवृत्ति से मिलता है तो इसे डी० एन०ए० बहुरूपता कहते है। इस प्रकार के उत्परिवर्तन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में एकत्रित होते रहते हैं जिसके फलस्वरूप विभिन्नता/बहुरूपता उत्पन्न होती है। इस प्रकार के उत्परिवर्तन एक या अधिक न्यूक्लियोटाइड्स में अथवा काफी विस्तृत प्रकार के होते हैं। ये बहुरूपताये जाति उद्भवन तथा जाति के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
प्रश्न 3. मानव जीनोम की मुख्य विशेषतायें बताए।
उत्तर: मानव जीनोम परियोजना से प्राप्त विशेष प्रेक्षण निम्नवत है-
(i) मानव जीनोम में 3164.7 करोड़ क्षारक मिलते हैं।
(i) प्रत्येक जीन में औसतन 3000 क्षारक स्थित है जिनके आकार-प्रकार में अधिक विभिन्नतायें है। मनुष्य को ज्ञात सबसे बड़ी जीन डिस्ट्रॉफिन में 2.4 करोड़ क्षारक मिले हैं।
(iii) जीन की संख्या 30,000 है जो पहले को अनुमानित संख्या (80,000 से 140,000) से काफी कम है। लगभग सभी (99.9 प्रतिशत) लोगों में मिलने न्यूक्लियोटाइड्स क्षारक एक समान है।
(iv) अब तक खोजी गई 50 प्रतिशत से अधिक जीन्स के कार्यों के बारे में जानकारी प्राप्त हो चुकी है।
(v) दो प्रतिशत से कम जीनोम प्रोटीन का कूटलेखन करते हैं।
(vi) मानव जीनोम के बहुत बड़े भाग का निर्माण पुनारावृत्ति अनुक्रम द्वारा होता है।
(vii) पुनरावृत्ति अनुक्रम डी० एन०ए० के फैले हुए भाग हैं जिनकी कभी-कभी सौ से हजार बार पुनरावृत्ति होती है। जिनके बारे में यह विचार है कि इनका सीधा कूटलेखन में कोई कार्य नहीं है लेकिन इनसे गुणसूत्र की संरचना, गतिकीय व विकास के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
(viii) गुणसूत्र X में सर्वाधिक जीन (2968) व Y गुणसूत्र में सबसे कम जीन (231) मिलते हैं।
(ix) वैज्ञानिकों ने मानव में लगभग 1.4 करोड़ स्थानों पर स्निप या एकल न्यूक्लियोटाइड बहुरूपता का पता लगाया। उपर्युक्त जानकारी से गुणसूत्रों में उन स्थानों जो रोग आधारित अनुक्रम मानव इतिहास का पता लगाने में सहायक है के बारे में जानकारी एकत्र करने में अत्यधिक सहायता मिली है।
प्रश्न 4. मानव जीनोम परियोजना के लक्ष्य बताए।
उत्तर: इस परियोजना के प्रमुख लक्ष्य उद्देश्य) निम्नलिखित है-
1. ह्यूमैन जीनोम के सम्पूर्ण रूप से मनत्रण तथा अनुक्रमीकरण द्वारा [3] विलियन साइट्रोजनी क्षारक युग्मों के अनुक्रमों का निर्धारण तथा इसकी जानकारी से के द्वारा मानव स्वास्थ्य में योगदान ही इस महत्त्वपूर्ण परियोजना का परम लक्ष्य है।
2. इस परियोजना के अन्तर्गत अध्ययन द्वारा ऐसी भी सम्भावनायें हैं कि भविष्य में मनुष्य में पाये जाने अद्भुत जीन व उनके कार्यों का पता चल सकेगा, जिनके फलस्वरूप मनुष्य में आनु अनियमितताओं के विषय में अधिकाधिक जानकारी उपलब्ध हो सकेगी। ऐसा अध्ययन अन्तः प्रजनन वाले मैं विशेष रूप से आवश्यक है. क्योंकि वैवाहिक प्रथा में दोषमुक्त जीन अपने आपको प्रदर्शित कर देते
3. आनुवंशिक सहलग्न मानचित्रण द्वारा आनुवंशिक अनियमितता समुदा उत्पन्न रोगी की जानकारी हो सकेगी।
4. इस परियोजना के अन्तर्गत विभिन्न रोगो, स्व-प्रतिरक्षा या असंक्राम्यता तथा मानसिक रोगी के विषय में परपोषी (host—जिस व्यक्ति में ये रोग होते हैं) की आनुवंशिकी के योगदान का अध्ययन सम्भव हो सकेगा।
5. इस परियोजना के अन्तर्गत आणविक स्तर पर मानव जीनोम का मानचित्रण अनुक्रमण एक नवीन मानव शारीरिकी अध्ययन है।
6. अनेक जाँवो के जीनोम चित्रण तैयार करना; जैसे—जीवाणु, शैवाल, मक्खी, चूहा आदि। ताकि इनके चित्रण से मनुष्य के जीनोम चित्रण में लगने वाले समय का ज्ञान हो सकेगा।
7. विभिन्न जातियों के विकास के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की करना।
8. समजात क्रमो में उच्च संरक्षित जोनो की पहचान करना।
प्रश्न 5. प्रोटीन्स द्वारा जीन क्रिया का नियमन किस प्रकार से होता है?
उत्तर: सुकेन्द्रकियों में DNA से सम्बन्धित क्षारकीय प्रोटीन्स-हिस्टोन्स तथा अम्लीय प्रोटीन्स नॉन हिस्टोन्स जीन प्रकटन की क्रिया का निम्नवत् नियमन करते हैं-
(i) ये केन्द्रक में DNA हिस्टोन व प्रोटएमीन जैसे क्षारीय प्रोटीन्स के साथ सम्बन्धित होते हैं। ये क्षारीय
प्रोटीन्स निम्नलिखित प्रकार से दमनकारी का कार्य करते हैं-
(क) ये DNA से मिलकर गुणसूत्र के कुण्डलन में वृद्धि करती हैं। हिस्टोन प्रोटीन्स DNA के पराकुण्डलन द्वारा उसे अति संघनित करके निष्क्रिय बना देती है। गुणसूत्रों (या DNA) के सक्रिय जीन्स वाले धागों को यूक्रोमैटिन तथा निष्क्रिय जीन्स वाले भागों को हेटरोक्रोमैटिन कहते हैं। हेटेरोक्रोमैटिन का कुछ भाग स्थाई रूप से निष्क्रिय होता है। इसके शेष भाग में, वातावरणीय परिवर्तनों के लिए कोशिकाओं की प्रतिक्रियाशीलता को बनाये रखने हेतु, जीन्स को आवश्यकतानुसार सक्रिय का निष्क्रिय करने को क्षमता होती है। निष्क्रिय जीन्स को सक्रिय बनाने में नॉनहिस्टोन प्रोटीन्स का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है, क्योंकि ये हिस्टोन प्रोटीन्स को निष्क्रिय करके क्रोमैटिन को अकुण्डलित कर देती है।
(ख) ये DNA के दोनों सूत्रों के पृथक्करण को रोकते हैं।
(ग) ये RNA पॉलीमरेज की क्रियाशीलता को रोकते हैं।
(ii) अम्लीय प्रोटीन्स DNA अणु के कुण्डलों (सूत्रों) के पृथक्करण को रोककर DNA को स्थिरता प्रदान करते हैं।
प्रश्न 6. लैकऔपेरॉन की संरचना एवं व्यवस्था को समझाए।
उत्तर:औपेरॉन पास-पास स्थित संरचनात्मक जोनी और उनसे सम्बन्धित जोनों का एक ऐसा समूह होता है जो कोशिका में आनुवंशिक रूप से नियन्त्रित कोशिकीय उपापचयका नियमन करता है। ओपेन की संरचना में निम्नलिखित दोनों के जोन भाग लेते है
1. संरचनात्मक जीन—ये जीन DNA के उन खण्डों को निरूपित करते हैं जिन पर प्रोटीन संश्लेषण हेतु निर्देश कोवित रहते हैं। ये जीन प्रोटीन संश्लेषण के साथ अमीनो अम्लों के अनुक्रम को नियन्त्रित करके पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला की प्राथमिक संरचना का निर्धारण करते हैं। चूंकि यहाँ रज्जुक विपरीत ध्रुवत्य की और होते हैं इसलिए डी० एन०ए० निर्भर आर० एन० ए० पॉलीमरेज बहुकलन केवल एक दिशा 5 से 3 की ओर उत्प्रेरित होते हैं। अनुलेखन के समय यह स्थानान्तरित हो जाता है इसे कूट लेखन रज्जुक कहते हैं। दूसरा रज्जुक 32–5' टेम्पलेट केरूप में कार्य करता है। इसे टेम्पलेट रज्जुक कहते हैं।
2. नियन्त्रक जीन- ये जीन प्रेरण या संदमन द्वारा सरचनात्मक जोनों की सक्रियता का नियमन करते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं-
नियामक जीन- यह DNA का वह भाग है जो एक विशिष्ट प्रकार का दमनकारी शाम (प्रोटीन) स्वावित करता है। लैक ओपेरॉन जीन में एक ऐसे प्रोटीन का निर्देश कोडित रहता है जो प्रचालक जैन को सक्रियता को संदर्भित करता है।
प्रोत्साहक जीन-यह DNA का वह भाग है जहाँ पर RNA - पॉलीमरेज बन्धित होता तथा संरचनात्मक जीनो के अनुलेखन को प्रारम्भ करता है। नियामक एवं संरचनात्मक जीनों के अपने-अपने प्रोत्साहक होते है।
प्रचालक जीन– यह DNA का यह भाग है जो संरचनात्मक जीन से mRNA के अनुलेखन (अनुवादन) का नियन्त्रण करता है और उसके समीप स्थित होता है। नियामक जीन द्वारा उत्पन्न मनकारी प्रोटीन प्रचालक जोन से जुड़कर इसको निष्क्रिय कर देता है। फलस्वरूप संरचनात्मक जीन का अनुलेखन एक जाता है।
प्रश्न 7. आनुवंशिक कूट की विशेषतायें समझाए।
उत्तर: आनुवंशिक कूटों को प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित है-
1. त्रिक कोड—आनुवंशिक कूट का प्रत्येक कोडोन mRNA के तीन नाइट्रोजनी क्षारकों के एक विशिष्ट अनुक्रम का बना होता है।
2 कामाविहीन — दो संलग्न फोडोनों के मध्य विन्दुगत या काँसा नहीं होता है। ये लगातार जब श्रृंखला समाप्त होती है उस स्थान पर समापन कूट आ जाता है। ये कट किसी भी अमीनो अम्ल को को नहीं करते हैं। ये कूट हैUAA uAG, UGA इन्हें निरर्धक कोडोन भी कहते है।
3. संदिग्धता - कोशिकीय माध्यम में आनुवंशिक कूट की उपस्थिति निश्चित रूप से असंदिग्ध क्योंकि एक विशिष्ट कोडोन सदैव एक ही अमीनो अम्ल को कोडित करता है (एक ही कोडोन दो भिन्न अमीनो उन्नी को कोडित नहीं करता है) किन्तु असामान्य परिस्थितियों में कुछ कोडोन को भिन्न प्रकार के अमीनो अम्लों कोडित करते हुए देखा गया है; जैसे ई० कोलाई (E Coli) मे।
4. कोडों का अनतिव्यापन: कोड का अनतिव्यापी होने का तात्पर्य है कि एक mRNA अणु में एक ही क्षारक अक्षर के प्रयोग को विभिन्न कूटों में प्रयोग नहीं किया जाता है अर्थात् AUC GUC को केवल AUU तथा GUU के रूप में ही प्रयुक्त किया जाएगा। इसे AUC तथा GUC के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।
5. कोड की सार्वत्रिकता– आनुवंशिक कूट विषाणुओं, जीवाणुओं तथा एककोशिकीय एवं बहुकोशिकीय जीवो आदि सभी में समान रूप से पाया जाता है।
6. कोड का अपह्रास—अधिकतर अमीनो अम्लों को एक से अधिक कोडोन द्वारा इड श्रृंखला में विशिष्ट स्थानों की ओर निर्देशित किया जा सकता है। इस विधि को अपहासित विधि कहते हैं। यह जीवो को हानिकारक उत्परिवर्तनों से सुरक्षा प्रदान करती है; जैसे—AGA, AGG, CGA सभी आर्जिनीन के कूट है।उत्परिवर्तन द्वारा एक क्षारक में परिवर्तन हो जाने के बाद भी आर्जिनीन की हो श्रृंखला में जाएगा।
7. सरेखता – DNA तथा mRNA तथा पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला में संगत अमीनो अम्लों के अवशेषो रेखित विन्यास की जानकारी प्राप्त हुई है। इससे आनुवंशिक कूट की सरेखता का पता चलता है।
8. समारम्भ कोडोन तथा समापन कोडोन- 64 कोडोनो में से एक समारम्भ कोडोन - AUG होता है और तोन समापन कोडोन -UAA, UAG व UGA होते हैं। ये क्रमश: पॉलीपेप्टाइड मुखला को प्रारम्भ करने और उसका समापन करने से सम्बन्धित होते हैं।
प्रश्न 8. यूक्लियक अम्लों की संरचना को विस्तार से समझाए।
उत्तर: न्यूक्लिक अम्ल (डी०एन०ए० तथा आर०एन०ए० ) काफी बड़े अणु होते हैं। ये अति लम्बी श्रृंखला के रूप में एकलकइकाइयों से बने बहुलक होते हैं। एकलको को न्यूक्लियोटाइडस कहते हैं अर्थात् न्यूक्लियक अम्ल का एक अनेक न्यूक्लियोटाइड्स के श्रृंखलाबद्ध होने से बनता है। DNA में इन शृंखलाओं की संख्या दो किन्तु RNA में सामान्यतः एक ही होती है। प्रत्येक एक अणु DNA वा RNA मे लाखो न्यूक्लियोटाइड्स हो सकते हैं। इस प्रकार, एक DNA वा RNA अणु लम्बी श्रृंखला या श्रृंखलाओं के रूप में होता है जो, पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखलायें होती हैं। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड भी जटिल संरचना अणु हैं, जो कार्बन (C), ऑक्सीजन (O), नाइट्रोजन (N), हाइड्रोजन (H) तथा फॉस्फोरस (P) के बने होते हैं। ये सूचना स्थानान्तरण तन्त्र के भाग होते हैं। तथा ऊर्जा स्थानान्तरण तन्त्र में भाग लेते हैं। ये तीन प्रकार के अणुओं से मिलकर बने होते हैं। ये अणु निम्नलिखित हैं-
1. पेण्टोज शर्करा
2. फॉस्फेट
3. नाइट्रोजन क्षारक या बेस
1. पेण्टोज शर्करा—ये पाँच कार्बन परमाणुओं से बनी बन्द श्रृंखला के रूप वाली शर्करा होती हैं। पेण्टोज शर्करायें न्यूक्लियक अम्लों में दो प्रकार की पायी जाती हैं
(i) राइबोस (ribose) जो RNA होती है तथा (ii) डीऑक्सीराइबोस (deoxyribose) जो DNA में होती है। डीऑक्सीराइबोस शर्करा के एक अ में राइन अपेक्षा उसके दूसरे कार्बन (2C) पर एक परमाणु ऑक्सीजन की कमी होती है।
2. फॉस्फेट या फॉस्फोरिक अम्ल
3. नाइट्रोजन क्षारक - नाइट्रोजन क्षारक निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-
(क) प्यूरी
(ख) पिरीमिडीन
1. (क) प्यूरीन क्षारक – इनमें दो बन्द श्रृंखलायें होती है। न्यूक्लिक अम्लों में ये दो प्रकार के होते हैं-
(i) एडीनीन तथा
(ii) ग्वानीन
दोनों ही प्रकार के नाइट्रोजन क्षारक दोनों प्रकार के न्यूक्लिक अम्लों (DNA तथा RNA) के संगठन में भाग है।
(ख) पिरीमिडीन क्षारक– न्यूक्लियक अम्लों में ये कुल तीन प्रकार के दीन क्षारक पाये जाते हैं जिनमें एक रिंग ही पाया जाता है-
(i) साइटोसीन,
(ii) थाइमीन
(iii) यूरेसिल
प्रश्न 9. डीएनए अणु की कुछ मुख्य विशेषताए व संतचना का वर्णन करे?
उत्तर: 1. DNA का अणु न्यूक्लियोटाइड्स से बनी दोन्यूक्लियोटाइड श्रृंखलाओं अथवा कुण्डलों से मिलकर बनता है।
2. कुण्डलों में, स्तम्भों या सूत्रों की रचना प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड के डीऑक्सीराइबोस शर्करा तथा फॉस्फेट मूलक के द्वारा होती है। फॉस्फेट मूलक श्रृंखला के अन्दर शर्करा के तीसरे तथा पाँचवे कार्बन परमाणु के साथ जुड़े होते हैं।
3. सीढ़ी के पगदण्डों की रचना नाइट्रोजन क्षारको के एक जोड़े से होती है। प्रत्येक जोड़े में एक प्यूरीन और दूसरा पिरीमिडीन क्षारक होता है।
4. एडीनीन प्रकार का प्यूरीन क्षारक केवल थाइमीन प्रकार के पिरीमिडीन क्षारक के साथ तथा ग्वानीन प्रकार का प्यूरीन क्षारक केवल साइटोसीन प्रकार पिरोमिडीन क्षारक के साथ ही बन्धनयुक्त हो सकता है किसी अन्य के साथ नहीं।
5. नाइट्रोजन क्षारकों में से प्यूरीन क्षारक अपने नवे कार्बन स्थान से तथा पिरीमिडीन क्षारक अपने तीसरे कार्बन (3C) स्थान स डीऑक्सीराइबोस शर्करा के प्रथम कार्बन (I'C) के साथ जुड़ा होता है।
6. इस प्रकार, दोनों कुण्डलित श्रृंखलाओं में एक श्रृंखला का क्षारक क्रम दूसरी श्रृंखला का पूरक होता है
7. एक पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला में फॉस्फेट मूलक के द्वारा न्यूक्लियोटाइड्स की शर्करा के साथ जुड़े होने का क्रम तीसरे में पांचवें कार्बन की ओर होता है। दोनों श्रृंखलाओं में से एक का क्रम अगर 3से 5 है तो दूसरी श्रृंखला में यह क्रम 5 से 3 होगा अर्थात् दिशा विपरीत होगी।
प्रश्न 10. विभिन्न प्रकार के आर०एन०ए० तथा उनके कार्य का वर्णन करे।
उत्तर सामान्यतः आर०एन०ए० आनुवंशिक पदार्थ नहीं है अर्थात् आर०एन०ए० सामान्यतः अआनुवंशिक होता है। परन्तु कुछ पादप विषाणुओं का आर० एन०ए० आनुवंशिक पदार्थ होता है और यह प्रायः आनुवंशिक सूचना के वाहक का कार्य करता है।
अआनुवंशिक आर०एन०ए० (non-genetic RNA) अणु तीन प्रकार के होते हैं जो, कोशिकाद्रव्य में पहुंचकर तीन प्रकार के प्रमुख कार्य करते हैं अतः इनका नाम भी उसी आधार पर रखा जाता है-
1. राइबोसोमल आर०एन०ए० (r-RNA ) – यह राइबोसोम्स के निर्माण में भाग लेता है और एक राइबोसोम का लगभग 65% भाग बनाता है। इसी कारण इसे राइबोसोमल आर०एन०ए० कहते हैं। इस प्रकार के आर० एन०ए० अणु अपने आप पर लिपटने तथा हाइड्रोजन बन्धों के द्वारा जुड़ जाने के कारण कुण्डल बनाते है। यह कोशिका में उपस्थित कुल RNA का लगभग 80% भाग होता है तथा तीनों प्रकार के RNA में सर्वाधिक समय तक क्रियाशील रहता है। इस प्रकार के RNA पूर्व केन्द्रकीय एवं सुकेन्द्रकीय राइबोसोम्स में अलग-अलग प्रकार के होते हैं; जैसे-पूर्व केन्द्रकीय राइबोसोम (705) में 505 की बड़ी उपइकाई में 235 तथा 5S rRNA एवं 305 उपइकाई में 16S RNA होते हैं। 55 RNA में केवल 120. 165 RNA में 1542 तथा 235 RNA में 2904 न्यूक्लिओटाइड्स पाये जाते हैं। इसी प्रकार सुकेन्द्रकीय राइबोसोम्स ((805) की बड़ी उपइकाई (605) 285, 5.85 तथा 55, जबकि छोटी (405) उपइकाई में 185 RNA होता है। SS RNA में 120, 5.85 RNA में 160, 185 RNA में 1874 और 285 RNA में 4718 न्यूक्लिओटाइड्स पाये जाते हैं।
2. स्थानान्तरण या अन्तरण आर०एन०ए० (t-RNA)—कुछ आर०एन०ए० अणु मुक्त रूप से कोशिकाद्रव्य में रहते हैं और परिमाप में अपेक्षाकृत सबसे छोटे होते हैं। यह स्थानान्तरण या अन्तरण आर०एन०ए० (transfer RNA or t-RNA) कहलाते हैं, इन्हें विलेय आर०एन०ए० भी कहते हैं। इनका प्रमुख कार्य अमीनो अम्ल के अणुओं को पकड़कर लाना तथा अन्य प्रकार के आर०एन०ए० अणुओं की सहायता से उन्हें जोड़कर प्रोटीन संश्लेषण के महत्त्वपूर्ण कार्य में सहायता करना होता है। ये कोशिका में उपस्थित कुल आर० एन०ए० का 15-18% होते हैं।
3.संदेशवाहक आर०एन०ए० - आर० एन०ए० अणु लम्बी श्रृंखला के रूप में होते है डी०एन०ए० (DNA) पर उपस्थित कोड्स को नकल करके लाते हैं। प्रत्येक कोडॉन में और क्षारक होते हैं। इस प्रकार ये संकेत सूचनाओं को संदेशवाहक के रूप में लेकर कोशिकाद्रव्य में पहुंचाते हैं और राइबोसोम्स के आधार पर प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करते हैं। इसी कारण संदेशवाहक आर०एन०ए० (messenger RNA or m-RNA) कहते हैं। ये कोशिका में उपस्थित कुल आर० एन०ए० 3-5% हो होते हैं किन्तु इनका आणविक भार 500,000 से 2,000,000 होता है।