Bihar Board Class 12 Biology Chapter 11 Biotechnology Principles and Processes Long Answer Question
Launch Your Course Log in Sign up
Menu
Classes
Competitive Exam
Class Notes
Graduate Courses
Job Preparation
IIT-JEE/NEET
vidyakul X
Menu

बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 11 जैव प्रौद्योगिकी- सिद्धांत व प्रक्रम की कार्यनीति दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1: आनुवंशिक जीन अभियांत्रिकी मे प्लसमिड के उपयोग बताए?
उत्तर:

1. जीन्स का निर्माण -- किसी विशेष कोशिका से mRNA अणु को अलग करके प्रतिवर्ती ट्रांस्किटेज एन्जाइम की सहायता से इस पर DNA श्रृंखला का संश्लेषण कराया सकता है। 

Download this PDF


2. जीन का विश्लेषण तथा संग्रह – DNA अणुओं को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर इनका पुंजकीकरण उरके किसी भी जीव के सम्पूर्ण जीनोम का विश्लेषण किया जा सकता है। इसे "जीनी संग्रह" के रूप में रिकॉर्ड किया जा सकता है। पुजकीकरण की इस विधि को "शॉटगन विधि कहते हैं।
3. जीन्स का प्रतिस्थापन – जीनी चिकित्सा से अवांछित जीन्स को हटाया जा सकता है और इसके स्थान पर नये वांछित जीन्स को प्रवेश कराया जा सकता है। इस प्रकार व्यक्ति की लम्बाई, बुद्धि, ताकत आदि को नियन्त्रित किया जा सकता है।
4. रोगजनक विषाणुओं का रूपान्तरण- रोगजनक विषाणुओं के आनुवंशिक पदार्थ में परिवर्तन करके कैंसर, एड्स (AIDS) आदि रोगों के विषाणुओं को रोगजनक के बजाय इन्हीं रोगों के उपचार में प्रयोग किया जा सकता है।
5. विषाणु प्रतिरोधी मुर्गियाँ— जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा मुर्गियों की ऐसी प्रजातियों का विकास किया गया है विषाणुओं के संक्रमण का प्रतिरोध करती है।
6. व्यक्तिगत जीन्स को अलग करना-कुछ जीन्स को अलग करने की तकनीक विकसित की गयो, जो निम्नलिखित समूहों में वर्गीकृत की जा सकती है-

(i) विशेष प्रकार की प्रोटीन बनाने वाली जीन, 
(ii) rRNA की जीन्स तथा
(iii) नियन्त्रण करने वाली जीन्स; जैसे—प्रोमोटर जीन तथा रेगुलेटरी जीन। चूजों में ओवोएल्ब्यूमिन की जीन, चूहों में ग्लोबिन तथा इम्यूनोग्लोबिन जीन्स, अनाजों व लेग्यूम्स में प्रोटीन संग्रह की जीन्स आदि को पृथक् किया जा चुका है।

प्रश्न 2: बायो रिएक्टर पर टिप्पणी करे। 

उत्तर: बायोरिएक्टर : अधिक आयतन संवर्धन से उत्पाद को पर्याप्त मात्रा प्राप्त करने के लिए जैविक भट्टी को विकास किया गया है जहाँ संवर्धन का अधिक आयतन (100-1000 लीटर) संशोधित किया जा सकता है। प्रकार का बायोरिएक्टर एक बर्तन के समान होता है, जिसमें सूक्ष्मजीवों, पौधों, जन्तुओं एवं मानव कोशिकाओं का उपयोग करके कच्चे माल को जैव रूप में विशिष्ट उत्पादों, व्यष्टि, एन्जाइम इत्यादि में परिवर्तित किया जा सकता है। यह वांछित उत्पाद प्राप्त करने के लिए उपयुक्त तथा अनुकूलतम परिस्थितियाँ (दशायें); जैसे—तापमान, क्रियाचार, ऑक्सीजन, विटामिन, लवण, pH आदि उपलब्ध कराता है।


प्रायः सर्वाधिक प्रयुक्त वायोरिएक्टर, विलोडित हौज रिएक्टर, बेलनाकर बनावट का तथा अन्दर से घुमावदार होता है अतः अन्दर रखो वस्तु को मिश्रित करने में सहायता मिलती है। विलोडक उपकरण में ऑक्सीजन प्राप्त कराने के साथ उसे मिश्रित करने में सहायता करता है। वायु यहाँ बुलबुलों के रूप में भेजी जा सकती है। उपकरण में एक प्रक्षोभक युक्ति के साथ ऑक्सीजन प्रदायक, ताप, झाग व पी०एच० नियन्त्रक एवं प्रतिचयन प्रद्वार रहता है जिससे समय-समय पर संवर्धन को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में निकाला जा सकता है। 

प्रश्न 3: प्रोटोप्लास्टसंलयन के आर्थिक महत्व बताए। 

उत्तर: प्रोटोप्लास्ट संलयन के आर्थिक महत्त्व:

1. अन्तर्जातीय सोमेटिक संकर प्राप्त करना इस तकनीक द्वारा कार्लसन व साथियों (1972) ने तम्बाकू (रिकारिआना) में तथा पावर व साथियों (1976) ने पिटूनिया में अन्तर्जातीय सोमेटिक संकर प्राप्त किए हैं। 
2. अन्तर्प्रजातीय सोमेटिक संकर प्राप्त करना- -टमाटर व आलू की कोशिकाओं के प्रोटोप्लास्ट संलयन पोमेटो नामक सोमेटिक संकर प्राप्त किया गया है। इस पोमेटो नामक पादप में आलू जमीन में आते है और टमाटर जमीन के ऊपर वाले प्ररोह पर आते हैं।
3. नर बच्यता और शाकनाशी प्रतिरोध प्राप्त करना – इस तकनीक द्वारा एक जनक से प्राप्त केवल कोशिकाद्रव्य वाले प्रोटोप्लास्ट का दूसरे जनक से प्राप्त केन्द्रक और साइटोप्लास्म वाले प्रोटोप्लास्ट से संयोजन किया जा सकता है। इस प्रकार से प्राप्त प्रोटोप्लास्ट संकर का उपयोग पादपों में नर बन्ध्यता के जीन के संयोजन हेतु और शाकनाशी प्रतिरोध प्राप्त करने हेतु किया जाता है।
4. प्राणियों में सोमेटिक संकरण – ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के हेनरी हेरिस (Hanery Heris, 1965) ने यह तथ्य प्रस्तुत किया कि उसने मानव और चूहों की कोशिकाओं से प्रोटोप्लास्ट संलयन करके सोमेटिक संकरण किया है। इस प्रयोग में मानव को कैन्सर ग्रस्त कोशिकाओं व चूहे को कैन्सर ग्रस्त कोशिकाओं के प्रोटोप्लास्ट का मलयन किया था। इस प्रकार से प्राप्त मानव-चूहा संकर कोशिकायें 15 दिन तक जीवित रहीं। हेरिस ने ही मानव खरगोश व मानव--मुर्गी की सोमेटिक कोशिकाये प्राप्त की। 
5. प्राणियों व पादप कोशिकाओं में सोमेटिक संकरण- कोकिंग व उनके साथियों (1975) ने पोस्ट प्रोटोप्लास्ट और मुर्गी के इरिथ्रोसाइट्स ( erythrocyte) का संलयं किया । 

प्रश्न 4: क्लोनिग स्थलों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर: क्लोनिंग स्थल — विजातीय डी०एन०ए० को जोड़ने के लिए प्रायः काम में लिए जाने वाले Pvul प्रतिबन्धित एन्जाइम के लिए वाहक में एक या कुछ ही पहचान स्थल Pst. होने चाहिए अन्यथा ऐसे अधिक स्थल होने पर इसके कई खण्ड बन जायेंगे जो क्लोनिंग को जटिल बना देंगे। दो पहचान स्थल होने पर उन दोनों प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीन्स में से एक में स्थित प्रतिबन्ध स्थल पर ही विजातीय डी०एन०ए० का बन्धन किया जाता है; जैसे विजातीय डी०एन०ए० को वाहक पी०बी०आर० 22 (pBR322 ) में स्थित - टेट्रासाइक्लिन प्रतिरोधी जीन के स्थल पर जोड़ा जा सकता है। पुनर्संयोजी प्लाज्मिड का टेट्रासाइक्लिन प्रतिरोध इस प्रकार, विजातीय डी०एन०ए० के निवेशन से समाप्त हो जाता है लेकिन रूपान्तरज को एम्पिसिलिन युक्त माध्यम पर रखकर * इसका अपुनर्संयोगज से अब भी चयन किया जा सकता है। एम्पिसिलि युक्त माध्यम पर वृद्धि करने वाले रूपान्तरजों को तब टेट्रासाइक्लीन युक्त माध्यम पर स्थानान्तरित कर दिया जाता है। पुनर्संयोगज एम्पिसिलिन युक्त (amp* व माध्यम पर तो वर्धन कर सकेगा किन्तु टेट्रासाइक्लीन युक्त माध्यम पर वर्धन नहीं करेगा। स्पष्ट है अपुनर्संयोगज दोनों ही प्रतिजैविक युक्त माध्यम पर वर्धन कर सकेगा। प्रतिजैविकों के इस प्रकार निष्क्रियण के कारण पुनर्संयोगज का चयन एक जटिल विधि हैं, क्योंकि इसमें दो फोटो, जिन पर भिन्न-भिन्न प्रतिजैविक रहता है, की साथ-साथ प्लेटिंग की आवश्यकता रहती है। इसी कारण क्षैकल्पिक वरणयोग्य चिह्नकों का विकास हुआ जो पुनर्संयोगजों को अपुनसंयोगजों से इस आधार पर विभेद करता है व निष्क्रिय हो जाता है जिसे निवेशी निष्क्रियता कहते हैं। अब यदि जीवाणु के प्लाज्मिड कि वे वर्णकोत्पादकी  पदार्थ की उपस्थिति में रंग पैदा करने में सक्षम होते हैं। इसमें से एक पुनर्संयोगज डी० एन०ए०  का बीटा गैलैक्टोसाइडेज एन्जाइम बने निवेशन  नहीं होता है तो वर्णकोत्पादकी पदार्थ की उपस्थिति में नीले रंग की निवह का निर्माण होगा । 

प्रश्न 5:  आनुवंशिक अभियांत्रिकी का संक्षेप म वर्णन कीजिए। 

उत्तर: आनुवंशिक अभियान्त्रिकी या जेनेटिक इन्जीनियरिंग या जीन अभियान्त्रिकी को पुनसंयोजित डी०एन०ए० तकनीक या जीन क्लोनिंग भी कहते हैं। जीवों में समलक्षणी गुणों में परिवर्तन हेतु आनुवंशिक पदार्थ को जोड़ना, हटाना या ठीक करना आनुवंशिक इंजीनियरी का उद्देश्य है। जीन अभियान्त्रिकी में आनुवंशिक पदार्थ का हेरफेर पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर निर्देशित किया जाता है अर्थात् जीवों के आनुवंशिक पदार्थ (DNA) में जोड़-तोड़  करके उनके दोषपूर्ण आनुवंशिक लक्षणों के जीन्स को हटाकर उनके स्थान पर DNA में उत्कृष्ट लक्षणों के जीन्स को समाविष्ट करना ही आनुवंशिक या जीनी अभियान्त्रिकी है।


इस तकनीक में दो DNA अणुओं को सर्वप्रथम कोशिका केन्द्रक से विलगित किया जाता है और एक या अधिक प्रकार के विशेष एन्जाइम, रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम के द्वारा उनके टुकड़े किये जाते हैं। इसके बाद इन टुकड़ो को इच्छानुसार जोड़कर कोशिका में पुनरावृत्ति व जनन के लिए पुनःस्थापित कर दिया जाता है। संक्षेप में जीन क्लोनिंग या आनुवंशिक इन्जीनियरिंग बाह्य या विदेशी (foreign) DNA के एक विशिष्ट टुकड़े की कोशिका में स्थापित करना होता है। आर्बर (Arber, 1962) ने बैक्टीरिया कोशिकाओं में रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम नामक ऐसे पदार्थ की उपस्थिति की जानकारी प्राप्त की जो किसी भी बाह्य डी० एन०ए० को विशिष्ट टुकड़ों में तोड़ने के लिए एक तीव्र रसायन का कार्य करता है। सन् 1978 तक लगभग 100 से भी अधिक विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्धन एन्जाइम या निर्बन्धन एण्डोन्यूक्लिएज विलगित कर लक्षणित किये जा चुके थे। 

प्रश्न 6: आनुवंशिक अभियान्त्रिकी में काम आने वाले घटक कौन कौन से है?

उत्तर:

1. एन्जाइम्स- डी० एन०ए० पुनर्संयोजन तकनीक (आनुवंशिक अभियन्त्रण या जीन क्लोनिंग तकनीक) में निम्नलिखित एन्जाइम्स उपयोग में लाये जाते है- 

(i) लाइसोजाइम एन्जाइम— यह कोशिका भित्ति को तोड़कर कोशिका का DNA प्राप्त करने में काम लाया जाता है। 

(ii) विदलन एन्जाइम- ये डी०एन०ए० अणु को वांछित खण्डों में तोड़ने का कार्य करते हैं। ये तीन प्रकार के होते है-

(a) एक्सोन्यूक्लीऐसेज- ये DNA के 5 या 3' सिरों पर न्यूक्लिओटाइड्स को अलग करते हैं।
(b) एण्डोन्यूक्लीऐसेज– ये DNA के बीच से टुकड़ो (खण्डों) में तोड़ते हैं, DNA अणु के सिरों पर नहीं।
(c) प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लीऐसेज – ये DNA में विशेष न्यूक्लिओटाइड अनुक्रम को पहचानते हैं और DNA अणु के विभिन्न लम्बाई में टुकड़े कर देते हैं।

(iii) संश्लेषी एन्जाइम्स: ये DNA के संश्लेषण हेतु आवश्यक होते हैं। ये दो प्रकार के होते है-- 

(a) DNA पॉलीमॉसेज
(b) रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज 

(iv) जोड़ने वाले एन्जाइम्स– इनके द्वारा टूटे हुए पूरक DNA खण्ड जुड़ते हैं। इन्हें ऊतक लाइगेस भी कहते है।
(v) क्षारीय फॉस्फेटेसेज – ये वृत्ताकार DNA के 5' सिरे से फॉस्फेट समूह को हटाते है, जिससे ये सिरे मिलकर पुनः वृत्ताकार गुणसूत्र बना सकें।

2. क्लोनिंग साधन इन्हें वाहक या वेक्टर कहते है। यह DNA खण्ड को परखनली से सजीव कोशिका तक पहुँचाने का कार्य करते हैं। प्लाज्मिड, बैक्टीरियोफेज के DNA अणु क्लोनिंग साधन के रूप में काम आते हैं।

3. ट्रांसपोजेबल आनुवंशिक तत्त्वइन्हें जम्पिंग जीन भी कहते हैं। ये DNA खण्डो (टुकड़ों की किसी भी स्थिति पर पहुँच सकते हैं। इनमें पुनरावृत्ति करने की क्षमता नहीं होती है, किन्तु यह पूर्व स्थित गुणसूत्रों या प्लाज्मिड में स्थापित हो सकते हैं और उनके DNA के साथ
पुनरावृत्ति कर सकते है। 

4. जीनोम DNA लाइबेरी—किसी भी जीव की जीनी संरचना को उसका जीनोम कहते हैं। जीनोम DNA लाइब्रेरी किसी भी जीनोम के स्वतन्त्र रूप से विलगित वैक्टर से जुड़े हुए DNA खण्डों का संग्रह है। इसमें जीनोम के प्रत्येक DNA अनुक्रम की कम से कम एक प्रति होती है।

5. डी०एन०ए० अनुक्रमण – DNA अनुक्रमण शर्करा- फॉस्फेट कड़ी पर न्यूक्लिओटाइड नाइट्रोजनी क्षारकों के क्रम को प्रदर्शित करता है।

प्रश्न 7: ti प्लसमिड की व्याख्या करे। 

उत्तर: टी आई प्लाज्मिड : एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमफेसियन्स जीवाणु का प्लास्मिट द्विबीजपत्री पादप, जैसे अंगूर, गुठली वाले फलीय पादप और अलंकारिक पौधे में उन गॉल (crown gall) रोग उत्पन्न करता है। इस जीवाणु की सर्वप्रथम स्मिथ व टाउसेण्ट (1907) ने पहचान की एग्रोबैक्टोरियम एक ग्राम ऋणात्मक परजीवी बैक्टीरिया है। यह पौधे में उत्पन्न किसी घाव के द्वारा परपोषी में डान् जाता है और अन्तराकोशिकीय गमन करता हुआ उन कोशिकाओं में शीघ्र विभाजन को प्रेरित करता है। इस का टी आई प्लाज्मिड अर्थात् ट्यूमर प्रेरित करने वाला प्लाज्मिड पौधे की कोशिकाओं में चला जाता है और कोशिकीय डी० एन०ए० के साथ समाविष्ट होकर अपने आप को प्रदर्शित करता है। इस प्रक्रिया में जीवाणु पौधे क कोशिकाओं में गॉल या अर्बुद के रूप में प्रचुरोद्भवन करता है। यह गति साधारणतया पौधे के शिखर पर जहाँ तना व जड़ परस्पर मिलते हैं, बनते हैं और इसी के कारण इसे क्राउन गॉल रोग कहते है।एलैक्टीरियम ट्यूफेसियन्स के टी आई प्लाज्मिड के अध्ययन के द्वारा पादपों में किसी विदेशी (बाहरी) जीन को समाविष्ट करने को तकनीक ज्ञात कर ली गई है। इस प्रकार कुछ पौधों में विदेशी जोन को समाविष्ट करके अभियान्त्रिकी के द्वारा उत्तम लक्षणों वाले आनुवंशिकीय रूपान्तरित पौधे प्राप्त किये जा रहे हैं। इस तथ्य में यह स्पष्ट है कि जिस तकनीक को आणविक जैव वैज्ञानिक आजकल अपनाने का प्रयास कर रहे हैं उसको काल से शायद लाखो वर्षों पूर्व से एक सामान्य मृदा में पाया जाने वाला जीवाणु एग्रोबैक्टीरियम फसियन्स अपनाये चला आ रहा है।

प्रश्न 8: डीएनए व आरएनए मे अंतर स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर: 

डीएनएआरएनए
डीऑक्सीराइबोस शर्करा होती है, थाइमीन नाइट्रोजन बेस होता हैराइबोस शर्करा होती है।
अणु दो लम्बे, कुण्डलित तथा एक-दूसरे के पूरक सूत्रों का बना होता हैथाइमीन के स्थान पर यूरैसिल नाइट्रोजन बेस होता है। अणु में केवल एक ही सूत्र होता है।
यह आनुवंशिक पदार्थ है और कोशिका में होने वाली सभी क्रियाओं पर आर०एन०ए० के द्वारा नियन्त्रण करता है।यह आनुवंशिक पदार्थ नहीं है और प्रोटीन संश्लेषण में विशेष योगदान देता है। कुछ विषाणुओं में यह आनुवंशिक पदार्थ के रूप में होता है
यह केवल केन्द्रक के क्रोमैटिन सूत्रों में ही पाया जाता हैयह केन्द्रक के केन्द्रकीय द्रव्य, केन्द्रिक और कोशिकाद्रव्य में भी पाया जाता है
द्विगुणन के द्वारा अपने समान नये अणु उत्पन्न करता हैद्विगुणन का गुण नहीं पाया जाता है। इसका निर्माण डी० एन० ए० अणुओं के द्वारा लिप्यन्तरण से होता है


प्रश्न 9: प्लसमिड क्या है? टिप्पणी कीजिए?

उत्तर: प्लाज्मिड्स:  प्लाज्मिड्स जीवाणु कोशिका में प्राकृतिक रूप से पाये जाते हैं। यह एक दोहरे DNA अणु है जो केन्द्रकाच के बाहर स्थित होता है। प्लाज्मिड्स की प्रतिकृति होती है। जीवाणु में केवल कुछ ही जीन होते हैं जो कई बार लैंगिक जनन से सम्बन्धित होते हैं। इन जीनों की जीव कोशिका की अन्य जैव प्रक्रियाओं में कोई भूमिका नहीं होती है। इनमें उपस्थिति जोन्स, प्रतिरोधी पदार्थों के निर्माण, किण्वन आदि क्रियाओं का नियमन भी करते हैं। स्वनियन्त्रित प्रतिकृति गुण होने के कारण दो प्रकार के प्लास्मि जात है-

(i) एकल प्रतिलिपि प्लाज्मिड्स - प्रतिकृति करके एक ही प्रतिलिपि  बनाते हैं तथा 
(ii) बहुप्रतिलिपि प्लाज्मिड्स– एक से अधिक प्रतिलिपियाँ बनाते हैं। इस प्रकार की एक जीवाणु कोशिका में परिणामस्वरूप 10-12 प्लाज्मिड्स पाये जा सकते हैं (कभी इनकी संख्या 1000- तक भी होती है) ऐसे प्लाज्मिड्स का उपयोग क्लोनिंग साधन के रूप में किया जाता है।


प्लाज्मिड की एक विशेषता है कि इसका डी०एन०ए० विजातीय डी०एन०ए० खण्ड से जुड़कर भी दूसरी कोशिका में प्रवेश करने की क्षमता बनाये रखता है। इसमे प्लाज्मिड्स ही वेक्टर के रूप में प्रयुक्त होते हैं। सबसे पहला आनुवंशिक इंजीनियरिंग से तैयार किया गया वेक्टर प्लाज्मिड pm था जिसे ई कोलाई के COLE प्लाज्मिड से तैयार किया गया था। दूसरी ओर प्लाज्मिड्स जीवाणु कोशिकाद्रव्य में मुक्त रूप से पाये जाते हैं। इन्हें सहज को यहाँ से पृथक् किया  जा सकता है। 

प्रश्न 10: डीएनए प्रथक्करण व विलगन की विधि स्पष्ट कीजजीए। 

उत्तर: डी०एन०ए० विखण्ड का पृथक्करण एवं विलगन – प्रतिबन्धन एण्डोन्यूक्लिएज द्वारा डी०एन०ए० को काटने के परिणामस्वरूप डी० एन०ए० का विखण्डन हो जाता है। इन विखण्डों को जिस तकनीक द्वारा अलग किया जाता है उसे जेल वैद्युत कण संचलन कहते हैं। इस क्रिया में एक जेल एगारोज का प्रयोग किया जाता है। एगारोज अगर-अगर नामक पाउडर के रूप में आता है। इसे ग्रैसीलेरिया  एवं जिलेडियम 

नामक समुद्री लाल शैवालों से प्राप्त किया जाता है। एगारोज पाउडर एक प्रकार का प्राकृतिक बहुलक है। इसको पानी में घोलकर उबाला जाता है जिससे जेल प्राप्त होता है। पानी तथा लवण में बनाया गया जेल का मिश्रण विद्युत के लिए सुचालक होता है। जेल में अनेक छिद्र बनते हैं जो आणविक चालनी का कार्य करते हैं। इनके द्वारा बड़े अणु धीमी गति से गति करते हैं किन्तु छोटे अणु अपेक्षाकृत तेजी से गति करते हैं। इलेक्ट्रोफोरेसिस बॉक्स में धनात्मक तथा ऋणात्मक इलेक्ट्रोड्स जेल धारण करने के लिए शेल्फ होते हैं। इलेक्ट्रोफोरेसिस किये जाने वाले DNA का प्रतिबन्धन एन्जाइम) द्वारा विखण्डन किया जाता है जो असमान माप के DNA विखण्डों का उत्पादन करता है। डी०एन०ए० विखण्ड ऋणात्मक आवेशित अणु होते है अतः प्रवाहित करने पर इन्हें बलपूर्वक एनोड (anode) पर भेजा जाता है। इन पृथक्कृत विखण्डों को दृश्य प्रकाश में बिना अभिरंजित किये नहीं देखा वीडियम ब्रोमाइड (ethidium bromide) नामक यौगिक से नभिरंजित किया जाता है तथा इन अभिरंजित खण्डों को पराबैंगनी प्रकाश से अनावृत करके ही देखा जा सकता है। 

इस प्रकार डी०एन०ए० की चमकीली नारंगी रंग की पट्टियाँ दिखाई पड़ती हैं। डी०एन०ए० की पृथक्कृत पट्टियों को एगारोज जेल से काटकर निकालते हैं और जेल के टुकड़ों से निष्कर्षित कर लेते हैं। इस प्रक्रिया को क्षालन  कहते हैं। इस प्रकार से शुद्ध किये गये डी०एन०ए० को क्लोनिंग संवाहक से जोड़कर पुनयोगिज डी०एन०ए० निर्माण में उपयोग कर सकते हैं।