बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 3 मानव जनन दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ग्राफीयन पूटीका पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर: इसकी संरचना का निर्माण जनन एपिथीलियम होती है। इसके अन्दर संयोजी ऊतक पीठिका के रूप में लगभग ठोस अवस्था में भरे रहते हैं। जनन स्तर से बाहर पेरीटोनियम का आवरण होता है। पीठिका में रुधिर केशिकाओं, लसीका केशिकाओं, तन्त्रिका व पेशी तन्तुओं, कोलेजन तथा इलास्टिन रेशों का जाल फैला रहता है। पीठिका के बाहरी भाग में अनेक अण्डपुटिकायें होती है जिनका निर्माण जनन एपिथीलियम के सक्रिय विभाजन के कारण होता है। अन्दर एक विशेष कोशिका बड़ी हो जाती है जिससे आगे चलकर डिम्बाणुजनन कोशिका का निर्माण होता है। अन्य कोशिकायें डिम्बाणुजनन कोशिका का पोषण करती है। इस समय पुटिका में एवं स्थान हो जाता है जिसमें एक तरल भरा रहता है अर्थात पुटिका गुहामें पुटिका द्रव्य भरा रहता है। यह एक पोषक तरल होता है। वृद्धि आदि के बाद डिम्बाणु कोशिका एक बड़ी प्राथमिक अण्डक कोशिका बन जाती है। परिपक्व ग्रैफियन पुटिका के फटने से प्राथमिक अण्डक मुक्त हो जाता है। फूटी में बदल हुई पुटिका के अन्दर रुधिर का थक्का बनने तथा बाद में पुटिका कोशिकाओं के गुहा के अन्दर बढ़ने के कारण, बचा भाग एक पीली ग्रन्थिल संरचना बना लेता है, इसे पीत पिण्ड या कॉर्पस ल्यूटियम कहते हैं। यह एक प्रकार की अन्तःस्रावी ग्रन्थि है। यदि निषेचन नहीं होता तो कुछ समय तक पुटिका का शेष भाग एक धब्बे के रूप में दिखायी देता है और अन्त में लुप्त हो जाता है। इस लुप्त होते हुए धब्बे को श्वेत पिण्ड या कॉर्पस एल्बीकेन्स कहते हैं। पुटिकाओं का आवरण कई स्तर मोटा हो जाता है तो इसको मेम्बैना ग्रैन्यूलोसा कहते हैं। एक पूर्ण परिपक्व पुटिका में डिम्ब मेम्ब्रेना मैन्यूलोसा से कुछ कोशिकाओं के समूह द्वारा हुए जुड़ा होता है। यह समूह डिस्कस प्रोलीजेरस कहलाता है। डिम्ब के चारों ओर स्तम्भी 7 कोशिकाओं का एक निश्चित स्तर कॉरोना रेडियैटा होता है तथा इसके ठीक नीचे एक अन्य मोटा व दृढ़ स्तर होता है, इसे जोना पेल्यूसिडा कहते हैं।
प्रश्न 2. अपरा के कार्य बताए।
उत्तर: अपरा के कार्य
1. भ्रूण का पोषण — भ्रूण अपरा के द्वारा ही माता से समस्त पोषक पदार्थ प्राप्त करता है। माता की रुधिर वाहिनियों का सम्बन्ध भ्रूण को रुधिर वाहिनियों से होता है; अतः माता के रुधिर में आने वाले पचे हुए खाद्य पदार्थ, सरल रूप में भ्रूण को मिलते रहते हैं। अपरा में इन खाद्य पदार्थों का और भी सरलीकरण किया जाता है। तथा यह भ्रूण की आवश्यकता के लिए कुछ खाद्य पदार्थों का संग्रह भी करता है।
2. भ्रूण का श्वसन – माता के शरीर से रुधिर के द्वारा ही भ्रूण को ऑक्सीजन के अणु प्राप्त होते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड भी इसी रुधिर द्वारा वापस की जाती है। इस प्रकार श्वसन क्रिया के लिए वात विनिमय का कार्य अपरा ही करता है।
3. भ्रूण का उत्सर्जन - भ्रूण के उत्सर्जी पदार्थ भ्रूण के रुधिर से अपरा क्षेत्र में पाता के रुधिर में विसरित होते रहते हैं। इनका निष्कासन भी माता के उत्सर्जी अंगों द्वारा किया जाता है।
4. हॉर्मोन्स का स्त्रावण – गर्भावस्था को उचित रूप में बनाये रखने आदि एस्ट्रोजेन्स, प्रोजेस्टेरॉन, जरायु गोनैडोट्रॉपिन आदि हॉर्मोन्स का स्रावण होता है। इसी प्रकार प्रसव के लिए अपरा द्वारा रिलैक्सिन का भी स्रावण होता है।
प्रश्न 3. अधिवृषण पर टिप्पणी लिखे।
उत्तर: मनुष्य में लगभग 5 सेमी लम्बे तथा 2.5 सेमी मोटे, गुलाबी रंग के तथा अण्डाकार दो वृषण पाये जाते हैं। प्रत्येक वृषण से अधिवृषण नामक एक लम्बी, संकरी व चपटी संरचना चिपकी रहती है। यह लगभग 6 मीटर लम्बी नली होती है, जो अत्यधिक कुण्डलित होकर एक कॉमा के आकार की लगभग 4 सेमी लम्बी संरचना बनाती है। यह नली वृषण की अपवाहक नलिकाओं के मिलने से बनती है। भ्रूण में यह बुल्फियन नलिका कहलाती है। एपिडिडाइमिस वृषण के अग्र पश्च एवं भीतरी तलों को ढके रखता है। इसका अग्र फूला भाग कैपट एपिडिडाइमिस तथा पश्च भाग कॉडा एपिडिडाइमिस कहलाता है। इनके बीच के संकरे भाग को एपिडिडाइमिस काय कहते हैं। कॉडा एपिडिडाइमिस लचीले तन्तुओं के गुबरनैकुलम नामक गुच्छे द्वारा वृषण कोष की पिछली भित्ति से जुड़ा रहता है। इसी प्रकार के लचीले तन्तु कैपट एपिडिडाइमिस को वंक्षण नाल में होकर उदरगुहा की पृष्ठ भित्ति से जोड़ते हैं। इन्हीं तन्तुओं के साथ वृषण से संभनधित धमनी शिर आती व जाती है।
प्रश्न 4. प्रसव की क्रिया को समझाए।
उत्तर: प्रस्व के क्रिया 9 महीने का समय पूर्ण होने पर प्रारंभ होती है। अब पूर्ण विकसित फीटस (बच्चा) गर्भाशय की पेशियों के संकुचन के कारण उत्पन्न दबाव के प्रभाव से गर्भाशय से बाहर आ जाता है। प्रसव एक जटिल तंत्रिअंतःस्रावी प्रक्रिया है। यह फीटस व आँवल के द्वारा उत्पन्न गर्भाशय की पेशियों के संकुचन के लिए हलके प्रतिवर्त के रूप में प्रकट होता है। इसे गर्भ त्लेषण प्रतिवर्त कहते हैं। इस समय भी यह गर्भाशय से नाभिनाल द्वारा जुड़ा रहता है। प्रसव के समय इसे शिशु की ओर धागे से बाँधकर निर्जर्मित ब्लेड से काटकर पृथक कर देते हैं। शिशु जन्म या प्रसव के कुछ समय बाद एम्निऑन, जरायु (कॉरिऑन) तथा अपरा (प्लेसेण्टा) भी गर्भाशय से बाहर आ जाते हैं। प्रसव का नियन्त्रण हॉर्मोन्स द्वारा होता है। पश्च पिट्यूटरी से स्रावित ऑक्सीटोसिन हॉर्मोन प्रसव के समय गर्भाशयी पेशियों में संकुचन को प्रेरित करता है तथा कॉर्पस ल्यूटियम से स्रावित रिलैक्सिन हॉर्मोन प्रसव के समय सर्विक्स एवं आसपास के क्षेत्र को शिथिल कर देता है जिससे प्रसव के समय शिशु जन्म आसानी से हो जाता है।
प्रश्न 5. वृषण की आंतरिक संरचना को समझाए।
उत्तर:वृषण की आन्तरिक रचना – मनुष्य में 4 सेमी लम्बे, 2.5 सेमी चौड़े, 3 सेमी मोटे तथा 15-20 ग्राम के गुलाबी-से रंग के एक जोड़ी वृषण होते हैं। ये शिश्न के आधार पर वृषणकोषों में स्थित होते हैं। प्रत्येक वृषण एक पेशीमय लचीले वृषणकोश द्वारा घिरा रहता है। इस द्विस्तरीय खोल में पेरिटोनियम का बना बाह्य स्तर तथा अन्दर की ओर तन्तुमय संयोजी ऊतक का एल्ब्यूजीनिया स्तर पाया जाता है। वृषण के आधारीय भाग में एक स्थान पर एल्ब्यूजीनिया स्तर भीतर एक अधूरा एवं खड़ा परदा बनाता है। इस प्रकार ये वृषण के ऊतक को अनेक छोटे-छोटे शंक्वाकार या त्रिकोणाकार पिण्डको में विभक्त कर देती है। उपर्युक्त संरचनाओं को ट्युनिका वैस्कुलोसा नामक एक महीन संवाहक स्तर तक रहता है। इस रुधिर वहिकाओं का जाल फैला रहता है। ढीले-ढाले संयोजी ऊतक में निलम्बित रहती है। रुधिर वहिकाओं, तन्त्रिका तन्तु तथा अन्तराली कोशिकाओं वृषण के प्रत्येक पिण्डक में अत्यधिक कुण्डलित शुक्रजनन नलिकायें स्तिथ होती है। अंतराली कोशिका के समूह पाएजाते है जिन्हे लेयडिग कोशिकायें भी कहते हैं। ये अन्तःस्त्रावी होती है तथा नर हॉर्मोन टेस्टोस्टेरोन मुक्त करती है, जो नर की सहायक जनन ग्रन्थियों इत्यादि तथा द्वितीयक लैंगिक लक्षणा को प्रेरित करती हैं। वृषण के अन्दर अनेक कुण्डलित नलिकायें होती हैं। इनको शुक्रजनन नलिकायें कहते हैं। इन नलिकाओ के अन्दर उपस्थित जनन एपिथीलियम की कोशिकाओं से शुक्रजनन क्रियाओं के द्वारा शुक्राणुओं का निर्माण होता है।
प्रत्येक शुक्रजनन नलिका लचीले संयोजी ऊतक की आधार कला से निर्मित होती है जिसे ट्यूनिका प्रोप्रिया कहते है। इसके अन्दर जननिक एपिथीलियम होती है। इस स्तर में दो प्रकार की कोशिकायें बनती हैं— शुक्रजन कोशिकायें तथा इनको सहारा देने वाली कोशिकायें, अबलम्बन कोशिकायें। बाद में ये कोशिकायें फूलकर पोषी कोशिकायें या सर्टोली कोशिकायें बना लेती हैं। प्रत्येक वृषण की सेमीनीफेरस नलिकायें कुण्डलित होती हैं और वृषण से बाहर निकलने से पूर्व सतह पर यह शाखित होकर नलिकाओं का एक जाल बनाती हैं जिसे वृषण जालक कहते हैं। वृषण जालक से अपवाहक नलिकायें या शुक्र वाहिकायें निकलती हैं। ये लम्बी पतली तथा कुण्डलित नलिकायें अधिवृषण या एपिडिडाइमिस के अग्र भाग में उपस्थित बुल्फियन नलिका में खुलती हैं। इसी से सम्पूर्ण अधिवृषण का निर्माण होता है।
प्रश्न 6. नर जनन सहायक ग्रंथियों कौन कौन सी है व उनके क्या क्या कार्य है?
उत्तर: नर जनन सहायक ग्रंथिया: कई प्रकार की ग्रन्थियाँ जनन की किसी न किसी क्रिया में सहायता करने के लिए विशेष स्राव बनाती हैं।
1. प्रोस्टेट ग्रन्थियाँ– एक जोड़ा, द्विपालित ग्रन्थियाँ मूत्राशय के मूत्रमार्ग में खुलने के स्थान से लगी रहती है। इनसे विशेष गन्धयुक्त, पतला तथा दूधिया तरल स्रावित होता है। यह तरल वीर्य का लगभग 25% भाग बनाता है।
2. बल्बोयूरेथल या काउपर्स ग्रन्थियाँ - एक जोड़ा, फ्लास्क के आकार की ये ग्रन्थियाँ मूत्रमार्ग के शिश्न में प्रवेश के स्थान पर खुलती हैं। इनसे निकलने वाला स्राव श्लेष्मीय तथा क्षारीय होता है; अतः वीर्य के साथ मिलकर मार्ग को चिकना बनाता है, अम्लता को नष्ट करता है तथा सम्भोग को सुगम बनाता है।
3. शुक्राशय - मूत्राशय के पीछे स्थित लगभग 5 सेमी लम्बी, वलित थैली के समान संरचनायें होती हैं। शुक्राशयों की भित्तियाँ ग्रन्थिल होती हैं। इनमें एक हल्का पीला, क्षारीय तथा चिपचिपा तरल स्रावित होता है। यही तरल वीर्य का अधिकांश (लगभग 60%) भाग बनाता है। इसी तरल की उपस्थिति के कारण शुक्राणु गति कर सकते हैं। शुक्राशय से निकलने वाली छोटी-सी नलिका से ही शुक्रवाहिनी आकर मिलती है। इस प्रकार बनी सहनलिका को स्खलन नलिका कहते हैं। यह मूत्रमार्ग में खुलती है।
प्रश्न 7. स्तन ग्रंथियों की संरचना की व्याख्या करे।
उत्तर:स्तन एवं दुग्ध ग्रन्थियों की संरचना- पुरुषों एवं स्त्रियों के वक्ष भाग में,दो उभरे हुए चूचुक होते हैं। प्रत्येक चुचुक के चारों और का छोटा-सा क्षेत्र भी होता है, जिसे स्तन परिवेश कहते हैं। पुरुषों में स्तन परिवेश की परिधि पर कोमल बाल होते हैं जबकि स्त्रियों का स्तन परिवेश बाल रहित होता है। स्त्रियों में चूचुकों के चारों और का एक बड़ा भाग वसा के संचित होने तथा पेशियों की प्रचुरता के कारण स्तनों के रूप में फूला और उभरा हुआ होता है। प्रत्येक स्तन का भीतरी ऊतक 15 से 20 पिण्डों या पालियों में बंटा रहता है, जिनके बीच-बीच में वसीय ऊतक भरा होता है। प्रत्येक पिण्ड या पालि भी कई छोटे-छोटे पिण्डको या पालियों में बंटी होती है। प्रत्येक पिण्डक में अंगूर के गुच्छों के समान अनेक दुग्ध ग्रन्थियाँ होती हैं, जिन्हें कूपिकायें या एल्बियोलाइ कहते हैं। कूपिकायें पेशी तन्तुओं से घिरी होती हैं, जिनके संकुचन के दबाव से ये दुग्ध मुक्त करती हैं। शिशु जन्म के बाद, कूपिकाओं से स्रावित दुग्ध कुछ छोटी-छोटी द्वितीयक नलिकाओं में बहने लगता है। ये छोटी-छोटी नलिकायें मिलकर प्रत्येक पिण्ड से निकलने वाली एक दुग्ध वाहिनी बनाती हैं। इस प्रकार प्रत्येक स्तन में 15-20 दुग्ध वाहिनियाँ होती हैं। ये चूचुक के समीप आकर फूल जाती हैं। इन फूले हुए भागों को दुग्ध कोटर कहते हैं। प्रत्येक कोटर से एक छोटी-सी दुग्ध नाल निकलती है, जो चूचुक के शिखर पर स्थित एक पृथक् छिद्र द्वारा बाहर खुलती है।
प्रश्न 8. योवनरम्भ किसे कहते है? यौवनरम्भ के दौरान नर व मद के शरीर मे किस प्रकार के परिवर्तन आते है?
उत्तर: यौवनारम्भ : जब मानव में यक निश्चित समयावधि के बाद उसके जनन अंग पूर्णत: विकसित होने लगते हैं। तथा सक्रिय होकर अपना कार्य प्रारम्भ कर देते हैं। इस दशा को यौवनारम्भ तथा यह प्रक्रिया पूर्ण होने पर इसे यौवनावस्था कहते हैं।
नर (लड़कों) में यौवनारम्भ: नर (लड़के) में यौवनारम्भ 13 से 16 वर्ष की आयु में प्रारम्भ होता है। वृषण की लेडिंग कोशिकाओं द्वारा नर लैंगिक हॉर्मोन टेस्टोस्टेरोन के स्राव से नर में यौवनारम्भ प्रेरित होता है। इस समय लड़कों में निम्नांकित परिवर्तन प्रकट होते हैं-
1. शुक्रजनन नलिकायें शुक्राणुओं का निर्माण प्रारम्भ कर देती हैं।
2. वृषणकोषों एवं शिश्न के आकार में वृद्धि होती है।
3. चेहरे पर दाढ़ी, मूँछ व बाह्य जननांग के पास बाल उग आते हैं।
4. स्वर भारी हो जाता है और शरीर की लम्बाई में वृद्धि होती है।
5. कंधे फैलकर चौड़े होने लगते हैं व अस्थियों के आकार तथा पेशी - विन्यास में वृद्धि होती है।
मादा (लड़कियों) में यौवनारम्भ: लड़कियों (कन्याओं) में 11-12 वर्ष की आयु में यौवनारम्भ हो जाता है। सबसे पहले वक्षों का विकास प्रारम्भ होता है। इसके बाद 13-14 वर्ष की आयु में अण्डोत्सर्ग तथा आवर्त चक्र प्रारम्भ हो जाता है। गोनेडोट्रॉपिन हॉर्मोन्स अण्डाशय के विकास व कार्यों को नियन्त्रित एवं नियमित करते हैं। द्वितीयक लैंगिक लक्षणों को प्रेरित करने वाले भी यही हॉर्मोन्स होते हैं। ये प्राय: एस्ट्रोजेन्स ( estrogens) FSH, LH आदि में होते हैं। ये ही हॉमोंन यौवनारम्भ को प्रेरित करते हैं। इस समय लड़कियों में निम्नांकित परिवर्तन होते हैं-
1. बाह्य जनन अंगों तथा वक्ष पर स्तनों का विकास होने लगता है
2. अण्डोत्सर्ग तथा आवर्तचक्र (रजोधर्म या मासिक धर्म का प्रारम्भ हो जाता है।
3. श्रोणि प्रदेश (कूल्हा) फैलकर अपेक्षाकृत भारी एवं चौड़ा होने लगता है
4. जंघा, चेहरे व नितम्बों पर वसा का जमाव अधिक होने से इनमें पुष्टता आने लगती है।
5. बगलों व बाह्य जननांगों के ऊपर बाल उगने लगते हैं।
6. अनेक प्रकार के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन भी आने लगते हैं।
7. बाह्य जननांगों; जैसे योनि, लैबिया, भगशेफ आदि का समुचित विकास।
प्रश्न 9. अपरा के कार्यों को पूर्ण रूप से समझाए।
उत्तर: अपरा के कार्य : अपरा स्तनधारियों के डिम्बों में पीतक की लगभग अनुपस्थिति के कारण भ्रूणों का पोषण माँ के रुधिर परिवहन से प्लैसेण्टा के माध्यम से होता है, परन्तु भ्रूण एवं माँ के रुधिर में सीधे सम्पर्क नहीं होता। प्लेसेण्टा दोनों के रुधिर एवं रुधिर परिवहन तन्त्रों के मध्य अवरोधक का काम करता है।
1. प्लेसेण्टा भ्रूण को पोषण प्रदान करता है।
2. ऑक्सीजन तथा वसा अम्ल रुधिर परिवहन से विसरण के द्वारा एवं विटामिन सक्रिय परिवहन से प्लैसेण्टा के माध्यम से भ्रूण तक पहुँचते हैं।
3. डिफ्थीरिया, स्कार्लेट फोवर, चेचक एवं खसरा आदि घातक रोगों के प्रतिविष रोगाक्षम्य माता के रुधिर से भ्रूण में पहुँचते हैं जिससे भ्रूण में इन रोगों के प्रति प्रतिरोधक शक्ति उत्पन्न होती है।
4. प्लैसेण्टा द्वारा उत्सर्जी पदार्थ (यूरिया, यूरिक अम्ल, क्रियेटिनिन एवं कार्बन डाइऑक्साइड आदि) भ्रूणीय रुधिर से माता के रुधिर में पहुँचाये जाते हैं।
5. प्लॅसेण्टा के अर्द्धपारगम्य होने के कारण इनसे अनेक पोषक पदार्थ, ऑक्सीजन, Co आदि का विसरण हो जाता है।
6. यह भ्रूण के लिए आवश्यक पोषक पदार्थों का संग्रह भी करता है; जैसे- गर्भावस्था की प्रारम्भिक अवस्था में प्लेसेण्टा में प्रोटीन, लौह, कैल्सियम एवं ग्लाइकोजन का संग्रह होता है। वास्तव में, प्लेसेण्टा ग्लाइकोजन का ग्लूकोज के रूप में भ्रूण के रुधिर परिवहन में स्रावण करता है। इस प्रकार भ्रूण के रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा का नियन्त्रण करता है।
7. अधिकतर जरायुज स्तनधारियों (मनुष्य सहित ) में प्लैसेण्टा से चार हॉर्मोन (एस्ट्रेडिऑल प्रोजेस्टेरॉन, कॉरिऑनिक गोनैडोट्रॉपिन एवं प्लैसेण्टल लैक्टोजन) का स्रावण होता है। ये हॉर्मोन्स गर्भपात को रोकते हैं।
प्रश्न 10. प्रसव की क्रिया को पूर्ण रूप से समझाए।
उत्तर: प्रसव या शिशु जन्म के अंतर्गत अन्तिम रजोदर्शन के प्रथम दिन से 280 दिन में गर्भावधि पूरी हो जाती है। अब पूर्ण विकसित भ्रूण (बच्चा) गर्भाशय की पेशियों के संकुचन के कारण उत्पन्न दबाव के प्रभाव से गर्भाशय से बाहर आ जाता है। प्रसव एक तंत्रिअंत:स्त्रावी प्रक्रिया है। यह फीटस के द्वारा उत्पन्न गर्भाशय की पेशियों के संकुचन के लिए हलके प्रतिवर्त के रूप में प्रकट होता है। इसे गर्भ उत्क्षेपण प्रतिवर्त (foetal ejection reflex) कहते हैं। इस समय भी यह गर्भाशय से नाभिनाल द्वारा जुड़ा रहता है। प्रसव के समय इसे शिशु की ओर धागे से बांधकर निर्मित कोड से काटकर पृथक् कर देते हैं। शिशु जन्म या प्रसव के कुछ समय बाद एम्निऑन, जरायु (कॉरिऑन) तथा अपरा (प्लेसेण्टा) भी गर्भाशय से बाहर आ जाते हैं। प्रसव का नियन्त्रण हॉर्मोन्स द्वारा होता है। पश्च पिट्यूटरी से स्रावित ऑक्सीटोसिन हॉर्मोन प्रसव के समय गर्भाशय पेशियों में संकुचन को प्रेरित करता है तथा कॉर्पस ल्यूटियम से स्रावित रिलैक्सिन हॉर्मोन प्रसव के समय सर्विक्स एवं आसपास के क्षेत्र को शिथिल कर देता है जिससे प्रसव के समय शिशु जन्म आसानी से हो जाता है।
प्रश्न 11.भ्रूण के अंतर्गत जनन स्तर से निर्मित अंगको को बताए।
उत्तर: भ्रूण के तीन प्रारम्भिक जनन स्तरों से विभिन्न अंगों का विकास:
1. एक्टोडर्म— एक्टोडर्म से निम्नलिखित अंग विकसित होते हैं-
(i) त्वचा की एपीडर्मिस, त्वक ग्रन्थियाँ, बाल, नाखून आदि, (ii) तन्त्रिका तन्त्र, (iii) अधिवृक्क ग्रन्थि का मैड्यूला, पीयूष ग्रन्थि का मध्य पिण्डक तथा पीनियल ग्रन्थि, (iv) नेत्र तथा नेत्र से सम्बन्धित भाग, (v) अन्त:कर्ण, (vi) लार ग्रन्थियाँ तथा लेक्राइमल ग्रन्थियाँ, (vii) दाँत का इनेमल ।
2. मीसोडर्म (mesoderm) - मीसोडर्म से निम्नलिखित अंग विकसित होते हैं- (i) त्वचा की डर्मिस, (ii) पेशियाँ व संयोजी ऊतक, (iii) पेरिटोनियम, (iv) वृक्क, (v) जनद, (vi) अधिवृक्क ग्रन्थि का कॉर्टेक्स, (vii) हृदय, रुधिर वाहिनियाँ तथा लिम्फ वाहिनियाँ, (viii) आहार नाल का पेशी स्तर तथा उपकला, (ix) हृदयावरण तथा प्लूरल स्तर, (x) नेत्र की स्क्लीरोटिक व कोरॉयड स्तर, (xi) दाँतों का डेन्टीन, (xii) पृष्ठरज्जु तथा अन्तः कंकाल ।
3. एण्डोडर्म (endoderm) – एण्डोडर्म से निम्नलिखित अंग विकसित होते हैं— (i) आहार नाल का भीतरी स्तर, (ii) आहार नाल की ग्रन्थियाँ, यकृत, अग्न्याशय, (iii) पीयूष, थाइरॉइड, पैराथाइरॉइड व थाइमस ग्रन्थियाँ, (iv) श्वास नली, श्वसनिकायें व फेफड़ों का भीतरी स्तर, (v) मूत्राशय का भीतरी स्तर, (vi) जनन कोशिकायें आदि।
प्रश्न 12. अतिरिक्त भ्रूणीय कलाओ का वर्णन करे।
उत्तर: अतिरिक्त भ्रूणीय कलाओ: भ्रूण की देह के बाहर विकसित होने वाली झिल्लियों अथवा कलाओं को भ्रूण बहिस्थ कलाये कहते हैं। ये भ्रूण के परिवर्द्धन एवं जीवन के लिए विशेष कार्य करती हैं, परन्तु भ्रूण के अंगोत्पादन में भाग नहीं लेतीं। जन्म अथवा डिम्बोद्गमन के समय इनका निष्कासन हो जाता है। मानव तथा अन्य सभी स्तनियों, सरीसृपों, पक्षियों में चार भ्रूण बहिस्थ कलायें निर्मित होती हैं। ये चार भ्रूण बहिस्थ कलाये निम्नलिखित हैं-
1. पीतक कोष (yolk sac )
2. उल्व (amnion)
3. चर्मिका (chorion )
4. अपरापोषक (allantois)
1. पीतक कोष - पीत कोष छोटा होता है और यह भ्रूणबहिस्थ गुहा द्वारा चर्मिका से पृथक रहता है। स्तनियों के भ्रूण में पीतक नहीं होता है। पीतक कोष में रुधिर निर्माण होता है। विकास की अन्तिम प्रावस्थाओं में जब अपरापोषिका विकसित हो जाती है, तब पीतक कोष छोटा होने लगता है और धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।
2. उल्व- यह कला को चारों ओर से घेरे रहती है। भ्रूण भ्रूण के चारों ओर की इस गुहा को उल्व गुहा कहते हैं। इस गुहा, में एक तरल भरा रहता है, जिसे उल्व तरल या एम्निओटिक तरल कहते हैं। यह तरल भ्रूण की बाह्य आघातों से रक्षा करता है। इस तरल में मन्द गति होती रहती है जिसके कारण भ्रूण के अंग परस्पर चिपकते नहीं। इस प्रकार, एम्निओटिक तरल भ्रूण के अंगों को विकृतियाँ उत्पन्न होने से बचाता है।
3. चर्मिका- कॉरिऑन में वृद्धि तीव्र गति से होती है। यह एम्निऑन के बाहर की और निर्मित होनी है। कॉरिऑन जरायुज का निर्माण करती है। एम्निऑन तथा कॉरिऑन के बीच की गुहा को कॉरिऑनिक गुहा कहते हैं। कॉरिऑन की एक्टोडर्म या ट्रोफोब्लास्ट की बाह्य सतह पर दीर्घ अंकुर उत्पन्न होते है जिन्हे कोरियोनिक विली कहते है।ये अंकुर गर्भाशय की भित्ति में जाते हैं। ये रसांकुर भ्रूण के पोषण, श्वसन तथा उत्सर्जन में सहायक हैं। कॉरिऑन से एक हॉर्मोन, कॉरिओनिक गोनैडोट्रॉपिन का स्रावण होता है, जो प्लैसेण्टा विकसित होने डिम्ब ग्रन्थि में कॉर्पस ल्यूटियम को सक्रिय रखता है।
4. अपरापोषक या ऐलैण्टॉइस —मानव के भ्रूण में अपरापोषक एक अवशेषी अंग के रूप में होती है। अन्य स्तनियों में अपरापोषक स्प्लॅकनोप्ल्यूर (एण्टोहने एवं एप्लेकनिक मीसोडर्म) से निर्मित होती है।
प्रश्न 13. भ्रूण के रोपण की क्रिया को समझाए।
उत्तर: भ्रूण का रोपण निषेचन के एक सप्ताह बाद ब्लास्टोसिस्ट गर्भाशय के ऊपरी भाग में इसकी भिति से चिपक जाता है अर्थात् ब्लास्टोसिस्ट का गर्भाशय भित्ति में रोपण प्रारम्भ हो जाता है। अब इसे ट्रोफोब्लास्ट कहते हैं। ट्रोफोब्लास्ट की बाह्य सतह से कुछ अंगुली सदृश प्रवर्ध निकलकर गर्भाशय भित्ति के अन्तःस्तर में जाकर निषेचन के लगभग 8 दिन बाद भ्रूण को गर्भाशयी भित्ति से जोड़ देते हैं, यही क्रिया भ्रूण का रोपण है। रोपण के बाद कोशिकीय ट्रोफोब्लास्ट की कोशिकाये तीव्र गति से विभाजित होकर गर्भाशयों भित्ति में फैलती चली जाती है और अंगुली सदृश जरायु अंकुरक बनाती हैं। ये अंकुरक गर्भाशय की भित्ति से पोषण पदार्थों का अवशोषण करके भ्रूण तक पहुँचाते हैं। प्रारम्भ में भ्रूण के चारों ओर से अंकुरक निकले रहते हैं, किन्तु बाद में ये केवल एक या दो स्थानों पर ही रह जाते हैं और जरायु कला था गर्भाशय की भित्ति के साथ संयुक्त रूप से (परिवर्द्धनशील भ्रूण तथा मातृ शरीर के साथ) एक संरचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई, आँवल या अपरा बनाते हैं। स्त्री की इस स्थिति को सगर्भता कहा जाता है।निषेचन के दूसरे हफ्ते में भ्रूण दो भागों में विभेदित हो जाता है— एपिब्लास्ट तथा हाइपोब्लास्ट ।
एपिब्लास्ट के ऊपरी भाग से एक गुहा बनती है जिसे एम्निओटिक गुहा कहते हैं। इसकी बाहरी सतह की कोशिकायें चपटी होकर गुहा के चारों ओर आवरण बनाती हैं जिसे एम्निओटिक कला कहते हैं। ब्लास्टोसील की ओर घनाकार कोशिकाओं का एककोशिकीय स्तर होता है जिसे हाइपोब्लास्ट कहते हैं हाइपोब्लास्ट की कोशिकायें संख्या में बढ़कर, ट्रोफोब्लास्ट स्तर के नीचे-नीचे पूरी ब्लास्टोसील गुहा के चारों ओर फैल जाती हैं। इसके मीसोडम स्तर में बीच में कॉरिऑनिक गुहा बन जाती है जिससे इसकी कोशिकायें दो स्तरों में बँट जाती है।
प्रश्न 14. आतर्व चक्र की प्रावस्थायें विभिन्न को समझाए।
उत्तर: आर्तव चक्र की प्रावस्थायें महावारी चक्र या रजोधर्म चक्र की 28 दिनों की अवधि को निम्नलिखित तीन प्रावस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है—
1. रजोस्त्राव प्रावस्था — प्रत्येक आर्तव चक्र का प्रारम्भ योनि से होने वाले रक्त स्राव से होता है, जो लगभग 5 दिनों तक चलता रहता है। इस स्राव में कुछ ऊतक द्रव्य, श्लेष्म तथा गर्भाशय की इलेष्मिका की कोशिकाओं के अतिरिक्त कुछ मात्रा रुधिर की होती है। यह स्राव गर्भाशयी भित्ति के खण्डन के फलस्वरूप होता है। रुधिर में मादा हॉर्मोन्स एस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्टिरोन की मात्रा में पर्याप्त कमी हो जाने से गर्भाशयी भित्ति की धमनियाँ सिकुड़कर रुधिर की आपूर्ति कम कर देती हैं। इसीलिए गर्भाशय की भित्ति की अनेक कोशिकायें मृत हो जाती हैं। इस प्रावस्था में दोनों अण्डाशयों में लगभग 20 द्वितीयक पुटिकायें पुटकीय तरल की मात्रा में वृद्धि के कारण बड़ी हो जाती है।
2. पूर्व अण्डोत्सर्गीय प्रावस्था—यह प्रावस्था छठे दिन से 13वें दिन के बीच होती है। छठे दिन ही पीयूष ग्रन्थि के FSH हॉमोंन के प्रभाव से 20 वृद्धिशील पुटिकाओं में और अधिक वृद्धि होती है और इनसे एस्ट्रोजन हॉर्मोन का स्त्रावण होने लगता है। इसी दिन प्रत्येक अण्डाशय में केवल एक ही पुटिका बढ़कर अन्य पुटिकाओं से कुछ बड़ी हो जाती है। इस पुटिका से स्रावित एस्ट्रोजन के प्रभाव से FSH का स्रावण कम हो जाता है, जिससे अन्य पुटिकाओं का बढ़ना रुक जाता है और शीघ्र ही इनका पतन भी जाता है। पूटीका का परिपक्वन होकर होकर गरेफियन पुटिका बन जाती है, जो लगभग 20mm व्यास को हो की पर उभर आती है। पीयूष ग्रन्थि से साबित LII हॉर्मोन की मात्रा में वृद्धि हो जाने से किय टिका से एस्ट्रोजन का भाव बढ़ जाता है और यह फटकर पुटिका से एस्ट्रोजन हॉर्मोन का स्रावण बढ़ जाता है और यह फटकर द्वितीयक अण्डक कोशिका को मुक्त करने अर्थात् अण्डोत्सर्ग के लिए तैयार हो जाती है जो प्रायः 14वें दिन होता है। अण्डोत्सर्ग के एक-दो दिन पूर्व ग्रैफियन पुटिका से प्रोजेस्टिरोन हॉर्मोन की कुछ मात्रा स्त्रावित होती है। अण्डोत्सर्ग के समय स्त्री में पुरुष समागम की अधिक इच्छा जाग्रत हो जाती है। मुक्त हुई द्वितीयक अण्डक कोशिका गर्भाशयी नलिका में चली जाती है वृद्धिशील पुटिकाओं द्वारा सावित एस्ट्रोजन के प्रभाव से गर्भाशय भित्ति पुनः बन जाती है।
3. पश्च अण्डोत्सर्गीय प्रावस्था - यह प्रावस्था 15वें दिन से 28वें दिन के मध्य होती है। इसमें LH हॉर्मोन के प्रभाव से फटी हुई चैंपियन, पुटिका में कॉर्पस ल्यूटियम बन जाता है जो अल्प मात्रा में एस्ट्रोजन का तथा अधिक मात्रा में प्रोजेस्टिरोन का स्त्रावण करता है। इन हॉर्मोन्स के प्रभाव से गर्भाशयी एण्डोमीट्रियम मोटी हो जाती है। इसमें रुधिर की आपूर्ति बढ़ जाती है तथा इसकी कोशिकाओं में ग्लाइकोजन संचित हो जाता है। यह क्रिया लगभग 7 दिन चलती है। यदि इस समय तक अण्डक कोशिका निषेचित हो जाती है तो इसके अपर द्वारा आरोपित हो जाने से ह्यूमेन कोरिओनिक गोनेडोट्रॉपिन हॉर्मोन स्रावित होने लगता है। इसके प्रभाव से कॉर्पस ल्यूटियम सक्रिय बना रहता है। भ्रूण में वृद्धि के साथ-साथ आँवल से अधिक हॉर्मोन्स खावित होने लगते हैं और कॉर्पस ल्यूटियम की भूमिका समाप्त हो जाती है तथा इसका पतन हो जाता है। साथ ही अण्डाशय में दूसरी पुटिकाओं का परिपक्वन भी रुक जाता यदि गर्भाशयी नलिका में अण्डक कोशिका निषेचित नहीं होती है तो कॉर्पस ल्यूटियम विघटित होकर एक हवेत रंग के कॉर्पस ऐल्बिकेन्स के रूप में दिखायी देकर अन्त में समाप्त हो जाती है।
4. रजोनिवृत्ति— किसी कन्या के जीवन काल में पहली बार रजोधर्म या ऋतु स्राव होने को रजोदर्शन (menarche) कहते हैं। यह सामान्यतः 12-13 वर्ष की आयु में प्रारम्भ होता है। स्त्रियों में स्थायी रूप से आर्तव चक्रों या मासिक चक्रों के रुक जाने को रजोनिवृत्ति कहते हैं। यह सामान्यतः 45-50 वर्ष की आयु में रुक जाता है। रजोनिवृत्ति प्रारम्भ हो जाने के पश्चात् अण्डाशय प्राथमिक पुटिका पीयूष ग्रन्थि के गोनेडोट्रोपिन्स के प्रति कोई अनुक्रिया नहीं करती है। इसलिए न तो ग्रैफियन पुटिकायें वृद्धि कर पाती हैं और न ही अण्डोत्सर्ग की क्रिया होती है; अतः इस काल में स्त्री गर्भ धारण नहीं कर पाती है।
पुरुषों में शुक्राणु निर्माण की प्रक्रिया 80-90 वर्ष की आयु तक चलती रहती है, किन्तु उनकी मैथुन क्षमता 55-60 वर्ष की आयु के बाद कम होती जाती है। इसका प्रमुख कारण 55 वर्ष की आयु के बाद टेस्टोस्टेरोन का स्राव कम हो जात है।
प्रश्न 15. मानव शुक्राणु की संरचना को चित्र सहित समझाए।
उत्तर: मानव शुक्राणु की संरचना- शुक्राणुओं का निर्माण शुक्राणुजनन प्रक्रिया द्वारा वृषणों में होता है। ये माप में अपेक्षाकृत बहुत सूक्ष्म और गतिशील होते हैं और बहुत अधिक संख्या में बनते हैं। प्रत्येक शुक्राणु पतला व लम्बा होता है। इसके तीन भाग होते हैं-
1. सिर – यह प्रायः फूला हुआ एवं लम्बा-सा भाग होता है। इसमें एक लम्बा-सा अगुणित केन्द्रक होता है। केन्द्रक के चारों ओर थोड़ा-सा कोशिकाद्रव्य होता है। इसके आगे की ओर शीर्ष पर गॉल्जीकॉयों की बनी एक्रोसोम नामक रचना टोपी के समान ढकी रहती हैं।
2. मध्य खण्ड – यह सिर की अपेक्षा पतला, छोटा एवं छोटी-सी ग्रीवा द्वारा सिर से जुड़ा रहता है। इस भाग में दो तारक काय तथा माइटोकॉण्ड्रिया और इनके बाहर थोड़ा-सा कोशिकाद्रव्य होता है।
3. पुच्छ– यह कोशिकाद्रव्य के शेष भाग से बनी झिल्लीवत् प्रायः लम्बी, कोड़े जैसी और अत्यधिक गतिशील होती है। इसकी मध्य रेखा में एक पतला अक्ष-सूत्र होता है। पिछले भाग में झिल्ली नहीं होती है, केवल नग्न अक्ष-सूत्र ही होता है।