बिहार बोर्ड कक्षा 12वी - हिंदी - गद्य खंड अध्याय 10: जूठन के दीर्घ - उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1: दिन रात मर खप कर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन’, फिर भी किसी को शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं। ऐसा क्यों ? सोचिए और उत्तर दीजिए।
उत्तर: जब समाज की चेतना मर जाती है, अमीरी और गरीबी का अंतर इतना बड़ा हो जाता है कि गरीब को जूठन भी नसीब नहीं हो, धन-लोलुपता घर कर जाती है, मनुष्य-मात्र का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। सृष्टि की सबसे उत्तम कृति माने जाने वाले मनुष्य में मनुष्यत्व का अधोपतन हो जाता है, श्रम निरर्थक हो जाता है, उसे मनुष्यत्व की हानि पर कोई शर्मिंदगी नहीं होती है, कोई पश्चाताप नहीं रह जाता है। कुरीतियों के कारण अमीरों ने ऐसा बना दिया कि गरीब की गरीबी कभी न जाए और अमीर की अमीरी बनी रहे। यही नहीं, इस क्रूर समाज में काम के बदले जूठन तो नसीब हो . जाती है परन्तु श्रम का मोल नहीं दिया जाता है। मिलती हैं सिर्फ गालियाँ। शोषण का एक चक्र है जिसके चलते निर्धनता बरकरार रहे। परन्तु जो निर्धन है, दलित है उसे जीना है संघर्ष करना है इसलिए उसे कोई शिकायत नहीं, कोई शर्मिंदगी, कोई पश्चाताप नहीं।
प्रश्न 2: सरेन्द्र की बातों को सुनकर लेखक विचलित क्यों हो जाते हैं ?
उत्तर: सुरेन्द्र के द्वारा कहे गये वचन “भाभीजी, आपके हाथ का खाना तो बहुत जायकेदार है। हमारे घर में तो कोई भी ऐसा खाना नहीं बना सकता है” लेखक को विचलित कर देता है। सुरेन्द्र के दादा और पिता के जूठों पर ही लेखक का बचपन बीता था। उन जूठों की कीमत थी दिनभर की हाड़-तोड़ मेहनत और भन्ना देने वाली दुर्गन्ध और ऊपर से गालियाँ, धिक्कार।सुरेन्द्र की बड़ी बुआ की शादी में हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद सुरेन्द्र के दादाजी ने उनकी माँ के द्वारा एक पत्तल भोजन माँगे जाने पर कितना धिक्कारा था। उनकी औकात दिखाई थी, यह सब लेखक की स्मृतियों में किसी चित्रपटल की भाँति पलटने लगा था। आज सुरेन्द्र उनके घर का भोजन कर रहा है और उसकी बड़ाई कर रहा है। सुरेन्द्र के द्वारा कहा वचन स्वतः स्फूर्त स्मृतियों में उभर आता है और लेखक को विचलित कर देता है।
प्रश्न 3: घर पहुंचने पर लेखक को देख उनकी माँ क्यों रो पड़ती है ?
उत्तर: लेखक अपने बाल समय में अपने परिवार का सबसे ज्यादा दुलारा था। उसके घर का हर सदस्य गालियाँ खाकर भूखे सोना पसन्द कर सकता था लेकिन अपने लाड़ले को अपने घृणित पेशे में लाना नामंजूर था। लेखक के द्वारा मजबूरीवश उन्हीं पेशे में आने पर उनकी माँ रो पड़ती है। वह अपनी बेवसी, लाचारी और दुर्दशा पर रोती है। वह समाज की उन तथाकथित रईसों पर रोती है। वह समाज की उन कुरीतियों पर रोती है, जो उन्हें इस हाड़-तोड़ घृणित पेशे के बावजूद जूठन पर जीने को मजबूर करती है। वह उसे क्रूर समाज की विडंबनाओं पर रोती है, जहाँ श्रम का कोई मोल नहीं है, जहाँ निर्धनता को बरकरार रखने का षड्यंत्र रचा गया है।
प्रश्न 4: पिताजी ने स्कूल में क्या देखा ? उन्होंने आगे क्या किया? पूरा विवरण अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर: लेखक ओमप्रकाश के पिता अचानक तीसरे दिन विद्यालय के सामने से जा रहे थे कि बेटे ओम प्रकाश को विद्यालय के मैदान में झाडू लगाते देखकर ठिठक गये और वहीं से आवाज लगाई। ओमप्रकाश जिसे मुंशीजी कहकर वे सम्बोधित करते थे। पूछते हैं कि मुंशीजी ये क्या कर रहा है ? उन्हें देखकर लेखक फफक-फफककर रोने लगता है। इतने में उनके पिताजी सड़क से मैदान में उसके समीप पहुँचकर, पुचकार कर पूछते हैं तो लेखक पिता को सारी बात बताते हुए कहता है-तीन दिन से रोज झाडू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते।” इतना सुनकर पिता ने पुत्र के हाथ से झाडू छीन कर दूर फेंक दिया। उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आयी। हमेशा दूसरे के सामने कमान बने रहनेवाले पिता की लंबी-लंबी मूंछे गुस्से में फड़कने लगीं और चीखते हुए बोले “कौन-सा मास्टर है वो, जो मेरे लड़क से झाडू लगवावे है…….”। लेखक ओमप्रकाश के पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूंज रही थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर लोग भी बाहर आ गये और हेडमास्टर ने गाली देकर उसके पिता को धमकाया। किन्तु धमकी का कोई असर न दिखाते हुए लेखक के पिता ने पूरे साहस और हौसले से और उच्च स्वर में हेडमास्टर कालीराम का सामना किया और इस घटना का लेखक पर ऐसा असर हुआ कि लेखक कभी भूल नहीं पाया।
प्रश्न 5: बचपन में लेखक के साथ जो कुछ हुआ, आप कल्पना करें कि आपके साथ भी हुआ हो-ऐसी स्थिति में आप अपने अनुभव और प्रतिक्रिया को अपनी भाषा में लिखिए।
उत्तर: “जुठन” शीर्षक आत्मकथा के माध्यम से लेखक और ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने बचपन के जो अनुभव प्रस्तुत किये हैं भारतीय समाज के लिये एक चिन्ता का विषय है। बचपन ईश्वर का दिया हआ एक अद्वितीय उपहार है। बचपन में बालक निश्छल एव सरल होता है। जीवन का यह बहमल्य समय शिक्षा ग्रहण एवं बडों द्वारा लाड़-प्यार की प्राप्ति का अवसर है। ऐसे में किसी बालक को दलित अछुत समझ कर प्रताड़ित करना समाजविराधा, मानवताविरोधी एवं राष्ट्रविरोधी कार्य है। लेखक के साथ उनके बचपन में जो घटनायें घटी वे घोर निंदनीय हैं। अगर मैं उनकी जगह बालक होता तो मेरे मन में वही प्रभाव पड़ता जो लेखक के दिलोदिमाग पर पड़ा। मैं लेखक की भावनाओं का आदर करता हूँ। समाज की कुरीतियाँ शीघ्र दूर होनी चाहिये। मानव-मानव में भेद करना ईश्वर को अपमानित करने जैसा है।