बिहार बोर्ड कक्षा 12 भौतिक विज्ञान अध्याय 6: वैद्धुत चुम्बकीय प्रेरण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. विद्युत चुम्बकीय प्रेरण सम्बन्धी लेंज का नियम लिखो तथा समझाइए कि लेंज का नियम ऊर्जा संरक्षण के नियम की पालना करता है।
उत्तर: लेज का नियम : -
फैराडे के नियम से प्रेरित वि. वा. बल का परिमाण ज्ञात होता है। परन्तु प्रेरित वि. वा. बल या प्रेरित धारा की दिशा लेंज के नियम से ज्ञात की जाती है। | लेन्ज के नियमानुसार, “विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की प्रत्येक अवस्था में किसी परिपथ में प्रेरित वि. वा. बल एवं प्रेरित विद्युत धारा की दिशा सदैव इस प्रकार होती है कि वह उस कारण का विरोध करती है। जिसके कारण उसकी उत्पत्ति हुई है।”
अत: फैराडे व लेन्ज के नियम से
ε=−dBdt
एवं कुण्डली में N फेरे हो तो
ε=−NdBdt
अतः स्पष्ट है कि यदि परिपथ में चुम्बकीय फ्लक्स का मान बढ़ता है तो प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार होगी कि उससे उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा मूल क्षेत्र रेखाओं की दिशा के विपरीत होती है। इसी प्रकार यदि परिपथ में चुम्बकीय फ्लक्स का मान घटता है तो प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार होगी कि उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की। दिशा मूल क्षेत्र रेखाओं की दिशा में होती है।
लेज का नियम एवं ऊर्जा संरक्षण :-
लेन्ज का नियम ऊर्जा संरक्षण के नियम की अनुपालना करता है। हम यह कल्पना करें कि उत्तरी ध्रुव N को कुण्डली के पास लाने पर कुण्डली में प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार हो कि चुम्बक के सम्मुख कुण्डली का फ्लक्स उत्तरी ध्रुव N न बनकर दक्षिणी ध्रुव S बन जाए। ऐसी स्थिति में कुण्डली प्रतिकर्षित होने के स्थान पर आकर्षित होता है। तथा कुण्डली की ओर त्वरित होता है। चुम्बक की त्वरण बढ़ने के साथ-साथ कुण्डली में धारा भी बढ़ती है जिससे चुम्बक पर बल का मान बढ़ता है। इस कारण चुम्बक की गतिज ऊर्जा बढ़ती है। साथ ही कुण्डली में ऊष्मा की दर IPR भी बढ़ती है।
इस प्रकार हम प्रारम्भ में चुम्बक को कुण्डली की ओर हल्का-सा धक्का देने पर ही हम ऊर्जा में भारी वृद्धि कर सकते थे जो कि ऊर्जा संरक्षण के नियम के विरुद्ध है। अतः यह कल्पना सत्य नहीं है।
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के प्रयोगों में हमने पाया कि प्रत्येक स्थिति में चुम्बक को गतिशील करने के लिए प्रेरित चुम्बकीय बल के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है। यह यान्त्रिक कार्य विद्युत ऊर्जा के रूप में प्रकट होता है। इस प्रकार निकांय की कुल ऊर्जा सदैव संरक्षित रहती है। बाह्य स्रोत द्वारा किया गया कार्य परिपथ में जूल तापन में व्यय ऊर्जा के तुल्य होता है। इस प्रकार लेंज के नियम से ऊर्जा संरक्षण के नियम का अनुपालन होता है।
2. अन्योन्य प्रेरण गुणांक की परिभाषा दीजिए तथा इसका मात्रक और विमीय सूत्र लिखो।
उत्तर: अन्योन्य प्रेरण :-
“जब एक चक्र में धारा बदलने से उसके पास स्थित किसी दूसरे विद्युत चक्र में प्रेरण होता है तो इस घटना को अन्योन्य प्रेरण कहते हैं। जिस परिपथ में धारा बदलती है, उसे प्राथमिक परिपथ और जिसमें प्रेरण होता है, उसे द्वितीयक परिपथ कहते हैं।”
चित्र (9.27) में प्राथमिक परिपथ को P से एवं द्वितीयक परिपथ को S | से व्यक्त किया गया है। प्राथमिक परिपथ में एक कुण्डली, एक कुंजी K, बैटरी B एवं एक धारा नियन्त्रक जुड़े हैं, जबकि द्वितीयक परिपथ में एक कुण्डली के सिरों के मध्य एक धारामापी G जुड़ा है।प्राथमिक परिपथ में धारा प्रवाहित करने पर अग्रलिखित घटनाएँ। घटित होती हैं-
(i) जब प्राथमिक परिपथ में कुंजी को बन्द किया जाता है तो द्वितीयक परिपथ में धारामापी में क्षणिक विक्षेप उत्पन्न होता है।
(ii) जब तक प्राथमिक परिपथ में अचर धारा बहती है, धारामापी में कोई विक्षेप नहीं आता है।
(iii) यदि प्राथमिक धारा में परिवर्तन किया जाये तो द्वितीयक के धारामापी में उतने समय तक विक्षेप रहता है जब तक धारा के मान में परिवर्तन होता रहता है। धारा परिवर्तन की दर जितनी अधिक होती है, विक्षेप उतना ही अधिक होता है।
(iv) जब कुंजी खोलकर प्राथमिक धारा रोक दी जाती है तो द्वितीयक के धारामापी में पुनः क्षणिक विक्षेप उत्पन्न हो जाता है।
(v) प्राथमिक धारा को प्रारम्भ करते या बढ़ाते समय विक्षेप एक दिशा में और धारा को समाप्त करते या घटाते समय विक्षेप विपरीत दिशा में रहता है।
(vi) यदि दोनों कुण्डलियाँ नर्म लोहे के क्रोड पर लिपटी हों तो द्वितीयक के धारामापी में विक्षेप बहुत बढ़ जाता है।
उक्त प्रेक्षणों के निम्नलिखित कारण हैं-
प्राथमिक परिपथ में जब धारा प्रवाहित होती है तो उसके कारण जो चुम्बकीय फ्लक्स उत्पन्न होता है वह द्वितीयक परिपथ से होकर गुजरता है। प्राथमिक परिपथ में धारा बदलने से फ्लक्स में परिवर्तन होता है।
द्वितीयक कुण्डली से गुजरने वाले चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होने के | कारण उसमें विद्युत वाहक बल प्रेरित होता है। विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की इस घटना को अन्योन्य प्रेरण कहते हैं।
फैराडे के विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के नियमों के अनुसार प्रेरित विद्युत वाहक बल का मान फ्लक्स परिवर्तन की दर के अनुक्रमानुपाती होता है, अतः प्राथमिक धारा का परिवर्तन तीव्र गति से होने के कारण विद्युत वाहक बल अधिक उत्पन्न होता है। लेन्ज के नियम से प्रेरित विद्युत वाहक बल फ्लक्स परिवर्तन का विरोध करता है, अत: फ्लक्स परिवर्तन की दिशा बदल जाने से प्रेरित विद्युत वाहक बल की दिशा भी बदल जाती है | चित्र 9.27 (b)]। इसका अर्थ यह हुआ कि जब प्राथमिक परिपथ में धारा बढ़ती है तो द्वितीयक में विपरीत धारा बहती है और जब प्राथमिक परिपथ में धारा घटती है तो द्वितीयक में समान धारा बहती है। इस प्रयोग में यह उल्लेखनीय है कि प्राथमिक के कारण द्वितीयक में प्रेरण होता है और साथ ही साथ द्वितीयक के कारण प्राथमिक में भी प्रेरण होता है। इसीलिए इस घटना को अन्योन्य प्रेरण कहते हैं। जिस प्रकार प्राथमिक परिपथ में धारा बदलने से द्वितीयक परिपथ में प्रेरण होता है, उसी प्रकार द्वितीयक परिपथ में धारा | बदलने से प्राथमिक परिपथ में प्रेरण होता है।
3. स्वप्रेरण किसे कहते हैं ? प्रयोग द्वारा स्वप्रेरण की घटना समझाओं तथा परिनालिका में स्वप्रेरकत्व का मान ज्ञात करो।
उत्तर: स्वप्रेरण या आत्म-प्रेरण :-
स्वप्रेरण की घटना की खोज अमेरिकी वैज्ञानिक ‘जोसेफ हेनरी’ ने सन् 1832 में की थी। “किसी चक्र में धारा परिवर्तन के कारण उसी चक्र में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न होने की घटना स्वप्रेरण कहलाती है।” किसी चक्र के इस गुण की तुलना जड़त्व से की जा सकती है। जब किसी कुण्डली युक्त चक्र में धारा बढ़ने पर कुण्डली के चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता बढ़ती है, अत: कुण्डली से गुजरने वाली क्षेत्र रेखाओं की संख्या में वृद्धि होती है। ऐसा होने पर कुण्डली में एक प्रतिकूल विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है जो प्रधान धारा का विरोध करता है। इसलिए प्रधान धारा अपने उच्चतम मान को ग्रहण करने के लिये कुछ समय लेती है (यद्यपि यह नगण्य होता है)। जैसे ही प्रधान धारा अधिकतम मान को प्राप्त कर लेती है, फ्लक्स परिवर्तन समाप्त हो जाता है जिससे प्रेरित विद्युत वाहक बल शून्य हो जाता है। इसी प्रकार परिपथ तोड़ते समय चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की संख्या घटती है अतः समान दिशा में प्रेरित धारा उत्पन्न हो जाती है जो प्रधान धारा को एकदम शून्य नहीं होने देती है।
चित्र 9.24 में उक्त दोनों स्थितियाँ प्रदर्शित की गई हैं। स्पष्ट है कि स्वप्रेरण के कारण ही किसी कुण्डली में धारा न तो एकदम अधिकतम से पाती है ओर न ही एकदम शून्य हो पाती है। जिस स्थान पर परिपथ टूटता है, उस स्थान पर दोनों बिन्दुओं के मध्य यह प्रेरित धारा विभवान्तर उत्पन्न कर देती है जो इतना अधिक हो सकता है कि दोनों बिन्दुओं के मध्य विद्युत प्रवाह को हवा का पृथक्कारी गुण न रोक सके और धारा वास्तव में प्रवाहित हो जाये। इस धारा प्रवाह से उत्पन्न ऊष्मा चिनगारी के रूप में देखी जा सकती है। इस प्रकार स्वप्रेरण के कारण मुख्य धारा की वृद्धि और पतन दोनों का समय बढ़ जाता है, लेकिन समय की यह वृद्धि परिपथ
को तोड़ने की अपेक्षा जोड़ने के समय अधिक होती है क्योंकि तोड़ने की स्थिति में प्रेरित धारा को विद्युत चक्र पूर्ण नहीं मिलता है।
प्रायोगिक प्रदर्शन – स्वप्रेरण की घटना का प्रदर्शन चित्र 9.25 में दिखाये गये परिपथ की सहायता से किया जा सकता है। कुंजी दबाने पर बल्ब जलना कोई विशेष बात नहीं है, लेकिन कुंजी को खोलने पर बल्ब एकदम चमकना बन्द न करके कुछ देर तक चमकता रहता है अर्थात् धीरे से बन्द होता है; यह विशेष बात है। उक्त व्यवहार स्वप्रेरण के कारण होता है। कुंजी को खोलते समय स्वप्रेरण के कारण समान दिशा में धारा उत्पन्न हो जाती है जो प्रधान धारा के घटने का विरोध करती है और वह यकायक शून्य नहीं हो पाती है। इसीलिए कुंजी खोलने के बाद भी बल्ब कुछ समय के लिए चमकता रहता है।
4. भँवर धाराएँ किसे कहते हैं ? इनके कोई दो उपयोग लिखो तथा ट्रांसफार्मर में अवांछनीय भंवर धाराओं को कम करने हेतु क्या किया जाता हैं ?
उत्तर: भँवर धराएँ :-
जब किसी बन्द परिपथ से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है तो परिपथ में एक विद्युत वाहक बल उत्पन्न होता है जिससे परिपथ में प्रेरित धारा बहने लगती है। सन् 1895 में वैज्ञानिक फोको ने यह ज्ञात किया कि प्रेरण की घटना तब भी घटित होती है जब किसी भी आकृति के चालक से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है। उन्होंने देखा कि जब किसी भी आकृति अथवा आकार के चालक को किसी चुम्बकीय क्षेत्र में चलाया जाता है। अथवा उसे परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र में रखा जाता है तो चालक से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होने से चालक के सम्पूर्ण आयतन में प्रेरित धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो चालक की गति का विरोध करती हैं। ये प्रेरित धाराएँ जल में उत्पन्न भँवर के समान चक्करदार होती हैं, अत: इन्हें भँवर धाराएँ’ कहते हैं। आविष्कारक के नाम पर इन्हें ‘फोको धाराएँ’ भी कहते हैं।
भँवर धाराओं का प्रदर्शन।
इस प्रकार, “जब किसी चालक से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन किया जाता है तो उस चालक में चक्करदार प्रेरित धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिन्हें भँवर धाराएँ कहते हैं।”
भँवर धाराओं को मान चालक के प्रतिरोध पर निर्भर करता है। यदि चालक का प्रतिरोध अधिक है तो भंवर धाराओं का मान कम होता है। इसके विपरीत यदि चालक का प्रतिरोध कम है तो भंवर धाराओं का मान अधिक होता है। इन धाराओं की प्रबलता इतनी अधिक हो सकती है कि चालक गर्म होकर रक्त-तप्त हो सकता है।
भँवर धाराओं से हानि और उन्हें कम करने के उपाय-अनेक विद्युत उपकरणों, जैसे-ट्रान्सफॉर्मर, डायनमो, प्रेरण कुण्डली आदि में नर्म लोहे की क्रोड का प्रयोग होता है। इन उपकरणों में प्रत्यावर्ती धारा बहने से क्रोड से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है और उसमें भंवर धाराएँ उत्पन्न होने से क्रोड गर्म हो जाती है। इस प्रकार विद्युत ऊर्जा ऊष्मीय ऊर्जा के रूप में क्षय होने लगती है जो कि अवांछनीय है। भंवर धाराओं के प्रभाव को कम करने के लिए क्रोड को अकेले टुकड़े के रूप में न लेकर पटलित रूप में लेते हैं और पट्टियाँ पृथक्कृत वार्निश द्वारा विद्युततः पृथक्कृत कर दी जाती हैं। इन पत्तियों को चुम्बकीय क्षेत्र के अनुदिश रखते हैं जिससे मैंवर धाराएँ पत्ती की मोटाई (जो कि बहुत कम होती है) में उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार पटलित लौह क्रोड द्वारा भँवर धाराओं का दुष्प्रभाव कम हो जाता है।
यदि ताँबे की पट्टिका में चित्रानुसार आयताकार खाँचे बनाये जाते हैं तो भंवर धाराओं के प्रवाह के लिए क्षेत्रफल कम हो जाता है। इस प्रकार लोलक पट्टिका में छिद्र अथवा खाँचे विद्युत चुम्बकीय अवमंदन को कम कर देते हैं तथा पट्टिका अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक दोलन करती है।
भँवर धाराओं के उपयोग :-
एक ओर भंवर धाराएँ अवांछनीय हैं जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है। दूसरा पहलू इनकी उपयोगिता का भी है। ये निम्न रूपों में उपयोगी हैं-
(i) प्रेरण भट्टी में इनका उपयोग होता है। इसमें धातु को प्रबल परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र में रख दिया जाता है जिससे धातु में प्रबल भँवर धाराएँ उत्पन्न होकर इतनी ऊष्मा उत्पन्न करती हैं कि धातु पिघल जाती है।
(ii) धारामापी को रुद्ध दोलन बनाने में इनका उपयोग होता है। धारामापी की कुण्डली ताँबे के विद्युतरोधी तार को ऐलुमिनियम के फ्रेम पर लपेटकर बनाई जाती है। जब कुण्डली विक्षेपित होती है तो फ्रेम में भंवर धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो कुण्डली की गति का विरोध करती हैं। अतः कुण्डली विक्षेपित होकर शीघ्र ही उपयुक्त स्थिति में रुक जाती है। यह घटना विद्युत-चुम्बकीय अवमन्दन कहलाती है।
(iii) विद्युत ट्रेनों को रोकने के लिए भँवर धाराओं का उपयोग विद्युत ब्रेक के रूप में किया जाता है। पहिए की धुरी के साथ-साथ धातु का ड्रम लगा होता है जो पहिए के साथ-साथ घूमता है। जब ट्रेन को रोकना होता है तो डूम के पास प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न कर दिया जाता है जिससे ड्रम में भँवर धाराएँ प्रेरित हो जाती हैं, जो ड्रम की गति का विरोध करती हैं और ट्रेन रुक जाती है।
(iv) वाहनों के गतिमापी भंवर धाराओं के सिद्धान्त पर ही कार्य करते हैं। मोटर गाड़ियों में एक चुम्बक गेयर द्वारा पहिए की धुरी से जुड़ा होता है। यह चुम्बक धातु के ड्रम से घिरा होता है। पहिए के साथ-साथ डुम भी घूमता है जिससे डुम में भंवर धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो घूमते हुए पहिए और डूम के बीच आपेक्षिक गति का विरोध करती हैं, अतः डुम भी घूमने लगता है। डूम का घुमाव गाड़ी की चाल के अनुक्रमानुपाती होता है, अतः डुम में संकेतक लगाकर एक पैमाने द्वारा गाड़ी की चाल मापी जा सकती है।
5.फैराडे के विद्युत चुंबकीय प्रेरण के नियम लिखिये |
उत्तर :- फैराडे के विद्युत चुंबकीय प्रेरण के नियम:-
प्रायोगिक प्रेक्षणों के आधार पर वैज्ञानिक माइकल फैराडे ने दो नियमों का प्रतिपादन किया, जिन्हें फैराडे के विद्युत चुंबकीय प्रेरण के नियम कहते हैं।
1. फैराडे का प्रथम नियम:-
किसी विद्युत परिपथ में विद्युत वाहक बल तब प्रेरित होता है। जब परिपथ द्वारा परिबद्ध चुंबकीय फ्लक्स में समय के साथ परिवर्तन होता है तब प्रेरित विद्युत वाहक बल का परिमाण, चुंबकीय फ्लक्स में परिवर्तन की ऋणात्मक दर के बराबर होता है। फैराडे के प्रथम नियम को न्यूमैन का नियम भी कहते हैं।
माना ∆t समयांतराल में किसी परिपथ द्वारा परिबद्ध चुंबकीय फ्लक्स में ∆Φ का परिवर्तन होता है। तब परिपथ में प्रेरित विद्युत वाहक बल ε है तो
= -t
अतः इस प्रकार स्पष्ट होता है कि चुंबकीय फ्लक्स का मात्रक वेबर तथा विद्युत वाहक बल का मात्रक वोल्ट परस्पर इस प्रकार संबंधित हैं।
1 वोल्ट = 1 वेबर/सेकेंड
यदि परिपथ एक कुंडली है। एवं जिसमें तार के N फेरे हैं। तब प्रेरित विद्युत वाहक बल
ε = - Nt
= -Nt
जहां NΦ को कुंडली में चुंबकीय फ्लक्स ग्रंथिकाओं की संख्या कहा जाता है। एवं इसका मात्रक वेबर-टर्न होता है।
सूत्र द्वारा स्पष्ट होता है कि बंद कुंडली में फेरों की संख्या को बढ़ाकर प्रेरित विद्युत वाहक बल को बढ़ाया जा सकता है।
2. फैराडे का द्वितीय नियम :-
किसी परिपथ में प्रेरित विद्युत वाहक बल अथवा प्रेरित धारा की दिशा सदैव इस प्रकार होती है कि यह उस कारक का विरोध करती है। जिसके कारण यह स्वयं उत्पन्न होती है। फैराडे के द्वितीय नियम को लेंज का नियम भी कहते हैं। लेंज का नियम ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत का पालन करता है।
6.फैराडे के विद्युत चुंबकीय प्रेरण का प्रथम नियम लिखिये | एक वर्गाकार पाश को पूर्व-पश्चिम तल में ऊर्ध्वाधर रखा गया है। जिसकी एक भुजा 10 सेमी लंबी है। तथा इसका प्रतिरोध 0.5 ओम है। 0.10 टेस्ला के एकसमान चुंबकीय क्षेत्र को उत्तर-पूर्व दिशा में तल के आर पार स्थापित किया गया है। चुंबकीय क्षेत्र को एकसमान दर से 0.70 सेकंड से शून्य तक लाया जाता है। तब इस समय अंतराल में प्रेरित विद्युत वाहक बल तथा धारा का मान ज्ञात कीजिए?
1. फैराडे का प्रथम नियम:-
किसी विद्युत परिपथ में विद्युत वाहक बल तब प्रेरित होता है। जब परिपथ द्वारा परिबद्ध चुंबकीय फ्लक्स में समय के साथ परिवर्तन होता है तब प्रेरित विद्युत वाहक बल का परिमाण, चुंबकीय फ्लक्स में परिवर्तन की ऋणात्मक दर के बराबर होता है। फैराडे के प्रथम नियम को न्यूमैन का नियम भी कहते हैं।
माना ∆t समयांतराल में किसी परिपथ द्वारा परिबद्ध चुंबकीय फ्लक्स में ∆Φ का परिवर्तन होता है। तब परिपथ में प्रेरित विद्युत वाहक बल ε है तो
= -t
अतः इस प्रकार स्पष्ट होता है कि चुंबकीय फ्लक्स का मात्रक वेबर तथा विद्युत वाहक बल का मात्रक वोल्ट परस्पर इस प्रकार संबंधित हैं।
1 वोल्ट = 1 वेबर/सेकेंड
यदि परिपथ एक कुंडली है। एवं जिसमें तार के N फेरे हैं। तब प्रेरित विद्युत वाहक बल
ε = - Nt
= -Nt
जहां NΦ को कुंडली में चुंबकीय फ्लक्स ग्रंथिकाओं की संख्या कहा जाता है। एवं इसका मात्रक वेबर-टर्न होता है।
सूत्र द्वारा स्पष्ट होता है कि बंद कुंडली में फेरों की संख्या को बढ़ाकर प्रेरित विद्युत वाहक बल को बढ़ाया जा सकता है।
हल – दिया है चुंबकीय क्षेत्र B = 0.1 टेस्ला
प्रतिरोध = 0.5 ओम
समय = 0.70 सेकंड
कुंडली का क्षेत्रफल सदिश, चुंबकीय क्षेत्र के साथ 45° का कोण बनाता है। तब प्रारंभिक चुंबकीय फ्लक्स
Φ = BA cosθ
मान रखने पर
Φ = 0.110-22
Φ = 10-32
अंतिम चुंबकीय फ्लक्स शून्य होगा।
प्रेरित विद्युत वाहक बल ε = t मान रखने पर
ε = 10-32 0.7
हल करने पर
प्रेरित विद्युत वाहक बल ε = 103 वोल्ट = 1.0 मिलीवोल्ट
धारा i = R
i = 10-30.5
अतः धारा i = 2 × 103 एम्पीयर = 2 मिलीएम्पीयर
7. चुंबकीय फ्लक्स क्या है, सूत्र, मात्रक, विमीय सूत्र किसे कहते हैं ?धनात्मक तथा ऋणात्मक चुंबकीय फ्लक्स किसे कहते है ?
उत्तर :- चुंबकीय फ्लक्स: -
यदि किसी एकसमान चुंबकीय क्षेत्र के लम्बवत् कोई तल लेते हैं तो चुंबकीय क्षेत्र B तथा तल के क्षेत्रफल A के स्केलर गुणनफल को चुंबकीय फ्लक्स कहते हैं। चुंबकीय फ्लक्स को Bसे प्रदर्शित करते हैं। तो
B = BA
चुंबकीय फ्लक्स एक अदिश राशि है। यहां B तथा A के बीच कोण शून्य है।
यदि चुंबकीय क्षेत्र पृष्ठ खींचे गए लंब से θ कोण बनाता है तो चुंबकीय फ्लक्स
B=BAcosθ
चुंबकीय फ्लक्स का मात्रक :-
चुंबकीय फ्लक्स का si मात्रक वेबर होता है। जिसे Wb से प्रदर्शित करते हैं। तथा CGS पद्धति में चुंबकीय फ्लक्स का मात्रक मैक्सवेल होता है।
तथा चुंबकीय फ्लक्स का MKS पद्धति में मात्रक
सूत्र B = BA से
जहां B चुंबकीय क्षेत्र तथा A क्षेत्रफल है।
Bका मात्रक = B का मात्रक × A का मात्रक
B का मात्रक = न्यूटन/एम्पीयर-मीटर × मीटर2
B का मात्रक = न्यूटन-मीटर/एम्पीयर
अतः चुंबकीय फ्लक्स का MKS पद्धति में मात्रक न्यूटन-मीटर/एम्पीयर होता है।
चुंबकीय फ्लक्स का विमीय सूत्र :-
सूत्र B = BA से
चुंबकीय फ्लक्स का मात्रक न्यूटन-मीटर/एम्पीयर होता है।
तो B= न्यूटन-मीटर/एम्पीयर
चूंकि F = ma से
B = द्रव्यमान × त्वरण × मीटर/एम्पीयर
त्वरण = मीटर/सेकंड2
B = द्रव्यमान × मीटर/सेकंड2 × मीटर/एम्पीयर
B= द्रव्यमान × मीटर2/एम्पीयर
यदि द्रव्यमान का विमीय सूत्र M, मीटर का L तथा एंपियर का A होता है।
अतः चुंबकीय फ्लक्स का विमीय सूत्र [ML2T-2A-1] है।
धनात्मक तथा ऋणात्मक चुंबकीय फ्लक्स: -
यदि पृष्ठ पर बाहर की ओर खींचे गए लंब की दिशा एवं चुंबकीय क्षेत्र B
की दिशा समान है। तब उत्पन्न चुंबकीय फ्लक्स को धनात्मक चुंबकीय फ्लक्स कहते हैं।
जबकि इसके विपरीत पृष्ठ पर बाहर की ओर खींचे गए लंब की दिशा एवं चुंबकीय क्षेत्र B
की दिशा एक दूसरे के विपरीत है। तब उत्पन्न चुंबकीय फ्लक्स को ऋणात्मक चुंबकीय फ्लक्स कहते हैं।
8.गतिक विद्युत वाहक बल क्या है ? समझाइए |
उत्तर :- गतिक विद्युत वाहक बल :-
माना PQ एक चालक छड़ है जिसकी ℓ लंबाई है। यह चालक छड़ एकसमान चुंबकीय क्षेत्र B में एक U आकार के स्थिर चालक ABCD की भुजाओं पर v वेग से दायीं ओर चल रही है। जैसा चित्र में दर्शाया गया है। चालक छड़ की गति के कारण छड़ में उपस्थित मुक्त इलेक्ट्रॉनों पर एक चुंबकीय (या लॉरेंज) बल F कार्य करता है। जिस कारण छड़ के इलेक्ट्रॉन P सिरे से Q सिरे की ओर जाने लगते हैं। तब चालक छड़ पर आरोपित बल
F = iBℓ
इस बल की दिशा बायीं होगी। चूंकि यह बल मुक्त इलेक्ट्रॉनों को छड़ के K सिरे की ओर ले जाता है इसलिए छड़ के सिरों पर विभवांतर V आरोपित हो जाता है। अतः चालक छड़ को V वेग से दाएं ओर को चलाने के लिए F बल के बराबर एवं विपरीत दिशा में F’ बल लगाना होगा
अर्थात्
F’ = F = -iBℓ
माना चालक छड़ ∆t समय अंतराल में ∆x दूरी तय करती है। तो चालक छड़ पर किया गया कार्य
W = बल × विस्थापन
W = F’ × ∆x
W = -iBℓ × ∆x
चूंकि ∆x = V × ∆t होता है तो कार्य
W = -iBℓ × V × ∆t
या W = -BVℓ × (i∆t)
चूंकि आवेश q = धारा × समय अंतराल
तो W = -BVℓ × q
यह तो हम जानते ही हैं कि किसी सेल द्वारा किसी विद्युत परिपथ में एकांक आवेश को प्रवाहित करने पर जो कार्य किया जाता है वह सेल का विद्युत वाहक बल होता है। तब चालक छड़ में प्रेरित विद्युत वाहक बल
ε = Wq
W का मान उपरोक्त समीकरण से रखने पर
ε = −BVℓ×qq
ε = -BVℓ ……………….(1)
प्रेरित विद्युत वाहक बल BVℓ को गतिक विद्युत वाहक बल कहते हैं।
∆t समय अंतराल में परिपथ से गुजरने वाला चुंबकीय फ्लक्स ∆Φ में परिवर्तन
∆Φ = चुंबकीय क्षेत्र × क्षेत्रफल परिवर्तन
∆Φ = B × ℓ∆x
चुंबकीय फ्लक्स में परिवर्तन की दर
t = Bℓ × xt
(यहां दोनों ओर∆t से भाग की गई है)
चूंकि
xt = V होता है तो
t = BℓV …………………….(2)
अतः समी.(1) व समी.(2) की आपस में तुलना करने पर
BℓV = -BℓV
या
t = -ε
या
ε = - t
यही फैराडे का विद्युत चुंबकीय प्रेरण का नियम है।
अतः इस प्रकार लॉरेंज बल के आधार पर विद्युत चुंबकीय प्रेरण की व्याख्या की जाती है।
9.प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो क्या है ?कार्यविधि लिखिये |
उत्तर :- प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो:-
एक ऐसी युक्ति है जो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करती है। उसे प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो कहते हैं। इसका कार्य सिद्धांत फैराडे के विद्युत चुंबकीय प्रेरण के नियम के अनुसार होता है।
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का सिद्धांत :-
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र में मूलतः तार का एक पाश (लूप) होता है। जो चुंबकीय क्षेत्र में घूर्णन करता है। जब इस पाश को चुंबकीय क्षेत्र में तेजी से घुमाया जाता है। तो पाश में से होकर गुजरने वाली चुंबकीय फ्लक्स रेखाओं की संख्या में परिवर्तन होता रहता है। जिसके फलस्वरूप पाश में एक विद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। अतः पाश को घुमाने में किया गया कार्य अथवा व्यय यांत्रिक ऊर्जा, पाश में विद्युत ऊर्जा के रूप में प्राप्त होती है। यह प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का सिद्धांत है।
रचना :-
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो के चार मुख्य भाग होते हैं।
1. आर्मेचर
2. क्षेत्र चुंबक
3. सर्पी वलय
4. ब्रुश
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो
1. आर्मेचर
यह एक आयताकार कुंडली abcd होती है। जिसमें तांबे के तार के अनेकों फेरे होते हैं। इसे आर्मेचर कुंडली कहते हैं। यह चुंबक के दोनों ध्रुवों के बीच में रखी होती है। इस कुंडली को बाह्य शक्ति द्वारा तेजी से कमाया जाता है।
2. क्षेत्र चुंबक
इसमें एक शक्तिशाली चुंबक होती है। जिसे चित्र में N-S द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इसका कार्य शाक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करना होता है। आर्मेचर कुंडली भी इन्हीं दोनों चुंबकों के बीच में घूमती है।
3. सर्पी वलय
कुंडली पर लिपटे तांबे के तार के दोनों सिरे धातुओं के दो छल्लो से जुड़े रहते हैं। जिन्हें सर्पी वलय कहा जाता है। इन्हें चित्र में R1 व R2 द्वारा निरूपित किया गया है। यह आर्मेचर कुंडली के साथ-साथ उसी अक्ष पर घूमते रहते हैं।
4. ब्रुश
सर्पी वलय सदैव तांबे की बनी दो पत्तियों को स्पर्श करते रहते हैं। इन पत्तियों को ब्रुश कहते हैं। इन्हें चित्र में B1 व B1 द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इनका संबंध उस परिपथ से किया जाता है। जहां विद्युत धारा भेजनी होती है।
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र की कार्यविधि :-
जब आर्मेचर कुंडली abcd को दक्षिणावर्त दिशा में घुमाया जाता है। अर्थात किसी क्षण कुंडली की भुजा ab ऊपर की ओर जाती है। तथा इसके विपरीत कुंडली की भुजा cd नीचे की ओर जाती है। तो कुंडली में से होकर गुजरने वाली चुंबकीय फ्लक्स रेखाओं में परिवर्तन होता रहता है। जिससे कुंडली में एक धारा प्रेरित हो जाती है। इस प्रेरित धारा की दिशा फ्लेमिंग के दाएं हाथ के नियम के अनुसार होगी। अतः बाह्य परिपथ में विद्युत धारा उत्पन्न होने लगती है जो ब्रुश B2 से B1 की ओर वापस जाती है। क्योंकि प्रत्येक आधे चक्कर के बाद बाह्य परिपथ में धारा की दिशा बदल रही है। इसलिए इसे प्रत्यावर्ती धारा कहते हैं
10. प्रत्यावर्ती धारा और दिष्ट धारा किसे कहते है ? इनके बीच अन्तर बताइए |
उत्तर :-
प्रत्यावर्ती धारा : -
प्रत्यावर्ती धारा को ~ इस चिन्ह द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इसके द्वारा ही स्पष्ट होता है कि यह कभी अधिकतम मान प्राप्त करती है तो कभी न्यूनतम मान प्राप्त करती है। भारत के घरों में 50 हर्ट्स आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा प्रयोग की जाती है।
50 हर्ट्स का मतलब होता है कि यह धारा हर एक सेकंड में 50 बार जलती है तथा 50 बार बंद होती है। परंतु यह समय बहुत ही कम है इसलिए हमारी आंखें इसे देख नहीं पाती हैं।
दिष्ट धारा :-
दिष्ट धारा एक सीधी सरल रेखा — में चलती है। जिस कारण इसकी आवृत्ति शून्य होती है। अर्थात यह लगतार जलती ही रहती है।
प्रत्यावर्ती धारा और दिष्ट धारा के बीच अंतर :-
प्रत्यावर्ती धारा और दिष्ट धारा के बीच अंतर निम्न प्रकार से हैं।
1. प्रत्यावर्ती धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाना ट्रांसफार्मर की सहायता से बहुत ही आसान हो जाता है। प्रत्यावर्ती धारा को किसी भी बिजली घर से तारों के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से तथा कम खर्च में पहुंचाया जा सकता है। एवं इस प्रकम में ऊर्जा की हानि भी बहुत ही कम या न के बराबर होती है। जबकि इसके विपरीत दिष्ट धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाना बहुत ही मुश्किल है। साथ ही इसमें खर्चा भी ac की तुलना में अधिक होगा और ऊर्जा की हानि भी होगी।
2. प्रत्यावर्ती धारा के माध्यम से चलने वाले यंत्र, दिष्ट धारामाध्यम से चलने वाले यंत्रों से अधिक सुदृढ़ व सुविधाजनक होते हैं।
4. प्रत्यावर्ती धारा के तार को कोई मनुष्य छु लेता है। तो उसे बहुत अधिक तेजी से झटका लगता है। जबकि दिष्ट धारा में ऐसा नहीं होता है। इसके तार को छूने पर प्रत्यावर्ती धारा की तुलना कम तेजी से झटका लगता है। इसी कारण प्रत्यावर्ती धारा, दिष्ट धारा की तुलना में अधिक खतरनाक होती है।
5. प्रत्यावर्ती धारा का अधिकतम भाग तारों के बाहरी सिरों पर ही प्रवाहित होता है। जिस कारण प्रत्यावर्ती धारा के तारों को मोटा नहीं बनाया जाता है। बल्कि इसे पतले पतले तारों को मिलाकर एक मोटे तार में परिवर्तित कर दिया जाता है। इस प्रकार के तारों में प्रत्यावर्ती धारा का प्रवाह बहुत अच्छी तरह होता है। परंतु दिष्ट धारा में ऐसा कुछ नहीं होता है। यह किसी भी प्रकार के तार में आसानी से प्रवाहित हो जाती है।
11. पूर्व से पश्चिम दिशा में विस्तृत एक 10 m लम्बा क्षैतिज सीधा तार 0.30 x 10-4 Wbm-2 तीव्रता वाले पृथ्वी के चुम्बकीय-क्षेत्र के क्षैतिज घटक के लम्बवत 5.0 m s-1की चाल से गिर रहा है।
(a) तार में प्रेरित विद्युत वाहक बल का तात्क्षणिक मान क्या होगा?
(b) विद्युत वाहक बल की दिशा क्या है?
(c) तार का कौन-सा सिरा उच्च विद्युत विभव पर है?
हल-
(a) तार की लम्बाई l = 10 मीटर
B = H = 0.30 x 10-4 Wbm-2
तार का वेग v = 50 मी/सेकण्ड
अतः तार के सिरों के बीच प्रेरित विभवान्तर e = Bvl sin 90°
= Bvl
= 0.30 x 10-4 x 5.0 x 10
= 0.0015 वोल्ट
= 1.5 मिलीवोल्ट
(b) फ्लेमिंग के दायें हाथ के नियम के अनुसार, तार में प्रेरित धारा की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर होगी। अतः प्रेरित वैद्युत वाहक बल की दिशा पश्चिम से पूर्व की ओर होगी।
(c) चूँकि तार में प्रेरित धारा की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर है, अत: तार में इलेक्ट्रॉन इसके विपरीत पश्चिम से पूर्व की ओर गति करेंगे। चूँकि इलेक्ट्रॉन निम्न विभव से उच्च विभव की ओर गति करते हैं, अत: तार का पूर्वी सिरा उच्च विभव पर होगा। [विशेष-यदि तार उत्तर-दक्षिण दिशा में रहते हुए गिरता, तब इसकी लम्बाई पृथ्वी के क्षेत्र के क्षैतिज घटक के समान्तर होती। अतः कोई वैद्युत वाहक बल प्रेरित नहीं होता।
12 . अन्योन्य प्रेरण किसे कहते है ? पास-पास रखे कुंडलियों के एक युग्म का अन्योन्य प्रेरकत्व 1.5 H है। यदि एक कुंडली । में 0.5 s में धारा 0 से 20 A परिवर्तित हो तो दूसरी कुंडली की फ्लक्स बंधता में कितना परिवर्तन होगा?
उत्तर :- अन्योन्य प्रेरण :-
“जब एक चक्र में धारा बदलने से उसके पास स्थित किसी दूसरे विद्युत चक्र में प्रेरण होता है तो इस घटना को अन्योन्य प्रेरण कहते हैं। जिस परिपथ में धारा बदलती है, उसे प्राथमिक परिपथ और जिसमें प्रेरण होता है, उसे द्वितीयक परिपथ कहते हैं।”
हल-
यहाँ M = 1.5 हेनरी
∆t = 0.5 सेकण्ड,
∆I = I2 – I1 = (20 – 0) = 20 A
1 = MI
∆2 = M∆I1
अतः द्वितीयक कुण्डली की फ्लक्स बद्धता में परिवर्तन
∆2 = 1.5 हेनरी x 20 ऐम्पियर
∆2 = 30 वेबर
यहाँ धारा बढ़ रही है, अत: फ्लक्स बद्धता में परिवर्तन धारा वृद्धि का विरोध करेगा।
13. स्वप्रेरण गुणांक की परिभाषा दीजिए।
एक प्रेरक में प्रवाहित धारा i = 2 + 5t द्वारा व्यक्त की जाती है, जहाँ i ऐम्पियर तथा t सेकण्ड में है। इसमें स्वप्रेरित विद्युत वाहक बल 10 मिलीवोल्ट है। ज्ञात कीजिए।
(i) स्वप्रेरण गुणांक तथा
(ii) t = 2 सेकण्ड पर प्रेरक में संचित ऊर्जा
उत्तर- NΦ = Li तथा यदि i = 1 तो L = NΦ, अत: किसी कुण्डली का स्वप्रेरण गुणांक कुण्डली में चुम्बकीय फ्लक्स ग्रन्थिताओं के बराबर होता है, जबकि कुण्डली में एकांक धारा प्रवाहित हो रही है। संख्यात्मक रूप से प्रेरित विद्युत वाहक बल का परिमाण
e = L it
अथवा
L = eit
यदि it =1 एम्पियर सेकण्ड तो
L = e
अत: “किसी कुण्डली का स्वप्रेरण गुणांक संख्यात्मक रूप से उस प्रेरित वि० वा० बल के बराबर होता है जो कुण्डली में धारा-परिवर्तन की दर एकांक अर्थात् एक ऐम्पियर प्रति सेकण्ड होने पर उत्पन्न होता है।” इसका मात्रक हेनरी होता है।
हल-
[स्वप्रेरण गुणांक की परिभाषा के लिए लघु उत्तरीय प्रश्न 7 का उत्तर देखें।]
दिया है,
e = 10 मिलीवोल्ट = 10 x 10-3 वोल्ट
i=2+5t
it = ddt2+5t = 5एम्पियर सेकण्ड
(i) L = eit = 1010-35 =2x 10-3 हेनरी
= 2 मिलीहेनरी
(ii) t=2 सेकण्ड पर प्रेरक में प्रवाहित धारा i = 2 + 5t
i = 2+52 = 2 एम्पियर
प्रेरक में संचित ऊर्जा = 12Li2
= 122x 10-3122
= 1.44x 10-3
= 0.144
14. लेन्ज़ का नियम लिखिए | दैनिक जीवन में इसका अनुप्रयोग बताइए |
उत्तर-
लेन्ज़ का नियम: -
विद्युत चुंबकत्व में, कथन है कि एक प्रेरित धारा एक दिशा के दौरान प्रवाहित होती है जैसे कि वर्तमान उस परिवर्तन का विरोध करता है जो इसे प्रेरित करता है।
लेन्ज़ का नियम विद्युत चुम्बकीय ब्रेक और इंडक्शन कुकटॉप्स में कार्यरत है। यह इलेक्ट्रिक जनरेटर, एसी जनरेटर पर भी लागू होता है। एड़ी करंट बैलेंस। मेटल डिटेक्टर्स।
लेन्ज़ के नियम के अनुप्रयोगों में शामिल हैं:_
लेन्ज़ का नियम विद्युत जनित्रों पर भी लागू होता है।
जब एक जनरेटर के दौरान एक धारा को प्रेरित किया जाता है, तो इस प्रेरित धारा की दिशा ऐसी होती है कि यह जनरेटर के रोटेशन का विरोध करती है और इसका कारण बनती है (जैसा कि लेनज़ के नियम के अनुसार) और इसलिए जनरेटर को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
जीवनशैली में पाए गए लेन्ज़ के नियम के नमूनों में से एक यह है कि एक चुंबक के दक्षिणी ध्रुव का एक लूप से सन्निकटन, जो उत्पन्न करता है कि प्रेरित वोल्टेज नकारात्मक है और इसके द्वारा उत्पन्न कारण का विरोध करता है|
वर्तमान इसके माध्यम से इस तरह से घूमता है कि लूप चुंबक के आगे एक दक्षिणी ध्रुव की तरह व्यवहार करता है, जिसे उसे पीछे हटाने का प्रयास करना चाहिए।
15. (a) विद्युत-चुम्बकीय प्रेरण क्या हैं ?
(b) दो कुण्डलियाँ A और B एक दूसरे के लम्बवत् चित्रानुसार रखी हैं। यदि किसी एक कुण्डली में धारा में परिवर्तन किया जाए तो क्या दूसरी कुण्डली में धारा प्रेरित होगी ? क्यों ?
उत्तर:
(a) विद्यत-चम्बकीय प्रेरण – फैराडे द्वारा 1831 ई. में जाना गया कि जब किसी बंद कुंडली के सापेक्ष किसी चुम्बक में गति उत्पन्न की जाती है तो बंद कुण्डली में लगे गैलवेनोमापी में विक्षेप होता है, जो उस समय तक रहता है जबतक कि चुम्बक एवं कुण्डली के बीच सापेक्षिक गति वर्तमान होती है। इसके फलस्वरूप कुण्डली में विद्युत वाहक बल तथा विद्युत धारा प्रेरित होती है। अतः किसी बंद कुण्डली और चुम्बक के बीच सापेक्षिक गति के कारण कुण्डली में वि. वा. बल के प्रेरित होने की घटना को विद्युत्-चुम्बकीय प्रेरण कहा जाता है। कुण्डली में उत्पन्न वि. वा. बल को प्रेरित वि. वा. बल तथा उत्पन्न धारा को प्रेरित धारा कहा जाता है।
.
(b) किसी एक कुण्डली में धारा प्रवाहित करने पर उसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय फ्लक्स को दिशा दूसरी कुण्डली के तल के समान्तर होगी। इस स्थिति में एक कुण्डली से अपन्न चुम्बकीय फ्लक्स दूसरी कुण्डली में से होकर नहीं गुजरेगा। अर्थात् एक कुण्डली में विद्युत धारा परिवर्तित करने पर भी दूसरी कुण्डली का चुम्बकीय फ्लक्स परिवर्तित नहीं होता और उसमें प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न नहीं होगा।
16. एक कुण्डली का प्रेरकत्व 2H है, इसमें प्रवाहित धारा का समय के साथ परिवर्तन निम्न ग्राफ में प्रदर्शित है। समय के साथ प्रेरित वि. वा. बल का परिवर्तन आलेखित करो।
हल :
(i) प्रथम दो सेकण्ड में वक्र में धारा शून्य से 6 ऐम्पियर तक बढ़ती है, अतः धारा परिवर्तन की दर
dIdt =62
= 3 ऐमम्पियर/सेकण्ड
अत: प्रथम दो सेकण्ड में प्रेरित वि. वा. बल
= -LdIdt = -2 3
= -6 volt
(ii) 2 सेकण्ड से 5 सेकण्ड के मध्य धारा नियत रहती है अर्थात् dI = 0
= -dIdt = 0
(iii) 5 सेकण्ड से 6 सैकड़ के मध्य धारा 6 ऐम्पियर से शून्य तक घटती है। अत: धारा परिवर्तन की दर
dIdt = 0-61
= -6 ऐम्पियर/सेकण्ड
इस दौरान कुण्डली में प्रेरित वि. वा. बल
= - LdIdt
या = -2 (-6) =12 volt
शून्य से 6 सेकण्ड के मध्य प्रेरित विद्युत वाहक बल को ग्राफ में दर्शाया है-
17. स्वप्रेरण एवं अन्योन्य प्रेरण में अंतर बताइए |
उत्तर: अन्योन्य प्रेरण :-
“जब एक चक्र में धारा बदलने से उसके पास स्थित किसी दूसरे विद्युत चक्र में प्रेरण होता है तो इस घटना को अन्योन्य प्रेरण कहते हैं। जिस परिपथ में धारा बदलती है, उसे प्राथमिक परिपथ और जिसमें प्रेरण होता है, उसे द्वितीयक परिपथ कहते हैं।”
प्राथमिक परिपथ में धारा प्रवाहित करने पर अग्रलिखित घटनाएँ घटित होती हैं-
(i) जब प्राथमिक परिपथ में कुंजी को बन्द किया जाता है तो द्वितीयक परिपथ में धारामापी में क्षणिक विक्षेप उत्पन्न होता है।
(ii) जब तक प्राथमिक परिपथ में अचर धारा बहती है, धारामापी में कोई विक्षेप नहीं आता है।
(iii) यदि प्राथमिक धारा में परिवर्तन किया जाये तो द्वितीयक के धारामापी में उतने समय तक विक्षेप रहता है जब तक धारा के मान में परिवर्तन होता रहता है। धारा परिवर्तन की दर जितनी अधिक होती है, विक्षेप उतना ही अधिक होता है।
(iv) जब कुंजी खोलकर प्राथमिक धारा रोक दी जाती है तो द्वितीयक के धारामापी में पुनः क्षणिक विक्षेप उत्पन्न हो जाता है।
(v) प्राथमिक धारा को प्रारम्भ करते या बढ़ाते समय विक्षेप एक दिशा में और धारा को समाप्त करते या घटाते समय विक्षेप विपरीत दिशा में रहता है।
(vi) यदि दोनों कुण्डलियाँ नर्म लोहे के क्रोड पर लिपटी हों तो द्वितीयक के धारामापी में विक्षेप बहुत बढ़ जाता है।
स्वप्रेरण :-
स्वप्रेरण की घटना की खोज अमेरिकी वैज्ञानिक ‘जोसेफ हेनरी’ ने सन् 1832 में की थी। “किसी चक्र में धारा परिवर्तन के कारण उसी चक्र में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न होने की घटना स्वप्रेरण कहलाती है।” किसी चक्र के इस गुण की तुलना जड़त्व से की जा सकती है। जब किसी कुण्डली युक्त चक्र में धारा बढ़ने पर कुण्डली के चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता बढ़ती है, अत: कुण्डली से गुजरने वाली क्षेत्र रेखाओं की संख्या में वृद्धि होती है। ऐसा होने पर कुण्डली में एक प्रतिकूल विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है जो प्रधान धारा का विरोध करता है। इसलिए प्रधान धारा अपने उच्चतम मान को ग्रहण करने के लिये कुछ समय लेती है (यद्यपि यह नगण्य होता है)। जैसे ही प्रधान धारा अधिकतम मान को प्राप्त कर लेती है, फ्लक्स परिवर्तन समाप्त हो जाता है जिससे प्रेरित विद्युत वाहक बल शून्य हो जाता है। इसी प्रकार परिपथ तोड़ते समय चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की संख्या घटती है अतः समान दिशा में प्रेरित धारा उत्पन्न हो जाती है जो प्रधान धारा को एकदम शून्य नहीं होने देती है।
स्वप्रेरण के कारण ही किसी कुण्डली में धारा न तो एकदम अधिकतम से पाती है ओर न ही एकदम शून्य हो पाती है। जिस स्थान पर परिपथ टूटता है, उस स्थान पर दोनों बिन्दुओं के मध्य यह प्रेरित धारा विभवान्तर उत्पन्न कर देती है जो इतना अधिक हो सकता है कि दोनों बिन्दुओं के मध्य विद्युत प्रवाह को हवा का पृथक्कारी गुण न रोक सके और धारा वास्तव में प्रवाहित हो जाये। इस धारा प्रवाह से उत्पन्न ऊष्मा चिनगारी के रूप में देखी जा सकती है। इस प्रकार स्वप्रेरण के कारण मुख्य धारा की वृद्धि और पतन दोनों का समय बढ़ जाता है, लेकिन समय की यह वृद्धि परिपथ
को तोड़ने की अपेक्षा जोड़ने के समय अधिक होती है क्योंकि तोड़ने की स्थिति में प्रेरित धारा को विद्युत चक्र पूर्ण नहीं मिलता है।
18. प्रेरकत्व की परिभाषा क्या है? यदि किसी प्रेरकत्व में धारा का मान दुगुना कर दिया जाए तो संग्रहीत ऊर्जा कितने गुना हो जाएगी ?
उत्तर: प्रेरकत्व :-
प्रेरकत्व एक विद्युत कंडक्टर की प्रवृत्ति है जो इसके माध्यम से बहने वाले विद्युत प्रवाह में परिवर्तन का विरोध करता है। विद्युत धारा का प्रवाह चालक के चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। क्षेत्र की ताकत करंट के परिमाण पर निर्भर करती है, और करंट में किसी भी बदलाव का अनुसरण करती है।
प्रेरकत्व का SI मात्रक हेनरी है।
किसी कुण्डली में संग्रहीत चुम्बकीय ऊर्जा
U = 12 LI2
यदि धारा का मान दुगुना कर दिया जाए तो
U’ =12 L2I2
= 4 12 LI2
U’ =4U
अतः संग्रहीत ऊर्जा का मान चार गुना होगा।
19. प्रेरित विद्युत वाहक बल से क्या तात्पर्य है ? वर्णन कीजिए |
उत्तर: प्रेरित विद्युत वाहक बल – माना कि एक अल्प समयान्तराल dt में परिपथ से गुजरने वाले चुम्बकीय फ्लक्स में dθ परिवर्तन होता है तो फैराडे के विद्युत-चुम्बकीय प्रेरण के द्वितीय नियम से परिपथ में प्रेरित वि. वा. बल,
e = ∝ ddt (चुम्बकीय फ्लक्स-परिवर्तन की समय-दर)
या, e = Kddt जहाँ K एक नियतांक है।
विद्युत चुम्बकीय मात्रक में K का मान एकांक है। अतः e =ddt
चुम्बकीय फ्लक्स के मान को घटाने पर dφ का मान ऋणात्मक होता है तथा परिपथ में सरल वि. वा. बल प्रेरित होता है, जिसका चिह्न धनात्मक लिया जाता है। अतः जब परिपथ में चुम्बकीय फ्लक्स के घटने पर प्रेरित विद्युत वाहक बल
- e =ddt
या e =-ddt है।
चुम्बकीय फ्लक्स के मान घटने पर dφ धनात्मक होता है तथा परिपथ में प्रतिलोमी वि. वा. बल प्रेरित होता है, जिसका चिह्न ऋणात्मक लिया जाता है।
अतः जब परिपथ से चुम्बकीय फ्लक्स के बढ़ने पर प्रेरित विद्युत् वाहक बल
- e =ddt
या e =- ddt होता है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि परिपथ का चुम्बकीय फ्लक्स घटे या बढ़े, प्रेरित वि. वा. बल का मान चुम्बकीय फ्लक्स के परिवर्तन के समय दर के समानपाती होता है और चिह्न (दिशा) में फ्लक्स परिवर्तन के चिह्न के विपरीत होता है।
20 . स्वप्रेरण से क्या आशय हैं ? 1000 फेरों वाली एक कुण्डली में 2.5 ऐम्पियर की दिष्ट धारा प्रवाहित करने पर कुण्डली से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स 1.4 x 10-4 वेबर है। कुण्डली का प्रेरकत्व क्या है?
उत्तर: स्वप्रेरण – किसी कुण्डली या परिपथ में प्रवाहित धारा की प्रबलता के बदलने से उसके भीतर का चुम्बकीय क्षेत्र भी बदलता है जिससे कुण्डली में एक अतिरिक्त विद्युत वाहक बल प्रेरित होता है, जिसे स्वप्रेरण कहा जाता है । दूसरे शब्दों में, अपने ही धारा के कारण कुण्डली में वि. वा. बल का उत्पन्न होना स्वप्रेरण कहलाता है।
माना कि एक कुण्डली एक बैटरी तथा एक टेपिंग कुन्जी K से जुड़ी है। कन्जी K को दबाने पर धारा कण्डली द्वारा प्रवाहित होना शुरू होती है तथा उसमें चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है । लपेटों में, जो कुण्डली में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न करते हैं, की दिशा परिपथ में धारा की वृद्धि के विपरीत होती है। दूसरी तरफ जब कुन्जी को छोड़ने पर परिपथ में धारा का अपक्षय होना शुरू हो जाता है तथा घटते हुए चुम्बकीय क्षेत्र कुण्डली में उत्पन्न हो जाता है तथा उत्पन्न वि. वा. बल परिपथ में धारा के अपक्षय का विरोध करती है। इस प्रकार धारा की वृद्धि तथा अपक्षय, दोनों समय कुण्डली में हैं। स्वप्रेरण को विद्युत चुम्बकीय जड़त्व भी कहा जाता है।
हल : - L = Ni
L = 1.410-42.5 हेनरी ∵ N = 1.4 10-4
L = 5.6105 हेनरी
21. भँवर धाराएँ किसे कहते हैं ? इनके उपयोग तथा हानि बताइए |
उत्तर: भँवर धराएँ :-
जब किसी बन्द परिपथ से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है तो परिपथ में एक विद्युत वाहक बल उत्पन्न होता है जिससे परिपथ में प्रेरित धारा बहने लगती है। सन् 1895 में वैज्ञानिक फोको ने यह ज्ञात किया कि प्रेरण की घटना तब भी घटित होती है जब किसी भी आकृति के चालक से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है। उन्होंने देखा कि जब किसी भी आकृति अथवा आकार के चालक को किसी चुम्बकीय क्षेत्र में चलाया जाता है। अथवा उसे परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र में रखा जाता है तो चालक से बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होने से चालक के सम्पूर्ण आयतन में प्रेरित धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो चालक की गति का विरोध करती हैं। ये प्रेरित धाराएँ जल में उत्पन्न भँवर के समान चक्करदार होती हैं, अत: इन्हें भँवर धाराएँ’ कहते हैं। आविष्कारक के नाम पर इन्हें ‘फोको धाराएँ’ भी कहते हैं।
भँवर धाराओं के उपयोग :-
भँवर धाराओं का उपयोग निम्न प्रकार से किया जाता है।
1.रूढ़धोल धारामापी में :- चल कुंडली धारामापी में जब धारा प्रवाहित की जाती है तो कुंडली के विक्षेपित होने से साम्य अवस्था में आने में कुछ समय लेती है। अतः तांबे की फ्रेम पर तार लपेटकर कुंडली बनाई जाती है जिस पर चुंबकीय क्षेत्र में घूर्णन करने से इसमें भँवर धाराएं उत्पन्न होती हैं जो विद्युत चुंबकीय अवमंदन के कारण कुंडली को शीघ्र साम्यावस्था में ले आती है।
2.विद्युत रेलगाड़ियों के ब्रेक में :- विद्युत रेलगाड़ियों को रोकने के लिए इन घूमते हुए डर्मो पर चुंबकीय क्षेत्र लगाने से इनमें प्रबल भँवर धाराएं उत्पन्न होती हैं। जो ड्रम की गति का विरोध करती हैं और रेल गाड़ी में ब्रेक लगते हैं।
3. चिकित्सा के क्षेत्र में रोगों के उपचार के लिए भँवर धाराओं का उपयोग किया जाता है।
4. प्रेरण भट्टी में भँवर धाराओं का उपयोग किया जाता है। इसमें धातु को प्रबल परिवर्ती चुम्बकीय क्षेत्र में रख दिया जाता है जिससे धातु में प्रबल भँवर धाराएँ उत्पन्न होकर इतनी ऊष्मा उत्पन्न करती है कि धातु पिघल जाती है।
भँवर धाराओं से हानि :-
भँवर धाराओं के कारण ऊर्जा का ह्रास होता है तथा ऊष्मा के रूप में ऊर्जा बाहर निकल जाती है। इस ह्रास से बचने के लिए नरम लोहे की पतली पोलिस युक्त पतिया लेकर डायनेमो या ट्रांसफॉर्मर की क्रोड का निर्माण किया जाता है।
22. ए०सी० जनित्र की रचना एवं कार्यविधि समझाइए। दिष्ट धारा की तुलना में प्रत्यावर्ती धारा के क्या लाभ हैं जिनके कारण अब आमतौर पर प्रत्यावर्ती धारा ही प्रयोग की जाती है?
उत्तर: प्रत्यावर्ती धारा जनित्र अथवा डायनमो :-
विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की क्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग विद्युत जनित्र अथवा डायनमो में किया गया है। यह एक ऐसी विद्युत चुम्बकीय मशीन है जिसके द्वारा यान्त्रिक ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा में बदला जाता है। प्रत्यावर्ती धारा को उत्पन्न करने के लिये प्रत्यावर्ती-धारा डायनमो तथा दिष्ट धारा को उत्पन्न करने के लिए दिष्ट-धारा डायनमो का उपयोग होती है।
सिद्धान्त- जब किसी बन्द कुण्डली को चुम्बकीय क्षेत्र में तेजी से घुमाया जाता है तो उसमें से गुजरने वाली फ्लक्स-रेखाओं की संख्या में लगातार परिवर्तन होता रहता है। जिसके कारण कुण्डली में वैद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। कुण्डली को घुमाने में जो कार्य करना पड़ता है (अर्थात् यान्त्रिक ऊर्जा व्यय होती है) वही कुण्डली में वैद्युत ऊर्जा के रूप में प्राप्त होता है।
रचना- इसके तीन मुख्य भाग होते हैं-
(i) क्षेत्र चुम्बक - यह एक शक्तिशाली चुम्बक NS होता है। इसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल रेखाएँ चुम्बक के ध्रुव N से S की ओर होती हैं।
(ii) आर्मेचर - चुम्बक के ध्रुवों के N बीच में पृथक्कृत ताँबे के तारों की एक कुण्डली ABCD होती है, जिसे आर्मेचर कुण्डली कहते सर्दी-वलय हैं। कुण्डली कई फेरों की होती है तथा ध्रुवों के बीच क्षैतिज अक्ष पर जल के टरबाइन से घुमाई जाती है।
(iii) सप वलय तथा ब्रुश - कुण्डली के सिरों का सम्बन्ध अलग-अलग दो ताँबे के छल्लों से होता है जो आपस में एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते और कुण्डली के साथ उसी अक्ष पर घूमते हैं। इन्हें ‘सप वलय’ कहते हैं। इन छल्लों को दो कार्बन की ब्रुश X तथा ? स्पर्श करती रहती हैं। ये ब्रुश स्थिर रहती हैं तथा छल्ले इन ब्रुशों के नीचे फिसलते हुए घूमते हैं। इन ब्रुशों का सम्बन्ध उस बाह्य परिपथ से कर देते हैं जिसमें वैद्युत धारा भेजनी होती है।
क्रिया- जब आमेचर-कुण्डली ABCD घूमती है तो कुण्डली में से होकर जाने वाली फ्लक्स-रेखाओं की संख्या में परिवर्तन होता है। अत: कुण्डली में धारा प्रेरित हो जाती है। मान लो कुण्डली दक्षिणावर्त (clockwise) दिशा में घूम रही है तथा किसी क्षण क्षैतिज अवस्था में है । इस क्षण कुण्डली की भुजा AB ऊपर उठ रही है तथा भुजा CD नीचे आ रही है। फ्लेमिंग के दायें हाथ के नियम अनुसार, इन भुजाओं में प्रेरित धारा की दिशा वही है जो चित्र में दिखाई गई है। अत: धारा ब्रुश X से बाहर जा रही है (अर्थात् यह ब्रुश धन ध्रुव है) तथा ब्रुश Y पर वापस आ रही है (अर्थात् यह ब्रुश ऋण ध्रुव है)। जैसे ही कुण्डली अपनी ऊध्र्वाधर स्थिति से गुजरेगी, भुजा AB नीचे की ओर आने लगेगी तथा CD ऊपर की ओर जाने लगेगी। अतः अब धारा ब्रुश Y से बाहर जायेगी तथा ब्रुश X पर वापस आयेगी। इस प्रकार आधे चक्कर के बाद बाह्य परिपथ में धारा की दिशा बदल जायेगी। अत: परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा’ उत्पन्न होती है।
प्रत्यावर्ती धारा की-दिष्ट-धारा की तुलना में उपयोगिता आजकल घरेलू व औद्योगिक कार्यों में प्रत्यावर्ती धारा का ही उपयोग होता है क्योंकि दिष्ट-धारा की तुलना में इसके निम्न लाभ हैं|
(i) प्रत्यावर्ती धारा को पावर हाऊस से किसी स्थान पर ट्रांसफॉर्मर की सहायता से उच्च वोल्टेज पर भेजा जा सकता है तथा वहाँ इसे पुन: निम्न वोल्टेज पर लाया जा सकता है। इस प्रकार भेजने में लागत भी कम आती है तथा ऊर्जा ह्रास भी बहुत घट जाता है। ट्रांसफॉर्मर का उपयोग दिष्ट-धारा के लिए नहीं किया जा सकता। अत: दिष्ट-धारा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने में ऊर्जा ह्रास भी होता है तथा लागत भी अधिक आती है।
(ii) प्रत्यावर्ती धारा को चोक-कुण्डली द्वारा बहुत कम ऊर्जा ह्रास पर नियन्त्रित किया जा सकता है, जबकि दिष्ट-धारा ओमीय प्रतिरोध द्वारा ही नियन्त्रित की जा सकती है जिसमें अत्यधिक ऊर्जा ह्रास होता है।
(iii) प्रत्यावर्ती धारा वाले यन्त्र; जैसे-वैद्युत मोटर, दिष्ट-धारा वाले यन्त्रों की तुलना में सुदृढ़ व सुविधाजनक होते हैं।
(iv) जहाँ दिष्ट धारा की आवश्यकता होती है (जैसे—विद्युत अपघटन में, संचायक सेलों को आवेशित करने में, वैद्युत चुम्बक बनाने में) वहाँ दिष्टकारी द्वारा प्रत्यावर्ती धारा को सुगमता से | दिष्ट-धारा में बदल लिया जाता है।
23. विद्युत चुंबकीय प्रेरण की घटनाओ का वर्णन करें | फैराडे की विद्युत चुंबकीय प्रेरण के नियम बताइए |
उत्तर:
विद्युत चुंबकीय प्रेरण की घटनाएं :- विद्युत चुंबकीय प्रेरण की निम्न घटनाएं हैं।
संगीतकार द्वारा मनोरंजन के लिए उपयोग में ली जाने वाली विद्युत गिटार भी इसी सिद्धांत पर कार्य करती है।
प्रेरण भट्टी भी इसी सिद्धांत पर कार्य करती है। प्रेरण भट्टी में धातुओं को सुरक्षित रूप से शीघ्र गलाने में प्रयोग किया जाता है।
रसोई घरों में प्रेरण चूल्हे में भी विद्युत चुंबकीय प्रेरण का सिद्धांत उपयोग में होता है।
हमारे घरों तथा अन्य स्थलों पर विद्युत ऊर्जा आपूर्ति के लिए विद्युत उत्पादन में भी काम आने वाले विद्युत जनित्र चुंबकीय प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करते हैं।
फैराडे की विद्युत चुंबकीय प्रेरण के नियम :- फैराडे ने अपने प्रयोगों के आधार पर विद्युत चुंबकीय प्रेरण से संबंधित निम्न दो नियम दिए।
प्रथम नियम :- जब किसी बंद परिपथ से संबद्ध चुंबकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है तो परिपथ में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न होता है। तथा इस प्रेरित विद्युत वाहक बल के कारण प्रेरित धारा उत्पन्न होती है।
यह विद्युत वाहक बल तब तक रहता है जब तक चुंबकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है।
दूसरा नियम :- किसी परिपथ में प्रेरित विद्युत वाहक बल चुंबकीय फ्लक्स में परिवर्तन की दर के बराबर होता है।
अर्थात यदि प्रेरित विद्युत वाहक बल (e/€) हो तो
e= -dɸ/dt
यदि कुंडली में फेरो की संख्या N हो तो प्रेरित विद्युत वाहक बल
e= -Ndɸ/dt
चुंबकीय फ्लक्स में परिवर्तन निम्न तीन प्रकार से हो सकता है।
कुंडली में उपस्थिति चुंबकीय क्षेत्र को बदल कर या परिवर्तित करके।
कुंडली के क्षेत्रफल में परिवर्तन करके।
कुंडली को चुंबकीय क्षेत्र में घूर्णन करवाकर।
24. लेंज के नियम की व्याख्या कीजिए |
उत्तर: लेज का नियम : -
फैराडे के नियम से प्रेरित वि. वा. बल का परिमाण ज्ञात होता है। परन्तु प्रेरित वि. वा. बल या प्रेरित धारा की दिशा लेंज के नियम से ज्ञात की जाती है। लेन्ज के नियमानुसार, “विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की प्रत्येक अवस्था में किसी परिपथ में प्रेरित वि. वा. बल एवं प्रेरित विद्युत धारा की दिशा सदैव इस प्रकार होती है कि वह उस कारण का विरोध करती है। जिसके कारण उसकी उत्पत्ति हुई है।”
अत: फैराडे व लेन्ज के नियम से
ε=−dBdt
एवं कुण्डली में N फेरे हो तो
ε=−NdBdt
अतः स्पष्ट है कि यदि परिपथ में चुम्बकीय फ्लक्स का मान बढ़ता है तो प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार होगी कि उससे उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा मूल क्षेत्र रेखाओं की दिशा के विपरीत होती है। इसी प्रकार यदि परिपथ में चुम्बकीय फ्लक्स का मान घटता है तो प्रेरित धारा की दिशा इस प्रकार होगी कि उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र रेखाओं की। दिशा मूल क्षेत्र रेखाओं की दिशा में होती है।
लेंज का नियम में ऊर्जा संरक्षण :-
लेंज का नियम ऊर्जा संरक्षण पर आधारित है। जब किसी चुंबक का उत्तरी ध्रुव कुंडली के पास लाते हैं तो कुंडली में बहने वाली धारा की दिशा वामावर्त होती है। तो कुंडली का यही सिरा उत्तरी ध्रुव की तरह व्यवहार करता है जो चुंबक के उत्तरी ध्रुव के पास आने का विरोध करता है
यदि यह उत्तरी ध्रुव न बनकर दक्षिणी ध्रुव बनता है तो कुंडली मैं प्रति कृष्ण के स्थान पर आकर्षण होता है वह चुंबक कुंडली की ओर त्वरित होती है। जिससे त्वरण बढ़ने के साथ कुंडली में धारा बढ़ती है तथा अल्प कार्य से ही पूजा में बहुत अधिक वृद्धि कर सकते हैं जो कभी संभव नहीं है।
अतः चुंबक को कुंडली के पास लाने के लिए प्रतिकर्षण के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है। यह कार्य विद्युत वाहक बल के रूप में प्राप्त होता है बाद में यही कार्य उसमें ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। अतः लेन्ज के नियम में ऊर्जा संरक्षण के नियम की पालना होती है।
25. चुंबकीय फ्लक्स क्या है, एक कुण्डली से बढ़ चुम्बकीय फ्लक्स 0.1 सेकण्ड में 10 वेबर से 1 वेबर कर दिया जाता है। कुण्डली में प्रेरित विद्युत वाहक बल का मान बताइए।
उत्तर :- चुंबकीय फ्लक्स: -
यदि किसी एकसमान चुंबकीय क्षेत्र के लम्बवत् कोई तल लेते हैं तो चुंबकीय क्षेत्र B तथा तल के क्षेत्रफल A के स्केलर गुणनफल को चुंबकीय फ्लक्स कहते हैं। चुंबकीय फ्लक्स को Bसे प्रदर्शित करते हैं। तो
B = BA
चुंबकीय फ्लक्स एक अदिश राशि है। यहां B तथा A के बीच कोण शून्य है।
यदि चुंबकीय क्षेत्र पृष्ठ खींचे गए लंब से θ कोण बनाता है तो चुंबकीय फ्लक्स
B=BAcosθ
हल : -
कुण्डली में प्रेरित विद्युत वाहक बल e = -t
e = -1-100.1
e = 90.1 = 90 वोल्ट