बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 5 वंशागति व विविधता के सिद्धांत दीर्घ उतरीय प्रश्न
दीर्घ उतरीय प्रश्न
प्रश्न 1. लिंग गुणसूत्रों की असुगुणित से उत्पन्न विकारों को बताए।
उत्तर: जब लिंग गुणसूत्र की संख्या मे परिवर्तन होता है तो सामान्यत दो प्रकार के संलक्षण उत्तपपन होते है।:
टर्नर संलखक्षण : यह संलक्षण अधोगुणिता के कारण होता है। अर्थात् लिंग गुणसूत्र मॉनोसोमिक होते हैं और इसमें XO अवस्था होती है। इनमें गुणसूत्रों की कुल संख्या 45 (22 जोड़ा +XO) होगी। इस प्रकार का शरीर अल्पविकसित मादा (लड़की) के समान होता है। यह लड़की बोझ होती है। जननांग अविकसित होते हैं; कद छोटा होता है तथा वक्ष चपटा होता है। बाल्यकाल में यह सामान्य लड़की के समान दिखाई देती है किन्तु किशोरावस्था आने तक नपुंसक हो जाती है। इसमें अण्डाशय विकसित नहीं होते हैं।
क्लानेफेल्टर्स संलक्षण : यह आनुवंशिक विकार लिंग गुणसूत्रों की अधिगुणिता के कारण होता है अर्थात् इनमें लिंग गुणसूत्रों में ट्राइसोमी पायी जाती है तथा कुल गुणसूत्रों की संख्या 47 होती है। इस प्रकार के विकार में वृषण अल्पविकसित रह जाते हैं तथा स्त्रियों के समान स्तन विकसित हो जाते हैं इनके शरीर पर बालों की कमी होती है। यद्यपि Y गुणसूत्र की उपस्थिति के कारण ये पुरुष होते हैं किन्तु XXX गुणसूत्रों को उपस्थिति इनमें स्त्री जैसे लक्षण भी उत्पन्न कर देती है। ये नपुंसक होते हैं तथा इन्हें गाइनेकोमैस्टिया कहते हैं। कभी-कभी इस प्रकार के संलक्षण में X गुणसूत्रों की संख्या दो से भी अधिक XXXXY,XXXXY,XXY भी हो जाती है। कभी-कभी इसमें Y गुणसूत्र नहीं होता है अर्थात् यह XXX हो सकती है। इस प्रकार के परिवर्तनों में लिंग गुणसूत्र XYY संलक्षण में भी हो सकते हैं। अधिक Y गुणसूत्र वाले अर्थात् XYY वाले संलक्षण से ग्रसित पुरुष स्वभाव से अतिनर (super male) होते हैं। ये लम्बे, बुद्ध अतिकामुक तथा गुस्से वाले होते हैं। इसी प्रकार XXX संलक्षण वाली स्त्रियाँ अतिमादायें (super female) बुद्ध, किन्त बांझ होती है।
प्रश्न 2. मेंडल को मटर का पादप चुनने से क्या क्या लाभ हुवे?
उत्तर: मेण्डल ने अपने संकरण प्रयोगों के लिए उद्यान मटर पाइसम सटाइवम के पौधों का सावधानीपूर्वक चयन किया। इन पौधों का चयन करने के लिए निम्नलिखित कारण थे-
(i) मटर कम समय में ही उगने वाला पौधा है, जिसे आसानी से उगाया जा सकता है। इनके पौधों की आयु 3-4 महीने की होती है। अतः थोड़े समय में हो इसकी कई पीढ़ियों का अध्ययन करना सम्भव (ii) मटर के पौधे माप में भी छोटे होते है। अतः इनकी देख-रेख करना और सम्भालना सुगम होता है।
(iii) मटर के पुष्प द्विलिंगी या उभयलिंगी होते हैं। सरचना में ये इस प्रकार बन्द होते है कि प्राकृतिक रूप से इनमें प्रायः स्वपरागण तथा स्वनिषेचन]ही होता है तथा इसमें पर परागण की भी सम्भावना होती है।
(iv) मटर में विभिन्न विपरीत लक्षणों वाली प्रजातियाँ सरलता से मिल जाती है तथा ये विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में भी सामान्य प्रजनन क्षमता रखती हैं।
(v) फलियों में बोजों की संख्या अधिक होती है तथा फलियों और बीज कम अवधि में हो पक जाते हैं।
(vi) मटर के पौधों को किसी भी फसल में अनेक वंश-परम्परागत आनुवंशिक विभिन्नताये होती है इसलिए इनमें आनुवंशिक लक्षणों के स्पष्ट तुलनात्मक दृश्य रूपों को प्रदर्शित करने वाले शुद्ध नस्लो पौधे पर्याप्त संख्या में प्राप्त किये जा सकते हैं।
प्रश्न 3. दात्र कोशिका अरक्तता का वर्णन करे।
उत्तर: दात्रकोशिका अरक्तता या सिकिल सेल रक्ताल्पता :
लाल रुचिर क्षणिकाओं में लाल रंग एक विशिष्ट वर्णक हीमोग्लोबिन के कारण होता है। यह ऑक्सीजन वाहक पदार्थ है तथा श्वसन के स्थान से ऑक्सीजन (O) प्राप्त कर उसे आवश्यकता के स्थान (प्रत्येक कोशिका तक पहुंचाने का कार्य करता है। रुधिर में हीमोग्लोबिन की कमी होने पर रुधिर की O संवहन की क्षमता कम होती है। ऐसी अवस्था को रक्ताल्पता कहते हैं। ऑक्सीजन की उपलब्धता कम होने पर अनेक रहीमोग्लोबिन की विशेष आणविक संरचना विकृत होने के कारण लाल रुधिर कणिका सिकुड़ कर हँसियाकार हो जाती है। साथ ही यह कणिका तथा इसका हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन संवहन के लिए निरर्थक हो आता है। रुधिर कणिकाओं के विकृत आकार के कारण इस रोग को हँसियाकार रुधिराणु या सिकिल सेल रक्ताल्पता कहते हैं।रोग की प्रकृति आनुवंशिक है तथा यह एक अप्रभावी जीन (Hb') के कारण होता है। यह ऑटोसोमल है तथा अपने अपूर्ण प्रभावी जीन (Hb^) के साथ होने पर अर्थात् विषमयुग्मनजी Hb^Hb") अवस्था में कम अर्थात् आंशिक रूप में किन्तु समयुग्मनजी Hb Hb') होने पर पूर्ण रोग के रूप में प्रदर्शित होती है। इसीलिए विषयुग्मनजी अवस्था का कम थकान का काम करके सामान्य व्यक्ति के समान जीवन यापन कर सकता है किन्तु समयुग्मनजी अप्रभावी जोड़े वाले व्यक्ति में सभी लाल रुधिर कणिकायें पिचककर हँसियाकार हो जाती है।
प्रश्न 4. हीमोफीलिया रोग की वंशागति को समझाए व संभावित स्तिथिया भी बताए।
उत्तर: इस रोग में आन्तरिक अथवा बाह्य घाव होने पर रुधिर या तो जमता नहीं है अथवा बह धीरे-धीरे जमता है अर्थात् घाव से निरन्तर रुधिर स्त्राव होता रहता है, जो असावधानी रखने पर रोगी की मृत्यु कारण भी बन सकता है। रुचिर में कुछ प्रोटीन्स की कमी के कारण ऐसा होता है।
हीमोफीलिया रोग की निम्नलिखित स्थितियाँ सम्भावित हैं-
A. हीमोफीलिक पुरुष तथा सामान्य स्त्री - इस स्थिति में सभी पुत्र सामान्य (XY) तथा सभी पुत्रियाँ वाहक (XX) होंगी।
B. सामान्य पुरुष तथा वाहक स्त्री – इस स्थिति में 25% पुर हीमोफिलिक (XY) 25% पुत्र सामान्य (XY), 25% पुत्रियाँ वाहक (XX) तथा 25% पुत्रियाँ सामान्य (XX) होग
C. हीमोफीलिक पुरुष तथा वाहक स्त्री - यदि किसी हीमोफीलिक पुरुष का विवाह किसी होमोफोलिक वाहक स्त्री से होता है तो उस स्त्री से उत्पन्न सन्तानों में 259 पुत्रियाँ हीमोफीलिक, 25% पुत्रियाँ रोग की वाहक, 25% पुत्र हीमोफोलिक तथा 25% पुत्र सामान्य होंगे।
पुरुष ही इस रोग का शिकार बनते और स्त्रियाँ केवल वाहक (carrier) का कार्य करती हैं। इस रोग से ग्रसित पुरुष भी प्रायः बाल्यावक्षतः या योवन से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। वाहक स्त्रियों की सहायता से रोग की वंशानुगती होती है।
प्रश्न 5. वर्णाधता व उसकी वंशागति को समझाए।
उत्तर: वर्णान्धता से पीड़ित व्यक्ति प्रायः लाल व हरे रंग में अन्तर नहीं कर पाते। रतः इस रोग को लाल हरा अन्यापन भी कहा जाता है। इस रोग का जीन अप्रभावी होता है तथा लिंग गुणसूत्रों में से X- पर स्थित होता है। Y गुणसूत्र पर इसका एलील नहीं पाया जाता। एक वर्णान्ध पुरुष और एक सामान्य स्त्री की सभी सन्ताने सामान्य होती है, परन्तु पुत्रियों में एक X गुणसूत्र पर पिता का वर्णान्धता का अप्रभावी जीन पहुंचता है में इस जीन के वाहक (carrier) का कार्य करती हैं। एक सामान्य पुरुष तथा एक बाहक स्त्री की सन्तानों में केवल तड़कों में वर्णान्धता विकसित होती है तथा एक X-गुणसूत्र पर वर्णान्धता का जीन होने पर भी लड़कियों में यह रोग नहीं होता, परन्तु ये वाहक का कार्य करती हैं। एक अन्य स्थिति में यदि एक वाहक स्त्री एक वर्णान्य पुरुष के साथ सहवास करती है तो होने वाली सन्तानों में आधे पुत्र वर्णान्ध व आधे सामान्य होंगे तथा आधी पुत्रियों व क आधी पुत्रियां वाहक होंगी। इस प्रकार निम्नांकित निष्कर्ष निकाले जा सकते है
1. स्त्रियाँ तभी वर्णान्ध होती हैं, जबकि वर्णान्धता के जीन दोनों (XXX) गुणसूत्रों पर स्थित होते हैं क्योंकि वर्णान्धता का जीन अप्रभावी होता है और सामान्य स्थिति में X गुणसूत्र पर इसका प्रभावी रोग को रोकने वाला जीन होता है।
2. केवल एक (X) गुणसूत्र पर वर्णान्धता का जीन स्थित होने पर स्त्री केवल वाहक का कार्य करती है। 3. पुरुष में (X) गुणसूत्र केवल एक ही होता है; अतः उस पर वर्णान्धता का जीन होने पर भी वो वर्णांध होता है।
प्रश्न 6. लिंगसहलग्न लक्षण कितने प्रकार के होते है?
उत्तर: मनुष्य में लिंग निर्धारित करने वाले गुणसूत्र X तथा Y गुणसूत्र कहलाते हैं। यद्यपि इनकी संरचना में भिंतता दिखायी देती है, फिर भी वर्तमान जानकारी के अनुसार इन गुणसूत्रों में कुछ भाग समजात होता है,जो अर्द्धसूत्री विभाजन के समय सूत्रयुग्मन (synapsis) करते हैं, अन्यथा शेष भाग असमजात होता है। उपर्युक्त आधार पर लिग सहलग्न लक्षण तीन प्रकार के हो सकते हैं-
1. X- सहलग्न लक्षण -X गुणसूत्रों के असमजात खण्डों पर इनके लक्षणों के जॉन्स स्थित होते है। वंशागति में ये लक्षण पुत्रों को केवल माता से तथा पुत्रियों को माता व पिता दोनों से प्राप्त सकते हैं। इन्हें बाइएण्डिक लिंग सहलग्न लक्षण कहा जाता है; जैसे—वर्णान्धता , रतौंधी तथा हीमोफीलिया।
2. Y-सहलग्न लक्षण – इसके जीन्स Y गुणसूत्रों के असमजात खण्डों पर इनके जीन उपसतिथ होते हैं। इस प्रकार सहयोगी ही गुणसूत्रों पर होते एलील्स नहीं पाये जाते। अत: यह लक्षण प्रत्येक से केवल पुत्रों तक ही जाते हैं। इन्हें होलैण्डिक लिंग सहलग्न गुण है कहते हैं तथा इनको वंशागति को कोलैण्डिक वंशागति कहा जाता है। उद– कर्णपल्लवों की हाइपरट्राइकोसिस
3. XY - सहलग्न लक्षण – इनके जीन्स एलील्स के रूप में X एवं Y गुणसूत्री के समजात खण्डों पर स्थित होते हैं। अतः इनकी वंशागति पुत्रों एवं पुत्रियों में सामान्य ऑटोसोमल लक्षणों की भाँति होती है। इन्हें अपूर्ण लिंग सहलग्न गुण भी कहा जाता है।
प्रश्न 7. मनुष्य मे लिंग निर्धारण की प्रक्रिया को समझाए।
उत्तर: मनुष्य जाति में स्त्री और पुरुष का भेद, अर्थात् लैंगिक द्विरूपता 23वें जोड़े अर्थात् लिंग गुणसूत्रों की विभिन्नता के कारण विकसित होती है। माता-पिता से जिस सन्तान की XY गुणसूत्र मिलते हैं वह पुत्र बनता है और जिसे 44 + XX गुणसूत्र मिलते हैं वह पुतरी बनती है। माता-पिता से सन्तान को कौन-से लिंग गुणसूत्र मिलें, इसका निर्धारण लैंगिक जनन की प्रक्रिया में निम्न प्रकार होता है-
लैंगिक जनन के लिए युग्मकजनन में अर्द्धसूत्री कोशिका विभाजन के द्वारा जनन कोशिकाओं से युग्मक कोशिकाओं अर्थात् गैमीट्स का निर्माण होता है। अर्द्धसूत्री विभाजन से युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या अगुणित हो जाती है। इस प्रकार, प्रत्येक युग्मक में प्रत्येक समजातीय गुणसूत्रों के जोड़े में से एक-एक गुणसूत्र ही होता है। उपर्युक्त के अनुसार स्त्री से प्राप्त होने वाले समस्त अण्डाणु एक ही प्रकार के अर्थात् समयुग्मकी होते हैं अर्थात् इनमें n = 22 + X, पुरुषों में शुक्राणु विषमयुग्मकी दो प्रकार के होते हैं- 50% शुक्राणु (n) = 22 + X
अन्य 50% शुक्राणु (n) = 22 + Y
यदि अण्डाणु का निषेचन X-युक्त शुक्राणु से होता है तो युग्मनज लिंग गुणसूत्र XX होते हैं और इससे बने भ्रूण से बनने वाली सन्तान पुत्री होती है। इसके विपरीत, यदि अण्डाणु का निषेचन Y-युक्त शुक्राणु द्वारा होता है तो युग्मनज में लिंग गुणसूत्र XY होते हैं और इसमें बनने वाला भ्रूण तथा सन्तान पुत्र होती है। इससे यह भी स्पष्ट है कि पुत्री या पुत्र होने की सम्भावनाये सामान्यतः सदैव ही 50-50% होती है।
प्रश्न 8. लिंग निर्धारण की xx-xy विधि को समझायी
उत्तर: XX-XY गुणसूत्रों द्वारा लिंग निर्धारण या लिंग निर्धारण की XY विधि-
अधिकांशतः कशेरुकियों में (जिनमें मनुष्य भी सम्मिलित है) तथा अनेक अकशेरुकियों जैसे— ड्रॉसोफिला मक्खी आदि में लिंग-गुणसूत्रों का एक जोड़ा पाया जाता है। मादा में दोनों लिंग गुणसूत्र समान होते हैं, जिन्हें XX द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इनमें बने सभी युग्मक (अण्डाणु) एक ही प्रकार के होते हैं। अतः मादा को समयुग्मकी लिंग कहते हैं। इसके विपरीत, नर में लिंग गुणसूत्र असमान होते हैं, जिन्हें XY द्वारा प्रदर्शित किया जाता है नर में दो प्रकार के युग्मक (शुक्राणु) बनते हैं (i) 50% युग्मक (शुक्राणु) X-गुणसूत्र वाले तथा
(ii) 50% युग्मक (शुक्राणु) Y गुणसूत्र वाले। अतः नर को विषमयुग्मकी लिंग कहते है।
निषेचन के समय यदि X गुणसूत्र वाला शुक्राणु अण्डाणु को निषेचित करता है तो उत्पन्न होने वाली सन्तान मादा होगी और यदि Y गुणसूत्र वाला शुक्राणु अण्डाणु को निषेचित करता है तो उत्पन्न होने वाली सन्तान नर होगी। इस प्रकार, नर या मादा सन्तान का उत्पन्न होना इस बात पर निर्भर करता है कि अण्डाणु किस प्रकार के शुक्राणु द्वारा निषेचित होता है।
प्रश्न 9. उत्परिवर्तन से जीव शरीर पर की प्रभाव पड़ता है?
उत्तर: उत्परिवर्तन उन परिवर्तनों को कहते हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं व आनुवंशिक होते है। जीव शरीर के स्तर पर दृश्यरूप उत्परिवर्तनों को निम्नलिखित श्रेणियों किया गया है-संरचनात्मक, पोषणिक, प्राणघातक।
संरचनात्मक उत्परिवर्तन: उत्परिवर्ती जीव में स्पष्ट रूप दिखायी देते हैं. जैसे—हमारे बालों, नेत्रों तथा त्वचा के काले या भूरे वर्णक पदार्थ, मिलेनिन का लेषण (एक एन्जाइम टाइरोसिनेज की उपस्थिति में होता है। इसकी अनुपस्थिति में मिलैनिन का संश्लेषण नहीं हो पाता. अतः व्यक्ति का शरीर बिल्कुल सफेद हो जाता है। इसे रंजकहीनता कहते हैं। जीवाणुओं को वृद्धि तथा गुणन करने के लिए माध्यम में लवणों तथा ग्लूकोज की थोड़ी-सी मात्रा की ही आवश्यकता होती है। ऐसे जीवाणु आदिपोषाणु कहलाते हैं। कुछ जीन उत्परिवर्तनों के कारण ओं की यह क्षमता समाप्त हो जाती है और इन्हें जीवित रहने के लिए माध्यम में किसी अन्य पोषक पदार्थ की जरूरत पड़ती है। ऐसे उत्परिवर्तीों जीवाणु पूरकपोषी कहलाते हैं। जव शरीर में कुछ जोन उत्परिवर्तन ऐसे होते हैं कि वे जिस सदस्य में भी जाते हैं, उसकी मृत्यु हो जाती है, इसीलिए इसे प्राणघातक उत्परिवर्तन कहते हैं।
कुछ उत्परिवर्तन जॉनी नियन्त्रण में बनी त्रुटिपूर्ण प्रोटीन्स के कारण होते हैं जो सामान्य परिस्थितियों में तो प्रभावित नहीं होते, परन्तु उच्च ताप तथा असामान्य परिस्थितियों में इनके कार्यों को प्रभावित करते हैं और प्रायःहानिकारक होते है।
प्रश्न 10.आनुवंशिकी का जीन सिद्धान्त पर टिप्पणी दीजिए।
उत्तर: आनुवंशिक लक्षणों की संख्या गुणसूत्रों की संख्या से क अधिक होती है, तो वंशागति के गुणसूत्रीय सिद्धान्त को अमान्य कर दिया गया। बाद में सटन ने ही बताया कि मेण्टेल के कारक गुणसूत्रों से बहुत छोटे किन्तु इन्हीं में स्थित होते हैं। जॉहन्सन (Johannsen, 1909) से इन कारकों को जीन्स (genes) नाम दिया। मॉर्गन (Morgen, 1910) ने पता लगाया कि जीन्स गुणसूत्रों में माला की मणियों के समान पक्तिबद्ध कण होते हैं। मॉर्गन ने ही 'आनुवंशिकी का जीन सिद्धान्त' भी प्रस्तुत किया।
आधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार जीन जो DNA ( deoxyribose nucleic acid) द्वारा निर्मित होते हैं. गुणसूत्रों पर होते हैं। प्रत्येक जीन एक विशेष गुण का वाहक (carrier) है। गुणसूत्रों की संख्या प्रत्येक जीव की कोशिकाओं में निश्चित तथा एक ही जीव की प्रत्येक कोशिका में समान होती है। प्रत्येक कोशिका में ये गुणसूत्र सजातीय जोड़ों के रूप में रहते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक कोशिका में युग्मविकल्पी लक्षण एक जोड़ी जोनो (जो एक-एक सजातीय गुणसूत्रों पर है) के रूप में वंशागति के भौतिक आधार हैं। युग्मकों में सजातीय गुणसूत्रों के जोड़ों में से केवल एक-एक ही प्रत्येक युग्मक में होता है। अतः युग्मक में युग्मविकल्पी लक्षण में से केवल एक ही विकल्प पहुंचता है अर्थात् युग्मक शुद्ध रहते हैं। इन युग्मकों का संयोग स्वतन्त्र रूप से होता है। सभी प्रकार की घटनाओं के अपवाद भी मिल सकते हैं। जीनों में स्वयं विभाजन की शक्ति होती है। गुणसूत्रों में अर्द्धसूत्री विभाजन के समय अथवा अन्य समयों में विनिमय होता है।
जन संकल्पना: मॉरगन ने फलमक्षिका या फल मक्खियों पर कार्य करते हुए, जीन्स का निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किया ।
1. किसी जीव के लक्षण, युग्म में उपस्थित तत्त्वों जिन्हें जीन्स कहते हैं जो कि जनन पदार्थ में रहते हैं। ये आपस में सहलग्न समूहों के रूप में अनुबन्धित होते हैं तथा निश्चित संख्या में रहते हैं।
2. प्रत्येक जोड़ा-जीन के सदस्य मेण्डेल के प्रथम नियम के अनुसार जनन कोशिकाओं से परिपक्वन के समय अलग-अलग हो जाते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक जनन कोशिका में केवल एक ही प्रारूप होता है।
3. अलग-अलग सहलग्न समूहों के सदस्य मेण्डेल के स्वतन्त्र के द्वितीय नियम को मानते हुए अलग-अलग होते हैं।।
4. अपने-अपने प्रकार के सहलग्न समूहों के बीच घटकों का आदान-प्रदान भी होता है।
5. क्रॉसिंग ओवर की संख्या इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती है कि जीन लग्न समूह में रेखीय क्रम में लगे होते हैं। यह जीन्स की आपसी स्थितियों को भी प्रतिपादित करती है। मेण्डेल ने आनुवंशिकी के जितने भी प्रयोग किये, सौभाग्य से, वे सभी साधारणतम प्रकार के थे। आज अनेक क्षेत्रों में ये प्रयोग दोहराये गये हैं तथा इस सन्दर्भ में अनेक ऐसे स्थल प्राप्त हुए हैं कि मेण्डल के नियम इनको नहीं समझ पाते।