बिहार बोर्ड कक्षा 12वी - हिंदी - खंड अध्याय 4: छप्पय के दीर्घ - उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1: ‘मुख देखी नाहिन भनी’ का क्या अर्थ है ? कबीर पर यह कैसे लागू होता है ?
उत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में कबीर के अक्खड़ व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। कबीर ऐसे प्रखर चेतना संपन्न कवि हैं जिन्होंने कभी भी मुँह देखी बातें नहीं की। उन्हें सच को सच कहने में तनिक भी संकोच नहीं था। राज सत्ता हो या समाज की जनता, पंडित हों या मुल्ला-मौलवी सबकी बखिया उधेड़ने में उन्होंने तनिक भी कोताही नहीं की। उन्होंने इसलिए अपनी अक्खड़ता, स्पष्टवादिता, पक्षपातरहित कथन द्वारा लोकमंगल के लिए अथक संघर्ष किया।
प्रश्न 2: ‘पक्षपात नहीं वचन सबहिके हित की भाखी।’ इस पंक्ति में कबीर के किस गुण का परिचय दिया गया है ?
उत्तर: प्रस्तुत पंक्तियाँ महाकवि नाभादासजी द्वारा विरचित ‘भक्तमाल’ काव्य कृति से ली गयी है। इन पंक्तियों में भक्त कवि ने महाकवि कबीर के व्यक्तित्व का स्पष्ट चित्रण किया है। कबीर के जीवन की विशेषताओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है।
क्या हिन्दू और क्या तुरक, सभी के प्रति कबीर ने आदर भाव प्रदर्शित किया और मानवीय पक्षों के उद्घाटन में महारत हासिल की। कबीर के वचनों में पक्षपात नहीं है। वे सबके हित की बातें सोचते हैं और वैसा ही आचरण करने के लिए सबको कविता द्वारा जगाते हैं। सत्य को सत्य कहने में तनिक झिझक नहीं, भय नहीं, लोभ नहीं। इस प्रकार क्रांतिकारी कबीर का जीवन-दर्शन सबके लिए अनुकरणीय और वंदनीय है। लोकमंगल की भावना जगानेवाले इस तेजस्वी कवि की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी ही होगी। कबीर क्रांतिकारी कवि, प्रखर चिंतक तथा महान दार्शनिक थे।
प्रश्न 3: कविता में तुक का क्या महत्व है ? इनका छप्पयों के संदर्भ में स्पष्ट करें।
उत्तर: कविता में ‘तुक’ का अर्थ अन्तिम वर्णों की आवृत्ति है। कविता के चरणों के अंत में वर्णों की आवृत्ति को ‘तुक’ कहते हैं। साधारणतः पाँच मात्राओं की ‘तुक’ उत्तम मानी गयी है।
संस्कृत छंदों में ‘तुक’ का महत्व नहीं था, किन्तु हिन्दी में तुक ही छन्द का प्राण है।
‘छप्पय’- यह मात्रिक विषम और संयुक्त छंद है। इस छंद के छः चरण होते हैं इसलिए इसे ‘छप्पय’ कहते हैं।
प्रथम चार चरण रोला के और शेष दो चरण उल्लाला के, प्रथम-द्वितीय और तृतीय चतुथ के योग होते हैं। छप्पय में उल्लाला के सम-विषम (प्रथम-द्वितीय और तृतीय-चतुर्थ) चरणों का यह योग 15 + 13 = 28 मात्राओं वाला ही अधिक प्रचलित है। जैसे भगति विमख जे धर्म स अब अधरम करि गाए। योग, यज्ञ, व्रत, दान, भजन बिनु, तुच्छ, दिखाओ।
प्रश्न 4: ‘कबीर कानि राखी नहिं’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर: कबीरदास महान क्रांतिकारी कवि थे। उन्होंने सदैव पाखंड का विरोध किया। भारतीय षड्दर्शन और वर्णाश्रम की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक धर्म था-षडदर्शन। भारत के प्रसिद्ध छ: दर्शन हिन्दुओं के लिए अनिवार्य थे। इनकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कबीर ने षड्दर्शन की बुराइयों की तीखी आलोचना की और उनके विचारों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया यानी कानों से सुनकर ग्रहण नहीं किया बल्कि उसके पाखंड की धज्जी-धज्जी उड़ा दी। कबीर ने जनमानस को भी षडदर्शन द्वारा पोषित वर्णाश्रम की बुराइयों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया और उसके विचारों को मानने का प्रबल विरोध किया।
प्रश्न 5: कबीर ने भक्ति को कितना महत्त्व दिया ?
उत्तर: कबीर ने अपनी सबदी, साख और रमैनी द्वारा धर्म की सटीक व्याख्या प्रस्तुत की। लोक जगत में परिव्याप्त पाखंड, व्यभिचार, मूर्तिपूजा, जाति-पाँति और छुआछूत का प्रबल विरोध किया। उन्होंने योग, यज्ञ, व्रत, दान और भजन की सही व्याख्या कर उसके समक्ष उपस्थित किया।
कबीर ने भक्ति में पाखंडवादी विचारों की जमकर खिल्लियाँ उड़ायी और मानव-मानव के बीच समन्वयवादी संस्कृति की स्थापना की। लोगों के बीच भक्ति के सही स्वरूप की व्याख्या की। भक्ति की पवित्र धारा को बहाने, उसे अनवरत गतिमय रहने में कबीर ने अपने प्रखर विचारों से उसे बल दिया। उन्होंने विधर्मियों की आलोचना की। भक्ति विमुख लोगों द्वारा भक्ति की परिभाषा गढ़ने की तीव्र आलोचना की। भक्ति के सत्य स्वरूप का उन्होंने उद्घाटन किया और जन-जन के बीच एकता, भाईचारा प्रेम की अजस्र गंगा बहायी। वे निर्गुण विचारधारा के तेजस्वी कवि थे। उन्होंने ईश्वर के निर्गुण स्वरूप का चित्रण किया। उसकी सही व्याख्या की। सत्य स्वरूप का सबको दर्शन कराया।