बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 1 जीवों मे जनन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जीवों मे जनन के प्रकार को समझाए।
उत्तर: जनन जीवधारियों का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण लक्षण है। इस लक्षण के अन्तर्गत जीव अपने जैसे जीव को उत्पन्न करता है; अत: यह जीवन चक्र को पूर्ण करने तथा वंश को चलाये रखने के लिए अनिवार्य क्रिया है।
जीवों में जनन की प्रायः दो प्रकार की विधियाँ पायी जाती हैं-
1) अलैंगिक जनन - जब कोई जीव जनन के लिए अपने शरीर के किसी भाग कोशिका या कोशिकाओं अथवा किसी विशेष निर्मित संरचना को प्रयोग करता है तथा इन संरचनाओं में कोई लैंगिक संलयन नहीं होता है, तो यह अलैंगिक जनन कहलाता है। अलैंगिक जनन के फलस्वरूप उत्पन सन्ताने पूर्णतः अपने जनक जैसी होती हैं तथा इन सन्तानों में विभिन्नतायें नहीं होती है। अलैंगिक जनन इसीलिए महत्त्वपूर्ण जनन नहीं है क्योंकि सन्तति में किसी प्रकार के लक्षणों का पुनर्मिश्रण सम्भव नहीं है। इसीलिए अलैंगिक रूप से उत्पन्न संतति को क्लोन (clone) कहा जाता है।
उदाहरण : पादपों में अनेक बार पौधे के किसी भाग या अंश से होने वाले जनन को कायिक प्रवर्धन या वर्धी प्रजनन कहा गया है।
2. लैंगिक जनन - जब किसी जीव अथवा एक ही जीव जाति के दो सदस्यों द्वारा उत्पन्न दो युग्मकों के संलयन से बने युग्मनज से सन्तान का जन्म होता है तो यह जनन लैंगिक जनन कहलाता है। इस सन्तान में दोनों युग्मकों के लक्षणों का मिश्रण होता है; अतः लैंगिक जनन के फलस्वरूप अनेक विभिन्नताओं की सम्भावना रहती हैं।
प्रश्न 2. जीवों मे अलैंगिक जनन की विधियों को बताए।
उत्तर: जीवों में अलैंगिक जनन -
सभी पादपों तथा कुछ निम्न श्रेणी के जन्तुओं में यह जनन अलैंगिक जनन विधि से होता है। इसमें सन्ततिः का विकास जन्तु के शरीर के किसी भी भाग से या विशेषीकृत रचना द्वारा होता है। इससे जनक तथा सन्तानों के आनुवंशिक पदार्थ में कोई अन्तर नहीं होता है। अलैंगिक जनन अधिकतर सभी पादपों में तथा निम्न कोटि के जन्तुओं में ही होता है, उच्च श्रेणी के जन्तुओं में इस प्रकार का जनन नहीं होता।
अलैंगिक जनन की निम्नलिखित विधियाँ होती है-
1. विखण्डन - विखण्डन का अर्थ है टूटना (विखण्ड बनाना)। यह दो प्रकार का होता है-
(i) द्विविखण्डन- इसमें जनक का शरीर दो भागों में बँट जाता है। जब जनक का शरीर लम्बाई में दो भागों में विभक्त होता है तब इसे अनुलम्बीय द्विविखण्डन कहते हैं। जैसे-यूग्लीना में।
जब जनक का शरीर अनुप्रस्थ रूप से दो भागों में बँटता है तब इसे अनुप्रस्थ द्विविखण्डन कहते हैं; जैसे—अमीबा, पैरामीशियम, यीस्ट।
(ii) बहुविखण्डन- इसमें जनक का शरीर कई भागों में बंट जाता है। यह जनन प्रायः प्रतिकूल परिस्थितियों में होता है। खण्डों के ऊपर प्रायः स्वरक्षित खोल या सिस्ट बनते है जो इन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों से बचाते हैं। उदाहरण-यूलोथ्रिक्स, अमीबा, प्लाज्मोडियम आदि।
2. मुकुलन — इसमें सन्तति की उत्पत्ति मातृ कोशिका की एक छोटी-सी कलिका से होती है और बाद में यह मातृ कोशिका से अलग हो जाती है। उदाहरण-हाइड्रा, विभिन्न स्पंज आदि।
एककोशिकीय जीवों, जैसे- जीवाणु, यीस्ट आदि में केन्द्रक दो भागों में विभाजित हो जाता है तथा एक केन्द्रक पहले से मुकुल में आ जाता है। मुकुल, मातृ कोशिका से अलग होकर वृद्धि का सकती है अथवा इसी पर लगे लगे नये मुकुल भी बना लेती है।
3. अन्त: मुकुलन - इस प्रकार का जनन प्रतिकल परिस्थितियों में होता है। इसमें जन्तु शरीर की कोशिकायें रक्षात्मक खोल के अन्दर छोटे-छोटे पिण्डों में बंट जाती हैं जिन्हें जेम्यूल्स (gemmules) कहते हैं। इन्हें बनाने के बाद जनक का शरीर मृत हो जाता है। अनुकूल परिस्थितियाँ आने पर प्रत्येक जेम्यूल से एक युवा स्पंज बनकर खोल के बाहर आता है। उदाहरण- अलवणीय स्पंजो तथा मार्केन्शिया
4. विखण्डीजनन - इस प्रकार के जनन को अनेक जीव विज्ञानी वर्धी जनन मानते हैं। इस विधि में बहुकोशिकीय जीव का शरीर या सूकाय दो या दो से अधिक टुकड़ों में टूट जाता है और प्रत्येक टुकड़ा पुनरुद्भवन द्वारा एक नयी विकसित सन्तति बनाता है।
5. बीजाणुओ द्वारा : द्वारा जनन या बीजाणुजनन वास्तव में बहुविखण्डन ही है। अमीबा, मलेरिया परजीवी, राइजोपस, फर्न आदि जीवों में एककोशिकीय भित्ति या कोष्ठयुक्त संरचनायें बनती है जिन्हें बीजाणु कहते हैं। उचित अवसर मिलने पर ये बीजाणु पूर्ण जीव के रूप में वृद्धि कर लेते है।
6. वर्धी जनन या कायिक प्रवर्धन - पौधों में बीज के अतिरिक्त, पौधे के किसी कायिक अंग या कायिक प्रवर्ध, जैसे- जड़, तना, पत्ती, कलिकाओं आदि के द्वारा नया पौधा तैयार हो जाता है। जनन की यह विधि कायिक प्रवर्धन कहलाती है।
प्रश्न 3. कायिक जनन की प्राकर्तिक विधियों का विवरण दे।
उत्तर: प्राकृतिक कायिक जनन :
पादपों में कायिक अंगों से कलिकायें विकसित होकर नये पौधों का निर्माण करती है। इस प्रकार का जनन प्रायः उच्च श्रेणी की वनस्पतियों में पाया जाता है और यह प्रकृति में स्वतः होता रहता है। जनन करने वाले अंगों में प्रायः खाद्य पदार्थ संचित किए जाते हैं। उदाहरणार्थ- कुछ पौधों की मांसल जड़ों पर कलिकायें बन जाती है। नये पौधे बनाती हैं; अनेक प्रकार के भूमिगत तने (प्रकन्द, कन्द, घनकन्द शल्ककन्द आदि) ,किनारों अथवा शीर्षो पर कलिकायें विकसित होकर नये पौधे बनाती है। भ्रूप्रसारी आदि में कायिक जनन होता है कुछ पौधों में कायिक कलिकायें ही भोजन संचित करके प्रकलिकाओं या बुलबिल्स में बदल जाती है और प्राकृतिक कायिक जनन करती हैं।
जड़ों द्वारा प्राकृतिक कायिक जनन: अनेक पौधों के जड़ें भोजन संचित करके फूल जाती हैं। इन पर अपस्थानिक कलिकाओंके द्वारा कायिक जनन किया जाता है, उदाहरण शकरकन्द, सतावर आदि। अनेक काष्ठीय पौधों (वृक्ष व भूप) की जड़ों से भी नयी प्ररोह शाखायें निकल आती है। जो प्राकृतिक रूप में नये पौधे में विकसित हो जाती है। उदाहरण- शीशम (Dalbergia sissoo), मीठा नीम (Murraya koenigii) आदि।
तने द्वारा प्राकृतिक कायिक जनन —अनेक पौधों में विशेष रूपान्तरित तने अधिक मात्रा में भोजन संचय करते हैं तथा बहुवर्षीयता प्राप्त करने के लिए विशेष प्रकार के अंग बनाते हैं। ऐसे तने प्रमुखतः दो प्रकार के रूपान्तरित तने होते हैं -
A. भूमिगत तथा
B. अर्द्धवायवीय।
A. भूमिगत तने- तने के प्रमुख भूमिगत रूपान्तर इस प्रकार हैं-
1. प्रकन्द — सामान्यतः ये पृष्ठ से प्रतिपृष्ठ सतह की ओर चपटे तने हैं जो भूमि के अन्दर प्रायः क्षैतिज रूप में बढ़ते हैं। इनका रंग प्राय: भूरा या भूरा सफेद होता है। इन पर पर्व तथा पर्वसन्धियाँ स्पष्ट होती है। पर्वसन्धियों पर शल्कपर्ण पाये जाते हैं जो भूरे रंग के होते हैं। इन पर अनेक कक्षस्थ तथा अग्रस्थ कलिकायें पायी जाती है। पर्वसन्धियों के निचले भाग से अपस्थानिक जड़ें निकलती है। ये अधिकतर मांसल होते है और का अधिक मात्रा में खाद्य पदार्थ संचित करते हैं। इन पर उपस्थित विभिन्न प्रकार की कलिकायें उचित पर्यावरण मिलने पर, बढ़कर नवीन पौधे/पौधों को जन्म देती हैं। उदाहरण-अदरक(Zingiber officinale), हल्दी (Curcuma longa), केली (canna), फर्न आदि।
2. स्तम्भ कन्द - कुछ पौधों में भूमिगत शाखाओं के सिरे पर भोजन एकत्र होकर एक फूला हुआ व अनियमित आकार बन जाता है। तने के निचले स्थान से कक्षस्थ या अपस्थानिक कलिकाओं से बनी हुई शाखायें वायु में बढ़ने के स्थान पर भूमि के अन्दर प्रवेश कर जाती हैं जहाँ इनके सिरे फूल जाते हैं; जैसे—आलू (Solanum tuberosum), हाथी चोक (Helianthus tuberosus)। हाथी चोक में पर्वसन्धियाँ तथा शल्कपत्र काफी स्पष्ट होते हैं। आलू में अनेक छोटे-छोटे गड्ढे होते हैं। इनको 'आँख' कहते हैं
3. घनकन्द - यह भी प्रकन्द की तरह भोजन संग्रह कर अत्यधिक फूला भूमिगत तना है, जो उरदव रूप में वृद्धि करता है। यह अत्यधिक ठोस तथा संघनित, उदग्र रूट स्टॉक ही है। इसमें एक अग्रस्थ कलिका होती है। इस पर अनेक शल्कपर्ण होते हैं जिनके कक्ष में कक्षस्थ कलिकायें उपस्थित रहती हैं जो अनुकूल अवस्थाओं में बढ़कर नवीन पौधे को जन्म देती है। अपस्थानिक जड़े सामान्यन आधारीय भाग से या कभी-कभी पूरे शरीर से निकलती है। उदाहरण- जमीकन्द (Amorphophallus campanians), केसर (Crocus sativus), कचालू (Colocasia) आदि।
4. शल्ककन्द — शल्ककन्द, वास्तव में, एक भूमिगत कलिका का रूपान्तर है जिसमें एक छोटा- संघनित तना होता है जिसे प्राय: बिम्ब कहा जाता है। इस बिम्ब पर, जो स्वयं एक शंक्वाकार संरचना होती. है, अनेक शल्कपर्ण लगे होते हैं तथा सिरे पर एक अग्रस्थ कलिका होती है। शल्कपर्णों में अथवा उनके आधारों में काफी खाद्य पदार्थ संचित होता है; अतः ये मांसल तथा सरस होते हैं।
B. अर्द्धवायवीय या भूपृष्ठीय तने – तनों पर पायी जाने वाली कुछ प्रसुप्त कलिकायें अनुकूल परिस्थितियों में कायिक प्रवर्धन हेतु कोमल, पतली तथा पाश्र्वय शाखाओं में वृद्धि कर जाती हैं।
उपरिभूस्तारी— इस प्रकार के तने प्रायः दुर्बल होते हैं और भूमि पर रेंगकर बढ़ते हैं, अत: इन्हें भूप्रसारी या सर्पी कहा जाता है। इन पौधों में भूमि के पास वाली किसी पत्ती (प्रायः शल्कपर्ण) के कल से निकली नयी शाखा भूमि पर चिपककर आगे बढ़ती है। शाखाओं को ही उपरिभूस्तारी कहा जाता है। इन पर एक या अनेक पर्व हो सकते हैं तथा इनके नष्ट होने से नवीन पौधे स्वतन्त्र हो सकते हैं (बहुवर्षीयता); जैसे—दूब घास (Cynodon dactylon), खट्टी बूटी (Oxalis) आदि।
पत्तियों द्वारा प्राकृतिक कायिक जनन -
कुछ पौधों की पत्तियों के किनारे या पर्ण तट पर अपस्थानिक कलिकायें बन जाती हैं। कुछ अन्य पौधों की शिराओं, पर्णवृत्त इत्यादि पर भी ऐसी कलिकायें बनती हैं जिनसे अनुकूल परिस्थितियों में नये पौधे बन जाते है। पथरचटा में पत्तियों के तट पर तथा बिगोनिया की पत्तियों को शिराओं व पर्णवृत्त पर ऐसी कलिकायें बनती हैं। ये पत्तियाँ काफी मोटी तथा मांसल होती हैं।
प्रश्न 4. जीवों मे लैंगिकता को स्पष्ट करे।
उत्तर: जीवों में लैंगिकता-
नर जननांग वाले जीव नर कहलाते हैं, जबकि मादा जननांग वाले जीव मादा कहलाते हैं। जिन जीवधारियों में नर व मादा जननांग अलग-अलग जीवधारियों में मिलते हैं उन्हें एकलिंगी कहते हैं, जैसे—मनुष्य, बिल्ली, हाथी, अनेक कोट आदि। इसके विपरीत अनेक जीव जातियों (जैसे—केंचुआ, हाइड्रा तथा अधिकतर पादपों) में, एक ही जीवधारी में नर व मादा दोनों प्रकार के जननांग होते हैं। ऐसे जीवों को उभयलिंगी या द्विलिंगी कहते है।लैंगिक जनन में शुक्राणु व अण्डाणु संयुग्मित होकर एक युग्मनज बनाते हैं जिसमें अनेक प्रकार के विभाजन होने से सन्तान का परिवर्द्धन होता है। जीवों में लैंगिक जनन की विधि किसी जीव के जीवन चक्र को बनाती है। पौधों में तो अनेक बार एक ही पादप पर दोनों लिंगो (नर व मादा के अंग अथवा संरचनायें बनती हैं; अतः पौधों को प्रायः एकलिंगाश्रयी कहते हैं, जब एक पादप या थैलस पर एक ही लैंगिक अंग होता है। इसके विपरीत ऐसे पादप द्विलिंगाश्रयी या उभयलिंगाश्रयी कहलाते हैं जिनमें एक ही थैलस पर दोनों लैंगिक अंग पाये जाते हैं।
उदाहरण के लिए, केंचुए में नर तथा मादा जननांग एक ही शरीर में पाए जाते हैं अतः यह द्विलिंगी होता है। कॉकरोच में नर तथा मादा जननांग अलग-अलग जन्तुओं में होते हैं। अतः ये एकलिंगी कहलाते हैं। इसी प्रकार कारा शैवाल उभयलिंगाश्रयी है और मारकेन्शिया एकलिंगाश्री है। कुछ पौधों में लैंगिकता का भिन्न स्वरूप भी होता है; जैसे—पुष्पी पादपों में स्वपरागण जब एक ही पुष्प में दोनों प्रकार के लिंग होते हैं और पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र को परागित करते है। अन्य में अलग-अलग पौधों पर उपस्थित पुष्पों (एकलिंगी अथवा द्विलिंगी) के मध्य परागण अर्थात् परपरागण होता है। कुछ अन्य पादप जातियों में पुष्प तो एकलिंगी होते हैं किन्तु दोनों प्रकार के व मादा) एक ही पौधे पर स्थित होते हैं अर्थात् पौधा उभयलिंगाश्रयी होता है। एक पौधे के दोनों प्रकार के पुष्पों के मध्य परागण हो जाता है। इसे सजातपुष्पी परागण या गिटॉनोमी कहते हैं।
प्रश्न 5. कृत्रिम कायिक जनन की विधिया को समझाए।
उत्तर: इसमें विभिन्न प्रकार की कृत्रिम विधियाँ आती है-
1. कलम लगाना -तने के कलिका युक्त छोटे-छोटे टुकड़े काट लिए जाते हैं। इन टुकड़ों को
कलम कहते हैं। इनके निचले सिरों को उचित स्थान पर भूमि में दबा देते हैं-खड़ी कलम जिनसे कुछ दिनों के बाद जड़ें निकल आती हैं और उपस्थित कलिकायें वृद्धि करके नया पौधा बना लेती। हैं। गुलाब, कैक्टस, अनन्नास, गुड़हल आदि में कलम से ही पौधे उगाते हैं। गन्ने में कलम को भूमि के अन्दर क्षैतिज अवस्था में दबा देते हैं पड़ी कलम
2. दाब लगाना- कुछ पौधों कुछ समय बाद इससे जड़े निकल आती है और उसके बाद नयी पीध बन जाती है। नमी को इसक से काटकर अलग कर देते हैं। यह वृद्धि करके पूर्ण पौधा बन जाता है। बेलामेली, कनेर आदि में यहाँ अपनायी जाती है।
3. गुटी बांधना- पुराने वृक्षों की मोटी व मजबूत शाखा को नीचे झुकाना तथा रोके रखना आसान नहीं होता है। अतः पौधे की किसी शाखा को छीलकर उस पर खादयुक्त मिट्टी लगाकर दाट लपेट दी जाती है। मिट्टी को नम रखने के लिए एक घड़े में छेद करके इसके ऊपर लटका देते हैं। इस छेद से रस्सी का टुकड़ा निकालकर गूटी से लपेट देते हैं। घड़े को जल से भर देते हैं। रस्सी के टुकड़े के सहारे रिसकर आये घड़े के जल से मिट्टी को नमी मिलती रहती है। अमरूद, सन्तरा आदि।
4. पैबन्द लगाना या रोपण (grafting)- इस विधि में घटिया किस्म के पौधे पर अच्छी किस्म के पौधे को रोपित किया-
(i) कशा रोपण- पौधे के तिरछे कटे हुए तने, स्कन्ध पर उत्तम जाति के पौधे की तिरछी कटी शाखा, कलम को सावधानीपूर्वक जोड़कर बाँध दिया जाता है। जोड़ पर कवक व जीवाणुओं के प्रवेश को रोकने के लिए पिघले मोम का लेप कर दिया जाता है। स्कन्ध व कलम जुड़ने से पौधा तैयार हो जाता है।
(iii) कलिका रोपण– वृक्ष के तने पर छाल की गहरायी तक एक तिरछी काट लगाते हैं और उसमें एक अच्छी जाति के पौधे की कलिका को रोपित करके भली प्रकार बाँध देते हैं। कुछ समय पश्चात् यह कलिका दूसरे पौधे से जुड़ जाती है। यह विधि अंगूर, शरीफा, संतरा तथा गुलाब में अपनायी जाती है।
प्रश्न 6. जीव के जीवन चक्र पर निबंध लिखिए।
उत्तर: जीव का जीवन चक्र- जीव मे जीवन चक्र के दौरान चार प्रावस्थायें होती हैं-
(i) भ्रूणावस्था
(ii) किशोरावस्था
(iii) जनन प्रावस्था या वयस्कता
(iv) जीर्यमान प्रावस्था
(i) भ्रूणावस्था — लैंगिक जनन जीव के दो युग्मकों के मध्य संलयन से प्रारम्भ होता है और इसकी परिणति एक द्विगुणित, निषेचित अण्डकोशिका या युग्मनज के रूप में होती है। यही जीव की प्रारम्भिक कोशिका होती है जिसके विभाजन-दर-विभाजन तथा
परिपक्वन , रूपान्तरण , परिवर्द्धन आदि के द्वारा एक विशिष बहुकोशिकीय संरचता, भ्रूण का निर्माण होता है । यहाँ भ्रूण, जीव की प्रारम्भिक स्थिति या प्रावस्था होती है। परिवर्द्धन की प्रक्रिया आदि तो चलती ही रहती है तथा भ्रूण के परिमाप, आकृति, संरचनाओं में वृहद् परिवर्तन होते रहते हैं और धीरे-धीरे भ्रूण किशोरावस्था में विकसित हो जाता है।
(ii) किशोरावस्था – भ्रूणावस्था के बाद परिपक्व होने तक की अवस्था; जैसे-जन्तुओ में जन्म तथा पौधों में अंकुर से लेकर परिपक्वन तक की अवस्था क्रमशः किशोरावस्था तथा कायिक अवस्थ कहलाती है।
(iii) जनन प्रावस्था या वयस्कता- एस अवस्था के डोरण जीव की लगभग सम्पूर्ण सरचनायें, अंग-प्रत्यंग बन चुके होते हैं और वह प्रजनन के लिए सक्षम हो जाता है। पुष्पी पादपों में यह अवस्था उनमें पुष्पों के बनने से प्रदर्शित होने लगती है। अनेक पुष्पी पौधों में पुष्प वर्ष में एक बार या दो बार आते हैं, अनेक में वर्ष भर लगातार पुष्प आते रहते हैं। इन सदाबहार पौधों के पुष्पन की कोई विशेष ऋतु नहीं होती, जबकि अनेक पौधों के जनन की ऋतु निश्चित होती है। मौसमी पुष्पन के उदाहरण हैं- कटहल सेब आम आदि।
जन्तुओं में प्राय: किशोरावस्था की समाप्ति तथा वयस्कता प्राप्त करने के समय जन्तु के व्यवहार में परिवर्तन होता है। यही नहीं, अनेक जन्तुओं की आकारिकी तथा शारीरिकी में भी काफी परिवर्तन देखे जाते हैं। अनेक उच्च श्रेणी के जीवों में ही नहीं, अकशेरुकियों में भी नर तथा मादा दोनों में अथवा एक में द्विरूपता स्पष्ट हो जाती है। कुछ जन्तुओं; जैसे- अनेक पक्षियों (मोर, मुर्गा-मुर्गी इत्यादि) तथा अनेक स्तनधारियों (मनुष्य इत्यादि) में तो द्वितीयक लैंगिक लक्षण अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाते हैं। जन्तुओं में सन्तति उत्पन्न करने का समय भी भिन्न-भिन्न हो सकता है। कुछ जन्तु केवल विशेष मौसम में ही प्रजनन करते हैं, अन्य वर्ष के किसी भी हिस्से में प्रजनन के लिए समर्थ होते हैं। पक्षियों को देखें, उनमें से अनेक अपने प्राकृतिक आवास में तो विशेष मौसम में ही अण्डे देते हैं जबकि संरक्षित आवास में वे वर्ष भर अण्डे देते रहते हैं।
(iv) जीर्यमान प्रावस्था- यह वृद्धावस्था है तथा जननकाल की अवधि समाप्त होने के पश्चात् मृत्यु तक चलती है। इस प्रावस्था में शरीर में जीर्णता उत्पन्न हो जाती है। विभिन्न अंग एवं अंगतन्त्र शिथिल होने लगते हैं तथा उनकी कार्य शक्ति कम होती जाती है। अन्त में शरीर की मृत्यु निश्चित हो जाती है।
प्रश्न 7. लैंगिक जनन में होने वाली घटनाओ को बताए।
उत्तर: लैंगिक जनन की मुख्य घटना दो युग्मकों का संलयन या सिनगैमी है। इस को करने के लिए दो युग्मकों की आवश्यकता होती है जिनके निर्माण के लिए जीव के शरीर में आवश्यक क्रियायें होती हैं। दूसरी ओर युग्मकों के संलयन से युग्मनज का निर्माण होती है जिससे बाद में नया जीव (सन्तान) विकसित होता है। लैंगिक जनन के दौरान तीन प्रकार की घटनाए होती है- सलयन-पूर्व, संलयन तथा संलयन पश्च
A. संलयन पूर्व घटनाये- ऐसी घटना जो संलयन के लिए युग्मकों के निर्माण अर्थात् युग्मकजनन से लेकर युग्मको को संपन के लिए एक स्थान पर पहुंछाने का कार्य करती है अर्थात् युग्मकों का स्थानान्तरण सम्पन्न होता है।
B. संलयन- दो युग्मको के मिलने की घटना, जिससे युग्मनज का निर्माण होता है। यह घटना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस नयी बनने वाली द्विगुणित कोशिका में दोनों
युग्मकों अर्थात् उनके जनकों से प्राप्त एक-एक सैंट गुणसूत्र होते हैं, जिससे नये बनने वाले जीव में दोनों जनकों के लक्षण पुनः संयोजित होते हैं। मिलने वाले ये युग्मक समान आकार व व्यवहार के होते हैं तो समयुग्मक, समान आकार किन्तु भिन्न व्यवहार के होते है तो असमयुग्म और जब दोनों ही लक्षण भिन्न होते हैं तो विषमयुग्मक कहलाते हैं।जिन जीवों में नर व मादा युग्मक स्पष्ट होते है तथा नर की मादा के पास पहुंचने की क्षमता होती है तो इस घटना को निषेचन कहा जाता है। उच्च श्रेणी के पौधों तथा अधिकतर जन्तु श्रेणियों में संलयन, निषेचन ही होता है।
C. संलयन पश्चात घटनायें – संलयन से बनी द्विगुणित (2n) कोशिका अर्थात निषेचित अण्ड या युग्मनज ही भावी सन्तति की प्राथमिक कोशिका है। कुछ निम्न श्रेणी के पौधों में यह तुरन्त अर्द्धसूत्री विभाजन से विभाजित होकर नया जीव बनाती है; अतः ऐसा जीव अगुणित (n) होता है। अन्य पौधों तथा प्रायः सभी जन्तुओं में यह कोशिका विभाजित होकर भ्रूण का निर्माण करती हैं। यह क्रिया भ्रूणोद्भिद या भ्रूणजनन कहलाती है।
प्रश्न 8. पादप समूहों के जनन व जीवन चक्र की विशेषता बताए।
उत्तर: विभिन्न पादप समूहों के जनन एवं जीवन चक्रों की विशेषतायें:
विभिन्न पादप समूहों के जीवन चक्र विभिन्न विशेषताओं वाले होते हैं। इनमें जनन को प्रमुख व आधारभूत विशेषतायें समान होती हैं किन्तु जटिलताओं के बढ़ते जाने से ये भिन्न-भिन्न प्रकार के होते जाते हैं। इन समूहों में जीवन चक्रों के विकास के कुछ सामान्य क्रम भी देखने को मिलते हैं। ये हैं-
(i) प्रारम्भिक समूहों जैसे शैवाल व कवकों से ब्रायोफाइट्स तक, स्वयं समूह के अन्दर तथा क्रमशः युग्मकोद्भिद की प्रधानता तथा इसमें जटिलतायें बढ़ती जाती हैं।
(ii) ब्रायोफाइट्स से टेरिडोफाइट्स व स्पर्मेटोफाइट्स में युग्मकोद्भिद का क्रमशः ह्रास होता है, साथ ही युग्मनज में सूत्री विभाजन होने एवं भ्रूण बनने से इनमें बीजाणु - उद्भिद जटिल व विकसित होता जाता है।
(iii) युग्मकोद्भिद निम्न से उच्च श्रेणी के पादप समूहों की ओर स्वतन्त्रजीविता से परजीविता
की ओर विकसित होते जाते हैं। दूसरी ओर बीजाणु उद्भिद इसके विपरीत, एककोशिकीय युग्मनजी प्रावस्था से क्रमश: भ्रूणीय अवस्था प्राप्त करता है तथा बाद में परजीविता को छोड़ स्वतन्त्रजीवी होकर अधिक से अधिक जटिल होता जाता है।
प्रश्न 9. अलैंगिक जनन द्वारा बनी सन्तति लैंगिक जनन द्वारा बनी सन्तति से किस प्रकार भिन्न होती है? अलैंगिक तथा लैंगिक जनन में अंतर भी बताए।
उत्तर: अलैंगिक जनन द्वारा बनी सन्तति अपने एकमात्र जनक के समान होती है जबकि लैंगिक जनन में अपने दो जनकों के अनुसार विविधता होती है, क्योंकि इसमें लक्षणों तथा उनके प्रभावों का पुनस्थापन होता है। यह जीवन संघर्ष में अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल होती है।
अलैंगिक तथा लैंगिक जनन में अंतर
1.अलैंगिक जनन एक ही जनक द्वारा सन्तान की उत्पत्ति होती हैं। जबकि लैंगिक जनन सन्तान की उत्पत्ति के लिए प्रायः दो जनकों का होना आवश्यक होता है।
2.अलैंगिक जनन में युग्मकों की आवश्यकता नहीं होती अतः सभी विभाजन समसूत्री विभाजन ही होते हैं। लैंगिक जनन में युग्मकों के निर्माण के लिए अर्द्धसूत्री विभाजन होता है।
3. अलैंगिक जनन में निषेचन नहीं होता है। लैंगिक जनन में युग्मकों का संलयन, जिसे प्राय: निषेचन कहते हैं।
4. अलैंगिक जनन में नए जीव पूर्णतया जनक के समान गुणों वाले होते हैं। लैंगिक जनन में सन्तति के लक्षणों में परिवर्तन पाया जाता है। दोनों जनकों के गुण पाए जाते हैं।
प्रश्न 10. प्राकृतिक अनिषेकजनन क्या होता है? विवरण दीजिए।
उत्तर: कुछ प्राणियों में निषेचन के बिना ही अण्डाणु सक्रिय होकर भ्रूणीय विकास द्वारा सामान्य सन्तति जीव में विकसित हो जाता है। इस प्रकार के जनन को अनिषेकजनन कहते हैं। यह प्राकृतिक अथवा कृत्रिम प्रकार का हो सकता है। प्राकृतिक अनिषेकजनन- प्राकृतिक अनिषेकजनन कुछ कीटों (मधुमक्खी, ततैया, चीटियों आदि), एफिड्स, ऑर्थोपोड्स तथा रोटीफरों में होता है। इस प्रकार का अनिषेकजनन अगुणित अथवा द्विगुणित प्रकार का हो सकता है।
अगुणित अनिषेकजनन में अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा अगुणित मादा युग्मक बनते हैं। इन युग्मकों में से कुछ बिना निषेचन के ही परिवर्तित हो जाते हैं; जैसे-मधुमक्खी में नर ड्रोन अनिषेचित अण्डे से ही परिवर्द्धित होते हैं जबकि रानी मक्खी तथा श्रमिक मक्खियाँ निषेचित अण्डों से विकसित होती हैं। द्विगुणित अनिषेकजनन में मादा की अण्ड जनक कोशिकाओं में जो अर्द्धसूत्री विभाजन होता है उसमें समस्त गुणसूत्र अण्ड कोशिकाओं में आ जाते हैं। इस प्रकार की अण्ड कोशिकायें मादा के शरीर में विकसित होती हैं और मादा बच्चों को ही जन्म देती हैं; जैसे- एफिड्स ( शलभ कीटों) आदि।
प्रश्न 11. निषेचन की क्रिया क्या होती है व कितने प्रकार की होती है?
उत्तर: निषेचन— नर तथा मादा युग्मक कोशिकाओ अर्थात् शुक्राणु एवं अण्डाणु या डिम्ब के संयुग्मन को निषेचन कहते हैं। अण्डाणु अपेक्षाकृत बड़ी, गोलाकार और अचल, जबकि शुक्राणु बहुत छोटी, पुच्छयुक्त और गतिशील कोशिकायें होती हैं। शुक्राणु संयुग्मन के लिए अपनी पुच्छ की कशाभिक गतियों की सहायता से अण्डाणु तक पहुंच जाता है। इसलिए इस संयुग्मन को शुक्राणु द्वारा अण्डाणु का निषेचन कहा जाता है। निषेचन का उद्देश्य शुक्राणु तथा अण्डाणु के अगुणित केन्द्रकों के समेकन से युग्मनज निर्माण करना होता है।
निषेचन दो प्रकार का होता है-
(i) बाह्य निषेचन: मादा जन्तु के शरीर के बाहर सम्पन्न होता है। बाह्य निषेचन के लिए तरल माध्यम की आवश्यकता होती है; अतः अधिकतर जलीय जन्तुओं तथा उभयचरों में बाह्य निषेचन होता है। जल में स्खलित युग्मक कोशिकायें दूर-दूर तक फैल जाती हैं। अण्डाणुओं के सम्पर्क में आने की इनकी सम्भावना भी कम और सांयोगिक होती है। इसीलिए इन जन्तुओं में नर एवं मादा दोनों ही प्रकार की युग्मक कोशिकायें लाखों की संख्या में बनती हैं। इन जन्तुओं में जनन किसी विशेष जनन काल में एक ही क्षेत्र विशेष में होता है। इस प्रकार का निषेचन प्रायः जल में ही होता है।
(ii) अन्तः या आन्तरिक निषेचन: सामान्यतः उच्च श्रेणी के जलीय कशेरुकी जन्तुओं ( सरीसृपों व स्तनियों) तथा अधिकतर स्थलीय अकशेरुकी जन्तुओं व कशेरुकी जन्तुओं (सरीसृपों, पक्षियों तथा स्तनियों) में होता है। इन जन्तुओं में निषेचन मादा की जनन वाहिनियों में सम्पन्न होता है; अतः इन जन्तुओं में विविध प्रकार के सहायक जननांग होते हैं। नर जन्तु में शिश्न तथा मादा जन्तु में योनि प्रमुख सहायक जननांग होते हैं तथा प्रक्रिया मैथुन कहलाती है। अनेक आर्थ्रोपोड जातियों (जैसे- कीटों) में नर अपने शुक्राणुओं को परस्पर चिपके हुए और छोटे-छोटे खोलयुक्त पिण्डों के रूप में स्खलित करता है। इन पिण्डों को शुक्राणुधर कहते हैं। मैथुन के समय नर इनको मादा के अंदर मुक्त कर देता है। बाद में शुक्राणुघर से निकलकर शुक्राणु मादा के अण्डाणुओं को निषेचित कर देते हैं।
प्रश्न 12. शैवाल मे बीजाणुओ द्वारा अलैंगिक जनन की विधि को समझाए।
उत्तर: शैवालों में बीजाणु निर्माण- वातावरण की विभिन्नताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार के बीजाणु बनते हैं-
(i) अनुकूल वातावरण में- जल, ताप, भोजन बनने की सामान्य अवस्था आदि के उचित रूप में होने पर इस प्रकार के जनन आसान हो सकते हैं। इस प्रकार के वातावरण में जनन की सामान्य विधि चलबीजाणुओं का निर्माण है। विभिन्न शैवालों में तथा एक ही शैवाल में कई प्रकार के चलबीजाणु बनते हैं। ये द्विपक्ष्मी जैसे-यूलोथ्रिक्स, क्लैमाइडोमोनास ,चार पक्ष्म वाले या चतुर्पक्ष्मी अथवा बहुपक्ष्म जैसे—यूलोथ्रिक्स, क्लैडोफोरा ऊडोगोनियम आदि हो सकते है। संयुक्त चलबीजाणु बहुकेन्द्रकीय तथा बहुपक्ष्मी होते हैं। ऐसा बीजाणु सामान्यतः एक बीजाणुथानी में एक ही बनता है; उदाहरण- वाडचेरिया
(ii) प्रतिकूल वातावरण में - जनन की अलैंगिक विधियाँ अत्यन्त सामान्य प्रक्रियायें हैं। इस प्रकार के जनन सदैव प्रतिकूल वातावरण से बचने के साधन भी हैं। यहाँ तक कि एक कोशिका के जीवद्रव्य को स्वरक्षित करने के लिए उस पर कुछ रक्षक आवरण उत्पन्न हो जाते हैं। अनुकूल वातावरण प्राप्त होने पर जब ये आवरण टूटते हैं तो नवीन पौधे का निर्माण एक कोशिका से ही हो जाता है। रक्षक आवरणों के बनने, बीजाणुओं की संख्या आदि के आधार पर इस प्रकार के जनन कई विधियों द्वारा कई प्रकार के होते हैं-
(क) अचलबीजाणु- वर्धी कोशिकाओं का जीवद्रव्य प्रतिकूल वातावरण में सिकुड़कर
(जल की हानि के कारण), एक अथवा अनेक गोल संरचनाओं में बदलकर अपने चारों ओर भित्ति का निर्माण करता है। ये बीजाणु अचल होते हैं तथा अनुकूल वातावरण आने पर अंकुरित होकर नये पौधे को जन्म देते हैं। उदाहरण-यूलोथ्रिक्स
(ख) निश्चेष्ट बीजाणु- कोशिका का जीवद्रव्य सिकुड़कर अपने चारों ओर एक मोटी भिति स्त्रावित कर स्वरक्षित हो जाता है। ऐसे बीजाणु को को हिपनोस्पोरे कहते है।
प्रश्न 13. जनन में अर्द्धसूत्री विभाजन का महत्त्व बताए।
उत्तर: अर्द्धसूत्री विभाजन का महत्त्व -
1. यह युग्मक में गुणसूत्रों की संख्या अगुणित करने की एकमात्र विधि है (निषेचन के समय नर और मादा युग्मकों के मिलने से गुणसूत्रों की संख्या युग्मनज में द्विगुणित हो जाती है।
2. लैंगिक जनन के द्वारा ही युग्मनज में गुणसूत्रों के जोड़ों का एक सदस्य माता और दूसरा पिता से प्राप्त होता है। युग्मक बनाने की क्रिया इसी विभाजन पर निर्भर करती है और यहाँ गुणसूत्रों का वितरण, पर बनने वाली कोशिकाओं में अनियत तरीके से होता है। इससे सन्तति कोशिकाओं में मातृ और पितृ गुणों का भिन्न-भिन्न मिश्रण स्वाभाविक है।
3. मिओसिस प्रथम में होने वाला जीन विनिमय अथवा क्रॉसिंग ओवर, गुणसूत्रों के मध्य जीन्स का आदान-प्रदान करता है जिससे आनुवंशिक लक्षणों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार यह निश्चित है कि अर्द्धसूत्री विभाजन किसी जीव के जीवन चक्र को पूर्ण त करने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यदि अर्द्धसूत्री विभाजन किसी जीव में बन्द हो जायेगा तो उसमें लैंगिक जनन सम्भव नहीं है, अन्यथा युग्मक उस जीव की कायिक कोशिकाओं वाले ही होंगे ।
प्रश्न 14. कायिक प्रवर्धन से होने वाले लाभ का वर्णन कीजिए।
उत्तर- कायिक प्रवर्धन से लाभ:
1. कम समय में नये पौधे उत्पन्न हो जाते है।
2. जिन पौधों में बीज नहीं बनते अथवा बीजों में अंकुरण की क्षमता नहीं होती, उनमें वंश कायिक जनन द्वारा ही चलता है।
3. जाति की शुद्धता बनी रहती है।
4. नये पौधे तथा मातृ पौधे पूर्ण रूप से समान होते हैं।
5. कायिक प्रवर्धन द्वारा जंगली अथवा साधारण किस्म के पौधों को अच्छी किस्म के पौधों में बदला जा सकता है।
6. फसल सुधार में कायिक जनन की उपयोगिता- कायिक जनन में पौधे के कायिक भाग से कोई खण्ड, कलिका या अंग लिया जाता है, अतः इससे उत्पन्न होने वाले पौधे मातृ पौधे के समान ही होते हैं। उनके लक्षणों में किसी प्रकार के परिवर्तन आने की समस्या कभी नहीं रहती हैं। जाति की शुद्धता पूरी तरह बनी रहती है। पौधे बहुत ही कम समय में उत्पन्न किए जा सकते हैं तथा इनसे फल-फूल आदि भी शीघ्र ही लिए जा सकते हैं। इस प्रकार के जनन से सामान्य जंगली अथवा कम उपयोगी पौधे पर रोपण विधि से अच्छी किस्म के तथा अधिक उपयोगी पौधे उत्पन्न किए जा सकते हैं और वह भी बहुत कम समय में।
प्रश्न 14. विखण्डीजनन की क्रिया को समझाए।
उत्तर- विखण्डीजनन इस प्रकार के जनन को अनेक जीव विज्ञानी वर्धी जनन मानते हैं। इस विधि में बहुकोशिकीय जीव का शरीर या सूकाय दो या दो से अधिक नया तन्तु टुकड़ों में टूट जाता है और प्रत्येक टुकड़ा पुनरुद्भवन द्वारा एक नयी विकसित सन्तति बनाता है। उदाहरण- कई अकशेरुकियों, कवकों, शैवालों जैसे - म्यूकर, स्पाइरोगाइरा, यूलोथ्रिक्स, क्लैडोफोरा आदि।
स्पाइरोगाइरा की कुछ जातियों में तो तन्तु की दो कोशिकाओं के मध्य की भित्ति विशेष प्रकार से H-आकार बना लेती है। इसके मध्य में स्थित पटलिका नष्ट हो जाती है और दोनों कोशिकायें इस प्रतिकृति भित्ति के द्वारा जुड़ी रह जाती हैं। इस प्रकार विखण्डन आसान हो जाता है। इस क्रिया में कोई भी कोशिका नष्ट नहीं होती है।
प्रश्न 15. जीवों की जीवन अवदि पर निबंध लिखिए।
उत्तर- जीव जब से जीवन प्रारम्भ करता है तभी से परिवर्द्धित होता है वयस्क बन जाने के पश्चता जनन करता है और अन्त में जीर्ण होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। इस आने और जाने अर्थात् जन्म और मृत्यु के मध्य का काल ही जीवन अवधि या जीवन काल कहलाता है। अनेक एककोशिकीय अथवा अकोशिकीय जीवों में द्विविखण्डन हो जाने के कारण दो एक-जैसे जीव बन जाते हैं तथा जीवद्रव्य नष्ट भी नहीं होता। इसीलिए अमीबा जैसे जीवों को अमर कह दिया जाता है। जीवों के जीवन काल या जीवन अवधि में अत्यधिक भिन्नता मिलती है जो कई बार अत्यधिक आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। यह एक दिन या उसके कुछ अंश से लेकर कुछ वर्ष अथवा हजारों वर्ष हो सकती है। मक्षिका (May fly) केवल एक दिन जीवित रहती है तो एक कछुआ 100 से 150 वर्ष तक जीवित रह सकता है। भारी-भरकम हाथी की जीवन अवधि 70-90 वर्ष जीवन जीता है तो एक तोता 150 वर्ष तक जीवित रह सकता है। पादप जगत के सदस्यों की जीवन अवधि में भी इसी प्रकार की भिन्नता मिलती है। एक बरगद का वृक्ष 200 वर्ष या अधिक जीवित रह सकता है किन्तु अनेक फसली पौधे 2-2- माह से 8-9 माह तक ही जीवित रह पाते हैं। इसी आधार पर पादपों को एकवर्षी (amnual), द्विवर्षी (biennial) अथवा वर्षानुवर्षी (perennial) कहते हैं। कुछ पादप तो अपना जीवन चक्र कुछ हफ्तों में ही पूरा कर लेते हैं तथा अल्पकालिक ( ephemerals) कहलाते हैं।