बिहार बोर्ड कक्षा 12वी - हिंदी - खंड अध्याय 8: उषा के दीर्घ - उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1: व्याख्या करें –
(क) जादू टूटता है इस उषा का अब सूर्योदय हो रहा है
उत्तर: प्रस्तुत पंक्ति दिगंत भाग 2 के उषा कविता से ली गई है। इन पंक्तियों में कवि शमशेर बहादुर सिंह कहते हैं कि, भोर का जो आकाश है वह शंख की तरह नीला है बादलों से घिरा हुआ नीला आकाश भोर में शंख की समान दिखाई देता है। जब सूर्य की पहली किरण आकाश में फैलती है तो ऐसा लगता है, जैसे किसी ने उस पर लाल केसर फैला दिया हो और अंधेरा लाल केसर सूर्य की लालिमा भरे प्रकाश से धुल गया हो, जैसे स्लेट को किसी ने लाल चौक से रंग दिया हो और जब सूर्य नीले आकाश में निकलता है। और जब सूर्य पूरी तरह उदित हो जाता है तब उषा का जादू टूट जाता है।
(ख) बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से कि जैसे धुल गई हो
प्रस्तुत पंक्ति दिगंत भाग 2 के उषा कविता से ली गई है। इन पंक्तियों में कवि शमशेर बहादुर सिंह कहते हैं कि, भोर के समय जो आकाश में अंधकार होता है, उसे काली सिल से तुलना किया गया है। (जिस पर मसाला पीसा जाता है।) वह सूर्य के प्रकाश अर्थात जब सूर्य की पहली किरण आकाश में फैलती है तो, ऐसा लगता है जैसे किसी ने उस पर लाल केसर फैला दिया हो और अंधेरा लाल केसर अर्थात सूर्य की लालिमा भरे प्रकाश से धुल गया हो।
प्रश्न 2: उषा का जादू कैसा है?
उत्तर: उषा का रूप-रंग मादक है, उसका आगमन और भी अधिक मद भरा है, चारों और हलचल मचा देता है। उसका प्रभाव भी विलक्षण है। उसके जादू का ही यह प्रभाव है कि आकाश नील शंख के समान दिखायी देता है। कभी वहीं आकाश ऐसा दिखायी देता है- मानो राख से लीपा हुआ गीला चौका हो, अथवा लाल केसर के जल से धुली कोई काली सिल हो अथवा किसी स्लेट पर लाल खड़िया पोत दी गयी हो। यह उषा का ही प्रभाव है कि वह अपना जादू बड़े प्रभावी ढंग से बिखेर देती है और यह वह सब सूर्योदय से पूर्व ही करती है।
प्रश्न 3: ’लाल केसर‘ और ‘लाल खड़िया चॉक‘ किसके लिये प्रयुक्त है?
उत्तर: आकाश के स्वरूप के लिये ।
प्रश्न 6: व्याख्या करें-
(क) जादू टूटता है इस उषा का अब सूर्योदय हो रहा है।
उत्तर: प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ शमशेर बहादुर सिंह की प्रसिद्ध कविता ‘उषा‘ से उद्धृत हैं। यहाँ आलंकारिक शैली में बिम्बात्मक सौन्दर्य के साथ, उषाकालीन आकाश का बड़ा प्यारा-सा चित्र उभार देता है। व्याख्या- कवि आकाश पटल पर उषा के प्रभाव के माध्यम से एक विलक्षण चित्र उतारता है। आकाश कभी नीले शंख-सा आभासित होता है, कभी ऐसा लगता है कि मानो राख से लीपा हुआ गीला चौका है अथवा किसी काली सिल को किसी लाल केसर के रंग से धो दिया गया हो अथवा स्लेट पर कोई लाल खड़िया अथवा चॉक को मल दिया गया हो, यह सारा उषा काही जादू था पर जब सूर्य का प्रकाश फूटता है तब यह सारा जादू टूट जाता है और उषा का सारा सौन्दर्य फीका पड़ जाता है क्योंकि सूर्योदय होते. ही उषा की आभा फीकी पड़ जाती है।
विशेष –
(1) उषा की शोभा बड़ी सुहावनी होती है। उसका यथार्थ चित्र उतारा गया है।
(2) उषाकालीन सौन्दर्य के चित्र बड़े सजीव व आकर्षक है।
(3) भाषा सजीव, सरस एवं सरल है।
(4) अलंकार – (क) उपमा-सजीव मौलिक सादृश्यों की बड़ी प्रभावी योजना हुई है। ‘नीला शंख‘, ‘लीपा हुआ चौका‘, ‘लाल केसर धुली सिल‘, ‘खड़िया पुती स्लेट‘ आदि
प्रश्न 4: बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से कि जैसे धुल गई हो।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ शमशेर बहादुर सिंह की कविता ‘उषा‘ से उद्धृत हैं। यहाँ उषा के आगमन पर आकाश की जो छवि दमकी है उसको बड़े सजीव मौलिक सादृश्यों के सहारे प्रस्तुत किया गया है। व्याख्या – उषा के आगमन के कारण आकाश में जो शोभा उभरी है, उसके कई रूप चित्रित हुए हैं, यहाँ भी इसी प्रकार का एक चित्र अंकित है। यह उषा का आगमन ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो किसी काली स्लेट पर किसी ने लाल खड़िया या लाल चॉक मल दिया हो अर्थात् आकाश की ऐसी ही
विलक्षण शोभा दमक रही है। स्लेट काली, खड़िया लाल, आकाश नीला, उषा लाल-बड़ा प्यारा दृश्य है और स्वाभाविक है। विशेष –
(1) प्रात:कालीन उषा का बड़ा मनोरम चित्र अंकित है।
(2) सादृश्य बड़ा प्रभावी, सटीक और सर्वथा मौलिक है।
(3) भाषा सरल, व्यावहारिक एवं अर्थगर्भित है।
प्रश्न 5: नील जल में किसकी गौर देह हिल रही है?
उत्तर: छोटी-सी कविता में कवि ने बहुत कुछ कह डाला है। भोर का नभ जागरण का संकेत और गृहिणी के कार्य का संकेत देता है। पहले वह चौका लीपती है- भारतीय ग्रामांचल में यह प्रथा है। बासी चौका पर कुछ नहीं पकाया जाता, उसको लीप कर शुद्ध किया जाता है, तब कुछ बनता है, फिर वह सिल पर मसाला आदि पीसती है जिसके अभाव में भोजन स्वादिष्ट नहीं हो सकता । फिर बारी आती है जल लाने की, वहाँ वाटर टेप नहीं होता, टोंटी खोल दी पानी भर लिया। वहाँ बाथरूम भी नहीं होते। गृहणियाँ पोखर, नदी, झरना, सोता, सरोवर पर जाती हैं वहीं बावड़ी होती है, वहाँ भी जाती हैं वहीं स्नान करके जल भर कर लाती हैं तो उस जल में उस गौरांगना की देह हिलती दिखायी देना स्वाभाविक है और जल नीला है, देह स्वर्णिम है। अतः उस आभा का झिलमिलाना भी स्वाभाविक ही है।
प्रश्न 6: कविता में आरम्भ से लेकर अन्त तक की बिम्ब योजना में गति का चित्रण कैसे हो सका है? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर: कविता की बिम्ब योजना बड़ी ही प्रभावी है, महत्वपूर्ण है। पहला बिम्ब शंख के माध्यम से उभारा गया है, शंख की ध्वनि और प्रात:कालीन आकाश की ध्वनि का साम्य, गत्यात्मक ही है- ध्वनि गतिशील है और प्रातःकाल का परिवेश और वायु गतिशील होकर ही ध्वनि करते हैं। सिल का प्रयोग, जहाँ लाल केसर धुल गयी है यह भी गत्यात्मक है। क्या अपने आप यह केसर घुल गयी ? किसी ने इसको सिल पर उतारा होगा। मसाला पीसा गया उसका अवशेष ही लाल केसर बना । स्लेट पर खड़िया भी अपने आप नहीं पुतती, वहाँ भी कोई उसको स्लेट पर पोतता है। यह वह बालक हो सकता है जो शिक्षा पाने का प्रयास कर रहा है। एक अत्यन्त प्रभावी गतिशील चित्र है गोरी देह का, नीले जल में, झिलमिलाना बड़ा ही प्यारा और सटीक बिम्ब है।
प्रश्न 7: इस कविता की बिम्ब योजना पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर: यहाँ (इस कविता में) दो प्रकार के बिम्ब उभारे गये हैं। एक जीवन से सम्बन्ध रखता है, जिसके माध्यम से मानवीय व्यापारों की व्यंजना की है। दूसरा प्रकृति के साथ जुड़ा है जिसमें प्राकृतिक व्यापारों की व्यंजना है। ये दोनों बिम्ब मिलकर प्रकृति का बड़ा सजीव मानवीकरण उभार कर सामने ला देते हैं। इस कविता पर छायावादी शैली का प्रभाव है। पहला बिम्ब है- प्रात: नभ था बहुत नीला शंख जैसे भोर का नभ।प्रात: का नभ नीला ही होता है, कारण बड़ा स्वच्छ होता है, न वहाँ प्रकाश न धुन्ध उसका आकार शंख जैसा ही है अत: वह नीले शंख के समान ही था। शंख ही क्यों प्रयुक्त हुआ ? शंख नाद करता है। प्रात:कालीन आकाश भी मुखरित होता है, खग, कूजन और वायु की गति मिलकर एक ध्वनि उत्पन्न करते हैं। यहाँ भोर का नभ अर्थात् प्रात: काल का समय है, उषा का आगमन हो चुका है, सूर्य का आगमन होने ही वाला है तभी तो सूर्य की लाली उषा का रूप धरकर दिगंत में छा गयी है। प्रातः के आगमन के साथ ही जीवन-जगत सक्रिय हो उठता है। उसकी गतिविधियाँ बढ़ने लगती हैं, यहाँ भी पहला व्यापार है ‘चौका लीपना‘ तभी तो कलेऊ पकेगा। अभी-अभी लीपा गया है, तभी तो गीला है, यहाँ आकाश की आर्द्रता, गीलापन व्यंजित है- बड़ा सटीक बिम्ब है। सिल भी प्रातः काल सक्रिय हो उठती है और बच्चे अपनी स्लेट उठा लेते हैं। चौका लीपा गया और सिल पर मसाला पिसा, वह केसर के जल में धुल गयी अर्थात् उस पर अब भी लालिमा शेष है। घर वाली बच्चों की और ध्यान देती है, अभी स्लेट उठ जाती है, उस पर खड़िया से लिखा जाता है फिर उसको मिटाया जाता है – यह भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । ग्रामांचलों में घरवाली पोखर या नदी में ही स्नान करती हैं और यह कार्य भी प्रात:काल ही होता है। वह चौका लीपकर मसाला पीसकर, बच्चों को काम समझाया तब स्नानार्थ जाती है तो,नील जल में था किसी की ,गौर झिलमिल देह जैसे हिल रही हो, प्रभावी हैं। जल में स्नान करते समय लहरें उठती हैं और गौर वर्ण का संयोग पाकर वे झिलमिला उठती हैं।