बिहार बोर्ड कक्षा 12वी - हिंदी - गद्य खंड अध्याय 13: शिक्षा के लघु - उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1: शिक्षा का क्या अर्थ है एवं इसके क्या कार्य हैं ? स्पष्ट करें।
उत्तर: मानव जीवन के सर्वांगीण विकास का अर्थ शिक्षा है। इसमें मनुष्य का साक्षरता बुद्धिमत्ता, जीवन-कौशल व अन्य सभी समाजोपयोगी गुण पाये जाते हैं। शिक्षा के अन्तर्गत विद्यार्थी का विद्यालय जाना, विविध विषयों की पढ़ाई करना, परीक्षाएँ उत्तीर्ण होना, जीवन में ऊँचा स्थान प्राप्त करना, दूसरों से स्पर्धा करना, संघर्ष करना एवं जीवन के सर्व पहलुओं का समुचित अध्ययन करना-ये सारी चीजें शिक्षा के अन्तर्गत आती हैं। साथ ही जीवन को ही समझना शिक्षा है।
शिक्षा के कार्य-शिक्षा का कार्य केवल मात्र कुछ नौकरियों और व्यवसायों के योग्य बनाना ही नहीं है बल्कि संपूर्ण जीवन की प्रक्रिया बाल्यकाल से ही समझाने में सहयोग करना है एवं स्वतंत्रतापूर्ण परिवेश हेतु प्रेरित करना भी।
प्रश्न 2: जीवन क्या है ? इसका परिचय लेखक ने किस रूप में दिया है ?
उत्तर: लेखक जे. कृष्णमूर्ति ने जीवन के व्यापक स्वरूप को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। जीवन बडा अदभत. असीम और अगाध तत्व है। जीवन अनंत रहस्यों से युक्त एक विशाल साम्राज्य है, जिसमें मानव कर्म करते हैं। जीवन समुदायों, जातियों और देशों का पारस्परिक सघष है। जीवन ध्यान है, जीवन धर्म है, जीवन गूढ़ है, जीवन विराट है, जीवन सुख-दुख और भय से युक्त होते हुये भी आनंदमय है।
जीवन का परिचय देते हुए लेखक का मानना है कि इसमें अनेक विविधताओं, अनंतताओं के साथ रहस्य अनेकों भी मौजूद हैं। यह कितना विलक्षण है। प्रकृति में उपस्थित पक्षीगण, फूल, वैभवशाली वृक्षों, सरिताओं, आसमान के तारों में भी लेखक को जीवन का रूप दिखाई पड़ता है। लेखक जे. कृष्णमूर्ति ने जीवन का परिचय सर्वरूपों में दिया है।
प्रश्न 3: ‘बचपन से ही आपका ऐसे वातावरण में रहना अत्यंत आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो।’ क्यों ?
उत्तर: बचपन से ही स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण में रहना आवश्यक है जहाँ भय की गुंजाइश नहीं हो। मनचाहे कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं बल्कि ऐसा वातावरण जहाँ स्वतंत्रतापूर्वक जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया समझी जा सके। जिससे सच्चे जीवन का विकास संभव हो पाये। क्योंकि भयपूर्ण वातावरण मनुष्य का ह्रास कर सकता है विकास नहीं। इसलिए लेखक जे० कृष्णमूर्ति का यह सत्य और सार्थक कथन है कि बचपन से ही आपका ऐसे वातावरण में रहना अत्यंत आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो।
प्रश्न 4: जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती, क्यों ?
उत्तर: मेधा वह शक्ति है जिससे मनुष्य सिद्धान्तों की अनुपस्थिति में भी निर्भयतापूर्वक सोचता है ताकि वह सत्य और यथार्थ को समझ सके। यदि मनुष्य भयभीत रहता है तो कभी मेधावी नहीं हो सकेगा। किसी प्रकार की महत्वाकांक्षा चाहे आध्यात्मिक हो या सांसारिक-चिन्ता और भय का निर्माण करती है। जबकि ठीक इसके विपरीत निर्भीक वातावरण में मेधा का जन्म होता है। इसलिये जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती।
प्रश्न 5: जीवन में विद्रोह का क्या स्थान है ?
उत्तर: जीवन में अनुभवों के उच्च शिखर पर विद्रोह का स्थान तय हआ है। अधिकांश व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में भयभीत रहता है। गहराई से इसकी अद्भुत सौंदर्य क्षमता का मनुष्य तभी एहसास कर पाता है, जब वह प्रत्येक वस्तु के साथ विद्रोह करता है। संगठित धर्म के खिलाफ, परम्परा के खिलाफ और सड़े हुए समाज के खिलाफ जब कोई विद्रोह करता है तो उसे वास्तविक जीवन के सत्य का साक्षात्कार होता है। विद्रोह से लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इससे समस्याग्रस्त जीवन समाधान पा लेता है। अत: जीवन में विद्रोह का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है।
प्रश्न 6: नूतन विश्व का निर्माण कैसे हो सकता है ?
उत्तर: समाज में सर्वत्र भय का संचार है, लोग एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष से भरे हुए । इस स्थिति से दूर पूर्ण स्वतंत्र निर्भयतापूर्ण वातावरण बनाकर एक भिन्न समाज का निर्माण हैं। कर हम नूतन विश्व का निर्माण कर सकते हैं। हमें स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण तैयार करना होगा जिसमें व्यक्ति अपने लिए सत्य की खोज कर सके, मेधावी बन सके। क्योंकि सत्य की खोज तो केवल वे ही कर सकते हैं जो सतत इस विद्रोह की अवस्था में रह सकते हैं, वे नहीं, जो परंपराओं को स्वीकार करते हैं और उनका अनुकरण करते हैं। हमें सत्य, परमात्मा अथवा प्रेम तभी उपलब्ध हो सकते हैं जब हम अविच्छिन्न खोज करते हैं, सतत् निरीक्षण करते हैं और निरंतर सीखते हैं। इस तरह हमारे समाज में न ईर्ष्या द्वेष और न भय का वातावरण रहेगा, मेधाशक्ति का पूर्ण उपयोग हो । स्वतंत्रतापूर्ण व्यक्ति जीवन जिएगा तो निसंदेह ही नूतन विश्व का निर्माण होगा।
प्रश्न 7: जीवन में विद्रोह का क्या स्थान है?
उत्तर: जब कोई व्यक्ति सचमुच जीवन के इस ऐश्वर्य की, इसकी अनंत गहराई और इसके अद्भुत सौन्दर्य की धन्यता महसूस कर लेता है तो जीवन के प्रति तनिक भी कसमसाहट का भाव आता है तो वह विद्रोह कर बैठता है, संगठित धर्म के विरुद्ध, परंपरा के खिलाफ और इस सड़े हुए समाज के खिलाफ ताकि एक मानव की भाँति लिए सत्य की खोज कर सके। जिन्दगी का अर्थ है अपने लिए सत्य की खोज और यह तभी संभव है जब स्वतंत्रता हो, जब आपके अंदर में सतत् क्रान्ति की ज्वाला प्रकाशमान हो। समाज में व्यक्ति सुरक्षित रहना चाहता है और साधारणतया सुरक्षा में जीने का अर्थ है अनुकरण में जीना अर्थात् भय में जीना। भय से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को विद्रोह करना पड़ता है अतः जीवन में विद्रोह का महत्वपूर्ण स्थान है।
प्रश्न 8: व्याख्या करें-यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए प्रतिष्ठा, सम्मान, शक्ति व आराम के लिए निरंतर संघर्ष कर रहा है।
उत्तर: प्रस्तुत पंक्तियाँ जे. कृष्णमूर्ति द्वारा लिखित संभाषण ‘शिक्षा’ से ली गई है। इसमें संभाषक कहना चाहते हैं हमने ऐसे समाज का निर्माण कर रखा है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के विरोध में खड़ा है। चूंकि यह व्यवस्था इतनी जटिल है कि यह शोषक और शोषित वर्ग में बँट गया है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण हो रहा है। एक-दूसरे पर वर्चस्व के लिए आपस में होड़ है। यह पूरा विश्व ही अंतहीन युद्धों में जकड़ा हुआ है। इसके मार्गदर्शक राजनीतिज्ञ बने हैं जो सतत् शक्ति की खोज में लगे हैं। यह दुनिया वकीलों, सिपाहियों और सैनिकों की दुनिया है। यह उन महत्त्वाकांक्षी स्त्री-पुरुषों की दुनिया है जो प्रतिष्ठा के पीछे दौड़े जा रहे हैं और इसे पाने के लिए एक-दूसरे के साथ संघर्षरत हैं।
दूसरी ओर अपने-अपने अनुयायियों के साथ संन्यासी और धर्मगुरु हैं जो इस दुनिया में या दूसरी दुनिया में शक्ति और प्रतिष्ठा की चाह कर रहे हैं। यह विश्व ही पूरा पागल है, पूर्णतया भ्रांत। यहाँ एक ओर साम्यवादी पूँजीपति से लड़ रहा है तो दूसरी ओर समाजवादी दोनों का प्रतिरोध कर रहा है।
प्रश्न 9: नूतन विश्व का निर्माण कैसे हो सकता है?
उत्तर: आज सम्पूर्ण विश्व में महत्त्वाकांक्षा तथा प्रतिस्पर्धा के कारण अराजकता फैली हुई है। विश्व के सभी देश पतन की ओर अग्रसर है। इसे रोकना मानव समाज के लिए एक चुनौती है। इस चुनौती का प्रत्युत्तर पूर्णता से तभी दिया जा सकता है जब हम अभय हों, हम एक हिन्दू या एक साम्यवादी या एक पूँजीपति की भाँति न सोचें अपितु एक समग्र मानव की भाँति इस समस्या का हल खोजने का प्रयत्न करें। हम इस समस्या का हल तब तक नहीं खोज सकते हैं जब तक कि हम स्वयं सम्पूर्ण समाज के खिलाफ क्रान्ति नहीं करते, इस महत्वाकांक्षा के खिलाफ विद्रोह नहीं करते जिस पर सम्पूर्ण मानव समाज आधारित है। जब हम स्वयं महत्वाकांक्षी न हों, परिग्रही न हों एवं अपनी ही सुरक्षा से न चिपके हों, तभी हम इस चुनौती का प्रत्युत्तर दे सकेंगे। तभी हम नूतन विश्व का निर्माण कर सकेंगे।
प्रश्न 10: क्रान्ति करना. सीखना और प्रेम करना तीनों पृथक-पृथक प्रक्रियाएँ नहीं हैं, कैसे?
उत्तर: हमें यह मानकर चलना चाहिए कि विश्व में पहले से ही अराजकता फैली है। इसलिए हमारे समाज को अराजक स्थिति से निकालने के लिए समाज में क्रान्ति की आवश्यकता है। तभी हम सुव्यवस्थित समाज का निर्माण कर सकेंगे। यदि हम सचमुच इसका क्षय देखते हैं तो हमारे लिए एक चुनौती है। इस ज्वलन्त समस्या का हल खोजें। इस चुनौती का उत्तर हम किस प्रकार देते हैं यह बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस ज्वलंत समस्या की खोज में समाज के खिलाफ क्रान्ति करें तभी इस चुनौती का प्रत्युत्तर दे सकेंगे। इस दौरान हम जो भी करते हैं वह वास्तव में अपने पूरे जीवन से सीखते हैं।