बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 14 पारितंत्र दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 14 पारितंत्र दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

BSEB > Class 12 > Important Questions > जीव विज्ञान अध्याय 14 पारितंत्र - दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न । खाद्य जाल में खाद्य श्रृंखलाओं के समूह के लक्षण कौन कौन से होते है बताए। 

किसी खाद्य जाल में खाद्य श्रृंखलाओं के समूह के लक्षण होते हैं। इनमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण लक्षण होते है-
1. अनेक खाद्य श्रृंखलायें परस्पर जुड़ी होती है, अतः खाद्य जाल कभी भी सीधा नहीं होता है।
2. खाद्य जाल में अधिकतर जीवों के लिए एक से अधिक वैकल्पिक खाद्य मार्ग होते हैं, विशेषकर कप २ उपभोक्ताओं के लिए। इस प्रकार खाद्य जाल अधिक स्थिरता प्रदर्शित करता है।

3. खाद्य जाल जितना जटिल होता है पारितन्त्र उतना ही अधिक स्थिर होता है।
4. खाद्य जाल किसी एक जाति के जीव को अधिक बढ़ने नहीं देता इस प्रकार पारितन्त्र में समष्टियों के स का गुण होता है।
5. खाद्य जाल पारितन्त्र को बनाने में भी सहायता करता है।

6. इसमें तीनों प्रकार की खाद्य श्रृंखलायें- परभक्षी , परजीवी  तथा मृतजीवी खाद श्रृंखलायें पायी जा सकती है।

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प्रश्न 2  . जीवमण्डल के जैविक घटक को परिभासित करे। 

उत्तर: जीवमण्डल जो एक बृहद्तम पारितन्त्र है, में निम्नलिखित जैविक घटक होते हैं-
1. उत्पादक (producers) सभी हरे पौधे उत्पादक होते हैं। इनमें क्लोरोफिल होता है और ये प्रकाश लेषणद्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते हैं।

2. उपभोक्ता (consumers) ये वे जीव हैं, जो उत्पादकों द्वारा बनाये हुए खाद्य पदार्थ का उपभोग करते हैं।
उपभोक्ता निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं-
(i) प्राथमिक उपभोक्ता (primary consumers)— वे जन्तु, जो हरे पौधों अर्थात् उत्पादकों को सीधे अपना बनाते हैं। ये शाकाहारी होते हैं; जैसे—चूहा, खरगोश, हिरन आदि।

(i) द्वितीयक उपभोक्ता (secondary consumers) – ये मांसाहारी जन्तु है, जो प्राथमिक उपभोक्ताओं अर्थात् शाकाहारी को अपना भोजन बनाते हैं; जैसे—मेंढक, चिड़िया।

(ii) तृतीयक उपभोक्ता (tertiary consumers) – ये भी मांसाहारी जन्तु हैं, जो प्रायः द्वितीयक उपभोक्ताओं secondary consumers) को अपना भोजन बनाते हैं; जैसे-शेर, सर्प, बाज, गिद्ध आदि। इनमें कुछ सर्वोच्च प्रभोक्ता कहलाते हैं। कुछ जो मरे हुए जन्तुओं को खाते हैं, अपमार्जक कहलाते है।

प्रश्न 3.   - हरे पौधों द्वारा सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को किस प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरित किया जाता है? उस प्रक्रम का भी नाम लिखिए जिसके द्वारा हरी वनस्पतियाँ सौर ऊर्जा को ग्रहण कर उसको जैव उपयोगी ऊर्जा में रूपान्तरित करती हैं।

उत्तर—हरे पौधे अपनी कोशिकाओं में उपस्थित हरितलवकों के पर्णहरित द्वारा सूर्य के प्रकाश की गतिज ऊर्जा को अवशोषित करके एक विशेष प्रक्रिया के अन्तर्गत पहले विभवीय कर्जा अनुबन्धित कर लेते हैं। यह विशेष प्रक्रिया प्रकाश संश्लेषण  का प्रथम प्रक्रम प्रकाश करें  कहलाता है तथा इसमें होने वाली प्रक्रियायें फोटो फॉस्फोराइलेशन कहलाती है। वह यौगिक जिसमें विभवीय ऊर्जा संचित की जाती है एडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट (ATP) कहलाता है। ए०टी०पी० अणुओं में उपस्थित ऊर्जा का उपयोग रासायनिक संश्लेषण की क्रियाओं में किया जाता है। इ प्रक्रियाओं को अप्रकाशीय क्रियायें तथा सम्पूर्ण प्रक्रम को कैल्विन चक्र कहा जाता है।

दोनों प्रकार की अर्थात् प्रकाशीय तथा अप्रकाशीय क्रियाओं के अन्त में ही खाद्य पदार्थ बनते हैं तथा इ खाद्य पदार्थों में हरे पौधे द्वारा प्रग्रहित सौर ऊर्जा उपयोगी ऊर्जा के रूप उपस्थित रहती है। यह सम्पूर्ण क्रिया हो प्रकाश संश्लेषण है।

प्रश्न 4 . - पदार्थों के पुनः चक्रण का महत्त्व बताइये।

उत्तर: पदार्थों के पुनः चक्रण का महत्त्वप्रकृति में विभिन्न पदार्थ, खनिज, गैसे आदि निश्चित मात्रा में हैं। विभिन्न भौतिक, रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं में इनका प्रयुक्त होना इनकी मात्रा व अनुपात को परिवर्तित करता रहता है। ऐसे में कुछ पदार्थ सदैव के लिए समाप्त हो सकते हैं अथवा इतने कम अनुपात में शेष रह सकते हैं कि सम्बन्धित आवश्यक क्रिया-प्रक्रियायें बन्द हो जायें। जीवों में विभिन्न जैविक क्रियाओं को चलाने के लिए भी अनेक तत्त्वों, यौगिकों आदि की ऊर्जाओं के साथ आवश्यकता होती है। जीवों में ऊर्जाओं का प्रवाह तथा उपयोग भी इन्हीं पदार्थों के आधार पर अथवा साथ-साथ होत है। यदि उपयोगी पदार्थ ही न रहे तो ये क्रियायें नष्ट-भ्रष्ट हो सकती है। उपर्युक्त विनाशकारी सम्भावनाओं को दूर करने के लिए प्रकृति का स्वतः नियामक 'पदार्थों का पुनः चक्रण विभिन्न प्राकृतिक चक्रों के माध्यम से सदैव कार्य करता रहता है; अतः अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। पदार्थों के पुनः चक्रण में जीवों का अत्यधिक महत्त्व है विशेषकर पौधों का, जो विभिन्न पदार्थों को उनके सरलीकृत स्वरूप में ग्रहण कर इन भू-जैव-रासायनिक चक्रों को चलाने में आधारभूत सहयोग करते हैं।

5. पारितन्त्र के लिए ऊर्जा का स्रोत पर टिप्पणी 

उतर्र: जीवों को जीवन की प्रक्रियाओं को करने के लिए आवश्यक ऊर्जा जनसे मिलती है क्योंकि वे भोजन के बिना जीवित नहीं रह सकते। वास्तव में, भोजन ऊर्जा का स्रोत न होकर एक (carrier) है। जैसा पूर्व में बताया गया है, ऊर्जा का मूल स्रोत तो सूर्य है जहाँ से ऊर्जा विकिरण के रूप में ही है। यह ऊर्जा पौधों द्वारा भोजन में स्थितिज रासायनिक ऊर्जा के रूप में बन्धित कर लो जाती है।

केवल हरे पौधों तथा कुछ सूक्ष्म प्राणियों में ही यह क्षमता होती है कि वह सूर्य द्वारा निःसूत काशीय ऊर्जा की 1.0% ऊर्जा को ग्रहण करके भोजन हेतु उपयोग में ला सकते हैं। जन्तुओं को प्रकाशीय ऊर्जा का लाभ पौधों के माध्यम से होता है। पौधों द्वारा प्रकाशीय ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदल लो जाती है जो भोजन के में संगृहीत होती है। यह कार्य पर्णहरित की उपस्थिति में प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) के द्वारा होता है। अवश्य है कि भोजन बनाने के लिए पर्यावरण से कच्चा माल अकार्बनिक पदार्थों जैसे—जल, कार्बन इऑक्साइड आदि के रूप में प्राप्त करना होता है। इस प्रकार पौधे थोड़े-से सामान् अकार्बनिक पदार्थों को लेकर काशीय ऊर्जा की सहायता से अधिक ऊर्जा युक्त जटिल कार्बनिक पदार्थों का निर्माण करते हैं। इस प्रक्रिया को ऊर्जा ज स्थिरीकरण कहते हैं।

6. अपघटन को प्रभावित करने वाले कारक कौन कौन से है? 

उत्तर: अपघटन की दर यद्यपि अपरद की रासायनिक संरचना पर प्रमुखतः निर्भर करती है जैसे जल पदार्थों का अपघटन तीव्र गति से होता है। फिर भी अपघटन की क्रिया के लिए ऑक्सीजन की उपस्थिति होती है। यही नहीं अन्य जलवायवीय कारक भी इस क्रिया को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। सामान्य तापमान (25 से अधिक) तथा नमी की उपस्थित अपघटन को दर को तेज कर देते हैं। 10°C से कम क्रिया को तेजी से गिरा देते है इसीलिए ठण्डे स्थानों में; जैसे-पर्वतों पर अथवा ध्रुवों की ओर वाले प्रदेश अपघटन दर काफी कम होती है। अनेक बार भूमि पर पड़ा करकट कई वर्षों तक भी ऐसा ही पड़ा रहता है। अधिक भी हो किन्तु सूखे की स्थिति रहने पर भी अपघटन की दर बहुत कम रहती है।

7. अपघटन का महत्त्व बताए। 

उत्तर: अपघटन के द्वारा ही पौधों एवं जन्तुओं द्वारा यौगिकीकृत खनिज तत्त्व विभिन्न चक्रीय क्रियाओं के द्वारा में खनिज प्रवाह को पूरा करते हैं। यहाँ यह स्पष्ट होना चाहिए कि ऊर्जा का हो क्रियाओं में सदैव निवेश सौर ऊर्जा के रूप में प्रकाश संश्लेषण द्वारा होता रहता है किन्तु खनिज पदार्थ उत्पादकों द्वारा प्राप्त करना तो इन्हीं चक्रीय प्रवाहों पर निर्भर करता है। वैसे भी अपघटन की प्रक्रियाओं के द्व ह्यूमस का निर्माण होता है जो मृदा को वास्तविक उपजाऊ मृदा बनाता है।

(i) धूम पौधों की वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है। उन स्थानों में (जैसे रेगिस्तान) जहाँ बन इत्यादि नहीं होती. मिट्टी रेतीली होती है, ह्यूमस का मिट्टी में सर्वथा अभाव भी हो सकता है। अतः ऐसे स्थानों में ठीक से विकसित नहीं हो सकते।
(ii) ह्यूमस मृदा को बनाता है। वास्तव में, मृदा की जल तथा वायु की साथ-साथ धारिता ह्यूमस के कारण ही होती है।
(iii) ह्यूमस मृदा को खोखला बनाये रखता है जिससे पौधों का मूल तन्त्र आसानी से वृद्धि करता रहता है।
(iv) ह्यूमस अनेक सूक्ष्म जीवों के सहयोग से मृदा ताप को बनाये रखता है जिससे इसके अन्दर उपस्थित जीवों, साथ ही पौधों के मूल तन्त्रों को जैविक सक्रियातायें तेजी से करने का अवसर प्राप्त होता है।
(v) ह्यूमस चिकनी मिट्टी के कणों को जोड़कर बड़े समूह या मिसेल (micelle) बनाता है।

8. अनुक्रमण के प्रकार पर टिप्पणी कीजिए। 

उत्तर: 1. प्राथमिक अनुक्रमण - वनस्पति रहित स्थलों पर होने वाला अनुक्रमण प्राथमिक अनुक्रमण कहलाता है। नग्न चट्टानों, रेतीले टीलों, नये बने तालाबों, ज्वालामुखी से निकली राख वाले क्षेत्रों को इसी श्रेणी में रखा जाता है।
2. द्वितीयक अनुक्रमण (secondary succession) – ऐसे क्षेत्र जहाँ पूर्व में वनस्पति उपस्थित थी लेकिन किन्हीं कारणों से वहाँ की वनस्पति नष्ट हो गयी हो तथा नयी प्रकार की वनस्पति पुनः स्थापित होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो तो उसे द्वितीयक अनुक्रमण कहते हैं। बाढ़ के कारण काफी समय तक जलमग्न रहे स्थान, अग्नि अथवा कटाई से नष्ट वनस्पति क्षेत्रों को इस श्रेणी में रखा जाता है।

पादप अनुक्रमण की पुरोगामी अवस्था से लेकर चरम समुदाय के मध्य में आने वाली अवस्थाओं को क्रमकी समुदाय अथवा क्रमकी अवस्थायें  कहते हैं तथा अनुक्रमण की समस्त क्रमकी अवस्थाओं के लिए सम्मिलित शब्द क्रमक  का प्रयोग किया जाता है। इसीलिए जलीय आवासों में होने वाले अनुक्रमण को जलारम्भी तथा इसके विकास की विभिन्न अवस्थाओं को जलक्रमक कहते है। इसी प्रकार शुष्क आवासों में होने वाले अनुक्रमण को शुष्कतारम्भी  तथा अनुक्रमण के विभिन्न चरणों को संयुक्त रूप से मरुक्रमक कहते है। इसी क्रम में नग्न चट्टानों पर अनुक्रमण को शैलक्रमक, लवणीय जल भूमि पर होने वाले अनुक्रमण को लवणक्रमक या रेतीले टोलों पर होने वाले अनुक्रमण को वालुकीय क्रमक आदि नामों से पुकारते है।