बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 2 पुष्पीय पादपों मे लेंगीक जनन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. लघुबीजाणुजन्न को समझाए।
उत्तर: परागपुट में उपस्थित बीजाणुजनक कोशिकायें एक-दूसरे से अलग होकर गोल होती है। इनमें से कई कोशिकायें टूट-फूट जाती हैं तथा इनका जीवद्रव्य शेष वृद्धिशील कोशिकाओं के पोषण काम आ जाता है। अन्यथा, इन कोशिकाओं का पोषण टैपीटम की कोशिकाओं के द्वारा होता है। इन कोशिकाओं को, अब, लघुबीजाणु मातृ कोशिकायें कहते हैं। प्रत्येक लघुबीजाणु मातृ कोशिका का केन्द्रक, अब, अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा विभाजित होता है। इस प्रकार के विभाजन से चार केन्द्रक बनते हैं तथा प्रत्येक केन्द्रक में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका के केन्द्रक से आधी या अगुणित रह जाती है। द्विबीजपत्री पौधों में सामान्यतः चारों केन्द्रक बनने के बाद ही कोशिकाद्रव्य विभाजन होता है। कई बार; जैसे—अनेक एकबीजपत्री पौधों में। अर्द्धसूत्री विभाजन के प्रथम विभाजन से बने दो केन्द्रक कोशिका भित्तियों के द्वारा अपने-अपने कोशिकाद्रव्य के साथ अलग हो जाते हैं। इस प्रकार के अर्द्धसूत्रण को उत्तरोत्तर या क्रमिक प्रकार का कोशाद्रव्य विभाजन कहा जाता है। अन्य अवस्था, जबकि केन्द्रक अर्द्धसूत्रण 1 के बाद अर्द्धसूत्रण II भी कर लेता है अर्थात् जीवद्रव्य एक साथ चार टुकड़े बनाता है, दोनों ही प्रकारों के अन्त में चार कोशिकायें बनती हैं।
प्रश्न 2. लघुबीजाणुप्रण की संरचना का वर्णन करे।
उत्तर: आवृतबीजी पौधों के पुष्पों में नर जनन अंग पुमंग होता है जिसके एक या एक से अधिक अवयव पुंकेसर होते हैं। सामान्यतः एक पुंकेसर में दो प्रमुख भाग होते हैं-परागकोश तथा पुंतन्तु ।
एक पुंकेसर का परागकोश प्रायः दो पालियों का बना होता है। दोनों पराग पालियाँ या परागकोशक आपस में तथा पुंतन्तु के साथ योजि नामक ऊतक से जुड़ी रहती हैं।योजि में ही संवहन पूल होता है जो परागकोश को पोषित करता है। परागकोश ही पुंकेसर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग है। ऐसा पुंकेसर, जिसमें दो परागपालियाँ होती हैं, द्विकोष्ठी या डाइथीकस कहलाता है। गुड़हल तथा मालवेसी कुल के अन्य पौधों में परागकोश दो ही पालियों का बना होता है और एककोष्ठी या मॉनोथीकस कहलाता है। परागकोश के अन्दर परागकण बनते हैं। प्रत्येक परागकोश की एक पालि में दो वेश्म होते हैं। ये परागकोश की लम्बाई में फैले रहते हैं तथा अनुप्रस्थ काट में लगभग गोल दिखायी पड़ते हैं। इनको लघुबीजाणुधानी या परागपुट कहा जाता है। इन्हीं परागपुटों में, जिनकी संख्या एक सम्पूर्ण परागकोश में चार होती है, परागकण भरे रहते हैं। परागपुट का निर्माण तीन प्रमुख स्तरों से होता है। सबसे भीतरी स्तर,टैपीटम होता है जो एक कोशिका मोटा स्तर होता है तथा वृद्धिशील परागकणों के पोषण के काम आता है। सबसे बाहरी स्तर, एक कोशिका मोटा अन्तःस्तर या एण्डोथीसियम होता है जो प्राय: रेशेदार होता है। यह स्तर परागपुर के स्फुटन के समय विशेष भूमिका निभाता है। मध्य स्तर एक से तीन कोशिका मोटा स्तर होता है। एण्डोथीसियम प्रायः पूरी परागपालि के चारों ओर स्तर बनाता है। शेष दोनों स्तर परागपुटों को अलग-अलग घेरते हैं। सम्पूर्ण परागकोश बाह्यत्वचा से घिरा रहता है। दोनों पालियों को जोड़ने वाला संयोजी ऊतक यहाँ स्पष्ट होता है। इसके मध्य में संवहन पूल भी स्पष्ट देखा जा सकता है। परागकोश का जिन स्थानों पर, बाद में, स्फुटन होना है; उन स्थानों की एण्डोथीसियम की कोशिकाओं की भित्ति पतली रह जाती है। यह स्थान मुख या स्टोमियम कहलाता हैं।
प्रश्न 3. स्वपरागण क्या होता है? व एसके क्या क्या लाभ है?
उत्तर: स्वपरागण क्रिया में एक पुष्प के परागकण जो परागकोश से निकलते हैं, उसी पुष्प के जायांग पर उपस्थित वर्तिकाग्र पर पहुँच जाते हैं; अतः यह क्रिया केवल उभयलिंगी पुष्पों में ही हो सकती है। कभी-कभी कुछ पौधों में एक ही पौधे पर उपस्थित दो पुष्पों के बीच, चाहे वे एकलिंगी हों या उभयलिंगी, परागण हो सकता है। यह क्रिया स्वपरागण के समान ही होती है क्योंकि सम्पूर्ण पौधे में एक ही प्रकार के लक्षण होते हैं। यह क्रिया सजात पुष्पी परागण या गिटॉनोगैमी कहलाती है।
स्वपरागण के लाभ :
1. यह निश्चित तथा अवश्यम्भावी होता है, क्योंकि इसके लिए किसी बाह्य माध्यम या कर्मक की आवश्यकता नहीं होती है।
2. सन्तति में जाति के गुण वही रहते हैं। इस प्रकार जाति की शुद्धता बनी रहती है।
3. इसके लिए अधिक परागकण उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं होती और बिना कारण जीवद्रव्य तथा ऊर्जा नष्ट नहीं होती।
4. कर्मको को आकर्षित करने के लिए रंग, गन्ध या मकरन्द आदि नहीं उत्पन्न करना पड़ता है।
प्रश्न 4. परपरगण के लिए पाए जाने वाले अनुकूलन बताए।
उत्तर: परपरगण के लिए पाए जाने वाले अनुकूलन:
1. एकलिंगता- प्रकृति में अनेक पुष्प एकलिंगी ही होते हैं। अतः उनमें स्वपरागण होता है ऐसे पौधों में, जिनमें उभयलिंगाश्रयिता पायी जाती है, एक ही पौधे पर उपस्थित इन एकलिंगी पुष्पों के बीच परागण क्रिया हो सकती है, इसको गिटॉनोगैमी कहते हैं और यह स्वपरागण की तरह क्रिया है। यह भी अत्यन्त सामान्य है कि इन लिंगाश्रयी पौधों में, जिनमें नर व मादा पुष्प एक ही पौधे पर लगते हैं अन्य अनुकूलन प्रयोग मे लाकर स्वप्रगन को असफल बनाया जाता है। एकलिंगाश्रयी पौधों में तो परपरागण के अतिरिक्त और किसी क्रिक कोई विकल्प ही नहीं है। उदाहरण- पपीता, ताड़ आदि।
2. स्वबन्ध्यता—कुछ पौधों में यदि पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकण पर पहुँच जा है तो वे अंकुरित नहीं होते, कभी-कभी तो ऐसा होने पर पुष्प ही सूख जाता है। कभी-कभी तो उस निषेद के अन्य पौधों से परागकण आने पर भी यही लक्षण प्रकट होते हैं। अनेक कीट परागित पुष्पों जैसे आलू तम्बाकू, चाय आदि में स्वबन्ध्यता पायी जाती है। वायु परागित पुष्पों में इसके उदाहरण कम हैं। ऐसे पौधों में परपरागण ही सम्भव होता है।
3. भिन्नकालपक्वता- अनेक पौधों में पुष्प के नर (पुंकेसर) तथा मादा भाग (जायांग विशेषकर वर्तिकाग्र) अलग-अलग समय पर परिपक्व होते हैं। इस क्रिया को भिन्नकालपक्वता कहते हैं। इस गुण के कारण स्वपरागण की सम्भावनायें ही नहीं हो सकती हैं। नर या मादा भागों के पहले पकने के आधार पर यह क्रिया दो प्रकार की होती है—
(i) स्त्रीपूर्वता- पुष्प में जब परागकोशों से पहले वर्तिकाग्र परिपक्वता प्राप्त करता है तो यह स्थिति स्त्रीपुवता कहलाती है।
(ii) पूपूर्वता- पंपूर्वता में एक पुष्प के परागकोश, स्त्री भागों से पहले ही परिपक्व हो जाते हैं और फटकर परागकणों को बिखरा देते हैं। इस समय तक इस पुष्प के वर्तिका अपरिपक्व होते हैं, अतः परागण प्रायः नहीं हो पाता है। इसके उदाहरण गुड़हल, कपास, भिण्डी, सूर्यमुखी, गेंदा, पनियाँ आदि में मिलते हैं। पूर्वता स्त्रीपूर्वता से अधिक सामान्य है।
4. हरकोगेमी— अनेक पुष्पों में वर्तिकाग्र के ग्राह्यतल तथा परागकोशों की स्थिति इस प्रकार की होती है कि उसी पुष्प के परागकण वर्तिकाग्र पर पहुँच ही नहीं सकते हैं। इस प्रकार स्वपरागण असम्भव हो जाता हैं चाहे फिर नर व मादा अंग साथ-साथ ही परिपक्वता क्यों न प्राप्त कर रहे हों | हरकोगैमी के लिए अनेक प्रयुक्तियाँ हो सकती हैं; जैसे—कुछ पुष्पों में परागकोश पुष्प से बाहर निकले रहते हैं। जबकि वर्तिकाग्र पुष्प के अन्दर अथवा बाहर निकले रहते हैं और परागकोश पुष्प के अन्दर स्थित होते हैं।
5. विषमरूपता — अनेक पौधों में पुष्पों का स्वरूप दो, तीन या अधिक प्रकार का होता है; जैसे—इनमें द्विरूपता त्रिरूपता आदि प्रकार की विषमरूपता पायी जाती है। इस प्रकार के पुष्पों में परागकोश तथा वर्तिकाग्र अलग-अलग तलों पर लगे रहते हैं। इनमें सामान्य
वर्तिकायें अलग-अलग लम्बाई की होती हैं अतः इनको विषमवर्तिकात्व कहते हैं।
प्रश्न 5. मनुष्य द्वारा कृत्रिम परागण पर टिप्पणी कजीए।
उत्तर: अनेक पौधों में कृत्रिम परागण किया जाता है। पादप प्रजनन के लिए स्थानों वांछित पौधों के मध्य परपरागण करते हैं। पैदावार तथा पौधे की अधिक रोग निरोधक जातियाँ उत्पन्न करने तथा स्वस्थ बीज आदि उत्पन्न करने के लिए आजकल विश्व भर में स्थानों पर उन्नतशील प्रजातियाँ उत्पन्न की जा रही हैं। इस प्रकार प्रजनन करने में मनचाही प्रजातियों परपरागण अथवा स्वपरागण करने के लिए मनुष्य द्वारा परागण क्रिया को उचित प्रयोगों के पर किया जाता है। उपयुक्त कार्य के लिए बोरा वस्त्रावरण करना आवश्यक होता है जिसके लिए प्रायः अपरिपक्व पुष्प में, उसके पौधे पर लगी हुई अवस्था में ही चिमटी द्वारा पुकएसर को निकाल है इसे विपुंसन कहते हैं। इसके बाद पुष्प को पॉलीथिन की थैली में बन्द कर दिया है. इससे स्वपरागण तथा अवांछित परपरागण दोनों की ही सम्भावना समाप्त हो जाती है। जायाग विशेषकर वर्तिकाग्र के परिपक्व होने पर इच्छित पुष्प से परागकण लाकर इसके वर्तिकाग पर डाल दिये जाते हैं और पॉलीथिन को वापस ढक दिया जाता है। एस प्रकार वांछित पौधों के मध्य कृत्रिम परागण कराकर सन्तति में वांछित गुणों का सम्पादन किया जाता है। भारत में कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति के लिए कृत्रिम परागण को प्रमुख श्रेय दिया जा सकता है।
प्रश्न 6. नरयुग्मकोद्भिद की संरचना को पूर्ण रूप से समझाए।
उत्तर: सामान्यतः परागकण, परागपुट से द्विकेन्द्रीय अवस्था में निष्कासित होता है। कई बार लघुबीजाणु के एकमात्र अगुणित केन्द्रक का विभाजन भी परागकण के बाहर आने के बाद होता है। जब परागकण, परागण की क्रिया के द्वारा उस जाति के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुँच जाता है तो यह अंकुरित होता है। इस समय यह जल इत्यादि अवशोषित करके पराग नलिका बनाता है। इस क्रिया में अन्त: चोल जनन छिद्रों में होकर बाहर फूल आती है। यही पराग नलिका के रूप में विकसित हो जाती है। इस नलिका में जीवद्रव्य तथा नलिका केन्द्रक होते हैं। बाद में, जनन कोशिका भी इसी में आ जाती है। शीघ्र ही जनन केन्द्रक साधारण विभाजन के द्वारा विभाजित हो जाता है। नये बने दोनों केन्द्रक, नरयुग्मक केन्द्रक अपने चारों ओर जीवद्रव्य की अलग-अलग पर्तें एकत्रित करके नरयुग्मकों का निर्माण करते हैं। ध्यान रहे, इस समय पराग नलिका वर्तिकाग्र तथा वर्तिका में होती हुई अण्डाशय की ओर बढ़ रही होती है। इसमें नलिका केन्द्रक सिरे पर तथा नरयुग्मक जीवद्रव्य में थोड़ा पीछे रहते हुए ही आगे चलते जाते हैं। नर युग्मकों के बनने की क्रिया को ही नरयुग्मकजनन कहते हैं।
प्रश्न 7. बीजांड क्या है व किस प्रकार की संरचना रखता है ?स्पष्ट करे?
उत्तर: एक परिपक्व बीजाण्ड , लगभग गोल संरचना होती है जो निषेचन के बाद बीज में बदल जाती है। एक बीजाण्ड पर दो आवरण होते हैं, जिन्हें बाह्य तथा अन्तः अध्यावरण कहते हैं। ऐसे बीजाण्ड दो आवरण होने के कारण बाइटेगमिक कहलाते हैं। कभी-कभी बीजाण्ड पर केवल एक ही आवरण होता है, तब इसे यूनीटेगमिक कहा जाता है । इसके अतिरिक्त केवल कुछ पौधों में तीसरा आवरण एरिल के रूप में बन जाता है। इन आवरणों में एक स्थान पर एक छिद्र, बीजाण्डद्वार होता है। दोनों आवरणों के अन्दर एक विशेष पोषक ऊतक होता है, यही बीजाण्डकाय कहलाता है। बीजाण्डकाय के अन्दर परिपक्व अवस्था में एक थैले जैसी संरचना होती है। इसे भ्रूणकोष कहते हैं। यह मादा युग्मकोद्भिद है और एक गुरुबीजाणु से निर्मित होता है। भ्रूणकोष में बीजाण्डद्वार की ओर वाले सिरे पर तीन कोशिकायें होती हैं। तीनों कोशिकाओं के इस समूह को अण्ड उपकरण कहा जाता है। इनमें से एक कोशिका, जो प्रायः मध्य में स्थित होती है, बड़ी तथा स्पष्ट होती है। यह अण्डाणु या अण्ड कोशिका कहलाती है। शेष दोनों कोशिकाओं को सहायक कोशिका कहते हैं। विपरीत सिरे पर भी भ्रूणकोष में तीन कोशिकायें होती है। ये प्रतिध्रुवीय कोशिकायें कहलाती हैं। दो केन्द्रक , भ्रूणकोष के केन्द्र में, अर्द्धसंयुक्त अवस्था में रहते हैं। प्रतिध्रुवीय कोशिकाओं की संख्या और व्यवस्था विभिन्न पौधों में बदल सकती है किन्तु अण्ड उपकरण नहीं बदलता। द्वितीयक केन्द्रक को संगठित करने वाले ध्रुवीय केन्द्रकों की संख्या में भी विभिन्न पौधों में अन्तर मिल सकता है प्रारूपिक आवृतबीजी पौधे में भ्रूणकोष के मध्य में स्थित दोनों केन्द्रक जीवद्रव्य में फँसे हुए, कोशिकाद्रव्यी सूत्रों के द्वारा लटके रहते हैं। इन केन्द्रकों को अलग-अलग ध्रुवीय केन्द्रक और संयुक्त रूप सम्मिलित में द्वितीयक केन्द्रक कहते हैं। भ्रूणकोष के अन्दर कोई भी कोशिका भित्तियुक्त नहीं होती है। प्रत्येक बीजाण्ड एक वृत्त के द्वारा बीजाण्डासन के साथ जुड़ा रहता है, इसे बीजाण्डवृत कहते हैं। वह स्थान, जहाँ बीजाण्डवृन्त बीजाण्ड के साथ जुड़ता है, हायलम कहलाता है। बीजाण्डकाय के साथ जिस स्थान पर आवरण जुड़े रहते हैं, इस स्थान को निभाग कहा जाता है। बीजाण्ड अपने लिए भोज्य पदार्थ बीजाण्डासन से ही प्राप्त करता है।
प्रश्न 8. भ्रूणकोश का परिवर्धन किस प्रकार से सम्पन्न होता है? समझाए ।
उत्तर: गुरुबीजाणु अगुणित होता है तथा मादा युग्मकोद्भिद की प्रथम कोशिका है। क्रियाशील गुरुबीजाणु जो प्रायः लम्बवत् चतुष्क में निभाग की ओर वाला होता है, बीजाण्डकाय से पोषण प्राप्त करके बड़ा होने लगता है। इस प्रकार, बड़ा होकर सक्रिय गुरुबीजाणु, जो वास्तव में अब भ्रूणकोष मातृ कोशिका है, बीजाण्डकाय का अधिकतम स्थान घेर लेता है। वृद्धि के समय इसका केन्द्रक, जो लगभग मध्य में स्थित था, विभाजित हो जाता है। बने हुए दोनों केन्द्रकों में से एक-एक विपरीत ध्रुवों पर (बीजाण्डद्वार वाला सिरा तथा दूसरा निभाग की ओर) स्थित हो जाते हैं। दोनों ध्रुवों पर स्थित ये केन्द्रक, सामान्यत: दो-दो बार साधारण विभाजन के द्वारा और विभाजित होते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक ध्रुव पर चार-चार केन्द्रक (कुल 8 केन्द्रक) बन जाते हैं। इस प्रकार का भ्रूणकोष, जिसमें 8 केन्द्रक तथा 7 कोशिकायें होती हैं, पॉलीगोनम प्रकार कहलाता है। कभी-कभी भ्रूणकोष के अन्दर विभाजनों की संख्या अधिक होने के कारण अथवा किसी और कारण से केन्द्रकों की संख्या अधिक हो सकती है। अब, प्रत्येक ध्रुव से एक-एक ध्रुवीय केन्द्रक के बढ़ते हुए गुरुबीजाणु में, जो अब एक थैले के समान हैं, लगभग मध्य में खिसक आते हैं। है। अब गुरुबीजाणु से बनी संरचना भ्रूणकोष कहलाती है। मध्य में आकर दोनों ध्रुवीय केन्द्रक एक-दूसरे के साथ जुड़कर द्वितीयक केन्द्रक का निर्माण करते हैं। उधर दोनों ध्रुवों पर शेष तीन-तीन केन्द्रक अपने चारों और कोशिकाद्रव्य एकत्रित करके कोशिकाओं का निर्माण करते हैं। इनमे से बीजाण्डद्वार वाली तीन कोशिकाओं में से एक अधिक बड़ी हो जाती है। यह अण्ड कोशिका कहलाती है। शेष दोनों कोशिकायें सहायक कोशिकायें कहलाती है। दूसरे ध्रुव पर (निभाग की ओर) बनने वाली तीनों कोशिकायें, प्रतिध्रुवीय कोशिकायें कहीं जाती हैं। इस प्रकार, गुरुबीजाणुधानी के अन्दर ही एक गुरुबीजाणु मादा युग्मकोद्भिद् या भ्रूण कोष का निर्माण कर लेता है।
प्रश्न 9. परागकण के अंकुरण की क्रिया को बताए।
उत्तर: वर्तिकाग्र पर सुविधायें प्राप्त करके परागकण अंकुरित होते हैं। प्रत्येक परागकण से इस प्रकार, एक पराग नलिका वृद्धि करने लगती है। इसमें नलिका केन्द्रक तथा उसके पीछे जनन केन्द्रक होता है। जनन केन्द्रक कुछ समय के पश्चात् विभाजित होकर दो नर युग्मकों का निर्माण करता है। पराग नलिका वर्तिकाग्र से होकर वर्तिका आती है और यहाँ उपस्थित नली यदि वर्तिका खोखली होती है, में होकर धीरे-धीरे क्रमशः अण्डाशय तक पहुँचती है; जैसे-पोपी में। कभी-कभी जैसे बन्द वर्तिकाओं में यह अन्तराकोशिकीय अवकाशों में होकर; जैसे—धतूरा, कपास आदि में अण्डाशय तक पहुँचती है। कुछ पौधों में वर्तिका आधी बन्द होती है; जैसे- कैक्टस, इसमें एक पतली नली होती है तथा कहीं-कहीं संचारण ऊतक पायी जाती है। ध्यान रखिये, अब तक पराग नलिका में जनन केन्द्रक विभाजित होकर दो नर युग्मक बना चुका होता है।
प्रश्न 10. द्विनिषेचन की क्रिया क्या होती है व एसके क्या क्या महत्व है?
उत्तर: भ्रूणकोष में स्वतन्त्र हुए दोनों नर केन्द्रक, नर युग्मक की तरह कार्य करते हैं। इनमें से एक नर युग्मक वास्तविक मादा युग्मक अर्थात् अण्ड कोशिका के अन्दर प्रवेश करके उसके केन्द्रक के साथ संयोजित हो जाता है; अतः यह क्रिया वास्तविक युग्मक संलयन है। इसी प्रकार की क्रिया को निषेचन कहते हैं। कभी-कभी अण्डकोशिका के अतिरिक्त अन्य कोई अगुणित कोशिका एक मादा युग्मक की तरह कार्य करती है जैसे—सहायक कोशिका या प्रतिध्रुवीय कोशिका आदि। इस क्रिया को अपयुग्मन कहा जाता है। दूसरा नर युग्मक, दो ध्रुवीय केन्द्रकों द्वारा बने द्वितीयक केन्द्र की ओर खिसककर उसे निषेचित करता है। इस क्रिया को त्रिसंयोजन या त्रिसंलयन कहते हैं। इस समय भ्रूणकोष के अन्दर निषेचित केन्द्रकों के अतिरिक्त सभी केन्द्रक अथवा कोशिकायें धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती हैं। द्विनिषेचन की क्रिया के फलस्वरूप -
1. अण्ड कोशिका अब द्विगुणितकोशिका या युग्मनज बन जाती हैं। युग्मनज शीघ्र ही अपने चारों ओर सेल्यूलोस की कोशिका भित्ति बनाता है; अतः इसे निषिक्ताण्ड कहा जाता है। यही कोशिका आगे चलकर भ्रूण का निर्माण करती है और भ्रूणीय कोशिका कहलाती है।
2. द्वितीयक केन्द्रक त्रिगुणित है और इसे भ्रूणपोष केन्द्रक कहते हैं। यह भ्रूणपोष का निर्माण करता है।
द्विनिषेचन का महत्त्व :
यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्रिया है जो आवृतबीजी पौधों का एक लाक्षणिक गुण। इस क्रिया के फलस्वरूप ही विशेष प्रकार के भ्रूणपोष (भ्रूण को, बीज के अंकुरण के समय पोषण देने वाला ऊतक) का निर्माण होता है। यह देखा गया है कि बिना द्विनिषेचन अथवा केवल एकल निषेचन होने से भ्रूणपोष का निर्माण नहीं हो पाता; अतः बीज अस्वस्थ रहता है और इसमें जीवन की क्षमता नहीं रह पाती। ऐसी अवस्था में बीजाण्ड ही नष्ट हो सकते हैं।
प्रश्न 11. भ्रूणपोष की ओटकी को समझाए व भ्रूणपोष की उपस्थिति के आधार पर बीजों का वर्गीकरण करे।
उत्तर: भ्रूणपोष में भोजन एकत्रित होता है। यदि इसमें कोशिकायें हैं तो सामान्यतः ये समव्यासी होती हैं। इन कोशिकाओं की भित्तियाँ पतली होती हैं किन्तु कभी-कभी भोज्य पदार्थ हेमीसेल्यूलोस इत्यादि होने पर ये मोटी हो जाती हैं। प्रायः भ्रूणपोष में भोजन सामान्यतः मण्ड के रूप में ही होता है। फिर भी अनेक एकबीजपत्री पौधों में इसकी सबसे बाहरी कोशिकीय पर्त विशेष रूप से रूपान्तरित होकर एल्यूरोन कण एकत्रित करती है; अतः वहाँ इसे एल्यूरोन पर्त कहते हैं।
भ्रूणपोष की उपस्थिति के आधार पर बीजों का वर्गीकरण:
अभ्रूणपोषी: भ्रूणपोष, केवल पोषक ऊतक होने के कारण अनेक पौधों में बीज बनते समय भ्रूण इत्यादि के द्वारा अवशोषित हो जाता है; अतः परिपक्व बीज में भ्रूणपोष नहीं रहता। ऐसे बीज अभ्रूणपोषी कहलाते हैं। इन बीजों में अंकुरण के समय के लिए पोषण प्रायः बीजपत्रों में अथवा अन्य किसी विशेष ऊतक में होता है।
भ्रूणपोषी: अन्य बीजों में अंकुरण के समय के लिए भोजन बीजों में परिपक्व अवस्था में भी भ्रूणपोष में ही रहता है और भोजन भ्रूण में एकत्रित नहीं होता; अत: ऐसे बीज भ्रूणपोषी कहलाते हैं।
प्रश्न 12. एकबीजपत्री बीज की व्याख्या करे?
उत्तर: एकबीजपत्री-भ्रूणपोषी बीज:
लगभग सभी अनाज जैसे— गेहूं, मक्का आदि दाने कहलाते हैं। एक दाना एकबीजी छोटा फल होता है तथा इसमें फलभित्ति और बीजावरण दोनों आपस में युग्मित रहते हैं। प्रत्येक दाना भागों से मिलकर बना होता है-चौड़े सिरे का अधिकांश सफेद भाग भ्रूणपोष होता है और नुकीले सिरे की ओर, अपेक्षाकृत छोटा भाग भ्रूण होता है। आवरण के अन्दर एक विशेष पतला स्तर एल्यूरोन स्तर कहलाता है। इस स्तर की कोशिकाओं में प्रोटीन कण अधिक मात्रा में होते हैं। 'बड़े भाग भ्रूणपोष और छोटे भाग भ्रूण को दो स्पष्ट भागों में बाँटने वाली एक कोशिका मोटी परत उपकला या एपीथिलीयम कहलाती है। भ्रूणपोष एक प्रकार का भोजन संग्रह ऊतक है और इसमें मुख्यतः मण्ड तथा कुछ मात्रा में प्रोटीन भी होती है। भ्रूण दो भागों बना होता है-
(i) ढाल के आकार का एकमात्र प्रपत्र जिसको वरूथिका या स्क्यूटेलम
कहते हैं, जिसका ऊपरी भाग प्रांकुर कहलाता है। इस पर कुछ नन्हीं पत्तियों का आवरण प्रांकुर चोल होता है। अक्ष के नीचे का भाग मूलांकुर कहलाता है तथा इस पर भी आवरण मूलांकुर चोल होता है। ये चोल, मूलांकुरतथा प्रांकुर की रक्षा करते हैं।
2. एक अक्ष जिसका ऊपरी भाग प्रांकुर कहलाता है। इस पर कुछ नन्हीं पत्तियों का आवरण प्रांकुर चोल होता है। अक्ष के नीचे का भाग मूलांकुर कहलाता है तथा इस पर भी आवरण मूलांकुर चोल होता है। ये चोल, मूलांकुर तथा प्रांकुर की रक्षा करते हैं।
प्रश्न 13. भ्रूणकोश व भ्रूणपोष मे अंतर स्पष्ट करे।
उत्तर: भ्रूणकोश व भ्रूणपोष मे अंतर:
1. भ्रूणकोश में बीजाण्ड अर्थात् गुरुबीजाणुधानी के अन्दर बनने आ वाले चार गुरुबीजाणुओं में से एक क्रियाकारी के गुरुबीजाणु से परिवर्द्धित होता है। भ्रूणपोष मे आवृतबीजी पौधों में द्विनिषेचन में घटित, द्वितीयक केन्द्रक के निषेचन तथा त्रिसंलयन से बने प्रायः त्रिगुणित (3n) केन्द्रक से विकसित होता है। अनावृतबीजी पौधों में यह युग्मकोद्भिद (n) ही होता है।
2. भ्रूणकोश में यह प्रायः केवल 8 केन्द्रकों (तीन-तीन दो स्थानों पर कोशिकाओं के रूप में तथा दो सामान्य जीवद्रव्य में द्वितीयक केन्द्रक के रूप में) तथा कुछ जीवद्रव्य से बनी सदैव अगुणित संरचना हैं। भ्रूणपोष मे यह अनगिनत केन्द्रकों वाली संरचना है, जो प्रायः त्रिगुणित अथवा बहुगुणित होता है, किन्तु अनावृतबीजियों में यह अगुणित ऊतक के रूप में होता है।
3. भ्रूणकोश मादा जनन इकाई को आश्रय देने वाली संरचना है। भ्रूणपोष यह एक पोषक ऊतक है, जो भ्रूण को बनते समय तथा अंकुरण के समय पोषण प्राप्त कराता है।
प्रश्न 14. अधोभूमिक अंकुरण क्या है उदाहरण सहित समझाए।
उत्तर: अधोभूमिक अंकुरण– कुछ बीजों; जैसे― चना, मटर, मूँगफली, आम, मक्का आदि में बीजपत्र भूमि के अन्दर ही रह जाते हैं। ऐसे अंकुरण को अधोभूमिक अंकुरण कहते हैं। इस प्रकार के अंकुरण में बीजपत्रोपरिक बढ़कर, प्रांकुर को बाहर धकेलकर भूमि के ऊपर निकाल देता है। इस प्रकार बीजपत्र भूमि के अन्दर ही रह जाते हैं।
उदाहरण- चने के बीज का अंकुरण - बीज जल अवशोषित करने से नम हो जाता है तथा फूल जाता है। बीजावरण फट जाता है। उधर मूलांकुर पहले वृद्धि करके भूमि के अन्दर चला जाता है और नवोद्भिद की प्रथम जड़ बना लेता है। जब मूलांकुर में काफी वृद्धि हो चुकी होती है तो बीजपत्रोपरिक तेजी से वृद्धि करता है और प्रांकुर को भूमि से बाहर निकाल लाता है। इस प्रकार, बीजपत्र भूमि के अन्दर ही रह जाते हैं और मात्र बढ़ते हुए भ्रूणाक्ष को खाद्य पदार्थ देने का ही कार्य करते हैं। प्रांकुर में वृद्धि होने व पत्तियाँ इत्यादि बनने से नवोद्भिद एक छोटा पौधा बन जाता है। इस प्रकार का अंकुरण, जहाँ बीजपत्रोपरिक की तेज वृद्धि के कारण बीजपत्र भूमि के अन्दर ही रह जाते हैं, अधोभूमिक अंकुरण कहलाता है।
प्रश्न 15. फल के निर्माण पर संक्षिप्त टिप्पणी दीजिए।
उत्तर: फल का निर्माण :
फल सामान्यत: एक परिपक्व अण्डाशय ही है। अण्डाशय की भित्ति परिपक्वन पर फलमिति बनाती है। कुछ पौधों के फल, अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्प या इससे सम्बन्धित अन्य भागों के सम्मिलित होने से बनते हैं। ऐसे फल असत्य फल कहलाते हैं।
बिना निषेचन के ही अण्डाशय फल में विकसित हो जाता है। इस प्रकार फलों के पकने की क्रिया को अनिषेक फलन कहते हैं। अनेक फल; जैसे—केला, पपीता, सन्तरा, अनन्नास नाशपाती आदि इस प्रकार विकसित हो जाते हैं। इन फलों में बीज नहीं होते। कुछ पौधों में परागण की क्रिया के द्वारा ही फल विकसित हो जाते हैं चाहे निषेचन न हो पाये। कुछ पौधों के वर्तिकाग्र पर तो मृत परागकण रखने अथवा परागकणों का रस डालने से ही फल बन जाते हैं। कुछ विशेष प्रकार के रासायनिक पदार्थ, जिन्हें हॉर्मोन्स कहते हैं, वर्तिकाग्र पर छिड़कने से अनिषेकफलन की क्रिया हो जाती है। इनमें NAA (naphthalen acetic acid) प्रमुख है। इसके अत्यन्त कम सान्द्रता के घोल के छिड़कने से ही कुछ पौधों में फल बनाये जा सकते हैं। इस क्रिया को प्रेरित अनिषेकफलन कहा जाता है।