बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 9 खाद्य उत्पादन मे वृद्धि की कार्यनीति दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 9 खाद्य उत्पादन मे वृद्धि की कार्यनीति दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

BSEB > Class 12 > Important Questions > जीव विज्ञान अध्याय 9 खाद्य उत्पादन मे वृद्धि की कार्यनीति - दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1. ऊतक संवर्धन तकनीक की मूलभूत आवश्यकताये कौन कौन सी है?

इस तकनीक के लिए प्रयोगशाला में विभिन्न मूलभूत आवश्यकतायें है मिट्टी की जगह विभिन्न रासायनिक तत्वों से बना पोषक माध्यम, पानी की जगह आसुत जल तथा गमलों के स्थान पर परखनली अथवा फ्लास्क काम में लाये जाते हैं।

1. विशिष्ट पोषक माध्यम- एक उन्नत प्रयोगशाला जहाँ पर विशिष्ट पोषक माध्यम जो पौधों को उचित आहार प्रदान कर सके तथा यह कीटाणु रहित हो। पोषक माध्यम कार्बन स्त्रोत: जैसे-सुक्रोज, अकार्बनिक लवण, विटामिन, अमीनों अम्ल तथा वृद्धि नियन्त्रक (ऑक्सिन, सायटोकाइनिन आदि) प्रदान करते हैं। नारियल का पानी सामान्यतः प्राकृतिक रूप से मिलने वाला उत्तम पोषक माध्यम है।

2. स्थानान्तरण कक्ष यह एक कक्ष है, जहाँ पर कि पौधों के विभिन्न अंगों को परखनली अथवा फ्लास्क के माध्यम पर रखा जा सके। इस कक्ष में अल्ट्रा वायलेट लैम्प होता है तथा यह कक्ष पूर्णरूपेण कीटाणु रहित होना आवश्यक है।

3. संवर्धन कक्ष—यहां पर पौधों को लम्बी अवधि के लिए रखा जाता है। इस कक्ष में सामान्यतया 30000 लक्स प्रकाश की व्यवस्था, तापक्रम कम ज्यादा करने का उपकरण तथा समय को नियन्त्रित करने को उचित व्यवस्था होती है। जिसमें नये विकसित होने वाले पौधों को प्रकाश तथा अन्धकार में रखने का निश्चित समय वाला मापदण्डयुक्त उपकरण लगा हो।

4. ग्रीन हाऊस - प्रयोगशाला से निकले विकसित पौधों को धीरे-धीरे कीटाणुरहित मिट्टी अथवा पिटमोस में रखने की व्यवस्था, तापक्रम कम करने, नमी बनाये रखने के लिए पानी के छिड़काव वाला यन्त्र तथा सूर्य के प्रकाश से बचाव की व्यवस्था।

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प्रश्न 2. फसल की नयी आनुवंशिक प्रजाति के प्रजनन के मुख्य पद कौन कौन से है?

उत्तर: 1. जनन द्रव्य का संग्रहण— विभिन्न फसलों में पूर्ववर्ती आनुवंशिक परिवर्तनशीलता उन्हें अपनी जंगली प्रजातियों से प्राप्त होती है। इन जंगली किस्मों, प्रजातियों, तथा कृष्य प्रजातियों के सम्बन्धियों का संग्रहण एवं परिरक्षण तथा उनके अभिलक्षणों का मूल्यांकन उनके समष्टि में उपलब्ध प्राकृतिक जोर के प्रभावकारी समुपयोजन के लिए पूर्वापेक्षित होता है। फसल में उपस्थित सभी जीन्स के विविध एलीलों का संग्रहण ही जननद्रव्य का संग्रहण कहलाता है।

2. जनकों का मूल्यांकन तथा चयन - जनन द्रव्य का मूल्यांकन करके वांछित संयोजनों का निर्धारण किया जाना आवश्यक है।

3. चयनित जनकों के मध्य संकरण)—वांछित गुणों के निर्धारित संयोजनों के मध्य संकरण कराया जाना आवश्यक नहीं है कि वांछित गुण (लक्षण) प्राप्त करने के लिए एक ही संकरण में सफलता प्राप्त हो जाये। कभी-कभी हजारों संकरण करने पर एक वांछित लक्षण प्राप्त हो पाता है।

4. श्रेष्ठ पुनर्योगज का चयन तथा परीक्षण —संकरों की संतति के मध्य से वांछित लक्षण वाले पादपों का चयन करना। अतः संतति का वैज्ञानिक मूल्यांकन आवश्यक होता है। इनका कई पीढ़ियों तक स्वपरागण करते हैं जब तक कि समरूपता की अवस्था नहीं आ जाती (समयुग्मजता) ताकि संतति में लक्षण विसंयोजित नहीं होने पाये।

5. नयी उपजों का परीक्षण, निर्मुक्त होना तथा व्यापारीकरण)—नव चयनित वंशक्रम का उनकी गुणवत्ता के आधार पर मूल्यांकित करना, पौधों को अनुसंधान वाले खेतों में जहाँ उन्हें आदर्श तथा उचित अवस्थायें / व्यवस्थायें प्राप्त हो रही हो, वहाँ पैदा किया जाता है तथा उनमें वांछित गुणों का मूल्यांकन किया जाता है। अनुसंधानिक खेत में मूल्यांकन के बाद पौधों का परीक्षण देश भर में किसानों के खेतों में कई स्थानों पर कम से कम तीन ऋतुओं तक किया जाता है। इन स्थानों में सभी शस्य खंडों का निरूपण होना चाहिए, जहाँ सामान्यतः खेती होती है। इसके बाद ही उन्हें आम उपयोग के लिए नियुक्त किया जाता है।

प्रश्न 3. हरित क्रांति की लाभ व हानिया बताए। 

उत्तर: हरित क्रान्ति की उपलब्धियों: 

1. खाद्यानों के अपादन बढ़ने से देश का आत्मनिर्भर होना ही नहीं निर्यात के लिए भी अनाज का उपलब्ध होना।

2. के भविष्य के लिए भरपूर भण्डारण की उपलब्धता।

3. आप बढ़ने से किसानों के रहन-सहन स्तर में परिवर्तन।
4. अनेक उद्योगों के लिए कच्चे माल की उपलब्धता के साथ अनेक उद्योगों के विकास में प्रोत्साहन जैसे उर्वरक उद्योग: अत: रोजगार के अवसरों में वृद्धि।

5. वैज्ञानिक उपलब्धियों, प्रौद्योगिकी का विकास।

हरित क्रान्ति की हानियाँ: 

1. रसायनों के अधिक प्रयोग से पारिस्थितिक असन्तुलन में वृद्धि (प्रदूषण)।

2. मृदा की उर्वरा शक्ति में कमी।

3. खाद्य श्रृंखलाओं के विभिन्न पोषी स्तरों में विषाक्त पदार्थों का बढ़ना तथा इन स्तरों के जीवों को हानि होती है। 

4. जल स्रोतों में विषाक्त पदार्थों में वृद्धि साथ ही प्राकृतिक स्रोतों का उन्मूलन।

प्रश्न 4. संकर ओज को परिभाषित करे। 

उत्तर: संकर ओज:  दो विभिन्न प्रकार के पौधों में संकरण कराकर कोई उत्तम गुण, जैसे बीज, फल या फूल का आकार, स्वाद या शीघ्र तैयार होने की क्षमता का विकास करना संकर ओज कहलाता है। इस प्रकार, दो प्रजातियों के क्रॉस से उत्पन्न संकर पौधों में अपने जनक पौधों से अधिक वृद्धि तथा उत्तम गुणों का विकास होता है। संकर ओज को "गुण उच्चता" भी कहा जाता है।

यह फसल समुन्नति की प्रक्रिया है जिसमें 'गुण उच्चता की जाती है। लेकिन यह गुण उच्चता स्थाई नहीं होती। इसलिए अभिजननकर्ता को सदैव यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि आवश्यकता होने पर पुनः संकरण द्वारा पांति गुण विकसित किये जा सके वनस्पति सम्वर्धन से उत्पन्न पौधों में संकर ओज लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न पौधे की अपेक्षा अधिक दिनों तक बना रहता है।

संकर ओज की क्रिया- इसमें ऐच्छिक गुणों वाले पौधों का चयन करके इनका उन पौधों से परपरागण कराते है जिनमें नर नपुंसकता हो अथवा स्वयंपरागण वाले पौधों में स्वयं वैज्ञानिक द्वारा परागण कराया जाता है। इस क्रिया में यह सावधानी रखी जाती है जोकि उसी पुष्प के परागकणों से मादा का परागण न हो जाये।

प्रश्न 5. पशुपालन का महत्त्व बताए।

उत्तर: पशुओं का इस सृष्टि में आदि काल से विशेष महत्त्व रहा है। मानव जीवन तथा सम्पूर्ण पर्यावरण पशुओं के बिना अधूरा है।
पशुपालन से मानव को निम्नलिखित लाभ होते हैं-
1. दूध की प्राप्ति – पशुओं से ही हमें दूध प्राप्त होता है जो हमारे जीवन के लिए अति आवश्यक है। बच्चों के लिए यह एक सम्पूर्ण भोजन है। इससे हमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, शर्करा, खनिज लवण तथा विटामिन प्राप्त होते हैं। बच्चों के लिए तो गाय का दूध सर्वोत्तम माना जाता है। भैंस तथा बकरी का दूध भी अच्छा रहता है।

2. कृषि में पशुओं का उपयोग- हमारा देश कृषि प्रधान देश है और औसत जोत भी छोटी है। यहाँ की लगभग 80% जनसंख्या कृषि उद्योग से जुड़ी हुई है। हमारी कृषि अधिकतर पशुओं पर ही आधारित है जैसे खेत की जुताई, बुवाई, मंडाई, ढुलाई, सिंचाई आदि सभी कार्यों में पशु ही काम आते हैं। आजकल कृषि कार्यों में बैल, भैसे. ऊँट आदि पशुओं का ही उपयोग किया जाता है। ट्रैक्टर आदि की संख्या तो बहुत ही कम है।

3. जैविक खाद की प्राप्ति-जीवांश खाद हमारी खेती के लिए बहुत ही उपयोगी है। पशुओं का गोबर एवं मूत्र, गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट के रूप में तैयार करके फसलों का अच्छा उत्पादन लेने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। जिस कृषक के पास जितने अधिक पशु होंगे, उतना ही अधिक जीवाश खाद प्राप्त हो सकेगा।

4. जीविकोपार्जन का साधन - आज प्रत्येक किसान को बच्चों को पढ़ाने, चिकित्सा, वस्त्र आदि के लिए हर माह पैसे की जरूरत पड़ती रहती है। अब अधिकांश कृषक डेरी के रूप में पशुपालन करने लगे हैं। आवश्यकता से अधिक दूध बेचकर अपना जीवन यापन करने के लिए वे नकद पैसा कमा रहे है। इस प्रकार अपने जीवन की आवश्यआवश्यकताओं को पूरा कर लेते हैं।

5. रोजगार की प्राप्ति- पशुपालन तथा डेरी उद्योग से देश के काफी लोगों को रोजगार उपलब्ध हो रहा है। यह उद्योग गांव में बेरोजगारी की समस्या का काफी हद तक निदान कर रहा है।

6. राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान - पशुधन देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं। जहां ये कृषि कार्यों, दुग्ध उत्पादन आदि कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाते है वहीं इनसे प्राप्त चमड़ा, ऊन, हड्डियाँ आदि कई बड़े उद्योगों को चलाने के काम आते हैं। चमड़ा तथा ऊन उद्योग से तो प्रत्येक वर्ष देश को काफी मात्रा में विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।

प्रश्न 6. अंतप्रजन्न व बहीप्रजनन को परिभाषित कीजिए। 

उत्तर: अन्तः प्रजनन - अन्तः प्रजनन का अर्थ एक ही नस्ल के अधिक निकटस्थ पशुओं के मध्य 4-6 पौड़ी तक प्रसंग होना है। एक नस्ल से उत्तम किस्म का नर तथा उत्तम किस्म की मादा का पहले चयन किया जाता है तथा जोड़ों में उनका प्रसंग कराया जाता है। ऐसे प्रसंग से जो सन्तति उत्पन्न होती है, उस सन्तति का मूल्यांकन किया जाता है तथा भविष्य में कराये जाने वाले प्रसंग के लिए अति उत्तम किस्म के नर तथा मादा की पहचान की जाती है पशुओं में श्रेष्ठ मादा, चाहे वह गाय अथवा भैंस हो, प्रति दुग्धीकरण पर अधिक दूध देती है। दूसरी ओर, सांड़ों में श्रेष्ठ अन्य नरों की तुलना में श्रेष्ठ किस्म की संतति उत्पन्न कर सकते हैं।

अन्तः प्रजनन समयुग्मता को बढ़ावा देता है। इस प्रकार यदि हम किसी भी प्रकार के पशु में शुद्ध वंशक्रम विकसित करना चाहते हैं तो अन्तः प्रजनन आवश्यक है। यह श्रेष्ठ किस्म के जीन्स के संचयन में तथा कम वांछनीय जीन्स के निष्कासन में सहायता प्रदान करता है। अतः यह तरीका, जहाँ प्रत्येक पद पर चयन हो, वहाँ अन्तःप्रजात व्यष्टि की उत्पादकता बढ़ाती है। यद्यपि अन्तः प्रजनन यदि लगातार बना रहे विशेषकर निकट अन्तः प्रजनन तो जनन क्षमता और यहाँ तक कि उत्पादकता घट जाती है। इसे अन्तःप्रजनन अवसादन कहते हैं।

(ख) बहिः प्रजनन - बिना किसी संबंध वाले पशुओं के मध्य होने वाला प्रजनन ही बहिः प्रजनन होता है। इसमें एक नस्ल की जिनका पूर्वज समान न हो अथवा भिन्न-भिन्न नस्लों अथवा भिन्न प्रजातियों के मध्य प्रसं कराना सम्मिलित है।

प्रश्न 7. उत्तक सवर्धन के उपयोग पर टिप्पणी दे। 

उत्तर: प्रकृति ने पौधों को विभिन्नतायें प्रदान की है, तो सबसे बड़ी विशेषता भी प्रदान की है कि इनकी कोई कोशिका तथा अंग स्वयं इतना सक्षम है कि वो एक नये पौधे को जन्म दे सके, इसके लिए नियन्त्रित व्यवस्था तथ समुचित देखभाल की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म संवर्धन प्रयोगों द्वारा पौधों की संख्या में बढ़ोतरी प्रयोगशाला में इनके किसी भी भाग अंग; जैसे—जड़, तना, पत्तियों या पुष्पों के विभिन्न अंग लेकर, उचित माध्यम में जिसमें जा तथा तने को विकसित करने के लिए उचित रसायन का समावेश किया गया हो, संवर्धन किया जाता है। इस विधि को अंग संवर्धन भी कहा गया है।

कायिक अंगों का गुणन करके कृषि के लिए उत्तम सामग्री, अत्यन्त ही अल्प समय में प्राप्त करके, हजारों पादपों का प्रवर्धन सम्भव हो सका है। इनमें विशेषता होती है कि प्रत्येक पादप आनुवंशिक रूप से मूलपादप के समान होते हैं, जहाँ से वह पैदा हुए है, यह सोमाक्लोन कहलाते हैं। अधिकांश महत्त्वपूर्ण खाद्य पादपों, जैसे—टमाटर, केला, सेब, आलू आदि का बड़े पैमाने पर उत्पादन इस विधि द्वारा किया गया है। इस प्रकार का संवर्धन सफलतापूर्वक गाजर, सेलेरी, एल्फा-एल्फा के अतिरिक्त गुलदाऊदी, आर्किड्स, कार्नेशन आदि में भी सफलतापूर्वक किया गया है। नये पौधे बनाने के लिए बीज को उचित माध्यम पर रखकर इनसे कैलस (किण) का संवर्धन किया जाता है। पूर्ण विकसित कैलस को दूसरे माध्यम पर लेकर, नये पौधे बनाने की प्रक्रिया में आसानी होती है। माइक्रोप्रोपेगेशन विधि में भ्रूण, अण्डाशय अथवा नर फूल के जनन अंग का संवर्धन करके नये पौधे विकसित किये जा सकते हैं। पौधे के किसी भी भाग से विकसित नन्हें पौधे प्लाण्टलेट्स कहे जाते हैं। यहाँ वास्तव में, बाद में और नये लाखों पौधों को बनाने में सक्षम होते हैं। ऊतक संवर्धन तकनीक का उपयोग बागवानी तथा कृषि क्षेत्रों के लिए प्रयोगशाला में विभिन्न किस्मों के पुष्प, फल, सब्जियों तथा वृक्षों की बड़ी संख्या में उत्पादन के लिए किया जा रहा है। पुष्प वाले पौधों में आर्किड, ग्लेडियोलस, गुलदाऊदी, डहेलिया, पिटुनिया, पेन्जी, अफ्रिकन वाइलेट, एन्यूरियम, जिरेनियम, जरबेरा तथा ट्यूलिप जैसे पौधे प्रमुख हैं, जो आज बाजार में बहुतायत में उपलब्ध हैं। 

प्रश्न 8. उत्परिवर्तन के प्रकारों को संजहए। 

उत्तर: सामान्यता उत्परिवर्तन एक विस्तृत आधार वाला शब्द है। सभी प्रकार के वंशागत आकस्मिक परिवर्तन सम्मिलित किये गये हैं।जीन संरचना में हुये आकस्मिक परिवर्तन को ही वास्तविक उत्परिवर्तन मानते हैं। इसे जीन उत्परिवर्तन या बिन्दु उत्परिवर्तनकहते हैं। उत्परिवर्तन और प्रकार के होते हैं

1. गुणसूत्री उत्परिवर्तन: यह दो प्रकार का होता है-
(i) गुणसूत्रों को संख्य में आकस्मिक परिवर्तन इसे सूत्रगुणता कहते हैं।

(ii) गुणसूत्र संरचना में आकस्मिक उत्परिवर्तन। इसे गुणसूत्र विपथन  कहते हैं।
2. जीन उत्परिवर्तन — जीन संरचना में आकस्मिक परिवर्तन। इसे वास्तविक उत्परिवर्तन या बिन्दु उत्परिवर्तन भी कहते है।

3. कायिक उत्परिवर्तन – कायिक कोशिका में होने वाले ऊपर वर्णित दोनों प्रकारों के

उत्परिवर्तना वे उत्परिवर्तन जो जनन कोशिकाओं में होते हैं, वंशागत होते हैं। कायिक उत्परिवर्तन उसी पीढ़ी तक सीमित होते हैं। इनकी वंशागति नहीं होती है।

पादप प्रजनन में, जीन उत्परिवर्तन अधिक महत्त्वपूर्ण है। विकास के लिये विभिन्नतायें तथा जीन पुनर्संयोजन में नवीनता इसी के कारण आती है। जीवों में इस प्रकार उत्परिवर्तनों को उत्पन्न कराना व उन्नत किस्मों की प्राप्ति में उनका उपयोग करना सम्भव हो गया है। उत्पत्ति के आधार पर उत्परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं-

1. स्वतः उत्पन्न उत्परिवर्तन:  ये उत्परिवर्तन प्रकृति में यदा कदा होते रहते हैं। ये विभिन्न प्राकृतिक कारकों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। विद्युत, परमाणु-किरणें, कॉस्मिक किरणें, शरीर में चोट प घाव, रोग, कोट-रोग,कोट-रोग, ताप व विभिन्न रसायन कुछ ऐसे ही कारकों के उदाहरण है स्वतः उत्परिवर्तन बहुत कम हो है व इनकी दर भी बहुत कम होती है। इसमें से अधिकांश उत्परिवर्तन जीव के लिये हानिकारक होते हैं। यदा-कदा ही कोई उत्परिवर्तन लाभप्रद होता है। ऐसा लाभप्रद उत्परिवर्तन ही पादप प्रजनन के लिये अधिक उपयोगी होता है।

2. प्रेरित उत्परिवर्तन- जीवों में उत्परिवर्तनों को कृत्रिम रूप से प्रेरित किया सकता है। उत्परिवर्तन को प्रेरित करने वाले कारको को उत्परिवर्तजन या म्यूटेण्ट कहते हैं।

प्रश्न 9.संकरण की प्रक्रिया को समझाए। 

उत्तर: संकरण प्रक्रिया:

 1. जनकों का चयन— निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वांछित गुणों कालो प्रजातियों का चयन किया जाता है तथा इनको जनक पादपों के रूप में प्रयोग किया जाता है।

2. चयनित जनकों में स्वपरागण– जनक पौधों में अधिकतम सीमा तक समयुग्मनजता प्राप्त करने के लिए कृत्रिम स्वपरागण द्वारा अन्तःप्रजात सन्तति बनायी जाती हैं। इनमें से वांछित गुणों को स्थायी रूप में प्राप्त करने के लिए कई पीढ़ियों तक इन्हीं क्रियाओं को दोहराया जाता है। प्रत्येक बार चयन करने से लक्ष्य प्राप्ति हो जाती है। अन्तिम चयनित पौधे ही संकरण  के लिए जनक पौधे होते हैं।
3. विपुंसन- जनक पौधों में जिनको स्त्री जनक के रूप में इस्तेमाल करना है उनका विपुंसन आवश्यक है। यह क्रिया पुंकेसरों के परिपक्व होने, पर स्फुटन से पूर्व की जाती है। बड़े पुष्पों में चिमटी आदि की सहायता से किन्तु छोटे पुष्पों में गर्म जल के प्रयोग से यह लक्ष्य प्राप्त किया जाता है।

4. थैली लगाना - नर जनक के पुष्पक्रम तथा स्त्री जनक के पुष्पों को पॉलीथीन कागज या अन्य प्रकार की थैलियों के अन्दर बन्द कर दिया जाता है ताकि अवांछित परागकण प्रक्रिया में सम्मिलित न हो जायें।
5. क्रॉस करवाना-क्रॉस (cross) कराने के लिए नर जनक के परागकण किसी कागज की थैली में एकत्रित किये जाते हैं। ऐसा पूर्व सुरक्षित नर जनक के पुष्पों से किया जाता है। इसी प्रकार, स्त्री पुष्प की सुरक्षा के लिए लगाई गई थैली को हटाकर वर्तिकाय पर संचित (नर जनक से प्राप्त) परागकणों को पहुंचा दिया जाता है। (कृत्रिम परागण ) । स्त्री पुष्पों को इस क्रिया के बाद भी थैली द्वारा सुरक्षित करना आवश्यक है।

6. संकर बीजों को प्राप्त करF, संतति प्राप्त करना—स्त्री पुष्प में अण्डाशय परिपक्व होने पर फल, बीज आदि पूर्ण परिपक्व अवस्था में प्राप्त किये जाते हैं। यही बीज जनकों के क्रॉस द्वारा प्राप्त F, सन्तति प्राप्त करायेंगे जब इन्हें ऋतु आने पर उगाया जायेगा।

प्रश्न 10. शुद्ध वंशक्रम वर्ण के लाभ व हानिया बताए। 

उत्तर: शुद्ध वंशक्रम वरण : 

स्वपरागित समयुग्मजो  पौधे से प्राप्त संतति को शुद्ध वंशक्रम कहते हैं। इसका उपयोग नव किस्म परिवर्धित  करने में होता है। शुद्ध वंशक्रम से नई किस्म प्राप्त करना शुद्ध वंशक्रम वरण कहलाता है। यह विधि स्वपरागित फसलों के लिये प्रयुक्त की जाती है। स्वपरागित फसल की आबादी में से कुछ उत्तम गुण युक्त पौधे चयनित कर, प्रत्येक को एक-दूसरे से पृथक् उगाया जाता है। प्रत्येक की पीढ़ी-दर-पीढ़ी संतति का वांछनीय गुणों के लिये परीक्षण किया जाता है। इनकी संततियों में से चयन परस्पर तुलना करके किया जाता है और वांछनीय गुणों की दृष्टि से सर्वोत्तम संतति को नयी किस्म के रूप में रख लिया जाता है। शेष निरर्थक होती हैं। इससे प्राप्त बीजों को फिर बड़े पैमाने पर फसल के रूप में बोया जाता है। इस प्रकार परिवर्धित की गयी किस्म आनुवंशिकतः शुद्ध और अपेक्षाकृत अधिक स्थायी गुणों वाली होती है। संकरण विधि में परपरागित फसल पादप में परागण का कृत्रिम नियन्त्रण कर, वांछित शुद्ध वंश क्रम प्राप्त कर लेते हैं। यह संकरण प्रक्रिया में जनक के रूप में प्रयुक्त होता है।

लाभ-
(i) स्वपरागित फसलों की स्थानीय किस्मों को सुधारने की एकमात्र विधि है।
(ii) स्वपरागित फसलों में की जाने वाली संकरण विधि को तुलना में यह एक सरल विधि है। (iii) इस विधि से प्राप्त उन्नत किस्में, गुणी में व निष्पादन में अत्यधिक एक समान होती है। हानि -
(i) यह स्वपरागित पुष्पों के लिये ही उपयुक्त है। नियन्त्रण कर, वांछित शुद्ध वंश क्रम प्राप्त कर लेते हैं। यह संकरण प्रक्रिया में जनक के रूप में प्रयुक्त होता है।

(ii) परपरागित पुष्पों में यह विधि अधिक खर्चीली है।
(iii) अंतिम वरण परिणाम में, उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि नहीं होती है।
(iv) ऐसे किसी नये गुण का समावेश नहीं हो सकता जो कि उस आबादी में नहीं था। इस वरण में नये जीन प्रारूप नहीं बनते हैं।
(v) नये किस्म समयुग्मजी होने से बड़े क्षेत्रों को जलवायु विभिन्नता के लिये अनुपयुक्त होते हैं।