बिहार बोर्ड कक्षा 12 रसायन विज्ञान अध्याय 3 वैद्युत रसायन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 12 रसायन विज्ञान अध्याय 3 वैद्युत रसायन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

BSEB > Class 12 > Important Questions > रसायन विज्ञान अध्याय 3 वैद्युत रसायन

अध्याय 3 वैद्युत रसायन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. किसी वैद्युत अपघट्य के विलयन की चालकता. मोलर चालकता की परिभाषा दीजिए। सांद्रता के साथ इनके पास की विवेचना कीजिए।

उत्तर⇒ चालकत्व या विशिष्ट चालकत्व (k कप्पा) प्रतिरोधकता के व्युत्क्रमानुपाती होते हैं।

यह उस पदार्थ की चालकता है जो लम्बाई में 1 मीटर और पृष्ठीय क्षेत्रफल 1m2 हो।

इसके लिए इकाई सिमेन मी-1 है

1 Scm-1= 100 Sm-1

1 सिमेन या 1S= 1 -1 या 1 मोल

यदि इस विद्युत अपघट्य विलयन को 1 cm2 आयतन के बर्तन में तथा इलेक्ट्रोड 1 cm दूरी पर हो, लेते हैं तब चालकत्व विशिष्ट चालकत्व कहलाएगा।

k (कप्पा) के लिए इकाई = -1 cm-1 

मोलर चालकत्व : मोल वैद्युत अपघट्य उत्पन्न आयनों से उत्पन्न चालकत्व मोलर चालकत्व कहलाता है। इसे λ (लेम्डा) द्वारा दर्शाया जाता है। मोलर चालकता व विशिष्ट चालकत्व में संबंध – λm = k/M.

जहाँ M मोलर सांद्रता है यदि M की इकाई मोलरता है. अर्थात् मोल/लीटर तब λm होगा।

mk1000M

मोलर चालकत्व की इकाई Sm2 mol-1

विशिष्ट चालकत्व : विशिष्ट चालकत्व या चालकत्व सांद्रता घट घटती है क्योंकि प्रति cm3आयतन में आयन संख्या कम होती हैं मोलर चालकत्व या सांद्रता के साथ इसके माने को दर्शाने के लिए दुर्बल या प्रबल वैद्यत अपघट्य द्वारा उत्पन्न चालकत्व को लेते हैं।

(i) दुर्बल वैद्युत अपघट्य का चालकत्व : λm पर सांद्रता के प्रभाव को प्रति Cm3 आयतन में आयन संख्या से समझा जा सकता है। आयनों की नियोजन डिग्री पर निर्भर करती है। सांद्रता घटने पर वियोजन डिग्री बनती है परिणामस्वरूप मोलर सांद्रता बढ़ती है।

वियोजन डिग्री को निम्न अनुसार मापा जा सकता है।

=AmcAma

जहाँ α वियोजन डिग्री, Λmc मोलर चालकत्व तथा C सांद्रता पर

(ii) प्रबल वैद्युत अपघट्य का चालकत्व : प्रबल वैद्युत अपघट्य के लिए सांद्रता घटने पर आयन की संख्या नहीं बढ़ती है क्योंकि प्रबल अपघट्य पर्णरूप से वियोजित हो जाता है हालांकि सांद्र विलयन में आयनों के मध्य प्रबल आकर्षण होता है। इस प्रबल आकर्षण बल के कारण आयन का चालकत्व कम होता है। सांद्रता कम करने पर आयनों के बीच दूरी बढ़ जाती है परिणामस्वरूप चालकत्व बढ़ जाता है। जब सांद्रता निम्नतम रूप में होती है तब आयनों के मध्य आकर्षण बल न के बराबर होता है तब मोलर चालकत्व अनन्त को छूता है। ऐसी स्थिति में λm को λ द्वारा दर्शाते हैं।

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प्रश्न 2. समझाइए कि कैसे लोहे पर जंग लगने का कारण एक वैद्युत रासायनिक सेल बनना माना जाता है ?

उत्तर⇒ वायु तथा जल के संपर्क से लोहे को जंग लगना एक वैद्युत रासायनिक अभिक्रिया है धातु के धरातल पर बहुत-सी सेलों का निर्माण हो जाता है।

.

ऐनोड पर : 2Fe → 2Fe+2 + 4e-

E0 Fe+2।Fe = – 0.4400

        इलेक्ट्रॉन खोकर Fe परमाणु Fe+2 आयन में ऑक्सीकृत हो जाता है । उत्पन्न इलेक्ट्रॉन ऑक्सीजन को अपचयित करते हैं जो H+ आयन की उपस्थिति से संभव है।

कैथोड पर : O2 + 4 H+ + 4e- → 2H20(I)

E0H+|020 = – 0.23 Volt

पूर्ण अभिक्रिया : 2Fe + O2 +4  H+ + 4e- → 2Fe2 + 2H20

E0सेल = 1.67 Volt

वायुमण्डलीय ऑक्सीकरण :

2Fe+2  (aq) + 2H20 (1) + 12O2(g) → Fe2O3(s) + 4H+  (aq)

प्रश्न 3. कोहलारस्क नियम को परिभाषित करें। यह नियम निम्न के लिए कैसे उपयोगी है ?

1. दुर्बल अपघट्य के लिए Λα की गणना में।

2. दुर्बल अपघट्य के लिए वियोजन डिग्री गणना के लिए।

उत्तर⇒ अनन्त सांद्रता पर किसी वैद्युत अपघट्य की मोलर चालकत्व के द्वारा उत्पन्न आयनों की चालकत्व का योग होता है आयनिक चालकत्व को फार्मूला इकाई में उत्पन्न आयनों की संख्या से गुणा करते हैं ।

गणितीय प्रारूप : AxBy यौगिक के लिए Λm

=xy++yX

जहाँ Λm अन्नत सांद्रता पर अपघट्य की मोलर चालकत्व है।

तथा Ay और BX धनायन और ऋणायन की मोलर चालकत्व है।

उदाहरण- Λ m NaCl= Na++ Cr

Λ m BaCl2=  Ba++ cl

Λ mAl2(SO4) = 2 Al+3 +3 SO2-2

साम्यांक चालकत्व के लिए कोहलारस्क नियम के अनुसार अनन्त सांद्रण पर अपघट्यों की साम्यांक चालकत्व दो संख्याओं का मान है एक जो धनायन पर व दूसरी ऋणायन के मान का योग है।

कोहलारस्क नियम की उपयोगिता :

1. दुर्बल अपघट्यों की मोलर चालकत्व की गणना करने के लिए-कोहलारस्क नियम दुर्बल अपघट्यों की मोलर चालकत्व की गणना करने के लिए बहुत उपयोगी है। पहले ही वर्णन किया जा चुका है कि m का मान सीधे रूप से ज्ञात नहीं किया जा सकता इसे कोहलारस्क नियम से ज्ञात किया जा सकता है।

उदाहरण-ऐसीटिक अम्ल के लिए m का मान यदि आयनों की मोलर चालकत्व का ज्ञान है तो ज्ञात किया जा सकता है, आयनों की मोलर चालकत्व का मान प्रबल आयनों Cu,COONa,HCl और NaCl की सहायता से ज्ञात किया जा सकता है।

∴        m(CH3COOH) =(CH3COO-) + H+

अब Na+ और cr के मानों को जोड़ने पर घटाने पर

ΛCH2COOH = CH2COO- + H-+ Na- + cr+ – cl

= Λm (CH2COONa) + Λm (HCl) – Λm (NaCl) इसी प्रकार

= Λm (NH3OH) = Λm (NH4Cl) + Λm (NaOH) – Λm (NaCl)

2. दुर्बल अपघट्यों के लिए वियोजन डिग्री ज्ञात करने के लिए-किसी अपघट्य के लिए मोलर चालकत्व उसकी वियोजन डिग्री पर निर्भर करती है वियोजन डिग्री का मान उच्च है तब उच्च मोलर चालकत्व होगा सांद्रता कम करने पर वियोजन डिग्री का मान बढ़ता है। अनन्त साब पर उच्चतम वियोजन डिग्री होती है।

अतः यदि Λm किसी सांद्रता पर विलयन की मोलर चालकत्व

Λm = अनन्त सांद्रता पर मोलर चालकत्व

=ΛCmΛm

प्रश्न 4. वैधुत रासायनिक सेल I है ? यह किस सिद्धान्त पर कार्य करती है ? डेनियल सेल की कार्य प्रणाली का वर्णन करें। लवण सेतू का क्या कार्य है ? इस प्रकार की सेल के उदाहरण दें।

उत्तर⇒ एक वोल्टीय/गैल्वेनिक/वैद्युत रसायन सेल व यंत्र होता है जो रासायनिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदलता है।

           गिब्ज ऊर्जा का घटता मान विद्युत ऊर्जा का मापन करता है।

-ΔG =Wवैधुत = nFE

E= e.m.f. सेल

n = इलेक्ट्रॉन संख्या

F = पैफराडे = 96500 कूलॉम

   इस प्रकार की एक सेल का नाम डेनियल सेल है

          डेनियल सेल में जिंक पट्टी को ZnSO4 विलयन में डुबोया जाता है और कॉपर पट्टी को कॉपर सल्फेट विलयन में। दोनों बीकरों को लवण सेत से जोड़ा जाता है। बाह्य परिपथ में एक वोल्टमापी जोड़ा जाता है।

          वोल्टमापी में हलचल दर्शाता है कि दोनों इलैक्ट्रोड के बीच विद्युत विभव उत्पन्न हुआ। धारा बाह्य परिपथ में कैथोड से ऐनोड की ओर तथा इलेक्ट्रॉन ऐनोड से कैथोड की ओर गमन करते हैं।

सेल की कार्य विधि :

          (i) जिंक परमाणु ऑक्सीकृत होकर जिंक आयन बनाते हैं।

Zn(s)Zn+2+2e-

          (ii) उत्पन्न इलेक्ट्रॉन कॉपर तार के माध्यम से कॉपर पट्टी की ओर गमन करते हैं।

          (iii) कॉपर आयन कॉपर प्लेट की ओर गमन कर इलेक्ट्रॉन ग्रहण करते हैं।

Cu+22e-Cu(s)

          इलैक्ट्रोड जिस पर ऑक्सीकरण होता है ऐनोड कहलाता है तथा जिस इलैक्टोड पर अपचयन होता है कैथोड कहलाता है। सेल में ऑक्सीकरण से ऐनोड इलेक्ट्रॉन स्रोत बनता है। तथा अपचयन के कारण कैथोड इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है। अतः विद्युत रसायन सेल में

          कैथोड धन आवेशित टर्मिनल तथा ऐनोड ऋणावेशित टर्मिनल के रूप में कार्य करते हैं।

          लवण सेतू कार्य : वैद्युत रसायन सेल में लवण सेतू निम्न दो काई करता है-

          1. परिपथ पूर्ण कर धारा प्रवाह में सहायक है।

          2. वैद्युत अपघट्य के आयन लवण सेतु के माध्यम से ऐनोड की ओर गमन करता है अतः लवण सेतू आयनों को एक जगह इकट्ठा होने से रोकता है तथा धारा प्रवाह को बनाए रखता है। कभी-कभी वैद्युत रसायन सेल में लवण सेतू के स्थान पर छिद्रयुक्त माध्यम लगाया जाता है जो इलेक्ट्रॉन प्रवाह तथा आयन के स्थानान्तरण को बनाए रखते हैं।

          गैल्वेनिक सेल का निरूपण-गैल्वेनिक सेल दो अर्ध अभिक्रियाओं का योग है। एक ऑक्सीकरण अर्ध सेल तथा दूसरी अपचयन अर्ध सेल के नाम से जाना जाता है। यदि तत्त्व को M से तथा धनात्मक Mn+ से निरूपित किया जाए तब

          अर्ध ऑक्सीकरण सेल निरूपण M | Mn+c) अर्ध अपचयन सेल निरूपण Mn+(c) | M.

दोनों निरूपण में C का अर्थ सांद्रता है तथा कैथोड को दाईं तथा ऐनोड को बाईं ओर रखा जाता है। दोहरी रेखाओं के नीचे दर्शाया जाता है। कुछ प्रभाव वैद्युत रसायन सेल को सारणी के रूप में नीचे दर्शाया गया है –

प्रश्न 5. मोलर चालकता पर तनुता का क्या प्रभाव पड़ता है ?

उत्तर⇒ दुर्बल विद्युत अपघट्य की आण्विक चालकता सांद्रण घटने और तनुता बढ़ने से तेजी से बढ़ता है क्योंकि दोनों आयनों की संख्या और आयनिक मोबाइलिटी तनुता से बढ़ता है।

          सबल विद्युत अपघट्य की आण्विक चालकता तनुता बढ़ने से बहुत धीरे-धीरे बढ़ती है क्योंकि आयनों की संख्या में बहुत परिवर्तन नहीं होता है, लेकिन आयनिक मोबाइलिटी बढ़ता है।

प्रश्न 6. फैराडे के विद्युत विच्छेदन के प्रथम नियम को लिखें। विद्युत रासायनिक तुल्यांक की परिभाषा दीजिये।

उत्तर⇒ फैराडे का प्रथम नियम-फैराडे के विद्युत विच्छेदन के प्रथम नियमानुसार, विद्युत विच्छेदन में इलेक्ट्रोड पर मुक्त पदार्थ की मात्रा प्रवाहित धारा की मात्रा के सीधे समानुपाती होती है।

          यदि Q कुलम्ब आवेश से W ग्राम पदार्थ इलेक्ट्रोड पर जमा होता है

          W ∝ W

या       W = ZQ                      चूँकि Q =It

           W = Z It

   जहाँ Z = विद्युत रासायनिक तुल्यांक, I = विद्युत और t = समय

   यदि Q = 1C, I = 1amp और t = 1 सेकेण्ड

   तो W = Z

विद्युत विच्छेदन में 1 कुलम्ब आवेश प्रवाहित करने से इलेक्ट्रोड पर मुक्त पदार्थ के द्रव्यमान को उस पदार्थ का विद्युत रासायनिक तुल्यांक कहते हैं।

प्रश्न 7. निम्नलिखित विधियों द्वारा धाराओं के शोधन के सिद्धान्तों की रूपरेखा दीजिए

         (i) मंडल परिष्करण (ii) वैद्युत अपघटन परिष्करण (iii) वाष्प प्रावस्था परिष्करण।

उत्तर⇒ (i) मंडल परिष्करण-हाँ, 1773 K ताप से नीचे Mg,SiO2 का अपचयन कर सकता है। Si, MgO का अपचयन 1773 K ताप से ऊपर अपचयन करता है।

          (ii) वैद्युत अपघटन परिष्करण-इस विधि में अशुद्ध धातु की ऐनोड बनाते हैं। उसी धातु की शुद्ध धातु इन्हें को कैथोड की तरह प्रयुक्त करते है। उन्हें एक उपयुक्त वैद्युत अपघटनी विश्लेषित में रखते हैं जिसमें उसी धातु का लवण घुला रहता है। अधिक क्षारकीय धातु विलयन में रहती है तथा कम क्षारकीय धातुएँ एनोड पंक में चली जाती है।

एनोड-            M → Mn++ ne-

कैथोड-            Mn+ + ne- → M

           कॉपर का शोधन वैद्युत अपघटनी विधि के द्वारा किया जाता है। अशुद्ध ऐनोड के रूप में तथा शुद्ध कॉपर पत्री कैथोड के रूप में लेते हैं। कॉपर सल्फेट का अम्लीय विलयन वैद्युत अपघटन होता है तथा वैद्युत अपघट्य के वास्तविक परिणामस्वरूप शुद्ध कॉपर ऐनोड से कैथोड की तरफ स्थानांतरित हो जाता है।

.एनोड-            Cu → Cu+2 | 2e-

कैथोड-           Cu+2 + → 2e-Cu

           फफोलेदार कॉपर से अशुद्धियाँ ऐनोड पंक के रूप में जमा होती है।

           (iii) वाष्प प्रावस्था परिष्करण-इस विधि में धातु को वाष्पशील यौगिक में परिवर्तित किया जाता है। इसके लिए दो आवश्यकताएँ होती हैं-

           (क) उपलब्ध अभिकर्मक के साथ धातु वाष्पशील यौगिक बनाती हो।

           (ख) वाष्पशील पदार्थ आसानी से विघटित हो सकता है।

           निकेल शोधन का मॉन्ड प्रक्रम इस प्रक्रम में निकेल को कार्बन मोनोऑक्साइड के प्रवाह में गरम करके प्राप्त करते हैं।

Ni + 4CO [Ni(CO)4]

इस कार्बोनिल को और अधिक ताप पर गरम करते हैं जिससे यह विघटित होकर शुद्ध धातु देता है।

Ni(CO)4 Ni + 4CO

         जिर्कोनियम या टाइटेनियम शोधन के लिए वॉन आरकैल विधि

         यह विधि Zr तथा Ti जैसी धातुओं में शुद्धिकरण के लिए उपयोगी है। परिष्कत धातु को निर्वाति पात्र में आयोडीन के साथ गरम करते हैं।

Zr + 2I2 → ZrI

   धातू आयोडाइड को विद्युत धारा में 1800 K ताप पर गरम करते हैं।

ZrI4→ Zr + 2I2H

प्रश्न 8 लेड स्टोरेज बैटरी के रिचार्जिंग विधि की व्याख्या करें।

उत्तर⇒ लेड स्टोरेज बैटरी के रिचार्जिंग इस प्रकार की जाती है-

PbSO4(s) + 2e → Pb(s) + SO(aq) अवकरण

PbSO4(s) + 2H2O (l) →PbO2 (s) + SO (aq) + 4H+ (aq) +

.                                                                                 2e ऑक्सीकरण

_____________________________________

2PbSO4(s) + 2H2O (l) → Pb (s) + PbO2 (s) + 4H+ (aq) +

.                                                                                    2SO(aq)

प्रश्न 9.इलेक्ट्रोड विभव किसे कहते हैं? इसका मान किन-किन कारकों पर निर्भर करता है? 

उत्तर⇒ जब किसी धातु (इलेक्ट्रोड) को उसी धातु के किसी लवण विलयन में रखा जाता है तो धातु तथा विलयन के सम्पर्क स्थल पर वैद्युत द्विक-स्तर उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप धातु तथा विलयन के मध्य विभवान्तर उत्पन्न हो जाता है जिसे इलेक्ट्रोड विभव कहते हैं। इसे E° से प्रकट करते हैं और इसे वोल्ट में मापा जाता है। उदाहरणार्थ-जब कॉपर की छड़, कॉपर सल्फेट के विलयन में डुबोई जाती है तो कॉपर की छड़, विलयन के सापेक्ष ऋणावेशित हो जाती है जिससे कॉपर धातु और कॉपर आयनों के मध्य विभवान्तर उत्पन्न हो जाता है|

इस विभवान्तर को कॉपर इलेक्ट्रोड का विभव कहते हैं।

इलेक्ट्रोड विभव निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है –

चालक की प्रकृति – जिस इलेक्ट्रोड की चालकता अधिक होगी वह उतना ही अधिक इलेक्ट्रोड विभवे उत्पन्न करता है।

धात्विक आयन की विलयन में सान्द्रता – सान्द्रता बढ़ाने पर इलेक्ट्रोड विभव को मान घटता है, क्योंकि सान्द्रता बढ़ाने पर आयनन घट जाता है, फलस्वरूप चालकता कम हो जाती है।

तापक्रम – इलेक्ट्रोड विभव का मान ताप पर भी निर्भर करता है जो ताप बढ़ाने पर आयनन बढ़ जाने के कारण बढ़ता है।

प्रश्न 10.वैद्युत रासायनिक श्रेणी किसे कहते हैं? इसके प्रमुख लक्षण तथा दो प्रमुख उपयोग लिखिए। 

उत्तर⇒ वैद्युत रासायनिक श्रेणी–विभिन्न धातुओं तथा अधातुओं के मानक इलेक्ट्रोड विभवों (अपचयन विभव) को बढ़ते हुए क्रम में रखने पर जो श्रेणी प्राप्त होती है, उसे वैद्युत रासायनिक श्रेणी कहते हैं।

वैद्युत रासायनिक श्रेणी के लक्षण

श्रेणी में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर तत्त्वों की अपचयन क्षमता घटती है, जबकि नीचे से ऊपर जाने पर अपचयन क्षमता बढ़ती है।

हाइड्रोजन से ऊपर के सभी तत्त्व अम्लों से अभिक्रिया करके हाइड्रोजन गैस मुक्त करते हैं, जबकि नीचे वाले तत्त्व अम्लों से अभिक्रिया करके हाइड्रोजन गैस मुक्त नहीं करते।

हाइड्रोजन से ऊपर के सभी तत्त्व जल या भाप के साथ क्रिया करके H, गैस देते हैं।

जिस तत्त्व का अपचयन विभव जितना अधिक होता है, वह उतना ही प्रबल ऑक्सीकारक होता है।

जिस तत्त्व का अपचयन विभव जितना कम होता है, वह उतना ही प्रबल अपचायक होता है।

श्रेणी का ऊपर वाला तत्त्व नीचे वाले तत्त्व को उसके विलयन से विस्थापित कर देता है।

उपयोग – वैद्युत रासायनिक श्रेणी के दो उपयोग निम्नवत् हैं –

किसी सेल के मानक वैद्युत वाहक बल का निर्धारण करने में,

धातुओं की क्रियाशीलता की तुलना करने में।

प्रश्न 11. संक्षारण से आप क्या समझते हैं? यह किस प्रकार लोहे को जंग लगने से बचाता है?

उत्तर⇒ संक्षारण से बचाव – संक्षारण से बचाव की कुछ प्रमुख विधियाँ निम्न हैं –

1. अवरोध रक्षण – लोहे को जंग लगने से बचाने के लिए इस विधि का काफी उपयोग किया जाता है। इस विधि में धातु सतह तथा वायुमण्डलीय वायु के मध्य एक उपयुक्त अवरोध का निर्माण किया जाता है! इससे धातु सतह वायु, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड की क्रिया से बची रहती है और संक्षारित नहीं होती है। अवरोध रक्षण निम्न में से किसी भी विधि द्वारा किया जा सकता है –

धातु की सतह पर तेल या ग्रीस के लेपन द्वारा – लोहे की सतह पर तेल या ग्रीस की एक पतली फिल्म बनाकर उसे जंग लगने से बचाया जा सकता है। लोहे के औजारों तथा मशीनी भागों  को इसी प्रकार जंग लगने से बचाया जाता है।

धातु सतह पर पेंट के लेपन द्वारा – धातु सतह पर किसी पेंट , एनामिल  आदि का एक पतली परत के रूप में लेपन करने से धातु संक्षारित होने से बच जाती है।

धातु पर कुछ विशिष्ट रसायनों के लेपन द्वारा – लोहे की सतह पर FePO4 या अन्य किसी उपयुक्त रसायन का लेप कर उसे जंग लगने से बचाया जा सकता है। रसायन की पतली अविलेय परत लोहे को वायु तथा नमी के सम्पर्क से बचाकर इस पर जंग नहीं लगने देती है।

धातु पर असंक्षारणीय धातुओं की परत द्वारा – किसी असंक्षारणीय धातु; जैसे- निकिल, क्रोमियम आदि की एक पतली परत को किसी धातु पर चढ़ाकर भी उसकी संक्षारण से रक्षा की जा सकती है। जैसे, लोहे पर निकिल या क्रोमियम की एक पतली परत द्वारा लोहे को जंग लगने से बचाया जा सकता है।

2. बलिदानी रक्षण – इस विधि में धातु का रक्षण उसकी सतह पर लेपित एक अन्य अधिक सक्रिय धातु के बलिदान द्वारा किया जाता है। जब एक धातु की सतह को एक अधिक सक्रिय धातु से आवृत कर दिया जाता है, तो अधिक सक्रिय धातु प्रथम धातु की तुलना में वरीयता से इलेक्ट्रॉन त्याग कर आयनिक अवस्था में परिवर्तित होती रहती है। इससे अधिक सक्रिय धातु धीरे-धीरे उपभोगित होती रहती है और प्रथम धातु की संक्षारण से रक्षा करती है। जब तक अधिक सक्रिय धातु संक्षारणीय धातु की सतह पर स्थित होती है तब तक प्रथम धातु-संक्षारण से बची रहती है।

लोहे का गैल्वेनीकरण – जिंक लोहे से अधिक क्रियाशील (अधिक विद्युत धनात्मक) है, अत: जिंक का उपयोग प्राय: लोहे की सतह को आवृत करने के लिए किया जाता है। लोहे की सतह पर जिंक की एक पतली परत को जमा करने की प्रक्रिया को गैल्वेनीकरण कहा जाता है। गैल्वेनीकरण को निम्न दो प्रकार से सम्पन्न किया जा सकता है –

लोहे को पिघले जिंक में डुबोकर – इस विधि में लोहे की चादरों को पिघले जिंक में डुबोया जाता है और इसके पश्चात् उन्हें गर्म रॉलरों के मध्य से गुजारा जाता है, जिससे लोहे की चादर से चिपका अतिरिक्त जिंक हट जाता है और उस पर जिंक की एक समान पतली परत शेष रह जाती है।

शेरार्डीकरण द्वारा – इस विधि में जिंक चूर्ण को उच्च ताप पर गर्म किया जाता है और प्राप्त जिंक वाष्प को लोहे की चादरों की सतह पर संघनित होने दिया जाता है, जिससे उन पर जिंक की एकपतली तथा एक समान परत जमा हो जाती है।

लोहे की सतह पर स्थित जिंक की परत के कारण लोहे की सतह वायु तथा नमी के सम्पर्क में नहीं आने पाती है। जिंक की परत में खरोंच अथवा दरारें उत्पन्न होने पर भी लोहे पर जंग नहीं लगती है। इसका कारण यह है कि जिंक का मानक अपचयन विभव लोहे के मानक अपचयन विभव से कम है। स्पष्ट है कि लोहे की तुलना में जिंक में ऑक्सीकृत होने की प्रवृत्ति अधिक होती है। जिंक परत में दरार पड़ने पर जिंक परत ऐनोड की भाँति तथा लोहे की खुली सतह कैथोड की भाँति कार्य करने लगती है। ऐनोड पर जिंक के ऑक्सीकरण में उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन आयरन कैथोड पर जाकर वायुमण्डलीय ऑक्सीजन को जल में अपचयित कर देते हैं। ऑक्सीकरण के कारण जिंक परत वायुमण्डलीय O2,CO2  तथा नमी की उपस्थिति में भास्मिक जिंक कार्बोनेट, ZnCO3,Zn(OH)2 में परिवर्तित हो जाती है। यह परत लोहे की खुली सतह को जंग लगने से बचाती है।

टिन द्वारा लोहे की रक्षण – लोहे की सतह पर टिन की एक पतली परत जमाकर भी उसकी जंग लगने से रक्षा की जा सकती है। लोहे की सतह को टिन की एक पतली परत से आवृत करने की प्रक्रिया को टिनिंग कहा जाता है। टिनिंग द्वारा लोहा (आयरन) उस समय तक रक्षित रहता है जब तक कि टिन परत अक्षुण रहती है। यदि टिन परत में खरोंच या दरारें उत्पन्न हो जाती हैं तो लोहा आरक्षित हो जाता है और उस पर जंग लगना प्रारम्भ हो जाता है। इसका कारण यह है कि आयरन का मानक अपचयन विभव टिन से कम है।

इससे स्पष्ट है कि टिन की तुलना में आयरन में ऑक्सीकृत होने की प्रवृत्ति अधिक होती है। अत: यदि टिन परत में दरार उत्पन्न हो जाती है तो सतह के खुले भाग में उपस्थित आयरन एक ऐनोड का तथा टिन परत एक कैथोड का कार्य करने लगती है। इसके फलस्वरूप आयरन वरीयता से ऑक्सीकृत होकर जंग ग्रस्त हो जाता है।

3. जंग-रोधी विलयनों द्वारा रक्षण – लोहे के संक्षारण को जंग-रोधी विलयनों द्वारा भी रोका जा सकता है। इस प्रकार के विलयन प्रायः क्षारीय फॉस्फेट या क्रोमेट विलयन होते हैं। विलयन का क्षारीय माध्यम H+ आयनों की उपलब्धता को कम करता है। चूंकि H+आयन जंग लगने के लिए अपरिहार्य हैं, अतः उनके कम होने से जंग लगने की प्रक्रिया मन्द हो जाती है। इसके अतिरिक्त फॉस्फेटों में धातु पर आयरन फॉस्फेट की एक परत का आवरण चढ़ाने की प्रवृत्ति होती है। यह परत धातु की जंग लगने से रक्षा करती है। इस प्रकार के विलयनों का प्रयोग स्वचालित वाहनों के इंजनों के भागों को तथा कार रेडियेटरों की जंग लगने से रक्षा करने के लिए किया जाता है।

4. कैथोडिक रक्षण या विद्युत रक्षण – इस विधि का उपयोग धरातल के नीचे दबे पाइपों तथा टैंकों के रक्षण के लिए किया जाता है। इस विधि में रक्षित की जाने वाली धातु को एक अधिक सक्रिय (अधिक विद्युत धनात्मक) धातु से जोड़ा जाता है।

धरातल के नीचे स्थित जिस लोहे के पाइप या टैंक की जंग लगने से रक्षा करनी होती है उसके निकट एक सक्रिय धातु जैसे Zn या Mg की एक प्लेट या ब्लॉक को रखा जाता है और दोनों को एक तार से जोड़ दिया जाता है। चूंकि अधिक सक्रिय धातु में ऑक्सीकृत होने की प्रवृत्ति अधिक होती है। अत: यह लोहे की तुलना में वरीयती से ऑक्सीकृत होती रहती है। इस प्रकार अधिक सक्रिय धातु एक ऐनोड का कार्य करती है। उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन कैथोड की भाँति कार्य कर रहे लोहे के पाइप पर जाकर O, को OH- आयनों में अपचयित कर देते हैं।

O2+2H2O+4e-4OH-

सक्रिय धातु के ऑक्सीकरण के कारण ऐनोड धीरे-धीरे लुप्त होता रहता है। इस प्रकार लोहे का पाइप या अन्य वस्तु जंग लगने से रक्षित रहती है और सक्रिय धातु ऐनोड व्यतित होता रहता है। जब तक सक्रिय धातु उपस्थित होती है, लोहे के पाइप पर जंग नहीं लगती है। इस विधि में समय-समय पर सक्रिय धातु के पुराने ऐनोड के स्थान पर नया ऐनोड स्थापित करना आवश्यक होता है।

प्रश्न 12.मानक इलेक्ट्रोड विभव की तालिका का निरीक्षण कर तीन ऐसे पदार्थ बताइए जो अनुकूल परिस्थितियों में फेरस आयनों को ऑक्सीकृत कर सकते हैं।

उत्तर⇒ फेरस आयनों के ऑक्सीकरण का अर्थ है –

Fe2+Fe3++e-;E-=-0.77 V

केवल वे पदार्थ Fe2+ को Fe3+ में ऑक्सीकृत कर सकते हैं जो प्रबल ऑक्सीकारक हों तथा जिनका धनात्मक अपचायक विभव 0.77 V से अधिक हो जिससे सेल अभिक्रिया का विद्युत वाहक बल धनात्मक प्राप्त हो सके। यह स्थिति उन तत्वों पर लागू हो सकती है जो विद्युत-रासायनिक श्रेणी में Fe3+ | Fe2+ से नीचे स्थित हैं; उदाहरणार्थ- Br, Cl तथा I.

प्रश्न 13.संक्षारण क्या है और यह किन कारकों पर निर्भर करता है? इसे एक विद्युत रासायनिक घटना क्यों माना जाता है?

उत्तर⇒ संक्षारण – जब एक धातु को किसी विशिष्ट वातावरण में रखा जाता है तो वह वातावरण से क्रिया कर सकती है जिसके फलस्वरूप उसकी सतह कलुषित हो सकती है। इस घटना को संक्षारण  कहते हैं।

अधिकांश धातुएँ वायुमण्डल में रखे जाने पर किसी न किसी रूप में प्रभावित होती हैं। वायुमण्डल में उपस्थित गैसें धातु से मन्द गति से क्रिया कर उसकी सतह को कलुषित कर देती हैं। इससे धातुएँ अपनी विशिष्ट चमक खो देती हैं। कुछ धातुओं की शक्ति कम हो जाती है और वे दुर्बल तथा भंगुर  हो जाती हैं। चाँदी की चमक का कम होना , लोहे पर जंग लगना , ताँबे या कॉसे पर हरी परत का जमा होना आदि संक्षारण के कुछ सामान्य उदाहरण हैं। संक्षारण को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है –

किसी निश्चित वातावरण की मन्द किन्तु स्वतः प्रवर्तित क्रिया द्वारा धातुओं की सतह के कलुषित  होने की प्रक्रिया को संक्षारण कहा जाता है।

संक्षारण को प्रभावित करने वाले कारक

धातुओं का संक्षारण अनेक कारकों पर निर्भर करता है। इनमें से कुछ प्रमुख कारक निम्न हैं –

1. धातु की क्रियाशीलता – अधिक क्रियाशील धातु के संक्षारण की सम्भावना किसी अन्य कम क्रियाशील धातु की तुलना में अधिक होती है। उदाहरणार्थ- लोहा अपने से कम क्रियाशील धातु चाँदी की तुलना में अधिक तेजी से संक्षारित होता है। किसी धातु की क्रियाशीलता उसकी विद्युत धनात्मक प्रकृति पर निर्भर करती है। धातु की विद्युत धनात्मक प्रकृति जितनी अधिक होगी, वह उतनी ही अधिक क्रियाशील होगी। इस प्रकार धातुएँ जैसे-Na, Ca, Mg, Al, Zn आदि शीघ्रता से संक्षारित होती हैं।

2. धातु में अशुद्धियों की उपस्थिति – शुद्ध धातुएँ प्राय: अधिक संक्षारित नहीं होती हैं। एक धातु में अन्य अशुद्ध धातुओं की उपस्थिति उस धातु में संक्षारण को प्रेरित करती है। इसका कारण यह है कि कम विद्युत धनात्मक अशुद्ध धातुएँ ग्राही धातु के साथ गैल्वेनिक सेलों का निर्माण करती हैं जिससे ग्राही धातु संक्षारित हो जाती है।

3. जल में विद्युत अपघट्यों की उपस्थिति – जल में विद्युत अपघट्य पदार्थों की उपस्थिति संक्षारण की दर में वृद्धि करती है। उदाहरणार्थ-लोहे का संक्षारण आसुत जल की तुलना में समुद्री जल में अधिक सीमा तक होता है, क्योंकि समुद्री जल में अनेक विद्युत अपघट्य जैसे NaCl, KCl आदि घुले रहते हैं।

4. वायु में क्रियाशील गैसों की उपस्थिति – वायु में उपस्थित क्रियाशील गैसें; जैसे- CO2 , SO2, NO2 आदि जल में घुलकर अम्लों का निर्माण करती हैं, जो विद्युत-अपघट्यों का कार्य करते हैं एवं संक्षारण प्रक्रिया को त्वरित करते हैं।

लोहे पर जंग लगना – जब लोहे के एक टुकड़े को नम वायु में खुला रखा जाता है, तो उसकी सतह पर एक लाल-भूरी  परत बन जाती है। इस परत को आसानी से खुरचा जा सकता है। नम वायु की क्रिया द्वारा लोहे की सतह पर एक लाल-भूरी परत के जमा होने की प्रक्रिया को जंग लगना कहते हैं तथा लाल-भूरी परत को जंग कहा जाता है।

लोहे पर जंग लगना वास्तव में वायु, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड की लोहे से संयुक्त अभिक्रिया के कारण होता है। पूर्णरूप से शुष्क वायु या वायु मुक्त शुद्ध जल में लोहे पर जंग नहीं लगती है। जंग की सही संरचना वायुमण्डलीय परिस्थितियों तथा जंग को प्रेरित करने वाले कारकों के सापेक्ष योगदान पर निर्भर करती है। यह मुख्य रूप से जलयोजित फैरिक ऑक्साइड  है। इसके निर्माण को सरल रूप में निम्न समीकरण द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है –

जंग लगने की प्रक्रिया में नम वायु की उपस्थिति में सर्वप्रथम लोहे की बाहरी सतह जंग ग्रस्त होती है। और सतह पर जलयोजित फेरिक ऑक्साइड (जंग) की एक परत जमा हो जाती है। यह परत मुलायम तथा सरन्ध्र होती है और मोटाई बढ़ने पर स्वयं नीचे गिर सकती है। परत के नीचे गिरने से लोहे की आन्तरिक परत वायुमण्डल के सम्पर्क में आ जाती है और उस पर भी जंग लग जाती है। इस प्रकार यह प्रक्रम चलता रहता है और धीरे-धीरे लोहा अपनी शक्ति खोता रहता है।

लोहे पर जंग लगने की प्रक्रिया निम्नलिखित कारकों से प्रेरित तथा अधिशासित होती है –

वायु की उपस्थिति

नमी की उपस्थिति

कार्बन डाइऑक्साइड की उपस्थिति

जल में विद्युत अपघट्यों की उपस्थिति

लोहे में कम विद्युत धनात्मक धातुओं की अशुद्धि के रूप में उपस्थिति

संक्षारण की क्रियाविधि – संक्षारण की क्रियाविधि की व्याख्या करने के लिए समय-समय पर अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इन सिद्धान्तों में विद्युत रासायनिक सिद्धान्त सर्वाधिक मान्य है।

विद्युत रासायनिक सिद्धान्त के अनुसार, संक्षारण मूल रूप से एक विद्युत रासायनिक घटना है। यह मुख्य रूप से धातु सतह के विभिन्न भागों के विद्युत रासायनिक व्यवहारों में भिन्नता के कारण सम्पन्न होती है। लोहे पर जंग लगना संक्षारण का एक विशिष्ट रूप है। विद्युत रासायनिक सिद्धान्त के आधार पर संक्षारण की क्रियाविधि को लोहे पर जंग लगने के उदाहरण से निम्न प्रकार से आसानी से समझा जा सकता है। लोहे पर जंग लगने की क्रियाविधि-लोहे का संक्षारण उस समय होता है जब इसे जल, घुलित ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड युक्त वातावरण में रखा जाता है। विद्युत रासायनिक सिद्धान्त के अनुसार, लोहे की सतह के रासायनिक रूप से भिन्न भाग घुलित ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड युक्त जल की उपस्थिति में लघु गैल्वेनिक सेलों  की भाँति व्यवहार करते हैं। सतह का एक भाग ऐनोड की भाँति तथा कोई अन्य भाग कैथोड की भाँति कार्य करता है। इसके फलस्वरूप ऐनोडिक क्षेत्र में ऑक्सीकरण की क्रिया सम्पन्न होती है और आयरन परमाणु Fe2+आयनों में ऑक्सीकृत हो जाते हैं।

प्रश्न 14.विद्युत् वाहक बल तथा विभवान्तर में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर⇒ विद्युत् वाहक बल तथा विभवान्तर में अन्तर

विद्युत् वाहक बल

(1) जब किसी परिपथ में कोई विद्युत् धारा प्रवाहित नहीं होती है उस समय दोनों इलेक्ट्रोडों के बीच का विभवान्तर विद्युत् वाहक बल कहलाता है।

(2) यह सेल में स्थायी धारा के प्रवाह के लिए उत्तरदायी होता है ।

(3) इसे विभवमापी से मापते हैं जबकि परिपथ में विद्युत् धारा प्रवाहित नहीं होती।

(4) यह एक गैल्वैनिक सेल द्वारा प्रदर्शित अधिकतम वोल्टता है ।

(5) यह किसी गैल्वैनिक सेल से प्राप्य अधिकतम कार्य होता है ।

विभवान्तर

(1) यह दोनों इलेक्ट्रोडों के इलेक्ट्रोड विभव का अन्तर होता है जब यह धारा को परिपथ में से होकर प्रवाहित करता है।

(2) यह सेल में स्थायी धारा के प्रवाह के लिए उत्तरदायी नहीं होता है।

(3) इसे वोल्टमीटर से मापते हैं।

(4) यह सदैव सेल के अधिकतम वोल्टेज से कम होता है।

(5) विभवान्तर से परिकलित कार्य सेल से प्राप्य अधिकतम कार्य से कम होता है।

प्रश्न 15.दिये गये चित्र की सहायता से प्रश्न (i) से प्रश्न (vi) तक के उत्तर दें।

(i) सेल में इलेक्ट्रॉन का प्रवाह किस दिशा में होता है?

(ii) सिल्वर प्लेट ऐनोड का काम करेगा या कैथोड का?

(iii) क्या होगा जब लवण सेतु को हटा दिया जाये?

(iv) सेल काम करना कब बन्द कर देगा?

(v) यदि सेल काम करे तो  Ag+ आयन तथा  Zn2+ आयनों की सान्दता पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

(vi) सेल के खत्म  हो जाने पर Zn2+ आयनों तथा Agआयनों की सान्दता पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?

उत्तर:

(i) सेल में इलेक्ट्रॉन का प्रभाव Zn से Ag की तरफ होता है।

(ii) सिल्वर प्लेट कैथोड का कार्य करेगा।

(iii) लवण सेतु को हटा देने पर सेल काम करना बन्द कर देगा।

(iv) Eसेल = 0 होने पर सेल काम करना बन्द कर देगा।

(v) यदि सेल काम करे तो Ag+आयनों की सान्द्रता कम होगी तथा Zn2+  आयनों की सान्द्रता बढ़ जायेगी।

(vi) जब Ecell = 0 हो जाये तो अभिकिया साम्यावस्था पर पहुँच जायेगी अत: Zn2+  आयनों तथा Ag+ आयनों की सान्द्रता परिवर्तित नहीं होगी।

प्रश्न 16.विशिष्ट चालकता एवं आण्विक चालकता पर तनुता का क्या प्रभाव पड़ता है ?विद्युत् चालन के आधार पर अचालक एवं अर्द्धचालक को समझाये।

उत्तर:

विशिष्ट चालकता पर तनुता का प्रभाव – तनुता बढ़ाने पर विशिष्ट चालकता घट जाती है, क्योंकि प्रति मिली आयनों की संख्या घट जाती है।

आण्विक चालकती पर तनुता का प्रभाव – तनुता बढ़ाने पर आण्विक चालकता बढ़ जाती है क्योंकि आयनों के मध्य स्थान बढ़ जाता है परिणामस्वरूप आयनों की परस्पर टक्कर कम हो जाती है एवं आण्विक चालकता बढ़ जाती

अचालक – ऐसे पदार्थ जो विद्युत् का चालन नहीं करते हैं अर्थात विद्युत् धारा का स्थानान्तरण नहीं करते हैं, अचालक  कहलाते हैं। जैसे- प्लास्टिक, चीनी मिट्टी आदि।

अर्द्धचालक – ऐसे पदार्थ जिनकी चालकता चालकों एवं अचालकों के मध्य की होती है, अर्द्धचालक कहलाते हैं। उदाहरण-सिलिकॉन, डोपित सिलिकॉन, गैलियम आर्सेनाइड आदि।

प्रश्न 17.इंधन सेलों का महत्व लिखिए।

उत्तर:ईंधन सेलों का महत्व –

इसके द्वारा किसी प्रकार के हानिकारक सह-उत्पाद नहीं बनते हैं अत: इससे किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता है।

इसमें साधारण बैटरी की भाँति इलेक्ट्रोड पदार्थ को बदला नहीं जाता है। अत: यह एक प्रकार से ईंधन की सतत् आपूर्ति करते हैं। इस कारण ईंधन सेल अन्तरिक्ष यानों में प्रयुक्त होते हैं।

इसकी दक्षता काफी उच्च होती है। यह लगभग 60-70% दक्ष होते हैं

प्रश्न 18.एकल इलेक्ट्रोड विभव को निर्धारण आप कैसे करेंगे ?

उत्तर:प्रयोग द्वारा हम एकल इलेक्ट्रोड विभव ज्ञात नहीं कर सकते हैं। इलेक्ट्रोड विभव को हम उस दशा में ही ज्ञात कर सकते हैं जब दो इलेक्ट्रोडों को जोड़कर सेल बनायें तथा उनके मध्य उत्पन्न विभवान्तर को ज्ञात करें। यदि हमें किसी एक इलेक्ट्रोड का विभव ज्ञात हो तो हम, दूसरे को आसानी से ज्ञात कर सकते हैं। जिस इलेक्ट्रोड का विभव ज्ञात होता है उसे मानक इलेक्ट्रोड कहते हैं। हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड एक मानक इलेक्ट्रोड है। इसका विभव 0:00 V होता है। इसकी सहायता से हम किसी दूसरे इलेक्ट्रोड के विभव को ज्ञात कर सकते हैं।

प्रश्न 19.कॉपर सल्फेट के विलयन में जिंक डालने पर विलयन का नीला रंग गायब क्यों हो जाता है ? समीकरण लिखिए।

उत्तर:

विद्युत् रासायनिक श्रेणी में ऊपर वाले तत्व नीचे स्थित तत्वों को उसके विलयन में विस्थापित कर सकते हैं अर्थात् जब कॉपर सल्फेट के विलयन में जिंक डालते हैं तो जिंक विद्युत् रासायनिक श्रेणी में ऊपर होने के कारण कॉपर सल्फेट के विलयन से कॉपर को विस्थापित कर देता है। परिणामस्वरूप विलयन का नीला रंग गायब हो जाता है।

अभिक्रिया के दौरान होने वाला समीकरण निम्न है –

प्रश्न 20.क्या कारण है कि गर्म करने पर HgO अपघटित हो जाता है परन्तु MgO अपघटित नहीं होता ?

उत्तर:

HgO गर्म करने पर इसलिए अपघटित हो जाता है क्योंकि Hg का स्थान विद्युत्-रासायनिक श्रेणी में हाइड्रोजन से नीचे होता है। जबकि MgO अपघटित नहीं होता है क्योंकि Mg का स्थान विद्युत्-रासायनिक श्रेणी में हाइड्रोजन से ऊपर होता है। अतः विद्युत् रासायनिक श्रेणी में नीचे रखी गयी धातुओं के ऑक्साइड गर्म करने पर अपघटित हो जाते हैं जबकि ऊपर वाले धातु ऑक्साइड अपघटित नहीं होते हैं।

प्रश्न 21.विद्युत् अपघटन क्या होता है ?फैराडे के ‘विद्युत् अपघटन का प्रथम नियम तथा द्वितीय नियमलिखिए।

उत्तर:

वह प्रक्रिया जिसमें यौगिक की जलीय अवस्था तथा गलित अवस्था में विद्युत् धारा को प्रवाहित करने पर यौगिक अपने सरलतम पदार्थों में खण्डित हो जाता है, विद्युत् अपघटन कहलाती है।

फैराडे के विद्युत् अपघटन का प्रथम नियम-इसके अनुसार, निक्षेपित पदार्थ का द्रव्यमान विद्युत् अपघट्य से होकर गुजरने वाले आवेश के अनुक्रमानुपाती होता है।”

अर्थात्त

mQ

m=ZQ

m=ZIt

फैराडे के विद्युत् अपघटन को द्वितीय नियम-इसके अनुसार, “यदि विभिन्न विद्युत्-अपघट्यों में समान आवेश प्रवाहित किया जाये तो निक्षेपित पदार्थों का द्रव्यमान उनके तुल्यांकी-भारों के समानुपाती होता है।”

W1W2=E1E2

यहाँ W1 तथा E1 प्रथम पदार्थ का भार तथा तुल्यांकी भार है तथा W2 तथा E2 द्वितीय पदार्थ का भार तथा तुल्यांकी भार हैं।

प्रश्न 22.जलीय कॉपर सल्फेट विलयन एवं जलीय सिल्वर नाइट्रेट विलयन में से 1 ऐम्पियर की विद्युत् धारा को 10 मिनट तक अलग-अलग विद्युत् अपघटनी सेल में प्रवाहित किया गया। क्या निक्षेपित कॉपर तथा सिल्वर का द्रव्यमान समान होगा? यदि नहीं तो क्यों?

उत्तर:

निक्षेपित कॉपर तथा सिल्वर का द्रव्यमान समान नही होगा, क्योंकि सिल्वर आयनों के एक मोल के अपचयन के लिये एक मोल इलेक्ट्रॉनों की जबकि कॉपर आयनों के एक मोल के अपचयन के लिये दो मोल इलेक्ट्रॉनों की आवश्यकता होती है। हम जानते हैं कि एक इलेक्ट्रॉन पर आवेश 1.6021 10-19 C के बराबर होता है। अत: एक मोल इलेक्ट्रॉन पर आवेश 96487 कूलॉम्ब मोल-1  है। इस प्रकार सिल्वर को 96487 कूलॉम्ब मोल-1 तथा कॉपर को 2 × 9 6487 कूलॉम्ब मोल-1 की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 23.उस गैल्वेनी सेल को दर्शाइए जिसमें निम्नलिखित अभिक्रिया होती है –

Zn(s)+2Ag+(aq)Zn2+(aq)+2Ag(s)

अब बताइए –

कौन-सा इलेक्ट्रोड ऋणात्मक आवेशित है?

सेल में विद्युत-धारा के वाहक कौन-से हैं?

प्रत्येक इलेक्ट्रोड पर होने वाली अभिक्रिया क्या है?

उत्तर:जिंक इलेक्ट्रोड ऐनोड का कार्य करता है, जबकि सिल्वर इलेक्ट्रोड कैथोड का कार्य करता है। सेल को निम्न प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं –

Zn (S)| Zn2+ (aq)|| Ag+ (aq)| Ag (s)

Zn / Zn2+ इलेक्ट्रोड ऋणात्मक आवेशित होता है तथा ऐनोड की तरह कार्य करता है।

बाह्य परिपथ में इलेक्ट्रॉन तथा आंतरिक परिपथ में आयन।

ऐनोड पर : Zn (s) → Zn2+ (aq) + 2e–कैथोड पर :Ag+ (aq) + e– → Ag(s)

प्रश्न 24.निम्नलिखित को ऑक्सीकृत करने के लिए कितने कूलॉम विद्युत आवश्यक है?

1 मोल H2O को  O2में।

1 मोल FeO को Fe2O3 में।

हल

1. 1 mol H2O के लिए इलेक्ट्रोड अभिक्रिया इस प्रकार दी जाती है –

H2O→ H2+ 12 O2

अर्थात् O2- → 12 O2+ 2e-

∴ आवश्यक विद्युत की मात्रा = 2F = 2 x 96500 C = 193000 C

2. 1 mol FeO के लिए इलेक्ट्रोड अभिक्रिया इस प्रकार दी जाती है –

FeO → 12 Fe2O3 

अर्थात् Fe2+ → Fe3+ + e-

∴ आवश्यक विद्युत की मात्रा = 1F = 96500 C

प्रश्न 25.इलेक्ट्रोड विभव किसे कहते हैं? इसका मान किन-किन कारकों पर निर्भर करता है?

उत्तर:जब किसी धातु (इलेक्ट्रोड) को उसी धातु के किसी लवण विलयन में रखा जाता है तो धातु तथा विलयन के सम्पर्क स्थल पर वैद्युत द्विक-स्तर उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप धातु तथा विलयन के मध्य विभवान्तर उत्पन्न हो जाता है जिसे इलेक्ट्रोड विभव कहते हैं। इसे E° से प्रकट करते हैं और इसे वोल्ट में मापा जाता है। उदाहरणार्थ-जब कॉपर की छड़, कॉपर सल्फेट के विलयन में डुबोई जाती है तो कॉपर की छड़, विलयन के सापेक्ष ऋणावेशित हो जाती है जिससे कॉपर धातु और कॉपर आयनों के मध्य विभवान्तर उत्पन्न हो जाता है।

इस विभवान्तर को कॉपर इलेक्ट्रोड का विभव कहते हैं।

इलेक्ट्रोड विभव निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है –

चालक की प्रकृति – जिस इलेक्ट्रोड की चालकता अधिक होगी वह उतना ही अधिक इलेक्ट्रोड विभवे उत्पन्न करता है।

धात्विक आयन की विलयन में सान्द्रता – सान्द्रता बढ़ाने पर इलेक्ट्रोड विभव को मान घटता है, क्योंकि सान्द्रता बढ़ाने पर आयनन घट जाता है, फलस्वरूप चालकता कम हो जाती है।

तापक्रम – इलेक्ट्रोड विभव का मान ताप पर भी निर्भर करता है जो ताप बढ़ाने पर आयनन बढ़ जाने के कारण बढ़ता है।