हिंदी - गद्य खंड अध्याय 7: ओ सदानिरा के NCERT Solutions
Bihar Board Class 12th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 7 ओ सदानीराओ सदानीरा वस्तुनिष्ठ प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ
प्रश्न 1.माथुर जी को किस उपाधि से विभूषित किया गया।
(क) विद्या वारिधि
(ख) विद्यासागर
(ग) विद्यारत्न
(घ) विद्याभूषण
उत्तर–(क)
प्रश्न 2.जगदीश चंद्र माथुर को कौन अवार्ड मिला था?
(क) कालिदास अवार्ड
(ख) तुलसीदास अवार्ड
(ग) कबीरदास अवार्ड
(घ) सूरदास अवार्ड
उत्तर–(क)
प्रश्न 3.माथुर जी को किस सम्मान से सम्मानित किया गया था?
(क) बिहार राजभाषा पुरस्कार
(ख) तुलसी दास अवार्ड
(ग) पं. बंगाल राजभाषा पुरस्कार
(घ) पंजाब राज्य
उत्तर–(क)
प्रश्न 4.माथुर जी के किस एकांकी का मंचन 1936 ई. में हुआ?
(क) मेरी बाँसुरी
(ख) मोर का तार
(ग) रीढ़ की हड्डी
(घ) दस तस्वीरें
उत्तर–(क)
प्रश्न 5.'मेरी बाँसुरी' एकांकी का किस पत्रिका में प्रथम प्रकाशन हुआ था?
(क) सरस्वती
(ख) ज्ञानकोश
(ग) भारत–भारती
(घ) गंगा
उत्तर–(क)
प्रश्न 6. माथुर जी के निबंध कैसे हैं?
(क) ललित
(ख) जटिल
(ग) सरल
(घ) असाधारण
उत्तर–(क)
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
प्रश्न 1.बसुंधरा भोगी मानव और ……… एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उत्तर– धर्मांध
प्रश्न 2.उनका. …….. बिहार था।
उत्तर– कार्यक्षेत्र
प्रश्न 3.किन्तु उन्होंने एक मनस्वी लेखक के रूप में अपनी पहचान ………. में बनाई।
उत्तर– नेहरू–युग
प्रश्न 4.इनमें से एक निबंध उनकी पुस्तक ……….. से यहाँ प्रस्तुत है।
उत्तर– बोलते क्षण
प्रश्न 5.जब गौतम बुद्ध इन नदियों के किनारे–किनारे ………. से मल्लों, मौयाँ, और शक्यों को उपदेश देने जाया करते थे तब ये नदियाँ संयमित थीं।
उत्तर– पाटलिपुत्र
प्रश्न 6.बाढ़ आती थी पर इनती …………… नहीं।
उत्तर– प्रचंड
ओ सदानीरा अति लघु उत्तरीय प्रश्न।
प्रश्न 1.जगदीशचन्द्र माथुर मूलतः क्या हैं?
उत्तर– नाटककार।
प्रश्न 2. ‘ओ सदानीरा’ के लेखक हैं :
उत्तर– जगदीशचन्द्र माथुर।
प्रश्न 3. ‘ओ सदानीरा’ किस नदी को निमित्त बनाकर लिखा गया है?
उत्तर– गंडक।
प्रश्न 4. ‘ओ सदानीरा’ निबंध बिहार के किस क्षेत्र की संस्कृति पर लिखी गई है?
उत्तर– चम्पारण।
प्रश्न 5. चम्पारण क्षेत्र में बाढ़ का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर– जंगलों का कटना।
प्रश्न 6. पुंडलीक जी कौन थे?
उत्तर– शिक्षक।
प्रश्न 7. जगदीशचन्द्र का जन्म किस दिन हुआ?
उत्तर– 16 जुलाई, 1917।
प्रश्न 8. ‘ओ सदानीरा! ओ चक्र।…..। इसे तू ठुकरा न पाएगी। यह वाक्य किसे संबोधित करके लिखा गया है?
उत्तर– गंडक नदी।
ओ सदानीरा पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.चम्पारण क्षेत्र में बाढ़ की प्रचंडता के बढ़ने के क्या कारण हैं?
उत्तर–चम्पारण क्षेत्र में बाढ़ का प्रमुख कारण जंगलों का कटना है। जंगल के वृक्ष जल राशि को अपनी जड़ों में थामे रहते हैं। नदियों को उन्मुक्त नवयौवना बनने से रोकते हैं। उत्ताल वृक्ष नदी की धाराओं की गति को भी संतुलित करने का काम करते हैं। यदि जलराशि नदी की सीमाओं से ज्यादा हो जाती है, तब बाढ़ आती ही हैं, लेकिन जब बीच में उनकी शक्तियों को ललकारने वाले ये गगनचुम्बी वन न हो तब नदियाँ प्रचण्ड कालिका रूप धारण कर लेती हैं। वृक्ष उस प्रचण्डिका को रोकने वाले हैं। आज चम्पारण में वृक्ष को काटकर कृषियुक्त समस्त भूमि बना दी गई है। अब उन्मुक्त नवयौवना को रोकने वाला कोई न रहा, इसलिए अपनी ताकत का अहसास कराती है। लगता है मानो मानव के कर्मों पर अट्टाहास करने के लिए उसे दंड देने के लिए नदी में भयानक बाढ़ आते हैं।
प्रश्न 2.इतिहास की कीमिआई प्रक्रिया का क्या आशय है?
उत्तर–कीमिआई प्रक्रिया पारे को सोने में बदलने की एक प्रक्रिया है, जिसमें पारे को कुछ विलेपनों के साथ उच्च तापक्रम पर गर्म किया जाता है। लेखक ने पाठ के संदर्भ में कीमिआई प्रक्रिया का आशय देते हुए कहा है कि जिस प्रकार पारा दूसरे प्रकार का पदार्थ है और उसे कुछ पदार्थों के संगम से बिल्कुल भिन्न पदार्थ का उद्भव हो जाता है, उसी तरह सुदूर दक्षिण की संस्कृति और रक्त इस प्रदेश की निधि बनकर एक अन्य संस्कृति का निर्माण कर गए।
प्रश्न 3.धाँगड़ शब्द का क्या आशय है?
उत्तर–धाँगड़ शब्द का अर्थ ओराँव भाषा में है–भाड़े का मजदूर। धाँगड़ एक आदिवासी जाति है, जिसे 18वीं शताब्दी के अंत में नील की खेती के सिलसिले में दक्षिण बिहार के छोटानागपुर पठार के चम्पारण के इलाके में लाया गया था। धाँगड़ जाति आदिवासी जातियाँ–ओराँव, मुंडा, लोहार इत्यादि के वंशज हैं, लेकिन ये अपने आपको आदिवासी नहीं मानते हैं। धाँगड़ मिश्रित ओराँव भाषा में बात करते हैं और दूसरों के साथ भोजपुरिया मधेसी भाषा में।
धाँगड़ों का सामाजिक जीवन बेहद उल्लासपूर्ण है, स्त्री–पुरुष ढलती शाम के मंद प्रकाश में अत्यन्त मनोहारी सामहिक नृत्य करते हैं।
प्रश्न 4.थारुओं की कला का परिचय पाठ के आधार पर दें।
उत्तर–थारुओं को कला मूलतः उनके दैनिक जीवन का अंग है। जिस पात्र में धान रखा जाता है वह सींक का बनाया जाता है। उसमें कई तरह के रंगों तथा डिजाइनों का प्रयोग होता है। सींक की रंग–बिरंगी टोकरियों के किनारे सीप की झालर लगाई जाती है। झोपड़ियों में प्रकाश के लिए जो दीपक लगाए जाते हैं उनकी आकृति भी कलापूर्ण है। शिकारी और किसान के काम के लिए जो पदार्थ मूंज से बनाए जाते हैं, उनमें भी सौन्दर्य और उपयोगिता का अद्भुत मिश्रण दिखाई पड़ता है। लेकिन सबसे मनोहर था नववधू का एक अनोखा अलंकरण जो मात्र आभूषण ही नहीं था।
नववधू जब पहली बार अपने पति के लिए खेत में खाना लेकर जाती तो अपने मस्तक पर एक सुन्दर पीढ़ा रखती जिससे तीन लटें–वेणियों की भाँति लटकी रहती थीं। हर लट में धवल सीपों और एक बीज विशेष के सफेद दाने पिरोए होते थे। पीढ़े के ऊपर सींक की कलापूर्ण टोकरी में भोजन रखा होता था। टोकरी को दोनों हाथों से सँभाले जब लाज भरी वधू धीरे–धीरे खेत की ओर बढ़ती तो सीप की वेणियाँ रजत–कंकणों की भाँति झंकृत हो उठतीं।
प्रश्न 5.अंग्रेज नीलहे किसानों पर क्या अत्याचार करते थे?
उत्तर–अंग्रेज नीलहे किसानों पर बहुत से अत्याचार करते थे। किसानों से जबरदस्ती नील की खेती करवाई जाती थी। उन्हें कुल भूमि के एक निश्चित भाग पर नील की खेती करने के लिए बाध्य किया गया तथा बाद में इससे मुक्त करने के लिए मोटी रकमें ली गई। इन गोरे ठेकेदारों ने बहुत कम अदायगी में हजारों एकड़ जमीन ले ली। इसके अतिरिक्त किसानों की कई तरह के कर तथा नजराने भी देने पड़ते थे।।
प्रश्न 6.गंगा पर पुल बनाने में अंग्रेजों ने क्यों दिलचस्पी नहीं ली?
उत्तर–गंगा पर पुल बनाने में अंग्रेजों ने इसलिए दिलचस्पी नहीं ली ताकि दक्षिण बिहार के बागी विचारों का असर चम्पारन में देर से पहुँचे। इस तरह चंपारण पर बरसों तक ब्रिटिश साम्राज्य की छत्रछाया वाला शासन चलता रहा।
प्रश्न 7.चंपारण में शिक्षा की व्यवस्था के लिए गाँधीजी ने क्या किया?
उत्तर–चंपारण में शिक्षा की व्यवस्था के लिए गाँधीजी ने अनेकों काम किए। उनका विचार था कि ग्रामीण बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था किए बिना केवल आर्थिक समस्याओं को सुलझाने से काम नहीं चलेगा। इसके लिए उन्होंने तीन गाँवों में आश्रम विद्यालय स्थापित किया–बड़हरवा, मधुबन और भितिहरवा। कुछ निष्ठावान कार्यकर्ताओं को तीनों गाँवों में तैनात किया। बड़हरवा के विद्यालय में श्री बवनजी गोखले और उनकी पत्नी विदुषी अवन्तिकाबाई गोखले ने चलाया। मधुबन में नरहरिदास पारिख और उनकी पत्नी कस्तूरबा तथा अपने सेक्रेटरी महादेव देसाई को नियुक्त किया। भितिहरवा में वयोवृद्ध डॉक्टर देव और सोपन जी ने चलाया। बाद में पुंडारिक जी गए। स्वयं कस्तूरबा भितिहरवा आश्रम में रहीं और इन कर्मठ और विद्वान स्वयंसेवकों की देखभाल की।
प्रश्न 8.गाँधीजी के शिक्षा संबंधी आदर्श क्या थे?
उत्तर–गाँधीजी शिक्षा का मतलब सुसंस्कृत बनाने और निष्कलुष चरित्र निर्माण समझते थे। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आचार्य पद्धति के समर्थक थे अर्थात् बच्चे सुसंस्कृत और निष्कलुष चरित्र वाले व्यक्तियों के सान्निध्य से ज्ञान प्राप्त करें। अक्षर ज्ञान को वे इस उद्देश्य की प्राप्ति में विधेय मात्र मानते थे।
वर्तमान शिक्षा पद्धति को वे खौफनाक और हेय मानते थे क्योंकि शिक्षा का मतलब है–बौद्धिक और चारित्रिक विकास, लेकिन यह पद्धति उसे कुंठित करती है। इस पद्धति में बच्चों को पुस्तक रटाया जाता है ताकि आगे चलकर वे क्लर्क का काम कर सकें, उनका सर्वांगीण विकास से कोई सरोकार नहीं है।
गाँधीजी जीविका के लिए नये साधन सीखने के इच्छुक बच्चों के लिए औद्योगिक शिक्षा के पक्षधर थे। तात्पर्य यह नहीं था कि हमारी परंपरागत व्यवसाय में खोट है वरन् यह कि हम ज्ञान प्राप्त कर उसका उपयोग अपने पेशे और जीवन को परिष्कृत करने में करें।
प्रश्न 9.पुंडलीक जी कौन थे?
उत्तर–पुंडलीक जी भितिहरवा आश्रम विद्यालय के शिक्षक थे। गाँधीजी ने उन्हें बेलगाँव से सन् 1917 में बुलाया था शिक्षा देने और ग्रामीणों के भयारोहरण के लिए।
पुंडलीक जी, गाँधीजी के आदर्शों को सच्चे दिल से मानने वाले बड़े ही निर्भय पुरुष थे। पहले एक कायदा था कि साहब जब आएँ तो गृहपति उसके घोड़े की लगाम पकड़े। एक दिन एमन साहब, जो उस समय बड़े अत्याचारी थे आए तो पुंडलिक जी ने कहा, “नहीं, उसे आना है तो मेरी कक्षा में आए मैं लगाम पकड़ने नहीं जाऊँगा।” पुंडलिक जी ने गाँधीजी से सीखी निर्भीकता गाँव वालों को दी। यही निर्भीकता चम्पारण अभियान की सबसे बड़ी देन है।
प्रश्न 10.गाँधीजी के चम्पारण के आन्दोलन की किन दो सीखों का उल्लेख लेखक ने किया है? इन सीखों को आज आप कितना उपयोगी मानते हैं?
उत्तर–गाँधीजी के दो सीख है पहली निर्भीकता और दूसरी सत्य का आचरण। निर्भीकता जीवन का बहुत महत्वपूर्ण आचरण है, जिसके ना होने से पशुता और मनुष्यता में फर्क कठिन हो जाता है। सत्य के लिए निर्भीकता निहायत जरूरी है। निर्भीक होने का अर्थ है अपनी सच्ची बात पर अडिग रहना। निर्भीक होना और उदंड होना अलग है। उदंडता एक निषिद्ध आचरण है, जबकि निर्भीक होना निहायत जरूरी।
सत्य का आचरण एक ऐसी चीज है, जिससे ना होने पर संसार का अस्तित्व ही संकट में ही जाए। बिना तथ्य की जानकारी के कोई बात कहना, अफवाह उड़ाना है। विश्वास की नींव सत्य के आचरण पर ही टिकी है। गाँधीजी बिना कोई बात परखें सत्यता की जाँच के नहीं कहा करते थे। यह उनके जीवन का सबल था। यही हमारे जीवन का भी होना चाहिए क्योंकि इसके न होने से हम मानव कहलाने का गौरव खो देते हैं और हमारा अस्तित्व जो विश्वास की बुनियाद पर खड़ा है समाप्त हो जाएगा।
प्रश्न 11.यह पाठ आपके समक्ष कैसे प्रश्न खड़े करता है?
उत्तर–हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण एक प्रश्न, एक समस्या लेकर उपस्थित होता है। उसमें अपने जीवन के घटनाक्रमों से अनेक बातों को सीखने तथा समझने का अवसर मिलता है। ऐसे अनेक प्रश्न हमारे इर्द–गिर्द मंडराते रहते हैं जिनसे निपटने के लिए अनर्थक तथा सार्थक प्रयास अपेक्षित हैं तथा इस दिशा में हमारा व्यावहारिक ज्ञान सहायक होता है।
प्रस्तुत पाठ में हमारे समक्ष इसी प्रकार के कतिपय प्रश्न उपस्थित हुए हैं। पहली समस्या यह है कि हमारे अनुत्तरदायित्वपूर्ण रवैये से वनों का निरन्तर विनाश किया जा रहा है। चम्पारण की शस्य श्यामला भूमि जो हरे–भरे वनों से आच्छादित था, वहाँ एक लम्बे अरसे से वृक्षों का काटना जारी है। उसने हमारे पर्यावरण को तो प्रभावित किया ही है, हमारी नदियों में वर्षाकाल में अप्रत्याशित बाढ़ एवं तबाही का दृश्य प्रस्तुत किया है वृक्षों के क्षरण से उनके तटों में जल–अवरोध की क्षमता का ह्रास है। वनों का विनाश कर कृषि योग्य भूमि बनाने, भवन, कल कारखानों एवं उद्योगों की स्थापना करने से इन सारी विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। वृक्षों की घटती संख्या तथा धरती की हरियाली में निरंतर हास से वर्षा की मात्रा भी काफी घट गई है।
इस पाठ में चंपारण में प्रवाहित होने वाली नदियाँ गंडक, पंडई, भसान, सिकराना आदि नदियाँ किसी जमाने में वनश्री के ढके वक्षस्थल में किलकारती रहती थीं, अब विलाप करती हैं निर्वस्त्र हो गई हैं। इससे अनेकों समस्याओं ने जन्म लिया है–नदियों का कटाव, अप्रत्याशित वीभत्स बाढ़ की विनाश लीला, पर्यावरण प्रदूषण, अनियमित तथा कम मात्रा में वर्षा का होना आदि।
हमें इन समस्याओं से निदान हेतु वनों की कटाई पर तत्काल रोक तथा वृक्षारोपण करना होगा। सौभाग्य से गंडक घाटी योजना के अन्तर्गत सरकार द्वारा नहरों का निर्माण कर गंडक को दुरवस्था से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया गया। इसी प्रकार की अनेक योजनाएँ अन्य नदियों . के साथ भी अपेक्षित है।
प्रश्न 12.अर्थ स्पष्ट कीजिए
(क) वसुंधरा भोगी मानव और धर्मान्ध मानव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उत्तर–प्रस्तुत पंक्तियाँ जगदीशचन्द्र माथुर ने मनुष्य की पाश्विक प्रवृत्ति एवं दूषित मानसिकता का वर्णन किया है। एक तरफ मनुष्य जंगल काटे जा रहा है, खेतों को पशु, पक्षियों आदि को नष्ट कर रहा है। नदियों पर बाँध बनाकर उसे नष्ट कर रहा है तो दूसरी ओर धर्मान्ध मानव गंगा को मइया कहता है पर अपने घर की नाली, कूड़ा–करकट पूजन–सामग्री जो प्रदूषण ही फैलाते हैं गंगा नदी में प्रवाहित करता है। इस प्रकार दोनों इस प्रकृति को नष्ट करने में लगे हुए हैं। इसलिए कहा जाता है कि वसुंधरा भोगी मानव और धर्मान्धमानव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
(ख) कैसी है चंपारण की यह भूमि? मानो विस्मृति के हाथों अपनी बड़ी से बड़ी निधियों को सौंपने के लिए प्रस्तुत करती है।
उत्तर–
चम्पारण की यह गौरवशाली भूमि महान है। यहाँ अनेक आक्रमणकारी तथा बाहरी व्यक्ति आए। उन्होंने या तो इस पावन भूमि को क्षति पहुँचाई या आकर बस गए। किन्तु धन्य है इसकी सहनशीलता एवं उदारता। इसने इन सबको भुला दिया, क्षमा कर दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि इसने विस्मृति के हाथों अपनी बड़ी से बड़ी निधियों को सौंप दिया इसने किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं किया। स्वयं को उन आततायियों के हाथों समर्पित कर दिया। उन्हें अपनी निधियों से समृद्ध किया।
प्रश्न 13.लेखक ने पाठ में विभिन्न जाति के लोगों के विभिन्न स्थानों से आकर चम्पारण और उसके आस–पास बसने का जिक्र किया है। वे कहाँ–कहाँ से और किसलिए वहाँ आकर बसे?
उत्तर–चंपारण में विभिन्न जाति के लोग समय–समय पर भिन्न–भिन्न स्थानों से आकर बस गए। पहले पहल यहाँ कर्णाट वंश के लोग आये। ये दक्षिण से थे और यहाँ आकर इस प्रदेश के रक्त और निधि बने। कर्णाट वंश के लोग मिथिला और नेपाल विजय के लिए आए थे। थारू और धाँगड़ जातियाँ यहाँ आजीविका की खोज में आई। यहाँ धाँगड़ों को गोरे अंग्रेज और रामनगर के तत्कालीन राजा नील की खेती के लिए लाए थे। दक्षिण बिहार के गया जिले से भुपईड लोग भी इसी तरह नील की खेती के लिए हिमालय की तलहटी में लाए गए। संभवतः ये मुसहर वर्ग के अंग है। राजकुल वंश के वंशज आक्रमणकारियों से त्रस्त होकर यहाँ आए। उर्वरा भूमि से संपदा प्राप्त करने के लिए पछाँही जमींदार और गोरे साहब ब्रिटिश साम्राज्य के कोने में वैभवशाली साम्राज्य स्थापित करने आए। यहाँ पूर्वी बंगाल के शरणार्थी भी त्रस्त होकर यहाँ आए। यहाँ के अशोक स्तम्भ स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि यहाँ कभी मौर्य साम्राज्य का शासन रहा था।
प्रश्न 14.पाठ में लेखक नारायण का रूपक रचता है और वह सांग रूपक है। रूपक का पूरा विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर–भारतवर्ष के रूपकों का सर्वथा पूर्व और प्रारम्भिक रूप ऋग्वेद में प्रार्थना मंत्रों और संवादों के रूप में मिलता है। यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि भारत में न्यूटन ने अपना पूर्ण रूप किसी समय का धारण किया पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसका बीज भी वेदों में ही था। जैसा भरत मुनि के उल्लेख से स्पष्ट है अर्थात् अभिनय या नाट्य का मूल कर्मकांड के मंत्रों के संग्रह यजुर्वेद में मिलता है। यज्ञ–भागादि की क्रिया में स्वांग भरने (सांग भरना) की अपेक्षा कई प्रसंगों में होती है यही क्रिया धीरे–धीरे विकसित होकर अंकुरित और पल्लवित हुई होगी।
किसी भी अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते हैं। यह अनुकरण चार प्रकार के अभिनयों द्वारा अनुकार्य और अनुकर्ता की एकता प्रदर्शित करने से पूर्ण होता है। नाटक के पात्र के साथ एकता दिखाने के लिए अभिनेता को उठना–बैठना, चलना–फिरना इत्यादि सब व्यवहार। उसी के समान वस्त्राभूषण पहनने चाहिए और उसी के समान अनुभूति भी दिखलानी चाहिए। नाट्य ‘शास्त्रकारों ने रूपक के सहायक या उपकरण नृत्य और नृत्त माने हैं। किसी भाव को प्रदर्शित करने के लिए विशेष के अनुकरण को नृत्य कहते हैं। इसमें आर्थिक अभिनय की प्रधानता रहती है। लोग इसे नकल या तमाशा कहते हैं। अभिनय रहित केवल नाचने को नृत्य कहते हैं। जब इन दोनों के साथ गीत और कथन मिल जाते हैं तब रूपक का पूर्ण रूप उपस्थित हो जाता है। शास्त्रकारों का कहना है कि नृत्य भावों के आश्रित और नृत्य ताल तथा सय के आश्रित रहते हैं और रूपक रसों के आश्रित रहते हैं। इस प्रकार रसों का संचार करने में अनुभव, विभाव आदि सहायक होते हैं, उसी प्रकार नाटकीय रसों की परिपुष्टि में नृत्य आदि भी सहायक का काम लेते हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर दो भेद किए गए हैं–
रूपक तथा
उप रूपक। रूपकों में रस की प्रधानता रहती है।
उपरूपक में नृत्य, नृत्त आदि की। नृत्य मार्ग, नृत्त जैसी भिन्न–भिन्न देशों, भिन्न–भिन्न प्रकार का महत्व होता है।
प्रश्न 15.नीलहे गोरों और गाँधीजी से जुड़े प्रसंगों का अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर–चंपारण में रैयतों और किसानों पर नीलहे गोरों का अत्याचार चरमोत्कर्ष पर था। ये नीलहे–गोरे उसके साथ पशुवत् व्यवहार करते थे। पूरे चंपारण पर उन दिनों उनका साम्राज्य था। जिस रास्ते पर नीलहे साहब की सवारी जाती उस पर हिन्दुस्तानी अपने जानवर नहीं ले जा सकते थे। यदि किसी रैयत के यहाँ उत्सव या शादी विवाह होते तो साहब के यहाँ नजराना भेजना पड़ता था। यहाँ तक कि साहब के बीमार पड़ने पर उनके इलाज के लिए भी रैयतों से वसूली होती। अमोलवा कोठी के साहब एमन का भीषण आतंक चंपारण में व्याप्त था। किसी भी रैयत की झोपड़ी में आग लगा देना, किसी को जेल में ठूस देना उनका रोज का काम था। तत्कालीन शासन निलहे गोरों के हाथ का पुतला था। उनके प्रभाव का प्रमाण गंगा नदी पर पुल का नहीं बनना था, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि दक्षिण बिहार के बागी विचारों का असर चंपारण में जल्दी से पहुँचे।
महात्मा गाँधी के कदम चंपारण की धरती पर सन् 1917 ई. के अप्रैल माह में पहले पहल पड़े। गाँधीजी चंपारण की रैयत को भय और अत्याचार के चंगुल से बचाने के लिए वहाँ के कुछ स्थानीय व्यक्तियों के आग्रह पर यहाँ आए। उन व्यक्तियों के प्रमुख सर्व श्री रामदयाल सह, हरवंस सहाय, रामनौमी प्रसाद, राजकुमार शुक्ल आदि थे। श्री राजकुमार शुक्ल की मृत्यु सन् 1930 के आस–पास हो गई। महात्मा गाँधी ने वहाँ की ग्रामीण जनता की सामाजिक अवस्था के सुधार का कार्य किया। उन्होंने ग्रामीण बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने तीन ग्रामीण विद्यालयों की स्थापना की, बड़हरवा, मधुबन और भितहरवा तीनों विद्यालयों में गुजरात और महाराष्ट्र से कार्यकर्ता, विद्यालय संचालन के लिए आए। इनमें श्री बबन जी गोखले, श्रीमती अवन्तिका बाई गोखले, श्री देवदास गाँधी, श्री नरहरि दास पारिख तथा गाँधी जी के सेक्रेटरी श्री महादेव देसाई थे। महात्मा गाँधी, कस्तूरबा तथा कृपलानी जी भी वहाँ कुछ दिनों तक रहे।
प्रश्न 16.चौर और मन किसे कहते हैं? वे कैसे बने और उनमें क्या अंतर है?
उत्तर–चंपारण में गंडक घाटी के दोनों ओर विभिन्न आकृतियों के ताल दिख पड़ते हैं। ये कहीं उथले तो कहीं गहरे हैं, सभी प्रायः टेढ़े–मेढ़े किन्तु शुभ्र एवं निर्मल जल से पूर्ण हैं। इन तालों को चौर और मन कहते हैं। चौर उथले ताल होते हैं जिसमें पानी जाड़ों और गर्मियों में कम हो जाता है। इनके द्वारा खेती भी होती है। मन विशाल और गहरे ताल है। ‘मन’ शब्द मानस का अपभ्रंश है। ये मन ओर चौर मानों गंडक के उच्छंखल नर्तन के समय बिखरे हुए आभूषण हैं। जब बाह ली है तो तंटों का उल्लंघन कर नदी दूसरा पथ पकड़ लेती है। पुराने पथ पर रह जाते हैं ये चौर और मन, जिनकी गहराई तल को स्पर्श कर धरती के हृदय से स्रोत को फोड़ लाई।
प्रश्न 17.कपिलवस्तु से मगध के जंगलों तक की यात्रा बुद्ध ने किस मार्ग से की थी?
उत्तर–लौरिया नंदनगढ़ से एक नदी रामपुरवा और भितिहरवा होते हुए उत्तर में नेपाल के लिए भिखना थोरी तक जाती है। उस नदी का नाम है ‘पइंड’। इसी के सहारे भगवान बुद्ध ने कपिल से मगध तक की यात्रा की थी। लौरियां नंदनगढ़ में सम्राट अशोक द्वारा बनवाया हुआ कलापूर्ण स्तम्भ है।
ओ सदानीरा भाषा की बात
प्रश्न 1.इन पदों के समास निर्दिष्ट करें सदानीरा, शस्यश्यामला, नववधू, महानायक, तीर्थयात्रा, शिक्षाप्राप्त।
उत्तर–
सदानीरा – बहुब्रीहि समास
शस्यश्यामला – तत्पुरुष समास
नववधू – कर्मधारय समास
महानायक – कर्मधारय समास
तीर्थयात्रा – षष्ठी तत्पुरुष समास
शिक्षाप्राप्त – द्वितीय तत्पुरुष समास
प्रश्न 2. निम्नलिखित शब्दों का सन्धि विच्छेद करें विक्रमादित्य, चित्रोपम, निष्कंटक, उल्लास, इत्यादि
उत्तर–
विक्रमादित्य – विक्रम + आदित्य
चित्रोगम – चित्र + उपम
निष्कंटक – निः + कंटक
उल्लास – उत् + लास
इत्यादि – इति + आदि
प्रश्न 3. निम्नलिखित शब्दों से वाक्य बनाएँ मलीन, कमाई, पुल, छत्रछाया, प्रबंध, आदर्श
उत्तर–
मलीन – उसका वस्त्र मलीन है।
कमाई – आजकल नेताओं की कमाई अच्छी है।
पुल – पुल चौड़ा है।
छत्रछाया – आपकी छत्रछाया में मैं रहना चाहता हूँ।
प्रबंध – इस अस्पताल का प्रबंध बहुत अच्छा है।
आदर्श – गाँधीजी एक आदर्श पुरुष थे।
प्रश्न 4. रेखांकित उपवाक्यों की बताएँ
(क) सुल्तान घोड़े से उतरा और तलवार से उसने एक विशाल विटप के तने पर आघात किया।
(ख) उसके गिरते ही बिजली सी दौड गई उसके सैनिकों में, ओर हजारों तलवारें घने वन के वृक्षों पर टूट पड़ी।
(ग) वे लगभग एक साल रहे और फिर अंग्रेज सरकार ने उन्हें जिले से निर्वासित कर दिया।
उत्तर–
(क) सुल्तान. घोड़े से उतरा–संज्ञा उपवाक्य
(ख) उसके गिरते ही बिजली सी दौड़ गई–क्रियाविशेषण उपवाक्य
(ग) वे लगभग एक साल रहे–क्रियाविशेषण उपवाक्य।
ओ सदानीरा लेखक परिचय जगदीशचन्द्र माथुर (1917–1978)
जीवन–परिचय–
प्रतिभाशाली लेखक, नाटककार एवं संस्कृतिकर्मी जगदीशचन्द्र माथुर का जन्म 16 जुलाई, सन् 1917 को शाहजहाँपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ था। इन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एम.ए. किया। इसके बाद सन् 1941 में आई.सी.एस. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। ये प्रशिक्षण के लिए अमेरिका गए और बाद में बिहार के शिक्षा सचिव नियुक्त किए गए। इन्होंने सन् 1944 में बिहार के सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक उत्सव वैशाली महोत्सव का बीजारोपण किया। ये ऑल इंडिया रेडियो में महानिदेशक भी रहे और इन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार के पद पर भी कार्य किया। ये हार्वर्ड विश्वविद्यालय के विजिटिंग फेलो रहने के अतिरिक्त अन्य कई महत्त्वपूर्ण कार्यों से जुड़े रहे। अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिए इन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें विद्या वारिधि की उपाधि, कालिदास अवार्ड और बिहार राजभाषा पुरस्कार प्रमुख है। 14 मई, सन् 1978 को इनका निधन हो गया।
रचनाएँ–
जगदीशचन्द्र माथुर जी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
सन् 1936 में प्रथम एकांकी ‘मेरी बाँसुरी’ का मंचन व ‘सरस्वती’ में प्रकाशन। पाँच एकांकी नाटकों का संग्रह ‘भोर का तारा’ सन् 1946 में प्रकाशित।
इनके अतिरिक्त ‘ओ मेरे सपने’ (1950), ‘मेरे श्रेष्ठ रंग एकांकी’, ‘कोणार्क’ (1951), ‘बंदी’ (1954), ‘शारदीया’ (1959), ‘पहला राजा’ (1969), ‘दशरथ नंदन’ (1974), ‘कुँवर सिंह की टेक’ (1954), ‘गगन सवारी’ (1958) के अलावा दो कठपुतली नाटक।
‘दस तस्वीरें’ और ‘जिन्होंने जीना जाना’ में रेखाचित्र और संस्मरण है। ‘परंपराशील नाट्य’ (1960) उनकी समीक्षा दृष्टि का परिचायक है।
‘बहुजन संप्रेषण के माध्यम’ जनसंचार पर लिखी विशिष्ट पुस्तक है और ‘बोलते क्षण’ निबन्ध संग्रह है।
साहित्यिक विशेषताएँ–जगदीशचन्द्र माथुर एक प्रतिभाशाली लेखक, नाटककार एवं प्रशासक थे। वे साहित्य के क्षेत्र में बिहार की विशिष्ट प्रतिभा के रूप में जाने जाते हैं। नाटक के शास्त्रीय तथा लोकरूप उनके आकर्षण का केन्द्र रहे। उनके नाट्यलेखन में रंगमंच की . कल्पनाशील सक्रिय चेतना समाहित है। अर्थात् इनकी नाट्य कृतियाँ मंचन तथा अभिनेता की दृष्टि से सफल मानी जाती है। उनके साहित्य में कहीं भी संकीर्णता नहीं आई है। अपितु उनके लेखन में एक उदार दृष्टिकोण प्रकट होता है। सौन्दर्यप्रियता और लालित्यबोध उनकी अभिरुचि के अंग थे। वे रचना में एक सुव्यवस्था, सुरुचि और कलात्मकता को आवश्यक मानते थे तथा इसका ध्यान उन्होंने अपनी समस्त रचनाओं में रखा है।
ओ सदानीरा पाठ के सारांश
जगदीशचन्द्र माथुर ‘ओ सदानीरा’ शीर्षक निबन्ध के माध्यम से गंडक नदी को निमित्त बनाकर उसके किनारे की संस्कृति और जीवन प्रवाह की अंतरंग झाँकी पेश करते हैं जो स्वयं गंडक नदी की तरह प्रवाहित दिखलाई पड़ता है। सर्वप्रथम चम्पारण क्षेत्र की प्रकृति वातावरण का वर्णन करते हुए उसकी एक–एक अंग का मनोहारी अंकन करते हैं। जैसे छायावादी कविताओं में प्रकृति का मानवीकरण देखा जा सकता है उसी तरह निबंध में भी देखा जा सकता है। एक अंश देखिए–”बिहार के उत्तर–पश्चिम कोण के चम्पारण इस क्षेत्र की भूमि पुरानी भी और नवीन भी। हिमालय की तलहटी में जंगलों की गोदी से उतारकर मानव मानो शैशव–सुलभ अंगों और मुस्कान वाली धरती को ठुमक–ठुमककर चलना सिखा रहा है।” इसके साथ माथुर संस्कृति के गर्त में जाकर आना उन्हें लगता है जैसे उन्मत्त यौवना वीरांगना हो जो प्रचंड नर्तन कर रही हो।
उन्हें साठ–बासठ की बाढ़ रामचरितमानस के क्रोधरूपी कैकयी की तरह दिखलाई पड़ती है। वे बताते हैं नदियों में बाढ़ आना मनुष्यों के उच्छृखलता के कारण हैं। यदि महाजन जो चम्पारण से गंगा तट तक फैला हुआ था न कटता तो बाढ़ न आती। माथुर तर्क देते हैं कि वसुंधराभोगी मानव और धर्मांधमानव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि वसुन्धरा भोगी मानव अपने भोग–विलास. के लिए जंगलों की कटाई कर रही है तो धर्मांध मानव पूजा–पाठ के सड़ी–गली सामग्री को गंगा नदी में प्रवाहित कर उसे दूषित कर रहा है। माथुर मध्ययुगीन समाज की सच्चाई भी बताते हैं कि आक्रमण के कारण या अपनी महत्त्वाकांक्षा की तृप्ति के लिए मुसलमान शासकों ने अंधाधुंध जंगलों की कटाई की।
इसी तरह यहाँ अनेक संस्कृति आये और यहीं रच–बस गये। सभी ने उसका दोहन ही किया। इस मिली–जुली संस्कृति का परिणाम कीमियो प्रक्रिया है। चम्पारण के प्रत्येक स्थल पर प्राचीन युग से लेकर आधनिक युग में गाँधी के चम्पारण आने तक के पूरा इतिहास को अपने लेखनी के माध्यम से अच्छे–बुरे प्रभाव को खंगालते हैं। इस परिचय के संदर्भ में कहीं भी कला संस्कृति उसकी भाषा उनकी आँखों से ओझल नहीं हो पाती।।
अंत में गंडक की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि ओ सदानीरा ! ओ चक्रा! ओ नारायणी। ओ महागंडक ! युगों से दीन–हीन जनता इन विविध नामों में तुझे संबोधित करती रही है। और तेरे पूजन के लिए जिस मन्दिर की प्रतिष्ठा हो रही है, उसकी नींव बहुत गहरी और मजबूत हैं। इसे तू ठुकरा न पाएगी।