बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 7 विकास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उतरीय प्रश्न
प्रश्न 1. स्टेनले मिलर के प्रयोग को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: स्टैनले मिलर का प्रयोग ओपैरिन के सिद्धान्तों की पुष्टि के लिए अमेरिकन वैज्ञानिक मिलर ने हैरोल्ड यूरे के निर्देशन में निम्नलिखित प्रयोग किया-
उन्होंने 5 लीटर की क्षमता वाले एक फ्लास्क में 2: 1: 2 के अनुपात में मेथेन, अमोनिया तथा हाइड्रोजन का गैसीय मिश्रण भर दिया और इसे एक ओर से दो समकोणों पर मुड़ी एक काँच की नली से जोड़ दिया। इस नली को मध्य में एक निर्वात पम्प से जोड़ा तथा इसके दूसरे सिरे पर आधा लीटर क्षमता वाला कांच का एक फ्लास्क जोड़ दिया। इसमें जल भरकर इसे एक विशिष्ट रचना वाली नली से जोड़ दिया। इस नली का दूसरा सिरा गैसीय मिश्रण वाले फ्लास्क से जोड़ा गया। इस विशिष्ट रचना वाली नली को 'U' आकार वाले भाग के ऊपर एक संघनक में होकर निकाला गया। बड़े फ्लास्क में टंगस्टन के दो इलेक्ट्रोड्स लगाये गये जो विद्युत प्रवाहित करने पर चिंगारियाँ मुक्त करते थे। अतः इसे चिंगारी विमुक्ति उपकरण कहा गया। इस प्रयोग में छोटे फ्लास्क को गर्म करने पर सम्बन्धित नली जलवाष्प का संचार प्रारम्भ हो जाता था।
निरीक्षण एवं निष्कर्ष -
1. इस प्रयोग को प्रारम्भ करने पर आदि पृथ्वी की दशाओं के समान परिस्थितियाँ उत्पन्न होती थीं। इनमें सम्पूर्ण उपकरण में जलवाष्प का संचार, बड़े फ्लास्क में आदि वायुमण्डल में पायी जाने वाली गैसें तथा इलेक्ट्रोड्स द्वारा तड़ित जैसे प्रभाव को उत्पन्न करना आदि प्रमुख हैं।
2. प्रयोग के अन्त में बनी गैस, जलवाष्प के साथ कण्डेन्सर द्वारा ठण्डी होने पर विशिष्ट रचना वाली नली के 'U' आकार वाले भाग में एक लाल रंग के गंदले-से तरल के रूप में एकत्र हुई। इस तरल का विश्लेषण करने पर ज्ञात हुआ कि यह ग्लाइसीन व ऐलेनीन जैसे सरल अमीनो अम्ल, शर्करा, कार्बनिक अम्लों एवं यौगिकों का मिश्रण था।
प्रश्न 2. जीव विकास के तुलनात्मक आकारिकीय प्रमाण कौन कौन से है? स्पष्ट करे।
उत्तर: जैव विकास के तुलनात्मक आकारिकी से प्रमाण :
जन्तुओं की तुलनात्मक आकारिको के अध्ययन से ज्ञात होता है कि एक ही उत्पत्ति के अंग भिन्न-भिन्न जन्तुओं में आवश्यकतानुसार भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के हो जाते हैं, जबकि अनेक जन्तुओं में एक कार्य को करने के लिए विकसित विभिन्न प्रकार को उत्पत्ति के अंगों में समरूपता होती है। इनको क्रमशः समजातता तथा समरूपता कहते हैं।
(1) समजातता एवं समजात अंग जब अंगों को मूल रचना तथा उद्भव समान होते हैं, परन्तु इनके कार्यों में समानता होना आवश्यक नहीं होता तो यह समजातता कहलाती है अर्थात् समान उद्भव एवं मृत रचना वाले अंग जो भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए अनुकूलित होते हैं, समजात अंग कहे जाते हैं, जैसे-पक्षियों के पंख, सील के फ्लिपर, चमगादड़ का पैटेजियम, बेल व पैग्विन के चप्पू, घोड़े के अग्रपाद, मनुष्य के हाथ इत्यादि। विभिन्न प्राणियों में उपलब्ध समजातता यह स्पष्ट करती है कि इनका विकास समान पूर्वजों से ही हुआ है। अतः समजातता अपसारी जैव विकास का प्रमाण प्रस्तुत करती है।
(2) समरूपता तथा समरूप अंग: ऐसे अंग जो समान कार्य के लिए अनुकूलित हो जाने के फलस्वरूप एक जैसे दिखायी देते हैं, लेकिन मूल रचना एवं उत्पत्ति में भिन्न होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं। इस स्थिति को समरूपता या समवृत्तिता कहते हैं। कीट-पतंगों के पंख, पक्षियों एवं चमगादड़ के पंखों जैसे दिखायी पड़ते हैं तथा उड़ने का कार्य करते हैं, परन्तु अकशेरुकीय होने के कारण कीटों के पंखों में कंकाल नहीं पाया जाता, जबकि चमगादड़ व पक्षी कशेरुकीय होते हैं। और इनमें अस्थियों-उपास्थियों का कंकाल पाया जाता है। इस प्रकार मौलिक रचना में दोनों प्रकार के पंख एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। समरूपता से अभिसारी जैव विकास के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
प्रश्न 3. निएण्डरथल मानव व क्रोमैगनॉन मानव पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर: आदिनिएण्डरथल मानव आज से लगभग 1.5 लाख वर्ष पूर्व प्रकट हुआ। इसमें क्रैनियम तथा माथा मेहराबी, चेहरा सीधा, भौंहों के उभार सामान्य, छोटी-सी आगे निकली हुई ठोड़ी और समान माप के मोलर दन्त थे, लेकिन निचला जबड़ा भारी था। इसकी कपालगुहा का आयतन 1400 से 1450 c.c. था। अन्तिम निएण्डरथल आज से लगभग 70-80 हजार वर्ष पूर्व प्रकट हुआ। इसका शरीर अधिक सुदृढ़ और वर्ष पूर्व प्रकट हुआ। इसका शरीर अधिक सुदृढ़ और कुछ छोटा (1.55-1.65 मीटर) था। आदिनिएण्डरथल के विपरीत, क्रैनियम चपटा, माथा ढलवाँ, भौहों के उभार अधिक उठे हुए, नाक चौड़ी तथा चेहरा ठोड़ी विहीन था। कपालगुहा का आयतन वर्तमान मानव की कपालगुहा के आयतन से भी अधिक 1350 से 1700 cc था। स्पष्ट हे कि आदिनिएण्डरथल के लक्षण वर्तमान मानव के लक्षणों से अधिक मिलते-जुलते थे। इस प्रकार आदिनिएण्डरथल मानव का विकास वर्तमान मानव की दिशा में और दूसरी ओर अन्तिम निएण्डरथल की दिशी में अग्रसर हुआ। वर्तमान मानव का सीधा पूर्वज होने की सम्भावना के कारण हो निएण्डरथल की वैज्ञानिक होमो सैपियन्स की उपजाति - होमो सैपियन्स निएण्डरथैलेन्सिस मानने लगे।
क्रोमैगनॉन मानव : निएण्डरथल के पूर्ण विलोप से पहले ही क्रोमैगनॉन मानव का विकास लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व हुआ औ प्रारम्भ में यह जाति निएण्डरथल मानव के साथ-साथ पृथ्वी पर रही। इसके जीवाश्म सबसे पहले मैकग्रेगॉर को फ्रांस मे क्रोमैगनॉन के शिलाखण्डों से मिले। आधुनिक वैज्ञानिक इसे वर्तमान मानव होमो सैपियन्स सैपियन्स का अन्तिम सीधा पूर्वज मानते है। क्रोमैगनॉन का शरीर मजबूत और लगभग 180 सेमी लम्बा था। खोपड़ी बड़ी चेहरा चौड़ा अन्य प्रागैतिहासिक मानवों के विपरीत सौधा खड़ा , ललाट चौड़ा व मेहराबी, नाक संकरी व उठी हुई, मीहे हल्की, जबड़े भारी व मजबूत दांत वर्तमान मानव जैसे, ठोड़ी विकसित तथा कपाल गुहा अधिक बड़ी (लगभग 1600 cc) थी।
प्रश्न 4. कपि व मानव की तुलना कीजिए।
उत्तर:
कपि | मानव |
1. कपि के अग्रपाद लम्बे तथा घुटनों के नीचे तक पहुँचते हैं। 2. अग्रपादों तथा पश्चपादों से समान कार्य लेते हैं। पैर हाथों की तरह ही किसी वस्तु को पकड़ सकते हैं। 3. चारों पाद जन्तु का सन्तुलन बनाने में सहायक है। 4. कपि चार पादों पर चलता है और चतुष्पादचारी है। 5. इसका अँगूठा छोटा होता है तथा अँगुलियों के समानान्तर होता है, वस्तुओं को पकड़ने में सुविधाजनक नहीं है। 6. इनमें पूँछ का अभाव होता है। 7. मादा के स्तन उभरे हुए नहीं होते। | कपि की अपेक्षा मानव के अग्रपाद छोटे होते हैं तथा घुटनों के ऊपर ही रहते हैं। अग्रपादों तथा पश्चपादों के कार्य भिन्न हैं। पैर किसी वस्तु को पकड़ने में सहायक नहीं होते। पश्चपाद सम्पूर्ण शरीर का भार उठाते हैं, साथ ही सन्तुलन बनाये रखने तथा सीधा चलने में सहायक होते हैं। मनुष्य सीधा (ऊर्ध्व) चलता है और द्विपदचारी है। मानव का अँगूठा अधिक विकसित तथा अँगुलियों के साथ समकोण पर होता है, वस्तु को सुविधापूर्वक तथा मजबूती से पकड़ने में सहायक है। इससे वह अपने हाथों का अनेक कार्यों के लिए उपयोग कर सकता है। इनमें भी पूँछ का अभाव होता है। मादा के स्तन उभरे हुए होते हैं। |
प्रश्न 4. जाति उद्भवन को समझाए।
उत्तर: जाति का उद्भवन :
जाति उद्भवन (उत्पत्ति) किसी जीव जाति के सदस्यों के बीच अन्तराप्रजनन तथा जीन प्रवाह को बाधित करने वाली दशाओं के कारण होता है। इन दशाओं के आधार पर जाति उद्भवन के दो प्रमुख भेद किये गये हैं-
(i) भिन्नदेशीय
(i) एकदेशीय
(i) भिन्नदेशीय जाति उद्भवन (allopatric speciation) - विभिन्न भौतिक अवरोध जैसे- पर्वत, रेगिस्तान, समुद्र आदि द्वारा पृथक् किये गये भौगोलिक क्षेत्रों में जब एक ही जाति की दो समष्टिय स करती हैं, तो इनमें भौगोलिक जाति उद्भवन होता है। विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जलवायु, वासस्थानों, पोषण सुविधाओं आदि वातावरणीय दशाओं का असमान होना, भिन्नदेशीय समष्टियों के सदस्यों का अपने-अपने क्षेत्र की दशाओं के अनुसार अनुकूलन होकर भिन्न-भिन्न दिशों में विकसित हो जाना इस प्रकार का उद्भवन प्रदर्शित कर सकता है। इससे भिन्नदेशीय समष्टियों की जीनराशियों में शनै: शनै: इतनी विभिन्नतायें उत्पन्न हो जाती हैं कि एक समष्टि के सदस्य तथा दूसरी सम्म के सदस्यों के मध्य जननिक पृथक्करण हो जाता है।
(ii) एकदेशीय जाति उद्भवन- किसी जीव जाति की एक ही में किसी भौगोलिक अवरोध के भी जाति-उद्भवन हो सकता है। यह प्रायः पादपों में तथा बहुगुणात्या के कारण सम्भव होता है।
प्रश्न 5. विकास के कारणों को समझाए।
उत्तर: विकास के कारण :
ऐसी प्रक्रियाये जिनके द्वारा किसी समष्टि में हार्डी-बीनबर्ग सन्तुलन समाप्त होता है, विकास का कारण होती है तथा समष्टि में विकास की दिशा भी निर्धारित करती हैं। इन्हें विकासीय अभिकर्मक कहते है। विकास के आधुनिक संश्लेषणात्मक सिद्धान्त को प्रमुखतः निम्नलिखित विकासीय अभिकर्मको के आधार पर स्पष्ट किया गया है-
1. उत्परिवर्तन एवं विभिन्नताये
2. देशान्तरण एवं जननिक पृथक्करण
3. जीनी अपवहन
4. असंयोगिक समागम
5. जीवन संघर्ष तथा प्राकृतिक चयन
1. उत्परिवर्तन एवं विभिन्नतायें- जीन्स के रासायनिक संयोजन में परिवर्तनों के कारण होने वाले ये उत्परिवर्तन प्रायः अप्रभावी होते हैं या हानिकारक होते है। सामान्यतः इनके घटित होने की दर भी बहुत कम होती है। इस प्रकार लाखो युग्मनजो में से किसी में ही उत्परिवर्तित जीन होता है। कुछ भी हो विकास के लिए आनुवंशिक परिवर्तन स्थापित करने में उत्परिवर्तनो तथा अन्य विभिन्नताओं का काफी महत्त्व होता है, क्योंकि विकासीय प्रक्रिया बहुत लम्बा समय लेती है।
2. देशान्तरण तथा जननिक पृथक्करण— अनेक जीव-जातियों में इनकी विभिन्न समष्टियों के बीच इनके सदस्यों का आवागमन होता रहता है। इसे देशान्तरण कहते हैं। इसी प्रकार जब कोई दो समष्टियां किसी भौगोलिक अवरोध के कारण अलग-अलग हो गयी हो पास-पास आने पर आपस में जनन कर सकती हैं, किन्तु यदि इनमें प्रजनन नहीं हो सकता तो इनको भिन्न-भिन्न जाति मान लिया जाता है। किसी समष्टि में अन्य समष्टियों से आये हुए सदस्य अर्थात् अप्रवासी, किसी समष्टि को छोड़कर अन्य समष्टियों में चले जाने वाले सदस्य अर्थात् उत्प्रवासी समागम करके समष्टियों को जौनराशि में नवीन जीन्स ला सकते हैं, हटा सकते हैं अथवा युग्मविकल्पी जीन्स की आवृत्तियों को बदल सकते हैं।
3. जीनी अपवहन– विभिन्न सदस्यों को प्रजनन दर की विभिन्नता के कारण, जीव जातियों की छोटी-छोटी समष्टियों पर हार्डी-बीनबर्ग सन्तुलन लागू नहीं होता है तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी सभी युग्मविकल्पी जीन्स की आवृत्तियों का समान रूप से प्रसारण होते रहना प्राय: असम्भव होता है। यह जीनी अपवहन है जिसमे कभी-कभी हानिकारक युग्मविकल्पी जीन्स की आवृत्ति इतनी बढ़ जाती है कि समष्टि के कई सदस्य समाप्त हो हो जाते हैं। इस प्रकार समष्टि और भी छोटी हो जाती है और इसमें आनुवंशिक विभिन्नताये भी बहुत कम रह जाती है। कभी-कभी महामारियों, परभक्षण आदि के कारण भी छोटी समष्टियों में जीन अपवहन हो सकता है।
4. असंयोगिक समागम- पेड़-पौधों की अनेक जातियों में स्वपरागण द्वारा प्रजनन होना, मानवों की कुछ जनसंख्याओं में सजातीय विवाह आदि प्रकार के जनन के कारण समयुग्मजी जीनरूपों की संख्या बढ़ती जाती है तथा हार्डी-वीनबर्ग सन्तुलन भी नहीं रहता है।
5. जीवन संघर्ष तथा प्राकृतिक चयन —किसी भी समष्टि में प्रत्येक जीव जीवित रहने के लिए भोजन, सुरक्षित स्थान, प्रजनन के लिए साथी की खोज आदि के लिए संघर्षरत रहता है। इसी में से अधिकतम अनुकूलित भिन्नता वाले जीव के चयन को डार्विन ने प्राकृतिक चयन अथवा योग्यतम की उत्तरजीविता बताया। इस प्रकार, प्राकृतिक चयन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके कारण जीवों की समष्टियों में जीनरूपों तथा युग्मविकल्पी जीन्स, दोनों की ही आवृत्तियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते रहते है।
प्रश्न 6. हार्डी व विंबर्ग सिद्धांत को संक्षेप म समझाए।
उत्तर: हार्डी एवं वीनवर्ग का सिद्धान्त :
हार्डी एवं बीनबर्ग ने स्पष्ट किया कि जिन समष्टियों में आनुवंशिक परिवर्तन नहीं होते, उनमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी युग्मविकल्पी जोन्स और जीनरूपों की आवृत्तियों में एक सन्तुलन बना रहता है, क्योंकि प्रबल जोन अप्रबल जीन्स को समष्टि को जीनराशि से हटा नहीं सकते। इसे हार्डी-बीनबर्ग सन्तुलन कहते हैं। यह वास्तव में मेण्डेल के प्रथम पृथक्करण अर्थात् युग्मको की शुद्धता के नियम का हो तार्किक निष्कर्ष है। इसे हार्डी-वीनबर्ग ने गणितीय समीकरणों द्वारा समझाया जिन्हें सम्मिलित रूप से हार्डी वीनवर्ग का सिद्धान्त कहते हैं।
इनके अनुसार, सभी युग्म विकल्पी आवृत्तियों का जोड़= 1
तथा व्यष्टिगत, आवृत्तियों को माना = p,q आदि
यदि द्विगुणित में p तथा q युग्म विकल्प प्रतिनिधित्व करते है एलील= A व a
किसी समष्टि में AA की आवृत्ति प्रायः होती है = p2
तथा aa की आवृत्ति होती है = q2
Aa की आवृत्ति होगी = 2pg
p² +2 pq + q²=1
इसे (p+q )2 के विस्तार की अभिव्यक्ति भी कह सकते हैं।
इस नियम में पूर्वानुमान किया जाता है कि समष्टि बड़ी है, इसमें युग्मकों का संयुग्मन अनियमित तथा संयोगिक होता है अर्थात् विकास को प्रेरित करने वाली कोई प्रक्रिया समष्टि (आबादी) को प्रभावित नहीं करती है।
प्रश्न 7. उद्विकास कितने प्रकार का होता है?
उत्तर: लघु उद्विकास तथा वृहत् उद्विकास : जैव विकास में समय के साथ जीव जातियों को समष्टियों में जोनी परिवर्तनों की बात सम्मिलित है, जैव विकास को लघु उद्विकास तथा वृहत् उद्विकास में बाँटा गया है। लघु उद्विकास में जीव जातियों की प्रत्येक समष्टि में पीढ़ी-दर-पीढ़ी होते रहने वाले आनुवंशिक \परिवर्तनों का आँकलन होता है, जबकि वृहत् उद्विकास में विस्तृत स्तर पर जीवों में नयी-नयी संरचनाओं के विकास, विकासीय प्रवृत्तियों अनुकूलन योग्य प्रसारणों विभिन्न जीव जातियों के मध्य विकासौय सम्बन्धो तथा जीव जातियों की विलुप्ति का अध्ययन किया जाता है।
समष्टि या जनसंख्या के प्रत्येक सदस्य में विभिन्न आनुवंशिक लक्षणों के विभिन्न जीनरूप होते हैं। इसके सभी आनुवंशिक लक्षणों के जीनरूपों को सामूहिक रूप में इसका जीन समूह या जीन प्रारूप कहते हैं। विभिन्न सदस्यों के बीच दृश्यरूप लक्षणों की विभिन्नताओं से स्पष्ट होता है कि इतनी ही विभिन्नतायें इनके जोन प्रारूपों में भी होनी आवश्यक हैं। इस प्रकार एक समष्टि के सभी सदस्यों में उपस्थित सम्पूर्ण युग्मविकल्पी जीन्स को मिलाकर समष्टि की जीनराशि कहते हैं। यद्यपि समष्टि के प्रत्येक सदस्य में प्रत्येक लक्षण के दो ही युग्मविकल्पी जीन्स होते हैं, परन्तु सामान्यतः उत्परिवर्तनों के होते रहने के कारण पूरी समष्टि में प्रत्येक जीन के कई युग्मविकल्पी स्वरूप भी हो सकते हैं। इसे जोन की बहुरूपता कहते हैं। इस जीनी बहुरूपता में प्रत्येक स्वरूप की बारम्बारता अर्थात् आवृत्ति को युग्मविकल्पी आवृत्ति कहते है।
प्रश्न 10. विभिनताए कितने प्रकार की होती है?
उत्तर: "सजातीय सदस्यों में पायी जाने वाली रचनात्मक, कार्यात्मक या मनोवैज्ञानिक असमानताये ही विभिन्नतायें कहलाती है।
विभिन्नताओं के प्रकार:
सजातीय सदस्यों में पायी जाने वाली विभिन्नताओं को प्रायः निम्नलिखित तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है-
1. अविच्छिन्न तथा विच्छिन्न विभिन्नताये।
2. निश्चयात्मक तथा अनिश्चयात्मक विभिन्नताये।
3. कायिक तथा जननिक विभिन्नताये।
1. अविच्छिन्न तथा विच्छिन्न विभिन्नतायें:
क) अविच्छिन्न विभिन्नतायें - ये छोटी-छोटी क्रमबद्ध विभिन्नतायें हैं जो सामान्यतः एक ही जाति के विभिन्न सदस्यों में पायी जाती हैं। डार्विन ने इन्हें अस्थिर विभिन्नतायें कहा तथा प्राकृतिक चयन के लिए इन्हें अति महत्त्वपूर्ण माना। लगभग एक ही आयु एवं एक ही कक्षा के विद्यार्थियों की लम्बाई में क्रमबद्ध अन्तर का पाया जाना इनका सहज उदाहरण है।
(ख) विच्छिन्न विभिन्नतायें – ये जीवधारियों में आकस्मिक रूप से पायी जाने वाली अधिक स्पष्ट विभिन्नतायें है। ये क्रमबद्ध नहीं होतीं तथा एक ही जाति में सुस्पष्ट दिखायी देती. हैं। डार्विन ने इन्हें स्पोर्ट नाम दिया, जबकि डी ब्रीज ने इन्हें उत्परिवर्तन कहा ये प्रायः निम्नांकित दो प्रकार की हो सकती हैं-
(i) संख्यात्मक विभिन्नतायें —शरीर में किसी अंग अथवा अंगों की संख्या में अकस्मात् ही वृद्धि अथवा कमी का हो जाना, ऐसी ही विभिन्नताये कहलाती है; जैसे—किसी मनुष्य के हाथ में पाँच के स्थान पर छ अथवा सात अंगुलियों का पाया जाना तथा किसी बछड़े में सोगों का न पाया जाना आदि।
(ii) गुणात्मक विभिन्नट — ये किसी जीव की सन्तान के सम्पूर्ण शरीर अथवा शरीर के किसी भाग के रंगरूप तथा आकार आदि में अकस्मात् होने वाली विभिन्नतायें है। जैसे—आँखों की पुतलियों अथवा बालों के रंग में परिवर्तन।
2. निश्चयात्मक तथा अनिश्चयात्मक विभिन्नतायें
(क) निश्चयात्मक विभिन्नतायें—ये अनुकूलन के कारण एक निश्चित समय अथवा दिशा में होने वाली विभिन्नतायें हैं। इन्हें नियत विकासीय विभिन्नतायें कहा जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ये प्रभावशाली जीन संयोजन द्वारा नियन्त्रित होती है। बारहसिंग में सोंगों का क्रमिक विकास इनका सामान्य उदाहरण है।
(ख) अनिश्चयात्मक विभिन्नतायें—ये उत्परिवर्तन के कारण होने वाली विभिन्नताये है जो विकास की
किसी भी दशा में किसी भी सीमा तक हो सकती है।
3. कायिक या उपार्जित तथा जननिक विभिन्नतायें
(क) कायिक या उपार्जित विभिन्नतायें-ये वातावरणीय दशाओं में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरुप उत्पन्न होती हैं। लैमार्क ने इन्हें उपार्जित लक्षणों का नाम दिया। ये प्रायः वंशागत न होकर अस्थायी होती है। ये देहद्रव्य तक ही सीमित रहती हैं तथा जननद्रव्य को प्रभावित नहीं कर पाती है। लगातार धूप में कार्य करते रहने पर त्वचा का काला रंग हो जाना तथा शिक्षा के प्रभाव से बुद्धि विकास आदि इस प्रकार की विभिन्नताओं के उदाहरण हैं।
(ख) जननिक विभिन्नतायें—ये विभिन्नताये जननद्रव्य में होती हैं। ये जीन ढाँचे परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। ये विभिन्नताये वंशागत होती हैं तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी नयी सन्तानों में पहुंच रहती हैं। जैसे— नेत्रों की पुतलियों, बालों आदि का रंग जो शैशव अवस्था में ही दिखायी दे जाता है, परन्तु शरीर व लम्बाई व अंगों का आनुपातिक आकार आदि लक्षण बाद में प्रदर्शित होते हैं।