बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 8 मानव स्वास्थ्य ऍवम रोग दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
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बिहार बोर्ड कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 8 मानव स्वास्थ्य ऍवम रोग दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

BSEB > Class 12 > Important Questions > जीव विज्ञान अध्याय 8 मानव स्वास्थ्य ऍवम रोग - दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 

प्रश्न 1. टाइफॉइड रोग का वर्णन करे। 

उत्तर: यह एक संक्रामक जीवाणु रोग है। एक निश्चित अवधि तक रहने के कारण इस बुखार को मियादी बुखार भी कहा जाता है। सालमोनेला टाइफी रोग का कारक है। इसका संक्रमण भोजन तथा जल के माध्यम से होता है। किसी भी आयु के व्यक्ति को यह रोग हो सकता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि एक बार इस रोग के होने पर दोबारा यह रोग नहीं होता है। इस रोग का सम्प्राप्ति काल 4 दिन से 40 दिन हो सकता है।

लक्षण – इस रोग के प्रारम्भ में सिर में तेज दर्द हो सकता है। रोगी काफी बेचैनी अनुभव करता है। जैसे-जैसे रोगाणु अपना प्रभाव फैलाते हैं, वैसे-वैसे उबर तीव्र हो जाता है। ज्वर के साथ सारे शरीर पर मोती के समान दाने निकल आते हैं। वास्तव में, इस रोग के कारण अंतों, यकृत एवं प्लीहा में सूजन आ जाती है। अतः आहारनाल सम्बन्धी कई विकार उत्पन्न हो सकते है, जैसे—आंतो में दर्द, पेचिश, अतिसार आदि। इस रोग की पुष्टि विडाल परीक्षण (Widal test) से की जा सकती है।

रोग से बचने के उपाय - -मोतीझरा से बचने के लिए टी० ए० वी० का टीका लगवाना चाहिए। जिस व्यक्ति को बुखार हो जाए उसे अलग रखना चाहिए। रोगी के बर्तन, बिस्तर आदि को अलग रखना आवश्यक है। ठीक हो जाने पर कीटाणुनाशक पदार्थ, गर्म पानी आदि से धोना चाहिए। रोगों के मल-मूत्र को नष्ट कर देना चाहिए तथा उसमें जीवाणुनाशक पदार्थ अवश्य डाल देना चाहिए। उपचार हेतु एण्टीबायोटिक्स का प्रयोग किया जाता है।

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प्रश्न 2. नशीली दवाओ का शरीर पर प्रभाव बताए। 

उत्तर:नशीली दव थोड़े समय का  समय का मादक प्रभाव देती है. उन्हीं के आधार पर वह उनका आदी अपने आप को अधिक स्वस्थ व फुतॉला महसूस करने के लिए इनका का उपयोग करता है। उसकी आवश्यकता दया व उसकी मात्रा के लिए बढ़ती जाती है क्योंकि थोड़ मात्र को उसका शरीर सहन करने लगता है। इस प्रकार यह शारीरिक तथा मानसिक दोनों रूपों में इन दवाओं (दूर) पर निर्भर करने लगता है अथवा उसका शरीर व मस्तिष्क (चेतनता का अभाव होने के कारण इन दवाओ को माँग करता है और बाद की स्थितियों में इनके न मिलने पर 'कुछ भी' करने को तैयार ही नहीं हो होता है। यद्यपि अनेक दवाये (औषधियाँ) विभिन्न प्रकार के रोगों को ठीक करने के काम आती है अथवा इस कार्य में सहायता करती है, तथा अन्य कुछ उत्तेजना उत्पन्न करने या उसका शमन करने के लिए चिकित्सकीय रूप में प्रयुक्त होती है। प्रायः मनुष्य इन तीसरी श्रेणी की औषधियों का आदी हो सकता है और औषधि के उस गुण को अपने नशी  के लिए प्रयोग में लाने लगता है। इस प्रकार वह अपना सर्वस्व नष्ट कर डालता है— शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक अथवा सामाजिक सभी स्थितियों की अनदेखी करके वह अस्वस्थ, असहाय तथा चिड़चिड़ा होकर नैतिक पतन की ओर अग्रसर हो जाता है।

औषधियों की तीसरी श्रेणी जो तंत्रिका तन्त्र को प्रभावित करती हैं, उत्तेजक होती हैं। इनमें उपस्थित उत्तेजक तत्त्वतन्त्रिका तन्त्र को उत्तेजित करते हैं तथा अवनमक इसकी सक्रियता का शमन करते हैं। कुछ शामक का ही कार्य करती है तथा अन्य कुछ विभ्रम उत्पन्न करने का कार्य करती है। कुछ व्यक्ति नियमित रूप से तीसरी श्रेणी की औषधियों का सेवन करते है। इस प्रकार के व्यक्तियों को इन औषधियों की लत पड़ जाती है और वे पूर्ण रूप से इन पर आश्रित हो जाते है। 

प्रश्न 3. अल्कोहल के दुष्प्रभाव बताए। 

उत्तर: ऐल्कोहॉल (शराब) का सेवन करने से शरीर पर निम्नलिखित प्रमुख दुभाव होते हैं-

1. शराब के प्रभाव से तन्त्रिका तन्त्र विशेषकर केन्द्रीय तंत्रिका तन्त्र दुर्बल हो जाता है जिससे आत्म समाप्त होना, मस्तिष्क कमजोर होना, स्मरण शक्ति क्षीण होना, विचार शक्ति लुप्त होना, अच्छे-बुरे का ज्ञान समाप्त होना, एकाग्रता की कमी होना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। बाद में ऐसा व्याक्ति अपना आत्म संयम तथा आत्म सम्मान खो देता है।

2. शराब में ऐल्कोहॉल होता है जो कोशिकाओं से जल और शरीर को आन्तरिक ग्रन्थियों से होने वाले साव को तेजी से अवशोषित करता है। परिणामस्वरूप पहले तो यकृत (लिवर) सिकुड़कर छोटा हो जाता है और इसके बाद उसका आकार सामान्य से अधिक हो जाता है जिससे उसकी प्राकृतिक क्रियाशीलता नष्ट हो जाती है। पाचन उन्त्र तथा श्वसन तन्त्र में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। शरीर का पोषण उचित न होने के कारण दुर्बलतायें और अधिक बढ़ती हैं।

3. कोशिकाओं से जल अवशोषित होने के कारण वे नष्ट हो जाती है और धीरे-धीरे शरीर विशेषकर मांसपेशियाँ, दुर्बल होकर कमजोर होकर शिथिल (ढीला-ढाला) पड़ जाता है।
4. शरीर में विटामिनों की कमी हो जाती है; विशेषकर विटामिन B श्रेणी के विटामिन (थायमीन आदि): और उनका वितरण अनियमित हो जाता है जो शरीर में अनेक प्रकार की विकृतियाँ और रोग उत्पन्न करता है।

5. रुधिर परिसंचरण प्रमुखतः त्वचा की ओर अधिक होने से त्वचा का रंग लाल हो जाता है। वास्तव में, इन स्थानों की रुधिर केशिकायें चौड़ी हो जाती हैं, अतः इन स्थान पर ताप अधिक हो जाता है। 6. भावनात्मकता यद्यपि बढ़ी हुई दिखाई देती है किन्तु शीघ्र ही उसमें आक्रामकता झलकने लगती है जो बाद में घृणासपड़ हो जाती है। 

प्रश्न 4. एड्स रोग के लक्षण बताए। 

उत्तर: HIV जो एड्स (AIDS) रोग उत्पन्न करता है, की मुख्य लक्ष्य कोशिकायें T, लिम्फोसाइटस होती है। विषाणु का आर० एन० ए० जीनोम रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेज एन्जाइम की सहायता रेप्लिकेशन द्वारा डी०एन०ए० बनाता है। इस प्रकार जब विषाणु शरीर में पहुँचकर इन कोशिकाओं को संक्रमित करता है और एक प्रोवाइरस निर्मित करता है जो पोषद कोशिका के डी० एन० ए० में समाविष्ट जाता है। इस प्रकार पोषद कोशिका अन्तर्हित संक्रमित हो जाती है। समय-समय पर प्रोवाइरस सक्रिय होकर पोषद कोशिका में सन्तति विरिओन्स का निर्माण करते रहते हैं, पोषद कोशिका से मुक्त होकर नयी T4 लिम्फोसाइट्स को संक्रमित करने में पूर्णतः सक्षम होते है। इस प्रकार लिम्फोसाइट को क्षति से मनुष्य की प्रतिरक्षण क्षमता धीरे-धीरे दुर्बल होती जाती है। सामान्यतः 4-12 वर्षों तक व्यक्तियों में HIV के संक्रमण का पता तक नहीं चलता। कुछ व्यक्तियों को संक्रमण के कुछ हफ्तों के बाद सिरदर्द, घबराहट, हल्का बुखार आदि हो सकता है। धीरे-धीरे प्रतिरक्षण क्षमता कमजोर होने से जब व्यक्ति पूर्ण रूप से एड्स अर्थात् उपार्जित प्रतिरक्षा अपूर्णता संलक्षण (Acquired Immunodeficiency Syndrome) का शिकार हो जाता है तो उसमें भूख की कमी, कमजोरी, थकावट, पूर्ण शरीर में दर्द, कशी, मुह आंत मे घाव, अतिसार आदि । 

प्रश्न 5. संक्रामक रोगों का वाहक कौन कौन से होते है?

उत्तर: संक्रामक रोगों का फैलना:

मनुष्य के शरीर में संक्रामक रोग निम्नलिखित चार प्रकार से फैलते हैं-

वायु द्वारा फैलने वाले रोग-कुछ रोगों के रोगाणु वायु के माध्यम से फैलते हैं। जिस वायु में रोगाणु होते हैं. यदि उस वायु में स्वस्य मनुष्य सांस होता है तो वह रोगग्रस्त हो जाता है। वायु द्वारा फैलने वाले रोग निम्नलिखित है- (ii) चेचक, (ii) खसरा, (iii) कुकुर खाँसी, (iv) निमोनिया, (v) तपेदिक इत्यादि ।

जल तथा भोजन द्वारा फैलने वाले रोग—कुछ रोगों के रोगाणु वाहित मल, मक्खी तथा अन्य जोवो द्वारा पानी में पहुँच जाते हैं। जब यह पानी स्वस्थ मनुष्य पीते हैं तो वे रोगग्रस्त हो जाते हैं। इसी प्रकार भोजन पर आने रोगाणु जो किसी प्रकार भोजन में पहुँच जाते हैं (इसमें मक्खियाँ काफी कार्य करती हैं), हमारे शरीर में पहुँचकर विभिन्न रोग उत्पन्न कर देते है। जल तथा भोजन द्वारा फैलने वाले रोग अनेक हैं; जैसे- (i) हैजा, (ii) मियादी बुखार, (iii) पेचिश, (iv) तपेदिक इत्यादि।

कीटों तथा अन्य जन्तुओं द्वारा फैलने वाले रोग-कुछ रोगों को फैलाने में कोट तथा अन्य जन्तु भी विशेष भाग लेते हैं। उदाहरण के लिए (1) मलेरिया-मच्छयों द्वारा, (ii) प्लेग-पिस्सू द्वारा, (ii) काला जार-सैण्ड मक्खी द्वारा, (iv) निद्रा रोग-सी-सी मक्खी द्वारा फैलता है। जब ये जन्तु किसी रोगी को काटते है तो उसके रूधिर के साथ रोगाणु भी चूस लेते है, फिर जब ये किसी स्वस्थ मनुष्य को काटते हैं तो उसके रुधिर में ये रोगाणु प्रवेश कर जाते हैं और वह मनुष्य रोगी हो जाता है।

ऐसे जीव-जन्तु जो रोगाणुओं को एक शरीर से दूसरे शरीर तक पहुंचाने के साथ-साथ इनकी संख्या को अपने शरीर के अन्दर बढ़ाते हैं अर्थात् वह परजीवी अपने पोषण के लिए द्वितीयक पोषद की तरह इन पर भी निर्भर करते हैं (जीवन चक्र की पूर्ति इसमें होती है), प्रसारक (Vector) कहलाते हैं। दूसरे प्रकार के जीव- रोगों के केवल वाहक (carrier) होते है जो रोगाणुओं की केवल अपने शरीर पर ले जाते हैं और उन्हें दूसरे स्थान पर पहुँचा देते हैं। उदाहरण-प्रसारक (1) ऐनोफिलीज (मादा) मच्छर मलेरिया के रोगाणु बढ़ाती तथा उन्हें फैलाती है। (ii) चूहा प्लेग रोग की फ्ली को तथा उसके अन्दर पल रहे रोग के जीवाणुओं को फैलाता है। वाहक- (i) घरेलू मक्खी हैजा इत्यादि रोग फैलाती है(ii) पिस्सू प्लेग का वाहक है।
4. सीधे सम्पर्क द्वारा फैलने वाले रोग—जो व्यक्ति रोग से पीड़ित होते हैं अथवा ठीक हो जाने पर भी उनके शरीर में रोगाणु उपस्थित रहते हैं, जब इनके सम्पर्क में स्वस्थ मनुष्य आते हैं तो वे भी रोगग्रस्त हो जाते हैं। ऐसे मनुष्यों को जो रोग फैलाने में समर्थ होते है, रोगवाहक कहते हैं।

प्रश्न 6. प्रोटोजोए जनित रोगो के नाम बताए । 

उत्तर: प्रोटोजोआ जनित रोग : अनेक प्रोटोजोआ परजीवी है। इनमें से अनेक मनुष्य के शरीर में अन्तःपरजीवी के रूप में रहते हैं तथा रोग उत्पन्न करते हैं। कुछ उदाहरण निम्नलिखित है-

1. प्लाज्मोडियम लाल रुधिराणुओं एवं यकृत कोशिकाओं में अन्तःकोशिकीय द्विपोषदीय परजीवी है। द्वितीयक पोषद मादा ऐनोफेलीज च्छर है। यह मनुष्य में मलेरिया ज्वर उत्पन्न करता है।

2. एण्टअमीबा जिन्जिवैलिस - दाँतों की जड़ों, मसूढ़ों तथा गलसुओं की पस थैलियों का एकपोपदीय परजीवी है। पायरिया से सम्बन्धित है। संक्रमण सीधे सम्पर्क जैसे चुम्बन द्वारा होता है।

3. एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका- बड़ी आंत के अगले भाग (कोलॉन) का एकपोषदीय परजीवी है। ओमातिसार या अमीबीएसिस (amoebiasis) का जनक है। संक्रमण प्रावस्था मल में उपस्थित चार केन्द्रक वाले कोष्ठ होते हैं।

4. ट्राइकोमोनास टीनैक्स — दाँतों की जड़ों और रोगग्रस्त मसूड़ों में रहता है। सम्भवतः पायरियाजनक है। चुम्बन आदि के द्वारा फैलता है। एकपोषदीय परजीवी है। 

5. ट्राइकोमोनास होमिनिस—बड़ी आंत का एकपोषदाय परजीवी है। दस्त एवं आमातिसार से सम्बन्धित है। यह मल के द्वारा फैलता है।

ट्राइकोमोनास वैजाइनैलिस)-पुरुषों के मूत्रमार्ग तथा स्त्रियों की योनि का एकपोषदीय परजीवी है। सूजाक एवं श्वेत प्रदर (स्त्रियों में) उत्पन्न करता है। संभोग के द्वारा संक्रमण होता है। 

7. लोमैनिया : रुधिर एवं लमीका केशिकाओं की भित्तियों तथा यकृत, प्लीहा, अस्थिमज्जा आदि की कोशिकाओं और श्वेत रुधिराणुओं का अन्तःकोशिकीय द्विपोषदीय परजीवी है। द्वितीयक पोषद सैण्डफ्लाई  होती है। इसकी विभिन्न जातियाँ कालाजार एवं त्वचा रोगों की जनक है।

8. द्विपैनोसोमा–रुधिर, सेरीब्रो-स्पाइनल एवं अन्य शरीर द्रव्यों के बाह्य कोशिकीय तथा हद् पेशियों, केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र, जनदों आदि का अन्तःकोशिकीय परजीवी है। विभिन्न जातियाँ घातक निद्रा रोग तथा शैगास रोग उत्पन्न करती हैं। द्वितीयक पोषद सी-सी मक्खी (ise-ise fly). खटमल आदि है।

9. गिआर्डिया लैम्बलिया)- आँत के अगले भाग में, एकपोषदीय परजीवी है। घातक अतिसार (दस्त), सिरदर्द तथा पीलिया रोग उत्पन्न करता है। यह रोग मल में उपस्थित पुटिकाओं द्वारा फैलत है।

प्रश्न 7. मच्छर में प्लाज्मोडियम का लैंगिक जीवन चक्रको समझाए। 

उत्तर: संक्रमित मनुष्य का रुधिरपान करते समय लाल रुधिराणुओं के साथ प्लाज्मोडियम के युग्मकजनक तथा लाल रुधिराणु चक्र की अन्य अवस्थायें मादा ऐनोफेलीज की आहारनाल में पहुँच जाती हैं। युग्मकजनकों के अतिरिक्त अन्य सभी अवस्थाओं एवं लाल रुधिराणुओं का मच्छर की आहारनाल में पाचन हो जाता है। मच्छर के शरीर में प्लाज्मोडियम के जीवन चक्र में अग्रांकित तीन लैंगिक अवस्थायें होती हैं- 

(i) युग्मकजनन:  (क) मादा युग्मकजनन - प्रत्येक मैक्रोमेटोसाइट अर्द्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप एक अगुणित डिम्बाणु अथवा मादा युग्मक में बदल जाता है।

(ख)  युग्मकजनन - प्रत्येक माइक्रोमेटोसाइट अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा 48 सन्तति केन्द्रकों में विभक्त होकर कोशिका को परिधि पर व्यवस्थित हो जाते है। बाद में कोशिका से इसकी सतह से बाहर कुछ प्रवर्ध बन जाते हैं। ये कृमिरूप होते है तथा प्रत्येक में एक अणित केन्द्रक प्रवेश कर जाता है। प्रत्येक ऐसी संरचना तर युग्मक या लघु युग्मक कहलाती है।

(ii) निषेचन: मादा युग्मक की सतह पर निषेचन शंकु  के द्वारा हो र युग्मक मादा युग्मक में प्रवेश करता है। दोनों युग्मकों के केन्द्रकों एवं कोशिकाद्रव्य के समेकित हो जाने के फलस्वरूप निषेचन क्रिया पूर्ण जाती है। इससे एक द्विगुणित युग्मनज बनता है।

(ग) उत्तर-युग्मनज अवस्था : - कुछ समय पश्चात् युग्मनज का कोशिकाद्रव्य एक और कूटपाद जैसी रचना के रूप में बढ़ जाता है। धीरे-धीरे लगभग 9-10 घण्टे के समय में यह लम्बी एक कृमिरूप रचना में बदल जाता है, इसे चलयुग्मनज कहते हैं। इसमें केन्द्रक हीमोज्याएन, समन कोशिकाद्रव्य व अन्य कोशिकांग भी होते हैं जब भी इसका दूरस्थ हल्के रंग का छोर आमाशय की भित्ति के सम्पर्क में आता है, यह इसमें पेंसकर एक जेली के समान पदार्थ का लावण करता है। आमाशय की भित्ति के पेरीटोनियम स्तर के ठीक नीचे पहुँचने पर यह पुनः एक गोलाकार युग्मनज में बदल जाता है। परन्तु इस समय तक यह एक 8-10 व्यास की एक युग्मनज पुटी में बन्द हो चुका होता है।
(iii) बीजाणुजनन: युग्मनजपुटियाँ आमाशय को भित्ति से पोषण प्राप्त कर वृद्धि करती रहती हैं। एक-दो दिन पश्चात् प्रत्येक पुटी का युग्मनज अलैंगिक प्रकार से बहुविभाबहुविभाजन करता है। इसे अब स्पोरॉण्ट कहा जाता है। इसका केन्द्रक अनेक समसूत्री विभाजनों द्वारा लगभग 10,000 सन्तति केन्द्रकों में बंट जाता है। अनेक रिक्तिकाओं के बनने के कारण पुटी का आकार बढ़ता रहता है। सभी सन्तति केन्द्रक रिक्तिकाओं के किनारों पर व्यवस्थित हो जाते हैं तथा प्रत्येक केन्द्रक के चारों ओर थोड़ा-सा कोशिकाद्रव्य एकत्रित हो जाता है और 2-3 दिनों पश्चात् ये हँसियाकार स्पोरोज्वॉएट्स) में विकसित हो जाते हैं। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया बीजाणुजनन कहलाती है। पुटियाँ आमाशय की भित्ति के बाहर हीमोसील में फुन्सियों की भांति फूली रहती है और परिपक्व होने पर फट कर स्पोरोज्वॉएट्स को हीमोसील में बिखेर देती है। यहाँ से ये लार ग्रन्थियों में घुस जाते है।।

प्रश्न 8. खसरा के रोग कारक, लक्षण, बचाव व उपचार बताए। 

उत्तर: सामान्य रूप से बच्चों को होने वाला यह रोग एक विषाणुजनित रोग होता है। इस रोग विषाणु वायु में संक्रमित होते हैं। इस रोग के कारण अग्रलिखित है-

1. खसरा रोग से संक्रमित क्षेत्र में जाने से यह रोग लग जाता है।

2. अशुद्ध भोजन पानी ग्रहण करने से भी खसरा होता है।
3. बच्चों को दूध पिलाने वाली बोतल या बर्तन साफ न होने पर यह रोग हो जाता है।
4. खसरे का टीका न लगने पर इसकी सम्भावना अधिक होती है।

लक्षण-

(i) खसरे के विषाणु का संक्रमण तीव्र गति से होता है और कुछ ही समय में बच्चे को ठण्ड लगने लगती है।

(ii) इसी के साथ उसे ज्वर भी हो जाता है।

(ii) यह रोग श्वास मार्ग में संक्रमित होता है बतः रोगी को छींक आने लगती है और खांसी उठने लगती है।

(iv) शरीर पर बहुत छोटे लाल दाने निकल आते हैं जो कनपटी से आरम्भ होकर पूरे शरीर पर फै जाते है।

(v) रोगी को बेचैनी होने लगती है।
(vi) दाने निकलने के समय ज्वर अधिक हो जाता है।
(vii) चार या पांच दिन में दाने मुरझाने लगते हैं और ज्वर भी कम होने लगता है।

(viii) आठ से दस दिन की अवधि में दाने सूख जाते है और ज्वर समाप्त हो जाता है। बचने के उपाय व उपचार- सामान्यतः खसरा स्वयं ठीक हो जाने वाला रोग है। ज्वर कम करने वाली औषधि देना हानिकारक होता है।
खसरे से बचाव के निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं-

1. भोजन, पानी आदि की शुद्धता का पूरा ध्यान रखें।

2. बच्चे को खसरे का टीका लगवा दिया जाये तो इस रोग का भय नहीं रहता।

3. बच्चे को आरम्भ से ही उचित और पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए।

4. खसरे से ग्रस्त बच्चे को स्वच्छ वातावरण में पूर्ण देख-रेख में रखना चाहिये। उसे किसी भी तरह अधिक सर्दी या अधिक गर्मी नहीं लगने देनी चाहिये।

5. यद्यपि यह रोग स्वयं ही ठीक हो जाता है तथापि किसी अच्छे चिकित्सक से परामर्श लेना उचित रहता है।

प्रश्न 9. रेबीज रोग के लक्षण तथा बचने के उपाय बताइये।

उत्तर—रोगग्रस्त पागल कुत्ते के काटने से रेबीज नामक रोग उत्पन्न हो जाता है। इस रोग के रोगाणु जानवरों के मूक में रहते हैं। ये रोगाणु आर०एन०ए० विषाणु  होते हैं तथा जब ऐसा कुत्ता किसी स्वस्थ मनुष्य को काटता है तो ये रोगाणु स्वस्थ मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इससे मनुष्य का केन्द्रीय स्नायु मण्डल बिगड़ जाता है। विषाणु का नाम रहँन्डो वाइरस है। जब मनुष्य को पागल कुत्ता काट लेता है तो मनुष्य भी पागल कुत्ते की तरह भौकने तथा इधर-उधर घूमने लगता है।

रोग के लक्षण : 

1. स्वस्थ मनुष्य भी भौकने लगता है।
2. पानी से डरने लगता है।

3. दूसरे आदमियों पर झपटने लगता है।
उद्भवन काल - सामान्यतः पागल कुत्ते के काटने का प्रभाव 15 दिन तक रहता है। और इतने समय में रोग के लक्षण प्रदर्शित होने लगते हैं, किन्तु कभी-कभी 7-8 महीने तक भी इसका प्रभाव रहता है। सभी कुत्तों में इस रोग के विषाणु नहीं होते। यदि कुत्ता मनुष्य को काटने के बाद भी जीवित रहे तो काटने वाला कुत्ता पागल नहीं है। पागल कुत्ता काटने के बाद 8-10 दिन के अन्दर मर जाता है।

उपचार (therapy) —
पागल कुत्ते के काटने पर निम्नलिखित उपचार करने चाहिये-
1. कुत्ते द्वारा काटे गये स्थान / घाव को लाल दवा से धोना चाहिये।
2. घाव में कार्बोलिक अम्ल लगाना चाहिये।

3. यदि उस समय कोई दवा न मिले तो घाव पर लाल मिर्च लगानी चाहिये।
4. पोटेशियम परमैंगनेट का चूर्ण भी घाव में भर सकते हैं।

5. कुत्ते काटे के इन्जेक्शन भी लगवाने अनिवार्य हैं।

प्रश्न 10. टीके क प्रकारों की व्याख्या कीजिए। 

उत्तर: टीके या वैक्सीन के प्रकार – सामान्यतः ये निम्नांकित प्रकार के होते हैं-

1. साक वैक्सीन — जीवित प्रतिजन से निर्मित वैक्सीन इसमें जीवित जीवाणुओं या विषाणुओं को क्षीणीकृत  करके घोल तैयार किया जाता है, जो प्रतिजनयुक्त होता है। इस प्रकार का वैक्सीन अच्छा माना जाता है, क्योंकि इसकी थोड़ी-सी मात्रा शरीर में प्रविष्ट कराने से जीवाणु या विषाणु गुणन करके बहुत अधिक मात्रा में बढ़ जाते हैं। इसमें सूक्ष्म जीवों के अतिरिक्त उनका विष भी रहता है जिससे कि यह अधिक प्रभावशाली होते हैं तथा इनके प्रभाव से उत्पन्न प्रतिरोध क्षमता अधिक लम्बे समय तक शरीर में बनी रहती है। पोलियो (polio) का वैक्सीन इसी प्रकार बनाया गया था।

2. सैबिन वैक्सीन- इसमें सूक्ष्मजीवों को मृत करके उनका घोल इन्जेक्शन द्वारा शरीर प्रविष्ट कराया जाता है। इसका प्रमुख लाभ यह है कि रोगजनक सूक्ष्मजीव रोग का प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाता है। अतः टीकाकरण के बाद इसके दुष्प्रभाव बहुत कम दिखायी देते हैं। यह वैक्सीन जीवित प्रतिजन से निर्मित वैक्सीन की अपेक्षा कम प्रभावशाली है।

3. प्रतिजन के आविष से निर्मित वैक्सीन कुछ रोगजनक जीवाणु जो बहिः आविष उत्पन्न करते हैं, उन्हें प्रतिजन से अलग करके केवल यह आविष, आविपाभ के रूप में शरीर में प्रविष्ट कराकर प्रतिरक्षी एवं प्रतिआविष के निर्माण के लिए उत्प्रेरित किया जा सकता है। इस श्रेणी में टिटेनस  एवं टाइफॉइड के वैक्सीन आते हैं जो इन रोगों के बचाव हेतु बहुत सरल एवं सुरक्षित साधन होते हैं।

4. मिश्रित वैक्सीन कभी-कभी दो या अधिक विभिन्न प्रकार के रोगों के रोगजनक सूक्ष्मजीव अथवा प्रतिजन के मिश्रण से एक वैक्सीन तैयार किया जाता है। इसमें सभी वैक्सीन मिलाकर एक वैक्सीन का निर्माण किया जाता है जिससे कि इसमें सभी वैक्सीन के गुण आ जाते हैं और शीघ्र ही कई रोगों के प्रति प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न हो जाती है उदाहरण- डिफ्थीरिया कुकुर या काली खांसी-टिटेनस वैक्सीन (diphtheria-pertussis tetanus vaccine = DPT)!